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सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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शुक्रवार, 10 मई 2013

दिवाकर ए. पी. पाल


आज फ़िर जीने की ख्वाहिश जागी है;
आज फ़िर एक सुहाना ख्वाब देखा था.

सुबह के धुंधलके में, लालिम रोशनी के साथ;
एक नई मंज़िल का साथ देखा था.

एक पुराना मर्ज़ था, सीने में दबा-सा;
उसका ही खातिब, इलाज़ देखा था.

मरासिमों के फ़ंदे, घुटन दे रहे थे;
मरासिमों से खुद को आज़ाद देखा था.

सेहर नया है, नई इक सोच है;
इस सोच से मुखातिब, खुद को एक बार देखा था.

आज फ़िर जीने की ख्वाहिश जागी है,
आज फ़िर एक सुहाना ख्वाब देखा था..