१
छलकतीं छवियाँ, छलकता मन का पैमाना नहीं,
यों गुजर
जाते सगे जैसे कि पहचाना नहीं ।
करता रहता है वो तनहाई से अपनी गुफ्तगू
कैद
है खुद में, कहीं आना नहीं, जाना नहीं ।।
२
हाय कैसे थे सुहाने, याद वे
आते हैं दिन,
मारता जब आज ठोकर बहुत गुहराते हैं दिन ।
लोग जाते हैं चले
उसको अकेला छोडकर,
चुपके चुपके आ कहीं से बैठ बतियाते हैं दिन ।।
३
लाल पैदा हुआ आखिर आँख का तारा हुआ,
हँस उठा घर बेटियों के जन्म का मारा
हुआ ।
ख्वाब कितने थे बुढापे के सहारे के, मगर,
हो गया बेटा विदेशी, बाप
बनजारा हुआ ।।
४
ऊबड़ खाबड़ सड़क और उसमें भर कीच रहा था,
पैडिल पर
थे पाँव फिसलते मुट्ठी भींच रहा था।
नन्हे पोतों की रोटी का ख्वाब भरा था मन
में,
झुकी कमर थी, बुझी आँख थी, रिक्शा खींच रहा था ।।
५
दिन उगा,
घर के लिए वह बोझ सा लगने लगा,
ताश के पत्तों का सुख फिर पार्क में जगने लगा ।
शाम तक जाने न कितने दर्द मिल हँसते रहे,
फिर अँधेरा उन्हें अपने रंग में
रँगने लगा ।।
६
रात घिर आई जगत की आपसी पहचान में,
मैं रहा तनहा
टहलता पास के उद्यान में ।
रहा जो दिन भर दबा झूठी हँसी में ताश की,
दर्द
वह अब सिसकियाँ भरने लगा सुनसान में ।।
७
चलते चलते ठहर गया मैं लगा
कि कोई बोल रहा है,
मैंने देखा एक फूल है जो रह रह मुँह खोल रहा है ।
‘सुनो’ कहा उसने वसंत है फूला हूँ लेकिन जो दिन भर
पतझर झरता रहा दर्द वह
मेरे भीतर डोल रहा है ।।
८
बूढा मैं भी हुआ मगर उसकी अनुभूति नहीं
होती है,
शिथिल हुआ तन लेकिन मन में दीप्त सर्जना का मोती है ।
कथा अभी भी
जुड जाती है आसपास के कोलाहल से,
कविता अब भी दुनिया के संग हँसती है गाती रोती
है ।।
९
कुर्सी पर थे मदमाते लोगों पर आग बरसते थे,
जब कुर्सी से
मुक्त हुए लोगों के लिए तरसते थे ।
सोचा शेष यात्र में कविता के संग हो लूँ,
लेकिन
अब कविता उन पर हँसती, तब वे कविता पर हँसते थे ।।
१०
अपने
घर लौटे तो वे घर में पराये हो गये,
सहचरी थी साथ, इक दूजे के साये हो गये ।
चली वह भी गई इक दिन, वे अकेले थे खडे,
लोग घर के छोड उनको दायें बायें हो
गये ।।
११
विषय पंथ पर बहुत चल चुका अब तो उसे ठहर जाने
दो,
पतझर के पत्तों सा उसके अरमानों को झर जाने दो ।
खेला कूदा, नाचा गाया,
जीता हारा, लिया दिया,
बहुत थक गया है परदेशी अब तो उसको घर जाने दो ।।
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१
बीच पतझर के बसंती सृजन का उल्लास हूँ
बोल कुछ पाता
न जो उस दर्द का अहसास हूँ
भटकते फिरते हो घर से दूर मेरी खोज में
प्यार से
देखो जरा मैं तो तुम्हारे पास हूँ।
२
वे कहते—‘क्यों गेरुआ नहीं’, वे
कहते—‘क्यों न लाल हूँ मैं?
वे कहते—‘क्यों मैं ठंडा हूँ’, वे कहते—‘क्यों उबाल
हूँ मैं?’
मैं हूँ अदीब, मुझ पर न चढ़ा कोई भी रंग सियासत का
सत्य के रंग में
रँगा हुआ, इनसे उनसे सवाल हूँ मै
३
फसलें उदास फागुनी बोली बयार
से
‘हम देख रही हैं तुम्हें कहना बहार से’
बोली बयार—‘आई थी, आकर है रम
गई
आने लगी है अब तो वो दिल्ली में कार से।’
४
जाएँगे हम यहाँ से
कहाँ, जानते नहीं
कहते हैं जिसे सच उसे पहचानते नहीं
पर जी रहे हैं जिसको
विविध रूप-रंग में
उस जिंदगी को सत्य हाय मानते नहीं।
५
सागर में
रहे, जलते रहे फिर भी प्यास में
सुख से लदे हुए रहे सुख की तलाश में
कितना तो
चैन मिल रहा है छाँह में घर की
है लग रहा कि माँ कहीं बैठी है पास
में।
६
ज्वाला में जले, शीत में हिम के तले गए
हर राह में लाचार सफर
की छले गए
आए थे एक जिंदगी जीने जहान में
खाकर हजार ठोकरें असमय चले
गए।
७
स्कूल तक का रास्ता ही रास्ता होता नहीं है
हो गया असफल यहाँ
तो शेर दिल रोता नहीं है
राह चुन लेता है कोई और जीवन की, विहँसकर
मौत के
आगोश में निरुपाय हो सोता नहीं है।
८
राहें हैं बहुत दोस्त, जिंदगी ये
सफर है
छूटी जो इधर एक तो दूजी तो उधर है
गर टूट गया ख्वाब एक दूसरा
देखो
हर रात में पोशीदा कहीं एक सहर है।
९
कितना अच्छा होगा वह दिन
जिस दिन घायल प्यार न होगा
मन का कोई हास हाट में बिकने को लाचार न होगा
गले
मिलेगी हर मजहब से उठकर इनसानों की बोली
सुबह-सुबह कितने जख्मों से लदा-फदा
अखबार न होगा।
१०
ख्वाबों में सही पास जरा आ मेरे बचपन
खेतों में जो
गाया था, वही गा मेरे बचपन
फिर भेंट हो कि न हो यह छाया है शाम की
अपनी हँसी
सुबह सी सुना जा मेरे बचपन।