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सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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बुधवार, 8 मई 2013

दिनेश रघुवंशी


:जन्म-अगस्त 26, 1964,ग्राम ख़ैरपुर, ज़िला बुलन्दशहर ( उत्तर प्रदेश),प्रकाशित कृतियाँ:आसमान बाक़ी है (ग़ज़ल संग्रह),दो पल (ग़ज़ल संग्रह),बच्चे बात नहीं करते (ग़ज़ल संग्रह),अनकहा इससे अधिक है (गीत संग्रह)

१.




जिनके हिस्से अपनी माँ की लोरियाँ आती नहीं
उनके सपनों में भी परियाँ, तितलियाँ आती नहीं


नींव पर जो स्वार्थ की चुनते गये, बुनते गये
ऐसे रिश्तों में कभी नज़दीकियाँ आती नहीं


मेरी इन आँखों के आँसू जानते हैं बात ये
मेरी पलकों तक किसी की उंगलियाँ आती नहीं


एक मुद्दत से मुझे तुम याद करते हो कहाँ
एक मुद्दत से मुझे अब हिचकियाँ आती नहीं


कौन-सा है घर जहाँ पर लोरियाँ गूंजी न हों
कौन-सा है घर जहाँ से सिसकियाँ आती नहीं


2.

किसी से बात कोई आजकल नहीं होती
इसीलिए तो मुक़म्म्ल ग़ज़ल नहीं होती


ग़ज़ल-सी लगती है लेकिन ग़ज़ल नहीं होती
सभी की ज़िंदगी खिलता कँवल नहीं होती


तमाम उम्र तज़ुर्बात ये सिखाते हैं
कोई भी राह शुरु में सहल नहीं होती


मुझे भी उससे कोई बात अब नहीं करनी
अब उसकी ओर से जब तक पहल नहीं होती


वो जब भी हँसती है कितनी उदास लगती है
वो इक पहेली है जो मुझसे हल नहीं होती


3.

इक मुसलसल सफ़र में रहता हूँ
ये मैं किसके असर में रहता हूँ


मुझको ये बेख़ुदी कहाँ लाई
अब मैं सबकी नज़र में रहता हूँ


जब भी सोचूँ मैं कुछ तुझे लेकर
एक अनजाने डर में रहता हूँ


देवता होता तो निकल पाता
आदमी हूँ, भँवर में रहता हूँ


घर की दुनिया से कुछ नहीं अच्छा
घर से बाहर भी घर में रहता हूँ


4.

लगने लगी हैं दिल को यूँ अच्छी उदासियाँ
चलती हैं साथ हौसला देती उदासियाँ


इक रोज़ ज़िन्दगी से यूँ बोली उदासियाँ
हर आदमी के साथ हैं उसकी उदासियाँ


ये कौन दे गया हमें इतनी उदासियाँ
हर इक ख़ुशी के साथ हैं लिपटी उदासियाँ


कुछ से ख़ुदा ने दूर ही रक्खी उदासियाँ
कुछ को ख़ुदा ने सौंप दीं कितनी उदासियाँ


वो शख़्स जो उदासियाँ को जानता न था
उसको सभी ने सौंप दीं अपनी उदासियाँ


5.

ओस की बूँदें पड़ीं तो पत्तियाँ ख़ुश हो गईं
फूल कुछ ऐसे खिले कि टहनियाँ ख़ुश हो गईं


बेख़ुदी में दिन तेरे आने के यूँ ही गिन लिये
एक पल को यूँ लगा कि उंगलियाँ ख़ुश हो गईं


देखकर उसकी उदासी, अनमनी थीं वादियाँ
खिलखिलाकर वो हँसा तो वादियाँ ख़ुश हो गईं


आँसुओं में भीगे मेरे शब्द जैसे हँस पड़े
तुमने होठों से छुआ तो चिट्ठियाँ ख़ुश हो गईं


साहिलों पर दूर तक चुपचाप बिखरी थीं जहाँ
छोटे बच्चों ने चुनी तो सीपीयाँ ख़ुश हो गईं


6.
मेरा कितना ख़्याल रक्खा है
उसने ख़ुद को संभाल रक्खा है


दर्द से दोस्ती है बरसों की
दर्द सीने में पाल रक्खा है


मेरी दरियादिली ने ही मुझको
गहरे दरिया में डाल रक्खा है


उसने मुश्क़िल का हल बताने में
और मुश्क़िल में डाल रक्खा है


घर की बढ़ती ज़रुरतों ने उसे
घर से बाहर निकाल रक्खा है

7.
 अपनी आवाज़ ही सुनूँ कब तक
इतनी तन्हाई में रहूँ कब तक

इन्तिहा हर किसी की होती है
दर्द कहता है मैं उठूँ कब तक


मेरी तक़दीर लिखने वाले, मैं
ख़्वाब टूटे हुए चुनूँ कब तक


कोई जैसे कि अजनबी से मिले
ख़ुद से ऐसे भला मिलूँ कब तक


जिसको आना है क्यूँ नहीं आता
अपनी पलकें खुली रखूँ कब तक


8.

गहरी प्यास को जैसे मीठा जल देते तुम बाबूजी
जीवन को सारे प्रश्नों के हल देते तुम बाबूजी


सबके हिस्से शीतल छाया, अपने हिस्से धूप कड़ी
गर होते तो काहे ऐसे पल देते तुम बाबूजी


माँ तो जैसे– तैसे रुखे-सूखे टुकड़े दे पाई
गर होते तो टॉफ़ी, बिस्कुट, फल देते तुम बाबूजी


अपने बच्चों को अच्छा– सा वर्तमान तो देते ही
जीवन भर को एक सुरक्षित कल देते तुम बाबूजी


काश तरक्की देखी होती अपने नन्हे-मुन्नों की
फिर चाहे तो इस दुनिया से चल देते तुम बाबूजी


9.

मिलते हैं पर मिल के बात नहीं करते
करते हैं तो दिल से बात नहीं करते


पहले वक़्त नहीं था बच्चों की ख़ातिर
वक़्त मिला अब बच्चे बात नहीं करते


ख़ुद से ही बतियाता रहता है अक्सर
उसके अपने उससे बात नहीं करते


उसने कितनी बातें की थीं अपनों से
अब कहता है अपने बात नहीं करते


पैसा, पैसा, पैसा, करने वाले सुन
इंसानों से पैसे बात नहीं करते