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सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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रविवार, 12 मई 2013

सुष्मा भण्डारी के दोहे


महानगर में हो रहीं, हत्याएं हर रोज | 
खोजी दस्ता कर रहा ,दिल –ओं-जाँ से खोज || 

समझो तो में आग हूँ ,समझो तो में नीर | 
होलिका बन में जली, समझो मेरी पीर || 

आदर्शो को घुन लगा ,झुलसे सारे मोल | 
मानवता को मारकर, बजा रहे सब ढोल || 

आयाओं की गोद में ,खेल रहे हैं लाल | 
खुद ही लुट कर के कहें, हम है मालामाल || 

दु:शासन लाखों हुए ,कृष्ण हुआ न एक | 
पांचाली की लाज पर, बुरी नजर की रेख || 

जब से भीतर हो गए ,दुनिया के सब ठाठ | 
तब से बाहर हो गयी, माँ-बाबा की खाट || 

अखबारों की सुर्खिया, पढकर सिहरी खाल | 
कैसा जीवन हो गया, जीना हुआ मुहाल ||