महानगर में हो रहीं, हत्याएं हर रोज |
खोजी दस्ता कर रहा ,दिल –ओं-जाँ से खोज ||
समझो तो में आग हूँ ,समझो तो में नीर |
होलिका बन में जली, समझो मेरी पीर ||
आदर्शो को घुन लगा ,झुलसे सारे मोल |
मानवता को मारकर, बजा रहे सब ढोल ||
आयाओं की गोद में ,खेल रहे हैं लाल |
खुद ही लुट कर के कहें, हम है मालामाल ||
दु:शासन लाखों हुए ,कृष्ण हुआ न एक |
पांचाली की लाज पर, बुरी नजर की रेख ||
जब से भीतर हो गए ,दुनिया के सब ठाठ |
तब से बाहर हो गयी, माँ-बाबा की खाट ||
अखबारों की सुर्खिया, पढकर सिहरी खाल |
कैसा जीवन हो गया, जीना हुआ मुहाल ||