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सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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गुरुवार, 16 मई 2013

डॉ॰ सूर्या बाली "सूरज"


जन्म तिथि : 1 अगस्त 1972,रचना संसार:“धड़कन”-1997 मे प्रकाशित कविता संग्रह,“काव्य संगम”-2002 मे प्रकाशित गीत, ग़ज़ल एवं कविता संग्रह,संप्रति: आल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज़ (एम्स) भोपाल में एसोशिएट प्रोफेसर. 
ई-मेल:drsuryabali@yahoo.com,पेज:
(http://drsuryabali.com/index) इनके बारे में पूरी जानकारी यहाँ है.



१.

कटेगी सिर्फ़ दिलासों से ज़िंदगी कब तक।
रहेगी लब पे ग़रीबों के खामुशी कब तक॥
वरक़ पे आने को बेताब हो रहा है अब,
रहेगा हाशिये पे आम आदमी कब तक॥
न जाने कब ये बुराई का सिर क़लम कर दें,
सहेंगे लोग सियासत की गंदगी कब तक॥
मुझे डराएगा अब और कब तलक दुश्मन,
रहेगी खौफ़ के साये में हर खुशी कब तक॥
दमक रही है उजालों से शहर की बस्ती,
न जाने पहुंचेगी गाँवों में रौशनी कब तक॥
के माना दौरे-अमीरी है शानदार बहुत,
घुटन के दौर से निकलेगी मुफ़लिसी कब तक॥
ख़ुदा तलाश करो आएगा नज़र दिल में,
करोगे मील के पत्थर की बंदगी कब तक॥
शहीद होते रहें, मसअले का हल तो नहीं,
निभाई जाएगी सरहद पे दुश्मनी कब तक॥
निकल तो आयेगा “सूरज” भी सुब्ह होने तक,
अमीरे शहर बचाएगा चाँदनी कब तक॥
२.
चला जाता वो देखो मुझसे दूर आहिस्ता1 आहिस्ता।
हुआ है शीश-ए-दिल2 चूर चूर आहिस्ता आहिस्ता॥

वो जब मिलता है मुझसे पूछता है ख्वाहिशें3 मेरी,
मगर मैं टाल जाता हूँ हुज़ूर आहिस्ता आहिस्ता॥

निगाहें जब से मेरी चार उससे हो गयी यारों,
के चढ़ता जा रहा मुझपे सुरूर4 आहिस्ता आहिस्ता॥

उठा जाता नहीं है मौत के बिस्तर से फिर भी मैं,
बुलाओगे तो आऊँगा ज़रूर आहिस्ता आहिस्ता॥

ज़मीं पर पाँव तो पड़ते न थे कल तक जवानी में,
बुढ़ापे में मिटा उसका ग़ुरूर5 आहिस्ता आहिस्ता॥

ये “सूरज” और कुछ दिन बैठ दानिशमंद6 लोगों मे,
के आते आते आएगा शऊर7 आहिस्ता आहिस्ता॥


1. आहिस्ता= धीरे से 2. शीश-ए-दिल =हृदय रूपी काँच3. ख्वाहिशें=इच्छाएँ 4. सुरूर =नशा
5. ग़ुरूर=घमंड 6. दानिशमंद=ज्ञानी, विद्वान 7. शऊर =बुद्धि, ज्ञान

३.

उसके जलवों का ऐसा असर हो गया॥
दीन-ओ-दुनिया से मैं बेख़बर हो गया॥


सूझता कुछ नहीं मुझको उनके सिवा,
वो ही मंज़िल वही हमसफ़र हो गया॥

सौंप दी ज़िंदगी उसके ही हाथ में,
अब वही जान, दिल औ जिगर हो गया॥


मेरे उजड़े चमन मे बहार आ गयी,
दिल का आबाद हर इक शजर हो गया॥

चाह जन्नत की "सूरज" नहीं है मुझे,
अब तो बस उसका घर मेरा घर हो गया॥

४.

क़ज़ा1 तू फिर कभी आना अभी कुछ काम बाक़ी है॥
हमें पीने दे फुर्सत से अभी ये जाम बाक़ी है॥

कभी ना ला सका होठों पे दिल की बात मैं अपने,
मोहब्बत का अभी इज़हार2 औ पैग़ाम3 बाक़ी है॥

अधूरे ख़्वाब4जीवन के, अधूरा है सफर अब भी,
अभी हासिल नहीं मंज़िल, अभी अंजाम5 बाक़ी है॥

पुकारा बेवफ़ा, बेशर्म, हरजाई, सितमगर भी,
अभी फिर भी वो कहता है, कोई इल्ज़ाम6 बाक़ी है॥

ये दिल कहता कि आएगा वो फिर इकदिन यहीं “सूरज”,
उसी कि इंतज़ारी मे सुहानी शाम बाक़ी है॥

डॉ॰सूर्या बाली “सूरज”

1.क़ज़ा=मौत 2. इज़हार=व्यक्त करना 3. पैग़ाम= संदेश 4. ख़्वाब =स्वप्न
5.अंजाम= परिणाम 6. इल्ज़ाम=आरोप

५.

तुझसे उलफ़त(1) है और तुझसे आशिक़ी अपनी॥
तेरे क़दमों में डाल दी है हर ख़ुशी अपनी॥


एक तेरे सिवा दुनिया में कौन मेरा था,
तू जो रूठा तो लगा रूठी ज़िंदगी अपनी॥


चाह कर भी मैं तुझे भूल नहीं सकता हूँ,
इश्क़ में हो गयी कुछ ऐसी बेबसी अपनी॥


अब मज़ा पीने पिलाने मे कुछ नहीं साक़ी(2),
लुफ़्त देती ही नहीं शौक़-ए-मैकशी(3) अपनी॥

भीड़ में रहके भी लगता है मैं अकेला हूँ,
अब तो लगती है ये सूरत भी अज़नबी अपनी॥


तू मिला तो लगा हासिल हुई मंज़िल मुझको,
तू जो बिछड़ा तो अंधेरे मे राह भी अपनी॥


दूरियाँ बढ़ती गयीं अपने दरमियां(4) “सूरज”,
बात कह पाया नहीं उनसे फिर कभी अपनी॥


1. उलफ़त =प्यार 2. साक़ी =शराब पिलाने वाला/वाली 3. शौक़-ए-मैकशी =शराब पीने का शौक़ 4. दरमियाँ=बीच में

५.

खिड़कियाँ खुलते ही आते हैं हवा के झोंके।
राज़ दुनिया का बताते हैं हवा के झोंके॥


सुर्ख़ होठों की नमी, लाली बचाकर रखना,
रंग धीरे से चुराते हैं हवा के झोंके॥


गीत गाते हैं सुनाते हैं वफ़ा के नगमें,
आग हर दिल में लगाते हैं हवा के झोंके॥


ये कभी लगते हैं अपनों से कभी ग़ैरों से,
हर खुशी ग़म को निभाते हैं हवा के झोंके॥


बदन की ख़ुशबू और यादें तेरी लाते हैं,
तुमको छू छू के जो आते है हवा के झोंके॥


दर्द की रातों मे,तनहाइयों के मौसम में,
चैन की नींदें सुलाते हैं हवा के झोंके॥


सबको दे करके ये पैगाम-ए-मोहब्बत "सूरज"
दिये नफ़रत के बुझाते हैं हवा के झोंके॥


६.

उसकी बातों का दिल पे असर हो गया।

रिश्ते नाते बिखरने का डर हो गया॥


उँगलियाँ थाम कर मेरी चलता था जो,
आज मेरा वही राहबर2 हो गया॥

वो परेशान दुनिया से था इस क़दर,
इसलिए मयकदा3 उसका घर हो गया॥


इक कदम क्या ग़लत राह मे उठ गया,
खो गईं मंज़िलें, दर बदर हो गया॥

सब गए भूल इंसानियत का सबक़4,
जाति मज़हब5 का ऐसा असर हो गया॥


फूल काँटे का रिश्ता नहीं है कोई,
साथ रहने का बस इक हुनर हो गया॥

दो कदम क्या चला साथ मिलके मेरे ,
उसको लगने लगा हमसफ़र हो गया॥


झूँठ कहता था जब,कारवां साथ था,
सच जो बोला तो तन्हा सफर हो गया॥

क्यूँ गिला6 दूसरों से ये "सूरज" करें,
ग़ैर अपना ही लख़्त-ए-जिगर7 हो गया॥

1. ज़र=दौलत, पैसा 2. राहबर=पथ प्रदर्शक3. मयकदा= शराबखाना 4. सबक़=पाठ
5. मज़हब =धर्म 6. गिला= शिकायत 7. लख़्त-ए-जिगर=जिगर का टुकड़ा, औलाद

७.

इस दुनिया मे दिलवाले ही क्यूँ आंखे नम करते हैं॥
दिल की बातें दिल मे रखकर जाने क्यूँ ग़म सहते हैं॥

उजड़े कितने गुलशन दिल के, रिश्ते चाहत के टूटे,
लेकिन इन सूनी पलकों मे अब भी सपने बसते हैं॥

अक्सर मैंने देखा है, जिनके ख़ातिर दुनिया छोड़ो,
वो ही चाक जिगर करते हैं, वो ही दिल तोड़ा करते हैं॥

पागल दीवाना कह देना कोई बड़ा इल्ज़ाम नहीं,
ये जगवाले दिलवालों को जाने क्या क्या कहते हैं॥

तड़पाया तन्हा रातों में, जिसने बेगाना समझा,
उसके ख़ातिर ही “सूरज”, दीवाने आहें भरते हैं॥

८.

किसी से प्यार करने का कोई मौसम नहीं होता।

इरादा नेक हो तो दिल कभी बरहम1नहीं होता॥

तुम्हारी बेवफ़ाई का अगर मौसम नहीं होता॥
तो ज़ालिम आज मेरा नोक-ए-मिज़्गाँ2नम नहीं होता॥

तुम्हारी याद ने दिल को मेरे आबाद3 रखा है॥
मेरी दुनिया मे अब तनहाई का आलम4 नहीं होता॥

मोहब्बत ज़ख्म दे दे कर जिगर को चाक5 करती है,
ये ऐसा दर्द है जिसका कोई मरहम नहीं होता॥

अमीर-ए-शहर6 की दुनिया हो, या दुनिया हो ग़रीबों की,
मोहब्बत का ये पैमाना ज़ियादा कम नहीं होता॥

दरिंदों को अगर होता ज़रा भी प्यार इंसाँ से,
तो खुशियों के शहर मे मौत का मातम नहीं होता॥

कभी न चूमती मंज़िल कदम, बढ़कर के राहों मे,
अगर ख़ुद पे भरोसा, बाज़ुओं मे दम नहीं होता॥

अगर वो बेवफ़ाई मुझसे न करता कभी “सूरज”,
तो उसके प्यार मे खुश रहता रंजो-ग़म7 नहीं होता॥



1॰= बरहम=बेचैन 2. नोक-ए-मिज़्गाँ=पलकों के कोना 3.=आबाद= खुशहाल, सम्पन्न
4.आलम=स्थिति 5. चाक =चीर देना, फाड़ देना 6. अमीरे शहर= नगर का धनी आदमी
7. रंजो-ग़म= दुख-दर्द

९.

कितनी बेबस हो गयी है इस शहर की ज़िंदगी।
रास अब आती नहीं मुझको इधर की ज़िंदगी॥

हो गया ख़ुदगर्ज(1) इतना आजकल का आदमी,
लग रही बेवा के जैसे हर बसर की ज़िंदगी॥

मुतमइन(2) हूँ जुगनुओं की ही तरह जलकरके मैं,
चाहिए मुझको नहीं शम्स-ओ-क़मर(3) की ज़िंदगी॥

हर तरफ बारूद के इक ढेर पे इन्सान है,
मौत के साये में है आठों पहर की ज़िंदगी॥

रौशनी “सूरज” कभी रहती नहीं हरदम कहीं,
शाम को ढल जाएगी ये दोपहर की ज़िंदगी॥


1॰ ख़ुदगर्ज़= स्वार्थी 2. मुतमइन = संतुष्ट 3.शम्स-ओ-क़मर = सूरज-चाँद

१०.

दिल तोड़ के गया वो किसी अजनबी के साथ।
हमने गुज़ारे वक़्त बड़ी बेबसी के साथ॥


क्यूँ जाने मेरी बन न सकी ज़िंदगी के साथ,
गुज़री है पूरी उम्र इसी दोगली के साथ॥

रंगीनियों ने इस क़दर धोका दिया उसे,
रहने लगा वो शख़्स बड़ी सादगी के साथ॥

अफ़साना कैसे कैसे बनाने लगे है लोग,
मिलना तुम्हारा ठीक नहीं हर किसी के साथ॥

उसको मसलना इस तरह आसान नहीं है,
हैं कितने सारे कांटे भी देखो कली के साथ ॥


अब अपने ग़मों की मुझे परवाह है कहाँ,
जीता हूँ रात दिन मैं उसी की खुशी के साथ॥

दौलत ने इस क़दर उसे अंधा बना दिया,
रिश्ता न कभी जोड़ सका आदमी के साथ॥


पैकर हूँ रोशनी का मैं "सूरज" इसीलिए,
मेरी कभी निभी ही नहीं तीरगी के साथ॥

११.

ज़िंदगी जब उदास होती है।
तुझसे मिलने की आस होती है॥


चैन खोता है दिल धड़कता है,
और उलझन मे सांस होती है॥

हमको लगता है जाने क्यूँ ऐसा,
तू मेरे आस पास होती है ॥


कहने को तो खड़ा हूँ दरिया में,
फिर भी होठों पे प्यास होती है॥

दिल ये मगमूम* बहुत होता है,
जब कभी तू उदास होती है॥


हर अदा पर ये जां निकलती है,
हर अदा तेरी खास होती है॥

डोर रिश्तों कि तोड़ मत “सूरज”,
टूटने पर खटास होती है ॥


*मगमूम=दुखी, संतप्त

११.

वो दर्द में,मुस्करा रहा है॥
सभी को जीना सिखा रहा है॥
दिया ज़माने ने ग़म उसे जो,
वो मयकदे मे भुला रहा है॥
बहुत पशेमां है इसलिए वो,
सभी से नज़रें चुरा रहा है
वो पेट ख़ातिर, शरीर बेंचे,
अज़ीब क़ीमत चुका रहा है॥
मरीज तो मर चुका है कब का,
दवा वो अब भी पिला रहा है॥
वो बेंच करके ज़मीर अपना,
मक़ाम ऊंचा बना रहा है॥
कोई दरिंदा किसी बहू को,
दहेज ख़ातिर जला रहा है॥
नज़र टिकी है कहीं पे उसकी,
कहीं निशाना लगा रहा है॥
गुनाह जिसने किया ए “सूरज”,
उसी को मुंसिफ़ बचा रहा है॥


१२.

किसी से प्यार उसको भी जो हो जाता मज़ा आता॥
मोहब्बत मे कोई उसको भी तड़पाता मज़ा आता॥

समा भी खूबसूरत है, बड़ी मुद्दत से प्यासा हूँ,
अगर इक जाम साक़ी प्यार से लाता मज़ा आता॥

वो बादल बन के आया था हमारी ज़िंदगानी में,
अगर खुलके मिरी छत पे बरस जाता मज़ा आता॥

गुज़ारी तुमने काफी उम्र अपनी बेवफ़ाओं में,
वफ़ादारों से गर तू जोड़ता नाता मज़ा आता॥


इशारे ही इशारे मे वो दिल की बात कहता है,
कभी मेरे इशारे भी समझ पाता मज़ा आता॥


सुहानी शाम है दिलकश फिज़ा रंगीन मौसम है,
अगर वो आज फिर कोई ग़ज़ल गाता मज़ा आता॥

ज़माने की अदावत का सबब है दोस्ती अपनी,
हमारा प्यार उनको भी अगर भाता मज़ा आता॥

ख़ुदा मिलता नहीं है बंदगी से मान ले “सूरज”
अगर तू बनके आशिक़ जोड़ता नाता मज़ा आता॥

१३.

अदब से चिलमन उठा रही थी।
दिलों पे बिजली गिरा रही थी॥

बना रही थी सभी को बिस्मिल,
वो जब भी नज़रें घुमा रही थी॥

शबाब उसका उरूज़ पे था,
गज़ब क़यामत वो ढा रही थी॥

गुलों की सुर्ख़ी लबों पे उसके,
गुलों सा ही मुस्करा रही थी॥

सलाम करने की इक अदा थी,
निगाह जब वो झुका रही थी॥

हसीन आँखों के मस्त प्याले,
नज़र से मय वो पिला रही थी॥

भला ये “सूरज” न आता कैसे,
हसीं सुबह जब बुला रही थी॥

१४.

तबाह जिसके लिए मैंने हर खुशी कर ली

तबाह जिसके लिए मैंने हर खुशी कर ली।
उसी ने आज सरे बज़्म बेरुख़ी कर ली॥

ख़ुदा वहीं पे उतर आया फ़रिश्ता बन के,
झुका के सर को जहां मैंने बंदगी कर ली॥

बड़ों से दोस्ती करने की आरजूँ लेकर,
नदी ने जाके समंदर मे ख़ुदकुशी कर ली॥

बताओ याद कभी उसकी भी आई जिसने,
तुम्हारे प्यार मे बरबाद ज़िंदगी कर ली॥

हमेशा होती हैं शाखों पे उँगलियाँ ज़ख्मी,
ये जानकर भी गुलाबों से दोस्ती कर ली॥

हिज्र की रात में तनहाई के अंधेरे में,
जला के दिल के चरागों को रौशनी कर ली॥

हंसी मज़ाक की चाहत तो दिल मे थी “सूरज”
ज़रा सा वक़्त मिला फिर से दिल्लगी कर ली॥

१५.

चाँद जब रात को निकलता हैं।
कितनी आँखों मे ख़्वाब पलता है॥


जब कभी तेरी याद आती है,
दिल चरागों की तरह जलता है॥


क्या हुआ दिल को आजकल मेरे,
जाने क्यूँ बच्चों सा मचलता है॥


धूप की तरह तुम निकलती हो,
दिल मेरा बर्फ सा पिघलता है॥


शाम टल जाये,सुब्बह टल जाये,
मौत का वक़्त कहाँ टलता है॥


इश्क़ है आग का दरिया “सूरज”,
इश्क़ पे ज़ोर किसका चलता है॥


१६.

राह मुश्किल है मगर चलना पड़ेगा॥

हँस के सारे ज़ख्म भी सहना पड़ेगा॥

जो उछलता है वो गिरता है यहाँ पे,
जो भी जलता है उसे बुझना पड़ेगा॥

भागता था दूर जिससे डर के हरदम,
अब उसी का सामना करना पड़ेगा॥

है गुलाब-ए-इश्क़ मे ना सिर्फ इशरत,
दर्द काँटों का भी तो सहना पड़ेगा॥

बन के मुंसिफ़, आप क्या चुप रह सकेंगे,
झूठ क्या है, सच है क्या, कहना पड़ेगा॥

जो मुझे लगता था कल तक अजनबी,
अब उसी का ही मुझे बनना पड़ेगा॥

रौशनी पे नाज़ क्यूँ करता है सूरज,
गर उगा है तो तुझे ढलना पड़ेगा॥

१७.

घूमता हूँ मै अकेला ग़म के मारों की तरह।
ज़िंदगी तेरे बिना लगती है ख़ारों की तरह ॥

चोट करती हैं तेरी यादों कि लहरें रात दिन,

टूटता रहता हूँ दरिया के किनारों की तरह॥

हो रही बरसात मुझपे रौशनी की आजकल,

आप आए ज़िंदगी मे चाँद-तारों की तरह॥

खिल गईं है सारी कलियाँ मुस्कराया ये चमन ,

जब से आयें हैं वो गुलशन मे बहारों की तरह॥

वो तुझे कुछ भी कहे “सूरज”, मगर मेरे लिए,

है तेरा एहसास सावन की फुहारों की तरह॥

१८.


साँचे मे अपने आप को ढलने नहीं देते।
दिल मोम का रखते हैं पिघलने नहीं देते॥

इक बार बना लेते हैं मेहमान जिसे हम,
खाना-ए-दिल से उसको निकलने नहीं देते॥

मौक़ा ही नही देते बराबर हम किसी को,
दुश्मन को कभी गिरके सम्हलने नहीं देते॥

जो छीन ले चैन-ओ-अमन, आराम किसी का,
हम ऐसे ख्वाब आँख मे पलने नहीं देते॥

है कितने बेरहम मेरे गुलशन के बाग़बाँ,
गुल प्यार मोहब्बत का ये खिलने नहीं देते॥

दुनिया उठा ले कितने ही तूफ़ान, ज़लज़ले,
बुनियाद-ए-इश्क़ हम कभी हिलने नहीं देते॥

कांटो से सज़ा रखी है ये राह-ए-ज़िंदगी,
फूलों की तरफ दिल को मचलने नहीं देते॥

रहता नहीं अंधेरा मेरे पास मे क्यूँ की,
“सूरज” कभी उम्मीद का ढलने नहीं देते॥

१९.

खुल के हम इंसान से इंसान की बातें करें॥
हौसले, उम्मीद औ इमकान की बातें करें॥

छोड़कर चक्कर लगाना अब इबादतगाह का,
रूह के भीतर बसे भगवान की बातें करें॥

राह दिखलाती हैं जो सबको अमन औ चैन की,
बाइबिल, गीता की औ क़ुरआन की बातें करें॥

तोड़ डालें मज़हबी दीवार आओ हम सभी,
प्यार से मिल जुल के हिंदुस्तान की बातें करें॥

जो दिलों मे प्यार भरदे, औ लबों पे दे हंसी ,
सूर, मीरा,जायसी, रसखान की बातें करें॥

क्या ज़माना आ गया क़ातिल सभी मुंसिफ़ हुए,
कल के बेईमान अब ईमान की बातें करें॥

रौशनी कर दे, मिटा दे ज़िंदगी की तीरगी ,
चाँद, “सूरज”, तारों के उनवान की बातें करे॥


२०.

दिल से नफ़रत को हटाकर देखो।
थाल पूजा के सजाकर देखो॥

आ गई नूर1 भरी दिवाली,
दीप खुशियों के जलाकर देखो॥

जश्न है, शोर है पटाखों का,
फूलझड़ियों को छुड़ाकर देखो॥

खूबसूरत लगेगी ये दुनिया,
तीरगी2 दिल की मिटाकर देखो॥

दो कदम बढ़ के भरो बाहों मे,
ज़िद की दीवार गिराकर देखो॥

साथ था कारवां कभी मेरे,
अब मैं तन्हा हूँ ये आकर देखो॥

फूल ही फूल नज़र आएंगे,
राह से खार3 हटाकर देखो॥

दिल को आराम मिलेगा तेरे,
रोते बच्चे को हँसाकर देखो॥

होके मदहोश सभी झूमेंगे,
जाम नज़रों से पिलाकर देखो॥

ये जहां साथ गुनगुनाएगा,
तुम ग़ज़ल मेरी तो गाकर देखो॥

दौड़ा “सूरज” भी चला आएगा,
दिल से इकबार बुलाकर देखो॥


नूर1=उजाला, तीरगी2=अंधेरा,खार3=कांटा

२१.

लोगों ज़रा इस देश के हालात देखिये।
लुटती हुई जनता को दिन-ओ-रात देखिये॥

बिकने को है तैयार ये रोटी के वास्ते,
महगाई मे ग़रीब कि औक़ात देखिये॥

मज़हब, हुनर, ईमान औ एहसास भी बिके,
बाज़ार मे बिकते हुए ज़ज़्बात देखिये॥

कल तक तो मेरे पास मे इक पैसा नहीं था,
अब हो रही है नोटों कि बरसात देखिये॥

तन्हा ये ज़िंदगी का सफर अब रहा नहीं
है साथ तेरी यादों कि बारात देखिये॥

२२.

इक बार जो उनके चेहरे से, लिल्लाह ये परदा टल जाये।
दीदार चाँद का हो जाये, सारा आलम ही बदल जाये॥

उनके हसीं रुख़सार पे अब, ज़ुल्फों की क़यामत तो देखो,
लहराती हैं काली नागन सी, पुरवाई हवा जब चल जाये॥

मजनूँ, फरहाद औ रांझा के जैसे परवाने आएंगे,
लैला, शीरी और हीर सी गर, कोई जो शमअ जल जाये॥

साक़ी मुझको भी पिला दे जरा ये सुर्ख़ लबों के पैमाने,
थोड़ा सा बेख़ुद हो जाऊँ और दिल थोड़ा सा बहल जाये॥

अरमान मेरा बस इतना है, आरजूँ नही कोई और ख़ुदा,
बस हुस्न के आँचल मे जाके, ये इश्क़ का “सूरज” खिल जाये॥


२३.

लाखों मे एक है वो, बड़ा लाज़वाब है।
रुख़ उसका जैसे कोई हसीं माहताब है॥

हर इक वरक़ मे इश्क़, मोहब्बत के फ़लसफे,
पढ़ इसको सारी उम्र, ये दिल की किताब है॥

जल जाओगे ये खेलने, की चीज़ है नहीं,
जुगनू न समझ उसको, वो इक आफ़ताब है॥

आने को है बेताब, बहुत हुस्न ये बाहर,
ज़ुल्फों का मगर आपके रुख़ पे हिजाब है॥

जो छीनता ग़रीब का हक़ और रोटियाँ,
दुनिया की निगाहों मे वही कामयाब है॥

ज़िंदा है मेरे दिल मे अभी प्यार तुम्हारा,
अब भी मेरी किताब मे सूखा गुलाब है॥

रातों की नींदे लेके जो बेचैन कर गया,
अभी भी इन आँखों मे वो हसीन ख़्वाब है॥

हासिल करेगा “सूरज” ज़माने की हर खुशी,
तारीकियों मे नूर का वो इंकलाब है॥

२४.

प्यार का बन के मै पैग़ाम तुझे चाहूँगा।
छोड़ के दुनिया के हर काम तुझे चाहूँगा॥

सोच सकता भी नही तेरे बिना जीने की,
चाहे अब कुछ भी हो अंजाम तुझे चाहूँगा॥


धडकनों की तरह सीने मे बसाया तुमको,
ज़िंदगी कर के तेरे नाम तुझे चाहूँगा॥

इश्क़ जो करता हूँ तुमसे तो छुपाना कैसा,
कर के इजहार खुले आम तुझे चाहूँगा॥


मैं अगर खो भी गया भीड़ मे दीवानों की,
दुनिया मे रहके भी गुमनाम तुझे चाहूँगा॥


प्यार मे तुमको कभी रुसवा न होने दूंगा,
लेके सर अपने सब इल्ज़ाम तुझे चाहूँगा॥


ये न तू सोच कि मै पीके भुला दूंगा यूं,
कसमें खाता हूँ ले के जाम तुझे चाहूँगा॥

भूल पाऊँगा नहीं अब तो कभी भी “सूरज”
दिन हो या रातें सुबह-शाम तुझे चाहूँगा॥

२५.

हर बात का मज़ाक उड़ाया न कीजिये।
रिश्तों को बेरुख़ी से निभाया न कीजिये॥

होती बड़ी हसीन बीमारी ये आशिक़ी,
इस रोग का इलाज़ कराया न कीजिये॥

कहते है लोग पीके उसे भूल जाऊंगा,
साक़ी मुझे शराब पिलाया न कीजिये॥

रूसवाइयाँ मिलेंगी हज़ारों ए दोस्तों,
मेरे फ़साने सबको सुनाया न कीजिये॥

यूं हर किसी से हाथ मिलाया न कीजिये,
"सूरज" सभी को दोस्त बनाया न कीजिये॥

२६.

क्या हुआ है मुझे आजकल ये, क्यूँ जमीं पर उतरता नहीं हूँ॥
बादलों सा फिरूँ आसमां मे, क्यूँ कहीं पर ठहरता नहीं हूँ॥

उसको लगता था जी न सकूँगा, उसके बिन भी मैं रह न सकूँगा॥
अब जहां पे ठिकाना है उसका, उस गली से गुजरता नहीं हूँ॥

कोई नेता हो चाहे मिनिस्टर, कोई मुंसिफ़ हो चाहे कमिश्नर,
जो मुझे भूल जाते है अक्सर, मैं उन्हे याद करता नहीं हूँ ॥

चाहे कितना भी मुझको सता ले, और जी भर के मुझको रुला ले,
पत्थरों की तरह हो गया हूँ, टूट कर अब बिखरता नहीं हूँ॥

बज़्म मे कल हमारी वो आया, जाम नज़रों से कुछ यूं पिलाया,
बेखुदी छाई अब तक उसी की, उस नशे से उबरता नहीं हूँ॥

छोड़ कर तू गया था जहां पे, आज भी मैं खड़ा हूँ वहीं पे,
कह दिया जान दे दी तो दे दी, मैं जुबां से मुकरता नहीं हूँ॥

अपनों ने ही मुझे है हराया, गैर तो हर वक़्त मात खाया,
खौफ़ खाता हूँ अपनों से “सूरज”, ग़ैर से मै तो डरता नहीं हूँ॥

२७.

सभी से राज़ दिल के खोलने में देर लगती है।
नए इंसान को पहचानने में देर लगती है ॥

बड़ा धोका दिया उसने बढ़ा के हाथ धीरे से,
किसी का हाथ अब तो थामने में देर लगती है॥

बड़ा मुश्किल रक़ीबों को हबीबों से अलग करना,
पराया और अपना आँकने मे देर लगती है॥

वो इतनी बार बोला झूठ कि एतबार खो बैठा,
सही भी बात अब तो, मानने में देर लगती है॥

पिलाएगी तुझे “सूरज”या फिर तड़पा के मारेगी,
इरादे साक़ी के तो जानने में देर लगती है॥

२८.

तुम्हारी बात इस दिल को अगर भाई नहीं होती।
तबीयत तुम पे मेरी इस तरह आई नहीं होती॥

मोहब्बत क्या बला है इसको तू कैसे समझ पाता,
ए बंदे तू अगर ये ज़िंदगी पाई नहीं होती ॥

नशा दौलत-परश्ती का तुझे मगरूर कर देता,
अगर ये मौत इतना कड़वी सच्चाई नहीं होती॥

ज़रा सी बात पर मुझसे तअल्लुक तोड़ने वाले,
कभी टूटे हुए रिश्तों की भरपाई नहीं होती॥

ये मैखाना, ये पैमाना, ये साक़ी भी नही होता,
अगर वो बेवफ़ा जो इतनी हरजाई नहीं होती॥

बदन पे खाके पत्थर ये कहा मजनू ने दुनिया से,
मोहब्बत रास आ जाती तो रुशवाई नहीं होती॥

न ये “सूरज” कभी छुपता, न छाती ये घटा काली,
तुम्हारी जुल्फ़ बल खाके जो लहराई नहीं होती॥

२९.

सफर मे अपने, कहीं तो ऐसा,
हसीन कोई, मुक़ाम आए॥

कोई जो पूंछे, हमारी ख़्वाहिश,
जुबां पे तेरा, ही नाम आए॥

तुम्हारे दर पे, नज़र टिकाये,
बहुत दिनों से, पड़े हुये हैं।

ये प्यास मेरी, बुझा दे साक़ी,
लबों पे अपने, भी जाम आए॥

झुका के सर को, करूँ इबादत,
उठा हथेली, दुआ जो माँगूँ ,

सुकूँ मिले तब, बेचैन दिल को,
जुबां पे वो सुबहोशाम आए॥

खफा वो मुझसे, इसीलिए थी,
जवाब भेजा न मेरे ख़त का।

ख़बर न आयी, कहीं से उसकी,
न ही कहीं से, पयाम आए॥

पता नहीं उस, में बात क्या थी,
चुरा लिया दिल, न जाने कैसे,

ये दिल न आया, कभी किसी पे,
हसीं तो“सूरज”, तमाम आए॥


३०.
गुज़ारे साथ में जो पल, तुम्हारे, याद आते हैं।
वो रातें, चाँदनी, झिलमिल सितारे याद आते हैं॥

तुझे मैं भूल सकता हूँ भला कैसे मेरी जाना,
तुम्हारे साथ के किस्से वो सारे याद आतें हैं॥

तुम्हारी झील सी आँखें, किसी साक़ी का पैमाना,
उन्ही आंखो से पीने के नज़ारे याद आते हैं॥

भरी महफिल में सबसे छुप के मुझसे गुफ़्तगू करना,
वो मुझको तेरी आंखो के इशारे याद आते हैं।

तुम्हारी बेवफ़ाई मुझको अक्सर याद आती है,
तुम्हें भी क्या मोहब्बत के वो मारे याद आते हैं॥

अकेले बैठ के राहें तेरी तकना, तेरा आना,
वो महकी शाम, दरिया के किनारे याद आते हैं।

अंधेरे में मुझे जब भी नज़र आता न था “सूरज”,
दिये थे तुम जो बाहों के सहारे याद आते हैं॥

३१.

रखी हो सीने पे तलवार तो कहूँ किससे।
मौत आकर करे लाचार तो कहूँ किससे॥

मेरे हाफ़िज़ बता फरियाद कहाँ जाके करूँ,
कोई जब अपना करे वार तो कहूँ किससे॥

प्यार की राह मे कोई रोक नहीं पाया मुझे,
अगर तू ही बने दीवार तो कहूँ किससे॥

सफर मे ज़िंदगी के हमनवा कोई न रहा,
रस्ते हो जाये जब दुस्वार तो कहूँ किससे॥

चारागर तेरी दवाओं से कोई शिकवा नहीं,
दिल मेरा इश्क़ का बीमार तो कहूँ किससे॥

मैं बुरे वक़्त मे करता था शिकायत ख़ुद से,
अब जो हरपल है खुशगवार तो कहूँ किससे॥

काम पे आता है हर रोज़ बड़ी शिद्दत से,
“सूरज” मनाये न इतवार तो कहूँ किससे॥


३२.

हर कदम पे राह मे रुशवाइयाँ थीं।
वो न था उसकी कदम-आराइयाँ थी॥

खींचने से रोक देती थी हंसी तस्वीर जो,
वो तो उसके हुस्न की रानाइयाँ थीं॥

दहशत मे जीता था जिसे मैं देखकर ,
वो तो मेरे जिस्म की परछाइयाँ थीं॥

डूबता जिसमे गया मैं दिन ब दिन,
झील सी आँखों की वो गहराइयाँ थीं॥

जिसके साये मे सुकुं मुझको मिला,
उनके ज़ुल्फों की घनी अमराइयाँ थीं॥

चैन से जीने भी मुझको न दिया,
ऐसी उसके जाने की तनहाइयाँ थीं॥

जिसपे “सूरज” फिर से चमका शाम को,
हाय वो क़ातिल गज़ब अंगड़ाइयाँ थीं॥


३३.

ये पैसा जब से लोगों का ईमान हो गया।
दिल बेचना ख़रीदना आसान हो गया ॥

लुट जाता है किसी का, तो खोता है किसी का,
दिल, दिल नही है अब तो ये समान हो गया॥

घर कितनों के उजड़े हैं, कितनों के लुट गए,
इस दिल के पीछे कितनों का नुक़सान हो गया॥

इक ऐसी चली आँधी कि मुरझा गया ये बाग़,
सहरा की तरह दिल मेरा वीरान हो गया॥

उगता है जिसके हुक़्म से "सूरज" वो और है,
इंसान ये न समझे कि वो भगवान हो गया॥

३४.

निकाला मन का भरम पुतला बनाकर तुमने।
तसल्ली दिल को दी रावण को जलाकर तुमने॥

खेलते जा रहे हो खेल ये सदियों से मगर,
किया कुछ भी नहीं हासिल ये दिखाकर तुमने॥

झूँठ पे सच की है ये जीत यही कह कह के,
तमाशा फिर किया इस बार भी आकर तुमने॥

गिनाते रह गए रावण की बुराई को मगर,
देखा ख़ुद को नहीं आईना उठाकर तुमने॥

धमाका, धूल, धुआँ, शोरगुल मचा कर के,
छीना चैन-ओ-अमन भी नींद उड़ाकर तुमने॥

मज़हबी भीड़ को बहला के और भड़का के,
डाल दी नफ़रतें ज़ज़्बात भुनाकर तुमने॥

कागजों से बने पुतले तो जला डाले मगर,
दिल मे क्यूँ रखा है रावण को छुपाकर तुमने॥

ग़रीबी, भुखमरी, मंहगाई औ बदअम्ली को,
खड़ा कर रखा है घर- घर में सजाकर तुमने॥

सियासत हावी है मज़हब के मंच पर “सूरज”
मांगे खुब वोट रामलीला मे जाकर तुमने॥

३५.

ज़ख्म सहने की हदें सब, पार हम कर जाएंगे ।
वक़्त का मरहम लगेगा, घाव सब भर जाएंगे।

दिल मे अपने क़ैद कर रखा है मैंने आपको,
इतनी आसानी से कैसे आप बाहर जाएंगे।

आपके चेहरे पे साहब आपके आमाल हैं,
आईने को देख लेंगे आप तो डर जाएँगे।

आइये मैख़ाने में कुछ पल गुज़ारा जाए फिर,
लड़खड़ाते, झूमते, गाते हुए, घर जाएंगे।

हम दिलों-जाँ से उन्हे अपना बनाते ही गए,
क्या ख़बर थी बेवफ़ाई हमसे वो कर जाएँगे।

जब तलक तू पास है, बस तब तलक है ज़िंदगी,
बेवफा मत छोड़ के जा, वरना हम मर जाएँगे ।

जाँ हथेली पर लिए फिरते हैं “सूरज” आजकल,
वो न समझें धमकियों से उनकी हम डर जाएँगे॥

३६.

ऐसे भी तो हैं संसार में।
ज़हर जो पी गए प्यार में।

सिर्फ फूलों को मत देखिये,
एक धागा भी है हार में।

ज़िंदगी इतनी कड़वी न थी,
हम पारीशां थे बेकार में।

चारागर तू न मायूस हो,
जान अब भी है बीमार में।

दोस्ती का करो हक़ अदा,
साथ छोड़ो न मजधार में।

थोड़ा मुझपे भी नज़रें करम,
आया हूँ तेरे दरबार में।

रूठना तेरा हक़ है मगर,
प्यार बढ़ता है तकरार में।

रुसवा करते हैं संसद को जो,
ऐसे भी तो हैं सरकार में।

उसने देखा जो “सूरज” मुझे,
फूल खिलने लगे ख़ार में।

३७.

घबरा गए अगर तो कहीं के न रहोगे।
मरने से गए डर तो कहीं के न रहोगे॥

इंसानियत के बीच मे नफ़रत न लाइये,
फैलेगा ये ज़हर तो कहीं के न रहोगे॥

ये मोमिनों ख़ुदा को तो रुसवा न कीजिये,
टूटेगा जब क़हर तो कहीं के न रहोगे॥

है अब भी बचा मौक़ा कर तौबा गुनाहों से ,
गया वक़्त जो गुज़र तो कहीं के न रहोगे॥

इतना यक़ीन मत करो तुम उसकी वफा पर,
हुआ बेवफा अगर तो कहीं के न रहोगे ॥

चैन-ओ-अमन मे जी रहा हर एक आदमी,
उजड़ा जो ये शहर तो कहीं के न रहोगे॥

मुंसिफ़ के सामने है खड़ा क़त्ल का गवाह,
जाएगा वो मुक़र तो कहीं के न रहोगे॥

ये दोस्तों शराब को ज़्यादा न पीजिए,
फूंकेगी ये ज़िगर तो कहीं के न रहोगे॥

राहों मे चले साथ तो मिल जाएगी मंज़िल,
बिछड़े जो हमसफर तो कहीं के न रहोगे॥

ऊंची उड़ान भरने से पहले तू सोच ले,
“सूरज” जो टूटा पर तो कहीं के न रहोगे॥

 ३८.

शम्मा का रिश्ता हो जैसे किसी परवाने से।
दोस्ती ऐसी है, साक़ी तेरे मयख़ाने से॥

जाम भर भर के पिला, आंखो के पैमाने से,
क्या मिलेगा तुझे, मैनोस को तड़पाने से।।

पीते हैं सब, कोई चुपके से, सरे-आम कोई,
कभी आँखों से, कभी होठों के पैमाने से॥

शौक़-ए-मैनोसी है हर टूटे हुए दिल की दवा,
ज़ख्म भर देती है बस जाम के टकराने से॥

एक मैं ही नहीं; जो पीता हूँ चोरी चोरी,
छुप के आते हैं यहां कितने ही बुतख़ाने से।।

बेख़ुदी मे जियो और खुल के जाम टकराओ,
वरना प्यासे रहोगे, इस तरह शर्माने से।

महफिल-ए-रिन्द की रौनक तुम्ही से है साक़ी,
रूठ जायेगी बज़्म, तेरे चले जाने से॥

कसमें खाई है कई बार फिर न पीने की,
टूट जाती हैं ये हर बार यहां आने से।।

कहा “सूरज’ से कई बार छोड़ दे पीना,
बाज आता ही नहीं, लाख ये समझाने से॥

३९.

लाख कोशिश करो मुझको ना भुला पाओगे।
क़रीब दिल की धड़कनों के सदा पाओगे।


जला तो सकते हो ख़त को मेरी तस्वीर को तुम,
प्यार जो दिल मे है क्या उसको मिटा पाओगे।


मेरे ख़यालों मे ही खोये रहोगे हरदम,
दिल कहीं और अब तुम न लगा पाओगे।


हर कदम पे किसी की होगी ज़रूरत तुमको,
ज़िंदगी लंबी है, तन्हा न निभा पाओगे।


प्यार “सूरज” का तुम्हें याद आएगा हर पल,
जुदाई के कहीं दो पल न बिता पाओगे।

४०.

मैं कई रात भूखे पेट रह के सो लूँगा।
दर्देदिल जब भी सताएगा, छुप के रो लूँगा।

ज़िंदगी तेरे इशारे पे ही तो चलता हूँ,
तू मुझको जैसा कहेगी मैं वैसे हो लूँगा!

मै तो शायर हूँ, किसी का कोई ग़ुलाम नहीं,
दिल मे जो आएगा, मैं दिल से वही बोलूँगा।

थोड़ा हटके हूँ जमाने से, मगर ऐसा नहीं,
कि हाथ बहती हुई गंगा मे जाके धो लूँगा।

कारवां का मैं इक भटका हुआ मुसाफिर हूँ,
राह मे जो भी मिलेगा उसी का हो लूँगा।

भरा है बेपनाह दर्द खाना-ए-दिल में,
तू मिलेगा कभी तो राज-ए-दिल ये खोलूँगा।


४१.

माना कि उनकी तरह तो क़ाबिल नहीं हूँ मै।
पर लूट, भ्रष्टाचार में शामिल नहीं हूँ मैं॥

वाकिफ़ हूँ हर इक चाल से लोगों की मैं यहाँ,
इतना भी इस ज़माने से गाफ़िल नहीं हूँ मैं।।

ठहरा ही रहूँ एक जगह, फितरत नहीं मेरी,
दरिया की मौज हूँ कोई साहिल नहीं हूँ मैं!!

ज़ुल्मों सितम को देख कर, मुँह मोड़ता नहीं,
ख़तरों से खेल जाता हूँ, बुज़दिल नहीं हूँ मैं॥

वो मुझको गुनहगार, बताने पे था तुला,
मुंसिफ़ को ये पता था की क़ातिल नहीं हूँ मैं॥

मुझको भी यारों, होता है एहसास दर्द का,
आकर क़रीब देख लो संगदिल नहीं हूँ मैं॥

कूँचे से जब वो गुजरे सहनाइयों के साथ,
तब मुझको लगा, उनकी मंज़िल नहीं हूँ मैं॥

मज़हब का ग़लत पाठ पढ़ाता था रात दिन,
जबकि वो जानता था ये, जाहिल नहीं हूँ मैं॥

माँ की निगाह से अगर "सूरज" तू देखेगा,
फिर तुझको ये लगेगा कि, मुजरिम नहीं हूँ मैं॥

४२.

एक चिंगारी को भी शोला बना लेते हैं लोग।
अपने ही हाथों से घर अपना जला लेते हैं लोग॥

कैसी फितरत है और कैसी सियासत इनकी,
दिल मिले या न मिले हाथ मिला लेते हैं लोग॥

लूट कर कितनें ही मासूम, मुफ़लिसों का हक़,
ऐशों-आराम के समान जुटा लेते हैं लोग।

चंद सिक्कों के लिए क्या क्या नहीं करते हैं,
गीता क़ुरान की कसमें भी उठा लेते हैं लोग।

भले ही औरों के दामन पे उछालें कीचड़,
बड़ी आसानी से अपने को बचा लेते हैं लोग।

दिखाते रहते हैं हर वक़्त दूसरों की कमी,
गलतियाँ अपनी सरे-आम छुपा लेते हैं लोग।

अपने अशकों पे ये “सूरज” ज़रा काबू रखना,
यहाँ इन्सानों के जज़्बात भुना लेते हैं लोग।

४३.

नज़र से शख़्स की फितरत को हम पहचान लेते हैं।
किसी के दिल मे क्या है, दूर से ही जान लेते हैं॥

लगे हैं बोलने, उनकी जुबां, अब रात दिन हम भी,
अगर वो दिन को कह दें रात, तो हम मान लेते हैं॥

डिगा सकती नहीं हैं मुश्किलें, पक्के इरादों को,
वो हम कर डालते हैं, दिल मे जो कुछ ठान लेते हैं॥

ये कैसी है अदा उनकी, भला कैसी नज़ाकत है,
वो क़ातिल जलवे अब तो, रोज़ मेरी जान लेते हैं॥

सलीका है नहीं जिनको वफ़ाई कैसे की जाये,
वही “सूरज” वफा का मेरे इम्तेहान लेते हैं॥

४४.

रात दिन जाने क्यूँ, करता हूँ बंदगी तेरी।
ख़ुद की लगने लगी है, अब तो ज़िंदगी तेरी॥

इक मुलाक़ात हुई क्या, बदल गया आलम,
अजीब नूर ले लायी है दोस्ती तेरी॥

जब भी डस लेती है तन्हाई की नागन मुझको,
बहुत ही याद सताती है अजनबी तेरी।

दिल लिया तुमने मेरा, चैन भी, सुकूं भी लिया,
अब मेरी जान भी, ले लेगी दिल्लगी तेरी॥

नाम दिवानों मे एक दिन तेरा होगा ‘सूरज”,
रंग लाएगी ही, एक दिन ये आशिक़ी तेरी।।

४५.

ज़िंदगी के सफर में फूल मिले ख़ार मिले।
अजनबी लोग मिले, अजनबी दयार मिले।।

दिल की हसरत थी कि कोई मुझे दिलदार मिले,
जो मेरे दिल से न निकले इक ऐसा यार मिले॥

जिससे मिलना था मुझे, वो कभी मिला ही नहीं,
जिससे बचते रहे, वो मुझको बार बार मिले॥

ये न पूछो कि मिला क्या क्या मुहब्बत मे सिला,
कभी तो ज़ख्म मिले दिल को, कभी प्यार मिले॥

ठहर गयीं है दिल की धड़कने, जाने से तेरे,
तू अगर आए तो फिर से इन्हे रफ़्तार मिले।।

जिसे महसूस करना था, मेरे दिल की धड़कन,
राह में बनके वो हरदम मुझे दीवार मिले॥

कोशिशें लाती है हर रंग यहाँ पे “सूरज”,
संग पे पिस के हिना जैसे रंगदार मिले।।

४६.

कल भी हम साथ रहें ये कोई ज़रूरी नहीं।
हाथों मे हाथ रहें ये कोई ज़रूरी नहीं।।

तू तो धड़कन की तरह दिल में बसी हो मेरे,
इसका इज़हार करूँ ये कोई ज़रूरी नहीं।।

एक ही आबो-हवा, एक ही चमन फिर भी,
हर कली फूल बनेगी, कोई ज़रूरी नहीं।।

वो तो हर शय मे है, चाहे जहाँ पुकारो उसे,
सर झुके बुत के ही आगे कोई ज़रूरी नहीं।।

ग़म भुलाने के तरीक़े तो और हैं साक़ी,
जाम पीके ही भुलाऊँ कोई ज़रूरी नहीं।।

सभी तो राह मे हैं अपनी अपनी मंज़िल के,
सबको हो जाएगी हासिल, कोई ज़रूरी नहीं।।

इतनी आसानी से “सूरज” यकीन मत करना,
सब तेरे दोस्त ही हों, ये कोई ज़रूरी नहीं।।

४७.

आज कल लोगों से मिलते हुए डर लगता है।
शायद मुझपे भी जमाने का असर लगता है।।

सहमा सहमा सा हर इंसान यहां है देखो,
साये मे मौत के अब अपना शहर लगता है॥

भटक रहा है ये इंसान ज़िंदा लाश लिए,
बड़ा बेजान सा ये राह-ए-सफर लगता है॥

न रहा प्यार- मोहब्बत न वो अपनापन,
अब तो शमशान के माफ़िक मेरा घर लगता है

ज़िंदगी हो गयी प्यासी अब लहू की ‘सूरज”
जान से भी बड़ा प्यारा इसे ज़र लगता है॥

४८.

दिल किसी का अगर दुखाओगे,
ख़ुद भी तुम चैन नहीं पाओगे।
नींद आंखो से चली जाएगी,
करवटों मे ही सब बिताओगे।।
ज़ख्म दिल के कभी नहीं भरते,
लोग हर शख्श पे नहीं मरते।
कोई तड़पेगा अगर तेरे लिए,
तुम भी कैसे उसे भुलाओगे।।
साक़ी इतना भी कारसाज़ नहीं,
जाम हर मर्ज़ का इलाज़ नहीं।
दोगे तक्लीफ़ ख़ुद-बख़ुद को ही,
मयक़दे मे जो रोज़ जाओगे ॥
इश्क़ मे शर्त कुछ नहीं रखते,
गिले शिकवे कभी नहीं करते।
फ़ासले ख़ुद-ब-ख़ुद मिट जाते हैं,
प्यार से ग़र कदम बढ़ाओगे ।।
दिलों के बीच कुछ दूरी न रहे,
किसी की कोई मजबूरी न रहे।
ज़िंदगी मुस्कराएगी “सूरज”,
हंस के हर ग़म अगर उठाओगे।।

४९.
ये ज़मीं ये आसमां, कल रहे या न रहे।
ये हसीं महफिल जवां, कल रहे या न रहे।।
इस जहाँ मे बाँट दे, जो कुछ भी तेरे पास है,
ये हुनर तेरी अमानत कल रहे या न रहे।।
छोड़ा ना दामन मैं ग़म का,क्यूंकि मुझको था यकीं,
ये ख़ुशी कुछ पल की है, कल रहे या न रहे।।
माटी के पुतले पे इतना क्यूँ भरोसेमंद हो,
दिल मे जो आए वो कर लो, कल रहे या न रहे।।
सब तो मतलब के हैं रिश्ते, कौन किसका है यहाँ,
आज रिश्ता ख़ास है जो, कल रहे या न रहे।।
खोलकर दिल बात कर लो, न रहे शिकवे गिले,
५०.

किसी से दिल लगा के देखिये क्या होता है !

फ़ासलों को मिटा के देखिये क्या होता है।
आपको सारा जहां अपना नज़र आएगा,
दिल से नफ़रत हटा के देखिये क्या होता है।
कितना आराम और सुकून मिलेगा दिल को,
जरा सा मुस्करा के देखिये क्या होता है।
ऐसी मंज़िल नहीं कोई जो कदम न चूमे,
हौसला तो बढा के देखिये क्या होता है।
लोग पागल के सिवा कुछ न कहेंगे “सूरज”,
घर को अपने जला के देखिये क्या होता है॥

५१.

लंबी गाड़ी, ऊंचे बंगले शान बनते जा रहे हैं।
इस शहर के लोग क्यूँ नादान बनते जा रहे हैं।
कल तलक देखा था जिनको हाथ फैलाये हुए,
आज वो इस शहर के धनवान बनते जा रहे हैं।
इंसानियत से ज़्यादा तो मजहब के पीछे लोग हैं,
राह के पत्थर भी अब भगवान बनते जा रहे हैं।
दंगे, घोटाले, लूट, भ्रष्टाचार के इस दौर मे,
राजनेता आज के बेईमान बनते जा रहे हैं।
चंद सिक्कों के लिए कुर्बान होती ज़िंदगी,
लोग क्यूँ इंसान से हैवान बनते जा रहे है?
मर रहे मजदूर, खेतिहर, कर्ज़े के भारी बोझ से,
खेत औ खलिहान तो शमशान बनते जा रहे हैं।
बोझ सी लगने लगी है ज़िंदगी माँ बाप की,
वो घरों मे अपने ही, मेहमान बनते जा रहे है।


५२.

तुम क्या मिले मुझे मेरी किस्मत बदल गयी।
लगता है कली ज़िंदगी की मेरे खिल गयी॥
गुल हसने लगे , गुलचे मुस्करा रहे सभी,
जाने सबा ये कैसी गुलशन मे चल गयी।।
बुलबुल जो तड़पती थी पिजड़े के दरमियाँ,
पाते ही मौका आज वो कैसे निकाल गयी॥
ग़ैरों ने गालियां दी, कुछ भी नहीं कहा,
मैंने जो दिल की बात कही, वो भी खल गयी॥
मुझको यक़ी था “सूरज” आएंगे वो जरुर,
बस उनके इंतज़ार मे ये उम्र ढल गयी॥

५३.

किसको सुनाएँ ग़म के तराने, किससे कहें ये अफ़साने।
बहरा है हर ज़र्रा यहाँ पे, हाल-ए-दिल ये क्या जाने।
किसको मुसाफ़िर अपना समझे, किसको पराया माने,
हर चेहरे पे इक हिजाब है, कैसे किसी को पहचाने।
शिकवा करूँ मैं क्यूँ ग़ैरों से ऐसा भी तो होता है,
दौरे-ए-मुश्किल मे अपने भी, हो जाते हैं बेगाने।
मेरा क्या मैं तो जी लूँगा तेरी यादों के दम पर,
अपनी बताओ काटोगे कैसे, तनहाई के दिन जाने।
देखा न होगा “सूरज” तुमने इससे बड़ी नाइंसाफ़ी,
प्यार मे पाते मौत का तोहफ़ा, शम्मा से ये परवाने॥

५४.

शहर का आदमी अब गाँव जाना चाहता है,
सुकून, आराम, खुशियाँ , चैन पाना चाहता है।
सांस लेना हुआ दुश्वार, पत्थरों के जंगल में,
बगीचे गाँव के फिर से सजाना चाहता है ।
दीवारों मे सिमट के रह गया जो रात-दिन ,
खुले आकाश मे कुछ पल बिताना चाहता है।
डर गया है, क़त्ल, बारूदी धमाके देखकर,
दिन ब दिन के हादसों से दूर जाना चाहता है।
कुछ न पाया चल के तन्हा इक उदासी के सिवा,
रिश्ते नातों का घरौंदा फिर बनाना चाहता है।

५५.

हादसों के इस शहर में घर तुम्हारा दोस्तों।
इसलिए वाज़िब भी है ये डर तुम्हारा दोस्तों।
तुझको पहुंचाएगा कैसे, तेरी मंज़िल के क़रीब,
खुद-ब-खुद भटका हुआ, राहबर तुम्हारा दोस्तों।
घर जला के, फिर से लौटे हो बुझाने के लिए,
ये रहा एहसान भी, मुझ पर तुम्हारा दोस्तों।
यूं छिपाके ग़म को पीना इतना भी अच्छा नहीं,
देखो जाये न छलक सागर तुम्हारा दोस्तों।
इतना इतराओ नहीं माटी के इस पुतले पे तुम,
ख़ाक मे मिल जाएगा पैकर तुम्हारा दोस्तों।
पहले खुद पत्थर बने, पत्थर के बुत को पूजके,
हो गया है दिल भी अब, पत्थर तुम्हारा दोस्तों।
मारोगे “सूरज” को पत्थर, उसका बुरा होगा नहीं,
डर है मुझको फूटे न कहीं सर तुम्हारा दोस्तों।।

५६.

वो हादसे जो मेरी ज़िंदगी मे आते गए,
कभी हसाते गए तो कभी रुलाते गए।
उजाड़ देता था वो रोज आशियाने को,
और एक हम थे मुकर्रर जिसे बनाते गए।
भरम तो रखना था मदहोश निगाहों का भी,
हम भी बस पीते गए और वो पिलाते गए।
हर एक मोड पे पत्थर जो मुझसे टकराए,
रह चलने के सलीके सभी सिखाते गए।
कल की सब याद बहुत आए थे “सूरज” वो हमें,
नाम लिख लिख के हथेली पे हम मिटाते गए।

५७.

शहर का आदमी अब गाँव जाना चाहता है,
सुकून, आराम, खुशियाँ , चैन पाना चाहता है।
सांस लेना हुआ दुश्वार, पत्थरों के जंगल में,
बगीचे गाँव के फिर से सजाना चाहता है ।
दीवारों मे सिमट के रह गया जो रात-दिन ,
खुले आकाश मे कुछ पल बिताना चाहता है।
डर गया है, क़त्ल, बारूदी धमाके देखकर,
दिन ब दिन के हादसों से दूर जाना चाहता है।
कुछ न पाया चल के तन्हा इक उदासी के सिवा,
रिश्ते नातों का घरौंदा फिर बनाना चाहता है।