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सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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रविवार, 12 मई 2013

प्रफुल्ल कुमार 'परवेज़'

जन्म: 24 सितम्बर 1947 को कुल्लू (हिमाचल प्रदेश ) में,निधन: 24 जुलाई 2006,कृतियाँ 'रास्ता बनता रहे' (ग़ज़ल संग्रह) तथा 'संसार की धूप' (कविता संग्रह)

१.
सब के हिस्से से उन्हें हिस्सा सदा मिलता रहे
चाहते हैं लोग कुछ, ये सिलसिला चलता रहे

चन्द लोगों की यही कोशिश रही है दोस्तो
आदमी का आदमी से फ़ासला बढ़ता रहे

खल रहा है इस शहर में आदमी को आदमी
इस शहर में कब तलक अब हादसा टलता रहे

आने वाला कल मसीहा ले के आएगा यहाँ
दर्द सीने में अगर बाक़ायदा पलता रहे

अपनी आँखों से हमें भी खोलनी हैं पट्टियाँ
फ़ायदा क्या है कि अन्धा क़ाफ़िला चलता रहे

वक़्त तो लगता है आख़िर पत्थरों का है पहाड़
मेरा मक़सद है वहाँ इक रास्ता बनता रहे.

२.

हर गवाही से मुकर जाता है पेट
उनकी जूठन तक उतर जाता है पेट

इस तरह कुछ साज़िशें करते हैं वो
सर से पाओं तक बिखर जाता है पेट

ज़हनो-दिल को ठौर मिलती ही नहीं
सारे बिस्तर पर पसर जाता है पेट

हर सुबह हर शाम बनिये की तरह
मेरी चौखट पे ठहर जाता है पेट

मेरे हाथों से महब्बत है उन्हें
उनकी आँखों में अखर जाता है पेट

चीख़ता रहता है दिन भर दर्द से
रात आती है तो मर जाता है पेट

हार कर ख़ुद भूख से अक्सर मुझे
दुश्मनों की ओर कर जाता है पेट

बेअदब हूँ , बेहया हूँ , बेशर्म हूँ
तोहमतें हर बार धर जाता है पेट

३.

हमसे हर मौसम सीधा टकराता है
संसद केवल फटा हुआ इक छाता है

भूख अगर गूँगेपन तक ले जाए तो
आज़ादी का क्या मतलब रह जाता है

लेकिन अब यह प्रश्न अनुत्तरित नहीं रहा
प्रजातंत्र से जनता का क्या नाता है

बीवी है बीमार , सभी बच्चे भूखे
बाप मगर घर जाने से कतराता है

परम्पराएँ अंदर तक हिल जाती हैं
सन्नाटे में जब कोई चिल्लाता है

क्यूँ न वह प्रतिरोध करे सच्चाई का
अपने खोटे सिक्के जो भुनवाता है.

४.

हर सहर धूप की मानिंद बिखरते हुए लोग
और सूरज की तरह शाम को ढलते हुए लोग

एक मक़्तल—सा निगाहों में लिए चलते हैं
घर से दफ़्तर के लिए रोज़ निकलते हुए लोग

घर की दहलीज़ पे इस तरह क़दम रखते हैं
जैसे खोदी हुई क़ब्रों में उतरते हुए लोग

बारहा भूल गए अपने ही चेहरों के नुकूश
रोज़ चेहरे की नक़ाबों को बदलते हुए लोग

धूप तो मुफ़्त में बदनाम है आ दिखलाऊँ
सर्द बंगलों की पनाहों में झुलसते हुए लोग

ज़िक्र सूरज का किसी तरह गवारा नहीं करते
घुप अँधेरों में सितारों से बहलते हुए लोग

आज के दौर में गुफ़्तार के सब माहिर हैं
अब नहीं मिलते क़फ़न बाँध के चलते हुए लोग

५.

जब कभी उनको उघाड़ा जाएगा
हर दफ़ा हमको लताड़ा जाएगा

जो नहीं रुकते किसी तरह उन्हें
ऐसा लगता है कि गाड़ा जाएगा

पीपलों की पौध ढूँढी जाएगी
फिर उन्हें जड़ से उखाड़ा जाएगा

झूठ को आबाद करने के लिए
हर हक़ीक़त को उजाड़ा जाएगा

हम गुफ़ाओं को ग़नीमत मान लें
इस क़दर मौसम बिगाड़ा जाएगा.

६.

ये कौन सी फ़ज़ा है ये कौन सी हवा
छाँवों का हर दरख़्त झुलसता चला गया

तुमसे मिले हुए भी हुईं मुद्दतें मगर
ख़ुद से मिले हुए भी तो अरसा बहुत हुआ

अहदे वफ़ा के साथ करें हम भी क्या सुलूक
तेरा भी क्या पता है मेरा भी क्या पता

मेरे सवाल जब न किताबों से हल हुए
मैंने तो ज़िन्दगी को मदरसा बना लिया

चलने को चल रहे हैं ज़माने के साथ हम
दिल में दबा हुआ बराबर गुबार-सा.


७.


ज़मीन छोड़ कर ऊँची उड़ान में ही रहा
अजीब शख़्स था वहमो—गुमान में ही रहा

तमाम उम्र कोई था निगाह में लेकिन
वो एक तीर जो अपनी उड़ान में ही रहा

कहाँ सुकून था लेकिन कहाँ तलाश किया
हर एक शख़्स फ़क़त आनबान में ही रहा

जहाँ भी मुड़ के कभी हमने ध्यान से देखा
बला का दोस्त भी अपने मचान में ही रहा

वो चार साल का बचपन गुज़र गया जब से
हर एक लम्हा किसी इम्तहान में ही रहा

शहर में करते तो हम किससे गुफ़्तगू करते
कि हमक़लम भी तो अपनी दुकान में ही रहा

बढ़ा के देख लिया हाथ हर दफ़ा हमने
सभी का हाथ तो अपनी थकान में ही रहा

कहीं पे शोर उठा या कहीं पे आग लगी
ज़हीन आदमी अपने मकान में ही रहा.