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सन्देश

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और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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मंगलवार, 21 मई 2013

अली अहमद जलीली


१.
अब छलकते हुए सागर नहीं देखे जाते
तौबा के बाद ये मंज़र नहीं देखे जाते

मस्त कर के मुझे, औरों को लगा मुंह साक़ी
ये करम होश में रह कर नहीं देखे जाते

साथ हर एक को इस राह में चलना होगा
इश्क़ में रहज़न-ओ-रहबर नहीं देखे जाते

हम ने देखा है ज़माने का बदलना लेकिन
उन के बदले हुए तेवर नहीं देखे जाते


२.
ख़ुशी ने मुझ को ठुकराया है रन्ज-ओ-ग़म ने पाला है
गुलों ने बेरुख़ी की है तो कांटों ने सम्भाला है

मुहब्बत मे ख़याल-ए-साहिल-ओ-मन्ज़िल है नादानी
जो इन राहो मे लुट जाये वही तक़दीर वाला है

चराग़ां कर के दिल बहला रहे हो क्या जहां वालों
अन्धेरा लाख रौशन हो उजाला फिर उजाला है

किनारो से मुझे ऐ नाख़ुदा दूर ही रखना
वहाँ लेकर चलो तूफ़ाँ जहाँ से उठने वाला है

नशेमन ही के लुट जाने का ग़म होता तो क्या ग़म था
यहाँ तो बेचने वालों ने गुलशन बेच डाला है