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सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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सोमवार, 13 मई 2013

चंद्रसेन विराट के दोहे


इतनी ही थी हैसियत, नहीं भक्ति में फेर।
सबके हाथों में है कमल, मेरे हाथ कनेर।।

लोक ग्रहण कर ले अगर, सिर्फ पंक्तियां चार।
मेरा कवि कृत-कृत्य हो, मानूं मैं आभार।।

रहता है भीतर छिपा, प्रतिभा का अंगार। 
करना होता आपको, अपना आविष्कार।।

सक्षम ही स्वीकार है, अक्षम अस्वीकार।। 
चुनता सदा सुयोग्य को, यह जग अति अनुदार।।

धुनकी हुई कपास के, फाहों सा हिमपात।
श्वेत स्वच्छ चादर बिछी, कांप रहा है गात।।

प्रश्नपत्र है जिंदगी, जस का तस स्वीकार्य।
कुछ भी वैकल्पिक नहीं, सबका सब अनिवार्य।।

देख ने भाते भीतरी, स्वयं विकृति-विस्तार।
करते केवल साहसी, निज से साक्षात्कार।

बहुत यत्न से हो गया, तन का तो तादात्म्य। 
मन न नियंत्रित हो सका, यह मन का माहात्म्य।

जीव जगत से ना पृथक, ब्रह्म नियामक शक्ति।
यह विशिष्टाद्वैत है, दर्शन की अभिव्यक्ति।।

नायक धीरोदात्त से, धीर-ललित अति प्रेय।
रूप, प्रणय, माधुर्य की, समरसता का श्रेय।।

उदयन वीणा छेड़ते, स्वर होते साकार।
वासवदत्ता ही बजी, बन वीणा का तार।।