जन्म: ५ जुलाई १९५७, रुढ़की, जिला हरिद्वार,
उत्तरांचल,'शबनमी अहसास' तथा 'हवा के काँधे पे' ग़ज़ल संग्रह।
१.
मुझको रोके थी अना और यार कुछ मगऱूर था
जिस्म से था सामने लेकिन वो दिल से दूर था।
मैं मदद के वास्ते नाहक वहाँ चीखा किया
घर पड़ौसी के न जाने का जहाँ दस्तूर था।
हाथ मेरे दोस्तो इस जुर्म में काटे गए
ताज के कारीगरों में मैं भी इक मजदूर था।
हाथ में सैयाद के मैं क्यों नहीं आता भला
पंख थे ज़ख्मी मेरे और मैं थकन से चूर था।
क्यों मुझे मिलती तरक्की आज के माहौल में
सर झुकाना दुम हिलाना कुछ नहीं मंजूर था।
२.
समझेगा कोई कैसे असरार ज़िंदगी के
होते नहीं हैं रस्ते हमवार ज़िंदगी के।
ये कौन-सी है बस्ती ये कौन-सा जहाँ है
ख़तरे में दीखते हैं आसार ज़िंदगी के।
जब इक ख़ुशी मिली तो सौ गम़ भी साथ आए
ऐसे रहे हैं अब तक उपकार ज़िंदगी के।
अपना ही हाथ जैसे अपने लहू में तर है
देखें हैं रंग ऐसे सौ बार ज़िंदगी के।
सारी उमर हैं तरसे ख़ुद ही से मिलने को हम
कुछ इस तरह निभाए किरदार ज़िंदगी के।
इक भूख से बिलखते बच्चे ने माँ से पूछा
'क्या सच में हम नहीं हैं हक़दार ज़िंदगी के।'
'ऋषि' जिसने ज़िंदगी के सब फऱ्ज थे निभाए
क्यों उसको मिल न पाए अधिकार ज़िंदगी के।
३.
क्यों फासिले-से आ गए हैं अब दिलों के बीच
भरनी हैं कुछ मुहब्बतें इन फासिलों के बीच।
बेकारियाँ हैं मुफलिसी लाचारियाँ बहुत
ज़िन्दा हैं अपने लोग इन्हीं कातिलों के बीच।
तूफाँ से क्या गिला करें मौजों से क्या गिला
जिसका सफ़ीना डूब गया साहिलों के बीच।
जलसे, जुलूस, रैलियों में खो गया जहाँ
तन्हाइयों का ज़िक्र है अब महफ़िलों के बीच।
काँधे पे उसके हाथ रखा तो वो रो पड़ा
हँसता रहा हमेशा ही जो मुश्किलों के बीच।
४.
खुले ही रहते थे जब दिल के द्वार आँगन में
तो ख़ुशियाँ आती थीं बाँधे कतार आँगन में।
मकान ख़ाली है कोई यहाँ नहीं रहता
बता रहे हैं मुझे बिखरे खार आँगन में।
हैं भाई-भाई भी दुश्मन ज़मीनों ज़र के लिए
न प्यार मिलता है ना एतबार आँगन में।
लगा यों बाप को दिल उसका टुकड़े-टुकड़े हुआ
जब उसके बेटों ने खींची दिवार आँगन में।
नगर जो फैले तो आँगन सिकुड़ गए ऐसे
कि छज्जे होने लगे हैं शुमार आँगन में।
चुगेंगीं आके इन्हें अम्नो चैन की चिड़ियाँ
बिखेर प्यार के दाने तू यार आँगन में।
'ऋषी' मकानों में आँगन ही अब नहीं मिलते
बिखेरूँ कैसे भला अब मैं प्यार आँगन में।
५.
तुमने छुआ था मेरा जब हाथ चुपके-चुपके
कितने मचल उठे थे जज्बात चुपके-चुपके।
बिखरे हुए हैं ख़्वाबों के फूल सहने दिल में
आया था दिल के घर में कोई रात चुपके-चुपके।
बस्ती में ख़्वाहिशों की हलचल मचा गए हैं
वो इक झलक की देके सौग़ात चुपके-चुपके।
क्या जाने खौफ़ क्या है उनके जहन में यारो?
करते हैं आजकल वो हर बात चुपके-चुपके।
वो भी नहीं बताते अब दर्द अपने दिल का
और हम भी सह रहें हैं सदमात चुपके-चुपके।
आँखों का पानी देखा, देखी नहीं है तुमने
अन्दर जो हो रही है बरसात चुपके-चुपके।
यूँ कहने को तो मुझसे ही मिलने आए हैं वो
पर देखते हैं मेरी औक़ात चुपके-चुपके।।
६.
लग रहा है ज़िन्दगी रूठी हुई है
आजकल उनकी नज़र बदली हुई है।
फूल अब उनके सहन के दीखना बन्द
लगता है दीवार कुछ ऊँची हुई है।
मलगजे कपड़ों में उनको देखकर रात
चाँद खुश है, चाँद की चाँदी हुई है।
रात अंधेरे की हुई बारिश ज़ियादह
धूप की चादर भी कुछ गीली हुई है।
ख़्वाहिशों पे अब भी बच्चे-सा मचलना
कैसे कह दूँ ज़िन्दगी सँभली हुई है?
आप देते जाएँ बदनामी के छींटे
हमने चादर ज़ब्त की ओढी हुई है।
फिर कोई सौदा किया है बागबाँ ने
फूल हैं चुप हर कली सहमी हुई है।
ज़िन्दगी के बाग में बच्चे-सा दौडूँ
कैसे पकडूँ? हर खुशी तितली हुई है।
ऐ 'ऋषी' जज़्बात अपने, दोस्त अपने
फ़स्ले-गम़ इस बार भी अच्छी हुई है।
१.
मुझको रोके थी अना और यार कुछ मगऱूर था
जिस्म से था सामने लेकिन वो दिल से दूर था।
मैं मदद के वास्ते नाहक वहाँ चीखा किया
घर पड़ौसी के न जाने का जहाँ दस्तूर था।
हाथ मेरे दोस्तो इस जुर्म में काटे गए
ताज के कारीगरों में मैं भी इक मजदूर था।
हाथ में सैयाद के मैं क्यों नहीं आता भला
पंख थे ज़ख्मी मेरे और मैं थकन से चूर था।
क्यों मुझे मिलती तरक्की आज के माहौल में
सर झुकाना दुम हिलाना कुछ नहीं मंजूर था।
२.
समझेगा कोई कैसे असरार ज़िंदगी के
होते नहीं हैं रस्ते हमवार ज़िंदगी के।
ये कौन-सी है बस्ती ये कौन-सा जहाँ है
ख़तरे में दीखते हैं आसार ज़िंदगी के।
जब इक ख़ुशी मिली तो सौ गम़ भी साथ आए
ऐसे रहे हैं अब तक उपकार ज़िंदगी के।
अपना ही हाथ जैसे अपने लहू में तर है
देखें हैं रंग ऐसे सौ बार ज़िंदगी के।
सारी उमर हैं तरसे ख़ुद ही से मिलने को हम
कुछ इस तरह निभाए किरदार ज़िंदगी के।
इक भूख से बिलखते बच्चे ने माँ से पूछा
'क्या सच में हम नहीं हैं हक़दार ज़िंदगी के।'
'ऋषि' जिसने ज़िंदगी के सब फऱ्ज थे निभाए
क्यों उसको मिल न पाए अधिकार ज़िंदगी के।
३.
क्यों फासिले-से आ गए हैं अब दिलों के बीच
भरनी हैं कुछ मुहब्बतें इन फासिलों के बीच।
बेकारियाँ हैं मुफलिसी लाचारियाँ बहुत
ज़िन्दा हैं अपने लोग इन्हीं कातिलों के बीच।
तूफाँ से क्या गिला करें मौजों से क्या गिला
जिसका सफ़ीना डूब गया साहिलों के बीच।
जलसे, जुलूस, रैलियों में खो गया जहाँ
तन्हाइयों का ज़िक्र है अब महफ़िलों के बीच।
काँधे पे उसके हाथ रखा तो वो रो पड़ा
हँसता रहा हमेशा ही जो मुश्किलों के बीच।
४.
खुले ही रहते थे जब दिल के द्वार आँगन में
तो ख़ुशियाँ आती थीं बाँधे कतार आँगन में।
मकान ख़ाली है कोई यहाँ नहीं रहता
बता रहे हैं मुझे बिखरे खार आँगन में।
हैं भाई-भाई भी दुश्मन ज़मीनों ज़र के लिए
न प्यार मिलता है ना एतबार आँगन में।
लगा यों बाप को दिल उसका टुकड़े-टुकड़े हुआ
जब उसके बेटों ने खींची दिवार आँगन में।
नगर जो फैले तो आँगन सिकुड़ गए ऐसे
कि छज्जे होने लगे हैं शुमार आँगन में।
चुगेंगीं आके इन्हें अम्नो चैन की चिड़ियाँ
बिखेर प्यार के दाने तू यार आँगन में।
'ऋषी' मकानों में आँगन ही अब नहीं मिलते
बिखेरूँ कैसे भला अब मैं प्यार आँगन में।
५.
तुमने छुआ था मेरा जब हाथ चुपके-चुपके
कितने मचल उठे थे जज्बात चुपके-चुपके।
बिखरे हुए हैं ख़्वाबों के फूल सहने दिल में
आया था दिल के घर में कोई रात चुपके-चुपके।
बस्ती में ख़्वाहिशों की हलचल मचा गए हैं
वो इक झलक की देके सौग़ात चुपके-चुपके।
क्या जाने खौफ़ क्या है उनके जहन में यारो?
करते हैं आजकल वो हर बात चुपके-चुपके।
वो भी नहीं बताते अब दर्द अपने दिल का
और हम भी सह रहें हैं सदमात चुपके-चुपके।
आँखों का पानी देखा, देखी नहीं है तुमने
अन्दर जो हो रही है बरसात चुपके-चुपके।
यूँ कहने को तो मुझसे ही मिलने आए हैं वो
पर देखते हैं मेरी औक़ात चुपके-चुपके।।
६.
लग रहा है ज़िन्दगी रूठी हुई है
आजकल उनकी नज़र बदली हुई है।
फूल अब उनके सहन के दीखना बन्द
लगता है दीवार कुछ ऊँची हुई है।
मलगजे कपड़ों में उनको देखकर रात
चाँद खुश है, चाँद की चाँदी हुई है।
रात अंधेरे की हुई बारिश ज़ियादह
धूप की चादर भी कुछ गीली हुई है।
ख़्वाहिशों पे अब भी बच्चे-सा मचलना
कैसे कह दूँ ज़िन्दगी सँभली हुई है?
आप देते जाएँ बदनामी के छींटे
हमने चादर ज़ब्त की ओढी हुई है।
फिर कोई सौदा किया है बागबाँ ने
फूल हैं चुप हर कली सहमी हुई है।
ज़िन्दगी के बाग में बच्चे-सा दौडूँ
कैसे पकडूँ? हर खुशी तितली हुई है।
ऐ 'ऋषी' जज़्बात अपने, दोस्त अपने
फ़स्ले-गम़ इस बार भी अच्छी हुई है।