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सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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शनिवार, 18 मई 2013

असग़र गोण्डवी

जन्म:१८८४-निधन: 1936 ,गोंडा, उत्तर प्रदेश,  प्रमुख कृतियाँ -निशात-ए-रूह, सरूद-ए -ज़िंदगी

१.

समा गए मेरी नज़रों में छा गए दिल पर।
ख़याल करता हूँ, उनको कि देखता हूँ मैं॥

न कोई नाम है मेरा न कोई सूरत है।
कुछ इस तरह हमातनदीद हो गया हूं मैं॥

न कामयाब हुआ और न रह गया महरूम।
बडा़ ग़ज़ब है कि मंज़िल पै खो गया हूँ मैं॥


२.
ये राज़ है मेरी ज़िंदगी का
पहने हुए हूँ कफ़न खुदी का

फिर नश्तर-ए-गम से छेड़ते हैं
इक तर्ज़ है ये भी दिल दही का

ओ लफ्ज़-ओ-बयाँ में छुपाने वाले
अब क़स्द है और खामोशी का

मारना तो है इब्तदा की इक बात
जीना है कमाल मुंतही का

हाँ सीना गुलों की तरह कर चाक
दे मार के सबूत ज़िंदगी का


३.
ये मुझ से पूछिए क्या जूस्तजू में लज़्ज़त है
फ़ज़ा-ए-दहर में तहलियल हो गया हूँ मैं

हटाके शीशा-ओ-सागर हुज़ूम-ए-मस्ती में
तमाम अरसा-ए-आलम पे छा गया हूँ मैं

उड़ा हूँ जब तो फलक पे लिया है दम जा कर
ज़मीं को तोड़ गया हूँ जो रह गया हूँ मैं

रही है खाक के ज़र्रों में भी चमक मेरी
कभी कभी तो सितारों में मिल गया हूँ मैं

समा गये मेरी नज़रों में छा गये दिल पर
ख़याल करता हूँ उन को कि देखता हूँ मैं


४.
ये इश्क़ ने देखा है, ये अक़्ल से पिन्हाँ है
क़तरे में समन्दर है, ज़र्रे में बयाबाँ है

ऐ पैकर-ए-महबूबी मैं, किस से तुझे देखूँ
जिस ने तुझे देखा है, वो दीदा-ए-हैराँ है

सौ बार तेरा दामन, हाथों में मेरे आया
जब आँख खुली देखा, अपना ही गिरेबाँ है

ये हुस्न की मौजें हैं, या जोश-ए-तमन्ना है
उस शोख़ के होंठों पर, इक बर्क़-सी लरज़ाँ है

"असग़र" से मिले लेकिन, "असग़र" को नहीं देखा
अशआर में सुनते हैं, कुछ-कुछ वो नुमायाँ है


५.
मौजों का अक्स है, ख़त-ए-जाम-ए-शराब में
या ख़ून उछल रहा है, रग-ए-माहताब में

वो मौत है कि कहते हैं, जिसको सुकून सब
वो ऐन ज़िन्दगी है,जो है इज़्तराब में

दोज़ख़ भी एक जल्वा-ए-फ़िरदौस-ए-हुस्न है
जो इस से बेख़बर हैं, वही हैं अज़ाब में

उस दिन भी मेरी रूह थी, मह्व-ए-निशात-ए-दीद
मूसा उलझ गए थे, सवाल-ओ-जवाब में

मैं इज़्तराब-ए-शौक़ कहूँ या जमाल-ए-दोस्त
इक बर्क़ है जो कौंध रही है नक़ाब में


६.
मरते-मरते न कभी आक़िलो-फ़रज़ाना बने।
होश रखता हो जो इन्सान तो दिवाना बने॥

परतबे-रुख़ के करिश्मे थे सरे राहगुज़र।
ज़र्रे जो ख़ाक से उट्ठे, वो सनमख़ाना बने॥

कारफ़रमा है फ़क़त हुस्न का नैरंगे-कमाल।
चाहे वो शमअ़ बने, चाहे वो परवाना बने॥


७.
बिस्तर-ए-ख़ाक पे बैठा हूँ , न मस्ती है न होश
ज़र्रे सब साकित ओ सामत हैं, सितारे ख़ामोश

नज़र आती है मज़ाहिर में मेरी शक्ल मुझे
फ़ितरत-ए-आईना बदस्त और मैं हैरान-ओ-ख़ामोश

तर्जुमानी की मुझे आज इजाज़त दे दे
शजर-ए-"तूर" है साकित, लब-ए-मन्सूर ख़ामोश

बहर आवाज़ "अनल बहर" अगर दे तो बजा
पर्दा-ए-क़तरा-ए-नाचीज़ से क्यूँ है यह ख़रोश?

हस्ती-ए-ग़ालिब से गवारा-ए-फ़ितरत जुम्बां
ख़्वाब में तिफ़्लक-ए-आलम है सरासर मदहोश

पर्तव-ए-महर ही ज़ौक़-ए-राम ओ बेदारी दे
बिस्तर-ए-गुल पे है इक क़तरा-ए-शबनम मदहोश


८.
पास-ए-अदब में जोश-ए-तमन्ना लिये हुए
मैं भी हूँ एक हुबाब में दरिया लिये हुए

रग-रग में और कुछ न रहा जुज़ ख़याल-ए-दोस्त
उस शोख़ को हूँ आज सरापा लिये हुए

सरमाया-ए-हयात है हिर्माने-ए-आशिक़ी
है साथ एक सूरत-ए-ज़ेबा लिये हुए

जोश-ए-जुनूँ में छूट गया आस्तान-ए-यार
रोते हैं मुँह में दामन-ए-सहरा लिये हुए

"असग़र" हुजूम-ए-दर्द-ए-ग़रीबी में उसकी याद
आई है इक तिलिस्मी तमन्ना लिये हुए


९.
खुदा जाने कहाँ है 'असग़र'-ए- दीवाना बरसों से
कि उस को ढूँढते हैं काबा-ओ-बुतखाना बरसों से

तड़पना है न जलना है न जलकर ख़ाक होना है
ये क्यों सोई हुई है फ़ितरत-ए-परवाना बरसों से

कोई ऐसा नहीं यारब कि जो इस दर्द को समझे
नहीं मालूम क्यों ख़ामोश है दीवाना बरसों से

हसीनों पर न रंग आया न फूलों में बहार आई
नहीं आया जो लब पर नग़मा-ए-मस्ताना बरसों से


१०.
कभी है महवेदीद ऐसे समझ बाक़ी नहीं रहती।
कभी दीदार से महरूम है इतना समझते हैं॥

यही थोड़ी-सी मय है और यही छोटा-सा पैमाना।
इसी से रिन्द राज़े-गुम्बदे-मीना समझते हैं॥

कभी तो जुस्तजू जलवे की भी परदा बताती है।
कभी हम शौक़ में परदे को भी जलवा समझते हैं॥

यह ज़ौके़दीद की शोखी़, वो अक्से-रंगे-महबूबी।
न जलवा है न परदा, हम उसे तनहा समझते हैं॥


११.
इक आलम-ए-हैरत है, फ़ना है न बक़ा है
हैरत भी ये है कि, क्या जानिए क्या है

सौ बार जला है तो, ये सौ बार बना है
हम सख़्त जानों का, नशेमन भी बला है

होठों पे तबस्सुम है, कि एक बर्क़-ए-बला है
आंखों का इशारा है, कि सैलाब-ए-फ़ना है

सुनता हूँ बड़े गौर से, अफ़साना-ए-हस्ती
कुछ ख़्वाब है कुछ अस्ल है, कुछ तर्ज़-ए-अदा है

है तेरे तसव्वुर से यहाँ, नूर की बारिश
ये जान-ए-हज़ीं है कि, शबिस्तान-ए-हिरा है


१२.
अब तक नहीं देखा है, क्या उस रुख़ेख़न्दाँ को।
इकतारे शुआ़ई से उलझा है जो परवाना॥

माना कि बहुत कुछ है, यह गर्मिए-हुस्ने शमअ़।
इससे भी ज़ियादा है, सोज़े-ग़मे-परवाना॥

ज़ाहिद को तआज्जुब है, सूफ़ी को तहय्युर है।
सद-रस्के-तरीक़त है, इक लग़ज़िशे-मस्ताना॥


 कुछ चुनिन्दा शेर 

इश्क ही सअ़ई मेरी, इश्क ही हासिल मेरा
यही मंज़िल है, यही जाद-ए-मंज़िल मेरा।

दैर-ओ-हरम भी कूचए-जानाँ में आए थे।
पर शुक्र है कि बढ़ गए दामन बचा के हम॥

नियाज़े-इश्क़ को समझा है क्या ऐ वाइज़े-नादाँ।
हज़ारों बन गए काबे, जहाँ मैंने जबी रख दी॥

क्या दर्दे-हिज्र और यह क्या लज़्ज़ते-विसाल।
उससे भी कुछ बुलंद मिली है नज़र मुझे॥

अब न यह मेरी ज़ात है, अब न यह कायनात है।
मैंने नवाये-इश्क को साज़ से यूँ मिला दिया॥

मेरे मज़ाके़-शौक़ का इसमें भरा है रंग।
मैं खुद को देखता हूँ, कि तस्वीरे-यार को॥

खिलते ही बाग में पज़मुर्दा[1] हो चले।
जुम्बिश रंगे-बहार में मौजे-फ़ना की है॥

बुलबुलो-गुल में जो गुज़री हमको उससे क्या गरज़।
हम तो गुलशन में फ़क़त, रंगेचमन देखा किए॥

जानते हैं वो अदायें इस दिले-बेताब की।
उनसे बढ़कर कौन होगा, नुक्तादाने-इज़्तराब[2]

नासेह मुश्फ़िक़![3]मगर यूँ ही तड़पने दे मुझे।
मुझ को भी मालूम है, सूदो-ज़ियाने-इज़्तराब[4]



शब्दार्थ:
  1. कुम्हलाने लगे
  2. बेचैनी को समझनेवाला
  3. हितैशी उपदेशक
  4. बेचैनी का हानी-लाभ