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सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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रविवार, 19 मई 2013

बनज कुमार ‘बनज’ के दोहे


१.

रहे शारदा शीश पर दे मुझको वरदान।
गीत गजल दोहे लिखूँ मधुर सुनाऊँ गान।

हंस सवारी हाथ में वीणा की झंकार
वर दे माँ मैं कर सकूँ गीतों का शृंगार।

माँ शब्दों में तुम रहो मेरी इतनी चाह
पल-पल दिखलाती रहो मुझे सृजन की राह।

माँ तेरी हो साधना इस जीवन का मोल
तू मुझको देती रहे शब्द सुमन अनमोल।

अधर तुम्हारे हो गये बिना छुए ही लाल।
लिया दिया कुछ भी नहीं कैसे हुआ कमाल।

माँ तेरा मैं लाड़ला नित्य करूँ गुणगान।
नज़र सदा नीची रहे दूर रहे अभिमान।

माँ चरणों के दास को विद्या दे भरपूर
मुझको अपने द्वार से मत करना तू दूर।

सुनना हो केवल सुनूँ वीणा की झंकार।
चुनना हो केवल चुनूँ मैं तो माँ का द्वार।

मौन पराया हो गया शब्द हुए साकार
नित्य सुनाती माँ मुझे वीणा की झंकार।

माँ मुझको कर वापसी भूले बिसरे गीत
बिना शब्द के ज़िन्दगी कैसे हो अभिनीत।