१.
सोये हुए पलंग के साए जगा गया
खिड़की खुली तो आसमां कमरे में आ गया
आँगन में तेरी याद का झोंका जो आ गया
तन्हाई के दरख़्त से पत्ते उड़ा गया
हँसते चमकते ख़ाब के चेहरे भी मिट गए
बत्ती जली तो मन में अँधेरा सा छा गया
आया था काले ख़ून का सैलाब पिछली रात
बरसों पुरानी जिस्म की दीवार ढा गया
तस्वीर में जो क़ैद था वो शख़्स रात को
ख़ुद ही फ़रेम* तोड़ के पहलू में गया
वो चाय पी रहा था किसी दूसरे के साथ
मुझ पर निगाह पढ़ते ही कुछ झेंप सा गया
२.
कल फूल के महकने की आवाज़ जब सुनी
परबत का सीना चीर के नदी उछल पड़ी
मुझ को अकेला छोड़ के तू तो चली गई
महसूस हो रही है मुझे अब मेरी कमी
कुर्सी पलंग मेज़ क़ल्म और चांदनी
तेरे बग़ैर रात हर एक शय उदास थी
सूरज के इन्तेक़ाम की ख़ूनी तरंग में
यह सुबह जाने कितने सितारों को खा गई
आती हैं उसको देखने मौजें कुशां कुशां
साहिल पे बाल खोले नहाती है चांदनी
दरया की तह में शीश नगर है बसा हुआ
रहती है इसमे एक धनक-रंग जल परी
३.
बदन पर नई फ़स्ल आने लगी
हवा दिल में ख़्वाहिश जगाने लगी
कोई ख़ुदकुशी की तरफ़ चल दिया
उदासी की मेहनत ठिकाने लगी
जो चुपचाप रहती थी दीवार में
वो तस्वीर बातें बनाने लगी
ख़यालों के तरीक खंडरात में
ख़मोशी ग़ज़ल गुनगुनाने लगी
ज़रा देर बैठे थे तन्हाई में
तिरी याद आँखें दुखाने लगी
४.
तीरगी-सी कुछ लकीरें खींचता रहता हूँ मैं
रौशनी के उस तरफ़ जब-जब खड़ा रहता हूँ मैं
कोई भी मौसम मुकम्मल कर नहीं पाया मुझे
कोई भी मौसम हो लेकिन अधखिला रहता हूँ मैं
आज भी पाता नहीं हूँ दाखिले का हौसला
जंगलों को दूर ही से देखता रहता हूँ मैं
क्या समंदर को मिला है वुसअतों से सोचिये
किसलिए अपने किनारे काटता रहता हूँ मैं
क्या पता ऐसे भी पाऊँ अपने होने का सुराग़
पत्थरों में ज़िंदगी को ढूँढता रहता हूँ मैं
मिल गया मुझको ज़मीनों-आसमां से क्या फ़रार
ख़्वाब के रौशन नगर में घूमता रहता हूँ मैं
इस तरफ़ आते नहीं हैं खुशबुओं के क़ाफ़िले
मुद्दतों था बंद लेकिन अब तो वा रहता हूँ मैं
वस्ल की लज़्ज़त मिलेगी बंद होने में मगर
‘मैं हूँ दरवाज़ा मुहब्बत का खुला रहता हूँ मैं’
आग में हूँ, आब में हूँ, बाद में हूँ, ख़ाक में
गुम हुआ हूँ कैसा ‘आदिल’ जाबजा रहता हूँ मैं