" हिन्दी काव्य संकलन में आपका स्वागत है "


"इसे समृद्ध करने में अपना सहयोग दें"

सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
हिन्दी काव्य संकलन में उपल्ब्ध सभी रचनायें उन सभी रचनाकारों/ कवियों के नाम से ही प्रकाशित की गयी है। मेरा यह प्रयास सभी रचनाकारों को अधिक प्रसिद्धि प्रदान करना है न की अपनी। इन महान साहित्यकारों की कृतियाँ अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाना ही इस ब्लॉग का मुख्य उद्देश्य है। यदि किसी रचनाकार अथवा वैध स्वामित्व वाले व्यक्ति को "हिन्दी काव्य संकलन" के किसी रचना से कोई आपत्ति हो या कोई सलाह हो तो वह हमें मेल कर सकते हैं। आपकी सूचना पर त्वरित कार्यवाही की जायेगी। यदि आप अपने किसी भी रचना को इस पृष्ठ पर प्रकाशित कराना चाहते हों तो आपका स्वागत है। आप अपनी रचनाओं को मेरे दिए हुए पते पर अपने संक्षिप्त परिचय के साथ भेज सकते है या लिंक्स दे सकते हैं। इस ब्लॉग के निरंतर समृद्ध करने और त्रुटिरहित बनाने में सहयोग की अपेक्षा है। आशा है मेरा यह प्रयास पाठकों के लिए लाभकारी होगा.(rajendra651@gmail.com)

फ़ॉलोअर

शनिवार, 3 अगस्त 2013

मैथिलीशरण गुप्त

परिचय :
माँ भारती के वरद पुत्र मैथिलीशरण गुप्त का जन्म ३ अगस्त सन १८८६ ई. में पिता सेठ रामचरण कनकने और माता कौशिल्या बाई की तीसरी संतान के रुप में चिरगांव, झांसी में हुआ। माता और पिता दोनों ही परम वैष्णव थे। वे "कनकलताद्ध" नाम से कविता करते थे। विद्यालय में खेलकूद में अधिक ध्यान देने के कारण पढ़ाई अधूरी ही रह गयी। घर में ही हिन्दी, बंगला, संस्कृत साहित्य का अध्ययन किया।मैथिलीशरण गुप्त खड़ी बोली कविता के प्रथम महत्त्वपूर्ण कवि हैं।आगरा विश्वविद्यालय से उन्हें डी.लिट. से सम्मानित किया गया। १९५२-१९६४ तक राज्य सभा के सदस्य मनोनीत हुये। सन् १९५३ ई. में भारत सरकार ने उन्हें "पद्म विभूषण' से सम्मानित किया। तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने सन् १९६२ ई. में "अभिनन्दन ग्रन्थ' भेंट किया तथा हिन्दू विश्वविद्यालय के द्वारा डी.लिट. से सम्मानित किये गये। मैथिलीशरण गुप्त को साहित्य एवं शिक्षा क्षेत्र में पद्म भूषण से १९५४ में सम्मानित किया गया।
प्रमुख कृतियाँ: महाकाव्य- साकेत,खंड काव्य- जयद्रथ वध, भारत-भारती, पंचवटी, यशोधरा, द्वापर, सिद्धराज, नहुष, अंजलि और अर्ध्य, अजित, अर्जन और विसर्जन
मृत्यु: सन १९६४ ई.
*****************************************************

मुझे फूल मत मारो

मुझे फूल मत मारो
मैं अबला बाला वियोगिनी कुछ तो दया विचारो।
होकर मधु के मीत मदन पटु तुम कटु गरल न गारों
मुझे विकलता तुम्हें विफलता ठहरो श्रम परिहारो।
नही भोगनी यह मैं कोई जो तुम जाल पसारो
बल हो तो सिन्दूर बिन्दु यह यह हर नेत्र निहारो
रूप दर्प कंदर्प तुम्हें तो मेरे पति पर वारो
लो यह मेरी चरण धूलि उस रति के सिर पर धारो।
मनुष्यता

विचार लो कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी,
मरो परन्तु यों मरो कि याद जो करे सभी।
हुई न यों सु-मृत्यु तो वृथा मरे, वृथा जिए,
मरा नहीं वहीं कि जो जिया न आपके लिए।

यही पशु-प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।

उसी उदार की कथा सरस्वती बखानती,
उसी उदार से धरा कृतार्थ भाव मानती।
उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती,
तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती।

अखंड आत्म भाव जो असीम विश्व में भरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।

सहानुभूति चाहिए, महाविभूति है वही,
वशीकृता सदैव है बनी हुई स्वयं मही।
विरुद्धवाद बुद्ध का दया-प्रवाह में बहा,
विनीत लोक वर्ग क्या न सामने झुका रहे?

अहा! वही उदार है परोपकार जो करे,
वहीं मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।
अनंत अंतरिक्ष में अनंत देव हैं खड़े,समक्ष ही स्वबाहु जो बढ़ा रहे बड़े-बड़े।
परस्परावलम्ब से उठो तथा बढ़ो सभी,
अभी अमर्त्य-अंक में अपंक हो चढ़ो सभी।

रहो न यों कि एक से न काम और का सरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।

"मनुष्य मात्र बन्धु है" यही बड़ा विवेक है,
पुराण पुरुष स्वयंभू पिता प्रसिद्ध एक है।
फलानुसार कर्म के अवश्य बाह्य भेद है,
परंतु अंतरैक्य में प्रमाणभूत वेद हैं।

अनर्थ है कि बंधु हो न बंधु की व्यथा हरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।

चलो अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुए,
विपत्ति विप्र जो पड़ें उन्हें ढकेलते हुए।
घटे न हेलमेल हाँ, बढ़े न भिन्नता कभी,
अतर्क एक पंथ के सतर्क पंथ हों सभी।

तभी समर्थ भाव है कि तारता हुआ तरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।

नर हो न निराश करो मन को

कुछ काम करो कुछ काम करो
जग में रह के निज नाम करो।

यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो!
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो।
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो न निराश करो मन को।

सँभलो कि सुयोग न जाए चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला!
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना।
अखिलेश्वर है अवलम्बन को
नर हो न निराश करो मन को।।

जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ
फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ!
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो
उठ के अमरत्व विधान करो।
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो न निराश करो मन को।।

निज गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे।
सब जाय अभी पर मान रहे
मरणोत्तर गुंजित गान रहे।
कुछ हो न तजो निज साधन को
नर हो न निराश करो मन को।।                                                                                                                 दोनों ओर प्रेम पलता है

दोनों ओर प्रेम पलता है
सखि पतंग भी जलता है हा दीपक भी जलता है

सीस हिलाकर दीपक कहता
बंधु वृथा ही तू क्यों दहता
पर पतंग पड़कर ही रहता कितनी विह्वलता है
दोनों ओर प्रेम पलता है

बचकर हाय पतंग मरे क्या
प्रणय छोड़कर प्राण धरे क्या
जले नही तो मरा करें क्या क्या यह असफलता है
दोनों ओर प्रेम पलता है

कहता है पतंग मन मारे
तुम महान मैं लघु पर प्यारे
क्या न मरण भी हाथ हमारे शरण किसे छलता है
दोनों ओर प्रेम पलता है

दीपक के जलने में आली
फिर भी है जीवन की लाली
किन्तु पतंग भाग्य लिपि काली किसका वश चलता है
दोनों ओर प्रेम पलता है

जगती वणिग्वृत्ति है रखती
उसे चाहती जिससे चखती
काम नही परिणाम निरखती मुझको ही खलता है

दोनों ओर प्रेम पलता है