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गुरुवार, 1 अगस्त 2013

झरना-जयशंकर प्रसाद


१. परिचय
उषा का प्राची में अभ्यास,
सरोरुह का सर बीच विकास॥
कौन परिचय? था क्या सम्बन्ध?
गगन मंडल में अरुण विलास॥


रहे रजनी मे कहाँ मिलिन्द?
सरोवर बीच खिला अरविन्द।
कौन परिचय? था क्या सम्बन्ध?
मधुर मधुमय मोहन मकरन्द॥


प्रफुल्लित मानस बीच सरोज,
मलय से अनिल चला कर खोज।
कौन परिचय? था क्या सम्बन्ध?
वही परिमल जो मिलता रोज॥


राग से अरुण घुला मकरन्द।
मिला परिमल से जो सानन्द।
वही परिचय, था वह सम्बन्ध
\'प्रेम का मेरा तेरा छन्द॥

२. झरना
मधुर हैं स्रोत मधुर हैं लहरी 
न हैं उत्पात, छटा हैं छहरी 
मनोहर झरना। 

कठिन गिरि कहाँ विदारित करना 
बात कुछ छिपी हुई हैं गहरी 
मधुर हैं स्रोत मधुर हैं लहरी 

कल्पनातीत काल की घटना 
हृदय को लगी अचानक रटना 
देखकर झरना। 

प्रथम वर्षा से इसका भरना 
स्मरण हो रहा शैल का कटना 
कल्पनातीत काल की घटना 

कर गई प्लावित तन मन सारा 
एक दिन तब अपांग की धारा 
हृदय से झरना- 

बह चला, जैसे दृगजल ढरना। 
प्रणय वन्या ने किया पसारा 
कर गई प्लावित तन मन सारा 

प्रेम की पवित्र परछाई में 
लालसा हरित विटप झाँई में 
बह चला झरना। 

तापमय जीवन शीतल करना 
सत्य यह तेरी सुघराई में 
प्रेम की पवित्र परछाई में॥

३.अव्यवस्थित
विश्व के नीरव निर्जन में।

जब करता हूँ बेकल, चंचल,
मानस को कुछ शान्त,
होती है कुछ ऐसी हलचल,
हो जाता हैं भ्रान्त,

भटकता हैं भ्रम के बन में,
विश्व के कुसुमित कानन में।

जब लेता हूँ आभारी हो,
बल्लरियों से दान
कलियों की माला बन जाती,
अलियों का हो गान,

विकलता बढ़ती हिमकन में,
विश्वपति! तेरे आँगन में।

जब करता हूँ कभी प्रार्थना,
कर संकलित विचार,
तभी कामना के नूपुर की,
हो जाती झनकर,

चमत्कृत होता हूँ मन में,
विश्व के नीरव निर्जन में।

४. पावस-प्रभात
नव तमाल श्यामल नीरद माला भली
श्रावण की राका रजनी में घिर चुकी,
अब उसके कुछ बचे अंश आकाश में
भूले भटके पथिक सदृश हैं घूमते।
अर्ध रात्री में खिली हुई थी मालती,
उस पर से जो विछल पड़ा था, वह चपल
मलयानिल भी अस्त व्यस्त हैं घूमता
उसे स्थान ही कहीं ठहरने को नहीं।

मुक्त व्योम में उड़ते-उड़ते डाल से,
कातर अलस पपीहा की वह ध्वनि कभी
निकल-निकल कर भूल या कि अनजान में,
लगती हैं खोजनें किसी को प्रेम से।

क्लान्त तारकागण की मद्यप-मंडली
नेत्र निमीलन करती हैं फिर खोलती।
रिक्त चपक-सा चन्द्र लुढ़ककर हैं गिरा,
रजनी के आपानक का अब अंत हैं।

रजनी के रंजक उपकरण बिखर गये,
घूँघट खोल उषा में झाँका और फिर
अरुण अपांगों से देखा, कुछ हँस पड़ी,
लगी टहलने प्राची के प्रांगण में तभी ॥

५. अतिथि
दूर हटे रहते थे हम तो आप ही
क्यों परिचित हो गये ? न थे जब चाहते-
हम मिलना तुमसे। न हृदय में वेग था
स्वयं दिखा कर सुन्दर हृदय मिला दिया

दूध और पानी-सी; अब फिर क्या हुआ-
देकर जो कि खटाई फाड़ा चाहते?
भरा हुआ था नवल मेघ जल-बिन्दु से,
ऐसा पवन चलाया, क्यों बरसा दिया?

शून्य हृदय हो गया जलद, सब प्रेम-जल-
देकर तुन्हें। न तुम कुछ भी पुलकित हुए।
मरु-धरणी सम तुमने सब शोषित किया।
क्या आशा थी आशा कानन को यही?

चंचल हृदय तुम्हारा केवल खेल था,
मेरी जीवन मरण समस्या हो गई।
डरते थे इसको, होते थे संकुचित
कभी न प्रकटित तुम स्वभाव कर दो कभी।