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सन्देश

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और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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सोमवार, 2 सितंबर 2013

'अज़ीज़' हामिद मदनी

जन्म: 1922, रायपुर में ,निधन: 1991
१. 
ताज़ा हवा बहार की दिल का मलाल ले गई
पा-ए-जुनूँ से हल्क़ा-ए-गर्दिश-ए-हाल ले गई

जुरअत-ए-शौक़ के सिवा ख़लवतियाँ-ए-ख़ास को
इक तेरे गम की आगही ता-ब-सवाल ले गई

शोला-ए-दिल बुझा भुझा ख़ाक-ए-ज़बाँ उड़ी उड़ी
दश्त-ए-हज़ार दाम से मौज-ए-ख़याल ले गई

रात की रात बू-ए-गुल कूज़ा-ए-गुल में बस गई
रंग-ए-हज़ार मै-कदा रूह-ए-सिफ़ाल ले गई

तेज़ हवा की चाप से तीरा-बनों मैं लौ उठी
रूह-ए-तग़य्युर-ए-जहाँ आग से फ़ाल ले गई

नाफ़-ए-आहू-ए-ततार ज़ख़्म-ए-नुमूद का शिकार
दश्त से ज़िंदगी की रौ एक मिसाल ले गई

हिज्र ओ विसाल ओ नेक ओ बदगर्दिश-ए-सद हज़ार-ओ-सद
तुझ को कहाँ कहाँ मेरे सर्व-ए-कमाल ले गई

नर्म हवा पे यूँ खुले कुछ तेरे पैरहन के राज़
सब तेरे जिस्म-ए-नाज़ के राज़-ए-विसाल ले गई

मातम-ए-मर्ग-ए-क़ैस की किस से बनेगी दास्ताँ
नौहा-ए-बे-ज़बाँ कोई चश्म-ए-ग़ज़ाल ले गई

२. 
हज़ार वक़्त के परतव-नज़र में होते हैं
हम एक हल्क़ा-ए-वहशत-असर में होते हैं

कभी कभी निगह-ए-आश्ना के अफ़साने
उसी हदीस-ए-सर-ए-रह-गुज़र में होते हैं

वही हैं आज भी उस जिस्म-ए-नाज़नीं के ख़ुतूत
जो शाख-ए-गुल में जो मौज-ए-गुहर में होते हैं

खुला ये दिल पे के तामीर-ए-बाम-ओ-दर में होते हैं
बगूले क़ालिब-ए-दीवार-ओ-दर में होते हैं

गुज़र रहा है तू आँखें चुरा के यूँ न गुज़र
ग़लत-बयाँ भी बहुत रह-गुज़र में होते हैं

क़फ़स वही है जहाँ रंज-ए-नौ-ब-नौ ऐ दोस्त
निगह-दारी एहसास पर में होते हैं

सरिश्त-ए-गुल ही में पिनहाँ हैं सारे नक़्श ओ निगार
हुनर यही तो कफ़-ए-कूज़ा-गर में होते हैं

तिल्सिम-ए-ख़्वाब-ए-ज़ुलेख़ा ओ दाम-ए-बर्दा-फ़रोश
हज़ार तरह के क़िस्से सफ़र में होते हैं

३. 
दिलों की उक़दा-कुशाई का वक़्त है के नहीं
ये आदमी की ख़ुदाई का वक़्त है के नहीं

कहो सितारा-शनासो फ़लक का हाल कहो
रुख़ों से पर्दा-कुशाई का वक़्त है के नहीं

हवा की नर्म-रवी से जवाँ हुआ है कोई
फ़रेब-ए-तंग-क़बाई का वक़्त है के नहीं

ख़लल-पज़ीर हुआ रब्त-ए-मेहर-ओ-माह में वक़्त
बता ये तुझ से जुदाई का वक़्त है के नहीं

अलग सियासत-ए-दर-बाँ से दिल में है इक बात
ये वक़्त मेरी रसाई का वक़्त है के नहीं

दिलों को मरकज़-ए-असरार कर गई जो निगह
उसी निगह की गदाई का वक़्त है के नहीं

४. 
सलीब ओ दार के क़िस्से रक़म होते ही रहते हैं
क़लम की जुम्बिशों पर सर क़लम होते ही रहते हैं

ये शाख़-ए-गुल है आईन-ए-नुमू से आप वाक़िफ़ हैं
समझती है के मौसम के सितम होते ही रहते हैं

कभी तेरी कभी दस्त-ए-जुनूँ की बात चलती है
ये अफ़साने तो ज़ुल्फ़-ए-ख़म-ब-ख़म होते ही रहते हैं

तवज्जोह उन की अब ऐ साकिनान-ए-शहर तुम पर है
हम ऐसों पर बहुत उन के करम होते ही रहते हैं

तेरे बंद-ए-क़बा से रिश्ता-ए-अनफ़ास-ए-दौराँ तक
कुछ उक़्दे नाख़ुनों को भी बहम होते ही रहते हैं

हुजूम-ए-लाला-ओ-नसरीं हो या लब-हा-ए-शीरीं हों
मेरी मौज-ए-नफ़स से ताज़ा-दम होते ही रहते हैं

मेरा चाक-ए-गिरेबाँ चाक-ए-दिल से मिलने वाला है
मगर ये हादसे भी बेश ओ कम होते ही रहते हैं

५. 
फ़िराक़ से भी गए हम विसाल से भी गए
सुबुक हुए हैं तो ऐश-ए-मलाल से भी गए

जो बुत-कदे में थे वो साहिबान-ए-कश्फ़-ओ-कमाल
हरम में आए तो कश्फ़ ओ कमाल से भी गए

उसी निगाह की नरमी से डगमगाए क़दम
उसी निगाह के तेवर सँभाल से भी गए

ग़म-ए-हयात ओ ग़म-ए-दोस्त की कशाकश में
हम ऐसे लोग तो रंज ओ मलाल से भी गए

गुल ओ समर का तो रोना अलग रहा लेकिन
ये ग़म के फ़र्क़-ए-हराम-ओ-हलाल से भी गए

वो लोग जिन से तेरी बज़्म में थे हँगामे
गए तो क्या तेरी बज़्म-ए-ख़याल से भी गए

हम ऐसे कौन थे लेकिन क़फ़स की ये दुनिया
के पर-शिकस्तों में अपनी मिसाल से भी गए

चराग़-ए-बज़्म अभी जान-ए-अंजुमन न बुझा
के ये बुझा तो तेरे ख़द्दों-ख़ाल से भी गए