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सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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रविवार, 1 सितंबर 2013

'अज़हर' इनायती

जन्म: 15 अप्रैल 1946,रामपुर, उत्तर प्रदेश
1.
ख़त उस के अपने हाथ का आता नहीं कोई
क्या हादसा हुआ है बताता नहीं कोई.

गुड़िया जवान क्या हुईं मेरे पड़ोस की
आँचल में जुगनुओं को छुपाता नहीं कोई.

जब से बता दिया है नुजूमी ने मेरा नाम
अपनी हथेलियों को दिखाता नहीं कोई.

कुछ इतनी तेज़ धूप नए मौसमों की है
बीती हुई रुतों को भुलाता नहीं कोई.

देखा है जब से ख़ुद को मुझे देखते हुए
आईना सामने से हटाता नहीं कोई.

'अज़हर' यहाँ है अब मेरे घर का अकेला-पन
सूरज अगर न हो तो जगाता नहीं कोई.

2.
वो तड़प जाए इशारा कोई ऐसा देना
उस को ख़त लिखना तो मेरा भी हवाला देना.

अपनी तस्वीर बनाओगे तो होगा एहसास
कितना दुश्वार है ख़ुद को कोई चेहरा देना.

इस क़यामत की जब उस शख़्स को आँखें दी हैं
ऐ ख़ुदा ख़्वाब भी देना तो सुनहरा देना.

अपनी तारीफ़ तो महबूब की कमज़ोरी है
अब के मिलना तो उसे एक क़सीदा देना.

है यही रस्म बड़े शहरों में वक़्त-ए-रुख़्सत
हाथ काफ़ी है हवा में यहाँ लहरा देना.

इन को क्या क़िले के अंदर की फ़ज़ाओं का पता
ये निगह-बान हैं इन को तो है पहरा देना.

पत्ते पत्ते पे नई रुत के ये लिख दें 'अज़हर'
धूप में जलते हुए जिस्मों को साया देना.

3.
मैं समंदर था मुझे चैन से रहने न दिया
ख़ामुशी से कभी दरियाओं ने बहने न दिया.

अपने बचपन में जिसे सुन के मैं सो जाता था
मेरे बच्चों ने वो क़िस्सा मुझे कहने न दिया.

कुछ तबीयत में थी आवारा मिज़ाजी शामिल
कुछ बुज़ुर्गों ने भी घर में मुझे रहने न दिया.

सर-बुलंदी ने मेरी शहर-ए-शिकस्ता में कभी
किसी दीवार को सर पर मेरे ढहने न दिया.

ये अलग बात के मैं नूह नहीं था लेकिन
मैं ने किश्ती को ग़लत सम्त में बहने न दिया.

बाद मेरे वही सरदार-ए-क़बीला था मगर
बुज़-दिली ने उसे इक वार भी सहने न दिया.

4.
इस हादसे को देख के आँखों में दर्द है
अपनी जबीं पे अपने ही क़दमों की गर्द है.

आ थोड़ी देर बैठ के बातें करें यहाँ
तेरे तो यार लहजे में अपना सा दर्द है.

क्या हो गईं न जाने तेरी गर्म-जोशियाँ
मौसम से आज हाथ सिवा तेरा सर्द है.

तारीख़ भी हूँ उतने बरस की मोअर्रिख़ो
चेहरे पे मेरे जितने बरस की ये गर्द है.

ऐ रात तेरे चाँद सितारों में वो कहाँ
बुझते हुए चराग़ की लौ में जो दर्द है.

'अज़हर' जो क़त्ल हो गया वो भाई था मगर
क़ातिल भी मेरे अपने क़बीले का फ़र्द है.

5.
हर एक रात को महताब देखने के लिए
मैं जागता हूँ तेरा ख़्वाब देखने के लिए.

न जाने शहर में किस किस से झूट बोलूँगा
मैं घर के फूलों को शादाब देखने के लिए.

इसी लिए मैं किसी और का न हो जाऊँ
मुझे वो दे गया इक ख़्वाब देखने के लिए.

किसी नज़र में तो रह जाए आख़िरी मंज़र
कोई तो हो मुझे ग़र्क़ाब देखने के लिए.

अजीब सा है बहाना मगर तुम आ जाना
हमारे गाँव का सैलाब देखने के लिए.

पड़ोसियों ने ग़लत रंग दे दिया 'अज़हर'
वो छत पे आया था महताब देखने के लिए.

7.
हम ने जो क़सीदों को मुनासिब नहीं समझा
शह ने भी हमें अपना मुसाहिब नहीं समझा.

काँटे भी कुछ इस रुत में तरह-दार नहीं थे
कुछ हम ने उलझना भी मुनासिब नहीं समझा.

ख़ुद क़ातिल-ए-अक़दार-ए-शराफ़त है ज़माना
इल्ज़ाम है मैं हिफ़्ज़-ए-मरातिब नहीं समझा.

हम-असरों में ये छेड़ चली आई है 'अज़हर'
याँ 'ज़ौक़' ने ग़ालिब' को भी ग़ालिब नहीं समझा.

8.
मयस्सर हो जो लम्हा देखने को
किताबों में है क्या क्या देखने को.

हज़ारों क़द्द-ए-आदम आईने हैं
मगर तरसोगे चेहरा देखने को.

अभी हैं कुछ पुरानी यादगारें
तुम आना शहर मेरा देखने को.

फिर उस के बाद था ख़ामोश पानी
के लोग आए थे दरिया देखने को.

हवा से ही खुलता था अक्सर
मुझे भी इक दरीचा देखने को.

क़यामत का है सन्नाटा फ़ज़ा में
नहीं कोई परिंदा देखने को.

अभी कुछ फूल हैं शाख़ों पे 'अज़हर'
मुझे काँटों में उलझा देखने को.

9.
कभी क़रीब कभी दूर हो के रोते हैं
मोहब्बतों के भी मौसम अजीब होते हैं.

ज़िहानतों को कहाँ वक़्त ख़ूँ बहाने का
हमारे शहर में किरदार क़त्ल होते हैं.

फ़ज़ा में हम ही बनाते हैं आग के मंज़र
समंदरों में हमीं कश्तियाँ डुबोते हैं.

पलट चलें के ग़लत आ गए हमीं शायद
रईस लोगों से मिलने के वक़्त होते हैं.

मैं उस दियार में हूँ बे-सुकून बरसों से
जहाँ सुकून से अजदाद मेरे सोते हैं.

गुज़ार देते हैं उम्रें ख़ुलूस की ख़ातिर
पुराने लोग भी 'अज़हर' अजीब होते हैं.

10.
इस बार उन से मिल के जुदा हम जो हो गए
उन की सहेलियों के भी आँचल भिगो गए.

चौराहों का तो हुस्न बढ़ा शहर के मगर
जो लोग नामवर थे वो पत्थर के हो गए.

सब देख कर गुज़र गए इक पल में और हम
दीवार पर बने हुए मंज़र में खो गए.

मुझ को भी जागने की अज़ीयत से दे नजात
ऐ रात अब तो घर के दर ओ बाम सो गए.

किस किस से और जाने मोहब्बत जताते हम
अच्छा हुआ के बाल ये चाँदी के हो गए.

इतनी लहू-लुहान तो पहले फ़ज़ा न थी
शायद हमारी आँखों में अब ज़ख़्म हो गए.

इख़्लास का मुज़ाहिरा करने जो आए थे
'अज़हर' तमाम ज़ेहन में काँटे चुभो गए.