जन्म : २६ फरवरी १९३४ उरई उत्तर प्रदेश में।
निधन : ८ जनवरी को २००११ कोछिदवाडा (म० प्र०) में लगभग ७७ वर्ष की आयु में।
1.
उर्दू की नर्म शाख पर रूद्राक्ष का फल है
सुंदर को शिव बना रही हिंदी की ग़ज़ल है
इक शापग्रस्त प्यार में खोई शकुंतला
दुष्यंत को बुला रही हिंदी की ग़ज़ल है
ग़ालिब के रंगे शेर में खैयाम के घर में
गंगाजली उठा रही हिंदी की ग़ज़ल है
फ़ारस की बेटियाँ हैं अजंता की गोद में
सहरा में गुल खिला रही हिंदी की ग़ज़ल है
आँखों में जाम, बाहों में फुटपाथ बटोरे
मिट्टी का सर उठा रही हिंदी की ग़ज़ल है
जिस रहगुज़र पर मील के पत्थर नहीं गड़े
उन पर नज़र टिका रही हिंदी की ग़ज़ल है
गिनने लगी है उँगलियों पे दुश्मनों के नाम
अपनों को आज़मा रही हिंदी की ग़ज़ल है
सुख, दुख, तलाश, उलझनें, संघर्ष की पीड़ा
सबको गले लगा रही हिंदी की ग़ज़ल है
'पंकज' ने तो सौ बार कहा दूर ही रहना
होठों पे फिर भी आ रही हिंदी की ग़ज़ल है
इतना दूषित हुआ काव्य का आचरण।
शब्द करने लगे अर्थ पर आक्रमण
जब से चंबल हुआ देश का व्याकरण।
हमको पदचिह्न उनके मिलेंगे कहाँ
वायुयानों में जो कर रहें हैं भ्रमण।
पैर जिनको ख़ुदा ने दिए ही नहीं
आप कहते हैं उनका करो अनुसरण।
कल तलक बीहड़ों में जो चंबल के थे
आज संसद में उनका है पंजीकरण।
वायु पूरी कलंकित हुई चाय सी
अब कहाँ दूध मिसरी सा पर्यावरण।
मूल पुस्तक ही कीड़े हज़म कर गए
सिर्फ़ बाकी बचा रह गया आवरण।
यूँ तो कहने को 'पंकज' कहेगा ग़जल
अब कहाँ गीत ग़जलों का वातावरण।
अपनी धरती के लिए स्वर्ग चुराकर देखो।
ख़ुद ही आ जाएगी बचपन की चमक आँखों में
नाव काग़ज की समंदर में बहाकर देखो।
खेत खलिहान की सोहबत में सुधर जाएँगे
अपने शहरों को कभी गाँव तो लाकर देखो।
फैले हाथों को महज़ भीख ही मिल पाती है
हक अगर चाहिए तो हाथ उठाकर देखो।
लोग आ जाएँगे ख़ुद जश्ने शहादत के लिए
तुम बगा़वत के लिए सिर तो कटाकर देखो।
सच्चे मज़हब की जो तस्वीर बनाना हो तुम्हें
ईद के गाल पे होली को सजाकर देखो।
सुना है ज़मीं पर खुद़ा आ रहा है।
जुदा कर न देना अदावत दिलों से,
अभी दुश्मनी में मज़ा आ रहा है।
बुरा वक़्त आया है कैसा लबों पर,
निगाहों से उनको छुआ जा रहा है।
मुझे खुदक़ुशी की ज़रूरत ही क्या है,
मेरा यार मेरी दवा ला रहा है।
पड़ोसी पड़ोसी के घर तक न पहुंचा,
सितारों से आगे जहाँ जा रहा है।
'मैं आऊंगा जब धर्म का नाश होगा',
वो कहता रहा पर कहाँ आ रहा है।
फ़रक़ कम या ज़्यादा का है सिर्फ़ 'पंकज',
जिसे देखो बारूद बरसा रहा है।
बात कुछ ऐसी कहो अच्छी लगे।
मुद्दतों से मयकदे में बंद है
अब ग़ज़ल के जिस्म पर मिट्टी लगे।
गीत प्राणों का कभी था उपनिषद
अब महज़ बाज़ार की रद्दी लगे।
ज़ुल्फ़ के झुरमुट में बिंदिया आपकी
आदिवासी गाँव की बच्ची लगे।
याद मां की उंगलियों की हर सुबह
बाल में फिरती हुई कंघी लगे।
ज़िंदगी अपनी समय के कुंभ में
भीड़ में खोई हुई लड़की लगे।
जिस्म 'पंकज' का हुआ खंडहर मगर
आँख में बृज भूमि की मस्ती लगे।
तुम नया मतला ग़ज़ल का धूल मिट्टी से उठाना।
अर्थ पूजा का हमें बतला रहे हैं वे पुजारी,
'स्वस्तिक' का चिह्न भी आता नहीं जिनको बनाना।
रक्त में उड़ने लगें जब तितलियाँ रंगीन पर की,
उस समय मुश्किल बहुत है देह को सूफ़ी बनाना।
रात भर घी के दिये सी आँच देती है हथेली,
आपने सीखा कहाँ यों हाथ में मेंहदी रचाना।
उड़ रहा पागल धुएँ सा जो शहर की चिमनियों से,
वो धुआँ भी चाहता था गाँव में इक घर बसाना।
पेड़-पौधे भी अगर होते कहीं हिंदू-मुसलमां,
फिर तो मुश्किल था ज़मीं पर आदमी का आबोदाना।
कुछ दिनों गऱ और ज़िंदा रह गए इस दौर में हम,
आ ही जाएगा हमें अख्ल़ाक को पेशा बनाना।
कब्ल इसके हिमालय ही खुदकुशी करने लगे,
आबे-ज़मज़म में हमें आ जाए गंगाजल मिलाना।
मकां होगा बेशक मगर घर नहीं है।
मुखौटों मे यूं खो गया आदमी है
हमारी ही सूरत हमीं पर नहीं है।
छूआ हमने उनको अभी तक नज़र से
लबों का तो ऐसा मुक़ र नहीं है।
समर भूमि में जिसके पौस्र्ष ना 'पोरस'
वो जीते भले पर सिकंदर नहीं है।
यहाँ सर झुकाना ही होगा मुनासिब
झुके जिस जगह दिल ये वो दर नहीं है।
जो गम़ अश्क बनकर हमें ख़र्च कर दे
वो गम़ ज़िंदगी की धरोहर नहीं है।
पता जिसपे 'पंकज' के सर का लिखा हो
तुम्हारे शहर में वो पत्थर नहीं है।
शायद कोई चोरी से हमें झाँक रहा है।
करता है वज़ू टूटे पयालों के सामने
वाइज़ भी पिछले वक्त में इंसान रहा है।
सब कुछ जहाँ है सिर्फ़ शराफ़त को छोड़कर
हर शख्स़ उसी घर का पता माँग रहा है।
हम रिंद हैं माना मगर वाइज़ को क्या हुआ
झाड़ू की सींक ले के फ़लक नाप रहा है।
पीने के बाद जिसके सुबह हो न शाम हो
अब दर्दे-जिगर ऐसा नशा माँग रहा है।
इक और खुदा चाहिए दुनिया जो सँवारे
इस दौर के इंसान के सिर ख़ून चढ़ा है।
दो लफ़्ज़ ही तारीफ़ के काफ़ी हैं दोस्तों
इस शहर में 'पंकज' बहुत बदनाम रहा है।
ज़िंदगी में मौत का ही क़ाफ़िया बाकी रहा।
अक्षरों के वंश मे अब ताजपोशी के लिए
शिष्टता के नाम पर बस 'शुक्रिया' बाकी रहा।
ज़िंदगी हिस्से की अपनी हम कभी की जी लिए
सांस ही लेने का अब तो सिलसिला बाकी रहा।
मौत आई थी हमें लेने मगर जल्दी में थी
बोरिया तो ले गई पर बिस्तरा बाकी रहा।
लोग मिलते हैं हमें कोने फटे ख़त की तरह
गम़ गल़त करने को केवल डाकिया बाकी रहा।
कितने हाज़िर जवाब होते हैं
जिनके घर रोटियां नहीं होतीं
उनके घर इन्क़लाब होते हैं
कुछ तो काँटे उन्हें चुभेंगे ही
जिनके घर में गुलाब होते हैं
पानी-पानी शराब होती है
आप जिस दिन शराब होते हैं
मौत के वक़्त एक लम्हें में
उम्र भर के हिसाब होते हैं
उन शायरों का कोई मदरसा नहीं होता
कोयल सा चहचहाता है तिल उसके होंठ पर
चेहरे पे हरे आम के पकने की महक है।
ये लगता है तेरा जहाँ देखकर अब
तुझे सिरफ़िरों ने खुदा कह दिया है।
खेत यशगान करते रहे मेघ का
कच्चे घर आँसुओं से नहाने लगे।
देखा नहीं है आँख ने वो चाँद अभी तक
जिसका वजूद भूख में रोटी से बड़ा हो।
निधन : ८ जनवरी को २००११ कोछिदवाडा (म० प्र०) में लगभग ७७ वर्ष की आयु में।
जीवनी: श्री पंकज मध्य प्रदेश शिक्षा विभाग में अंग्रेजी के प्रोफ़ेसर पद से रिटायर हुए थे । गत ५० वर्षों से वे साहित्य सेवा के प्रति समर्पित थे हिंदी गजल के वे ख्यातिप्राप्त साहित्यकार थे एवं उनकी रचनाएँ आकाशवाणीएवं टी वी चैनलों पर प्रसारित होती थीं । देश की सभी स्तरीय पत्र -पत्रिकाओं एवं काव्य संकलनों में उनकी रचनाएँ प्रकाशित होती रही हैं ।उनके पिता श्री भगवती शरण सक्सेना D A V इंटर कालेज में अध्यापक तथा कुशल चित्रकार एवं कवि थे जिसका प्रभाव उन पर पड़ा था ।
प्रकाशित कृतियाँ :स्व ० पंकज जी एक ग़ज़ल संग्रह 'दीवार में दरार है 'प्रकाशित है ।1.
उर्दू की नर्म शाख पर रूद्राक्ष का फल है
सुंदर को शिव बना रही हिंदी की ग़ज़ल है
इक शापग्रस्त प्यार में खोई शकुंतला
दुष्यंत को बुला रही हिंदी की ग़ज़ल है
ग़ालिब के रंगे शेर में खैयाम के घर में
गंगाजली उठा रही हिंदी की ग़ज़ल है
फ़ारस की बेटियाँ हैं अजंता की गोद में
सहरा में गुल खिला रही हिंदी की ग़ज़ल है
आँखों में जाम, बाहों में फुटपाथ बटोरे
मिट्टी का सर उठा रही हिंदी की ग़ज़ल है
जिस रहगुज़र पर मील के पत्थर नहीं गड़े
उन पर नज़र टिका रही हिंदी की ग़ज़ल है
गिनने लगी है उँगलियों पे दुश्मनों के नाम
अपनों को आज़मा रही हिंदी की ग़ज़ल है
सुख, दुख, तलाश, उलझनें, संघर्ष की पीड़ा
सबको गले लगा रही हिंदी की ग़ज़ल है
'पंकज' ने तो सौ बार कहा दूर ही रहना
होठों पे फिर भी आ रही हिंदी की ग़ज़ल है
2.
अब विदूषक ही मंचों का करते वरणइतना दूषित हुआ काव्य का आचरण।
शब्द करने लगे अर्थ पर आक्रमण
जब से चंबल हुआ देश का व्याकरण।
हमको पदचिह्न उनके मिलेंगे कहाँ
वायुयानों में जो कर रहें हैं भ्रमण।
पैर जिनको ख़ुदा ने दिए ही नहीं
आप कहते हैं उनका करो अनुसरण।
कल तलक बीहड़ों में जो चंबल के थे
आज संसद में उनका है पंजीकरण।
वायु पूरी कलंकित हुई चाय सी
अब कहाँ दूध मिसरी सा पर्यावरण।
मूल पुस्तक ही कीड़े हज़म कर गए
सिर्फ़ बाकी बचा रह गया आवरण।
यूँ तो कहने को 'पंकज' कहेगा ग़जल
अब कहाँ गीत ग़जलों का वातावरण।
३.
चाँद को छू लो, सितारों को बजाकर देखोअपनी धरती के लिए स्वर्ग चुराकर देखो।
ख़ुद ही आ जाएगी बचपन की चमक आँखों में
नाव काग़ज की समंदर में बहाकर देखो।
खेत खलिहान की सोहबत में सुधर जाएँगे
अपने शहरों को कभी गाँव तो लाकर देखो।
फैले हाथों को महज़ भीख ही मिल पाती है
हक अगर चाहिए तो हाथ उठाकर देखो।
लोग आ जाएँगे ख़ुद जश्ने शहादत के लिए
तुम बगा़वत के लिए सिर तो कटाकर देखो।
सच्चे मज़हब की जो तस्वीर बनाना हो तुम्हें
ईद के गाल पे होली को सजाकर देखो।
४.
हक़ीक़त है या दिल को बहला रहा है,सुना है ज़मीं पर खुद़ा आ रहा है।
जुदा कर न देना अदावत दिलों से,
अभी दुश्मनी में मज़ा आ रहा है।
बुरा वक़्त आया है कैसा लबों पर,
निगाहों से उनको छुआ जा रहा है।
मुझे खुदक़ुशी की ज़रूरत ही क्या है,
मेरा यार मेरी दवा ला रहा है।
पड़ोसी पड़ोसी के घर तक न पहुंचा,
सितारों से आगे जहाँ जा रहा है।
'मैं आऊंगा जब धर्म का नाश होगा',
वो कहता रहा पर कहाँ आ रहा है।
फ़रक़ कम या ज़्यादा का है सिर्फ़ 'पंकज',
जिसे देखो बारूद बरसा रहा है।
५.
शिव लगे, सुंदर लगे, सच्ची लगेबात कुछ ऐसी कहो अच्छी लगे।
मुद्दतों से मयकदे में बंद है
अब ग़ज़ल के जिस्म पर मिट्टी लगे।
गीत प्राणों का कभी था उपनिषद
अब महज़ बाज़ार की रद्दी लगे।
ज़ुल्फ़ के झुरमुट में बिंदिया आपकी
आदिवासी गाँव की बच्ची लगे।
याद मां की उंगलियों की हर सुबह
बाल में फिरती हुई कंघी लगे।
ज़िंदगी अपनी समय के कुंभ में
भीड़ में खोई हुई लड़की लगे।
जिस्म 'पंकज' का हुआ खंडहर मगर
आँख में बृज भूमि की मस्ती लगे।
६.
चाँद तारों पर बड़ा आसान है ग़ज़लें सुनाना,तुम नया मतला ग़ज़ल का धूल मिट्टी से उठाना।
अर्थ पूजा का हमें बतला रहे हैं वे पुजारी,
'स्वस्तिक' का चिह्न भी आता नहीं जिनको बनाना।
रक्त में उड़ने लगें जब तितलियाँ रंगीन पर की,
उस समय मुश्किल बहुत है देह को सूफ़ी बनाना।
रात भर घी के दिये सी आँच देती है हथेली,
आपने सीखा कहाँ यों हाथ में मेंहदी रचाना।
उड़ रहा पागल धुएँ सा जो शहर की चिमनियों से,
वो धुआँ भी चाहता था गाँव में इक घर बसाना।
पेड़-पौधे भी अगर होते कहीं हिंदू-मुसलमां,
फिर तो मुश्किल था ज़मीं पर आदमी का आबोदाना।
कुछ दिनों गऱ और ज़िंदा रह गए इस दौर में हम,
आ ही जाएगा हमें अख्ल़ाक को पेशा बनाना।
कब्ल इसके हिमालय ही खुदकुशी करने लगे,
आबे-ज़मज़म में हमें आ जाए गंगाजल मिलाना।
७.
मुहब्बत से देहरी जहाँ तर नहीं हैमकां होगा बेशक मगर घर नहीं है।
मुखौटों मे यूं खो गया आदमी है
हमारी ही सूरत हमीं पर नहीं है।
छूआ हमने उनको अभी तक नज़र से
लबों का तो ऐसा मुक़ र नहीं है।
समर भूमि में जिसके पौस्र्ष ना 'पोरस'
वो जीते भले पर सिकंदर नहीं है।
यहाँ सर झुकाना ही होगा मुनासिब
झुके जिस जगह दिल ये वो दर नहीं है।
जो गम़ अश्क बनकर हमें ख़र्च कर दे
वो गम़ ज़िंदगी की धरोहर नहीं है।
पता जिसपे 'पंकज' के सर का लिखा हो
तुम्हारे शहर में वो पत्थर नहीं है।
८.
दीवार में दरार है, दिल काँप रहा है।शायद कोई चोरी से हमें झाँक रहा है।
करता है वज़ू टूटे पयालों के सामने
वाइज़ भी पिछले वक्त में इंसान रहा है।
सब कुछ जहाँ है सिर्फ़ शराफ़त को छोड़कर
हर शख्स़ उसी घर का पता माँग रहा है।
हम रिंद हैं माना मगर वाइज़ को क्या हुआ
झाड़ू की सींक ले के फ़लक नाप रहा है।
पीने के बाद जिसके सुबह हो न शाम हो
अब दर्दे-जिगर ऐसा नशा माँग रहा है।
इक और खुदा चाहिए दुनिया जो सँवारे
इस दौर के इंसान के सिर ख़ून चढ़ा है।
दो लफ़्ज़ ही तारीफ़ के काफ़ी हैं दोस्तों
इस शहर में 'पंकज' बहुत बदनाम रहा है।
९.
पृष्ठ सारा भर गया बस हाशिया बाकी रहा।ज़िंदगी में मौत का ही क़ाफ़िया बाकी रहा।
अक्षरों के वंश मे अब ताजपोशी के लिए
शिष्टता के नाम पर बस 'शुक्रिया' बाकी रहा।
ज़िंदगी हिस्से की अपनी हम कभी की जी लिए
सांस ही लेने का अब तो सिलसिला बाकी रहा।
मौत आई थी हमें लेने मगर जल्दी में थी
बोरिया तो ले गई पर बिस्तरा बाकी रहा।
लोग मिलते हैं हमें कोने फटे ख़त की तरह
गम़ गल़त करने को केवल डाकिया बाकी रहा।
१०.
आप जब लाजवाब होते हैंकितने हाज़िर जवाब होते हैं
जिनके घर रोटियां नहीं होतीं
उनके घर इन्क़लाब होते हैं
कुछ तो काँटे उन्हें चुभेंगे ही
जिनके घर में गुलाब होते हैं
पानी-पानी शराब होती है
आप जिस दिन शराब होते हैं
मौत के वक़्त एक लम्हें में
उम्र भर के हिसाब होते हैं
११.
मुठ्ठी में जिनके रब है निगाहों में कायनातउन शायरों का कोई मदरसा नहीं होता
कोयल सा चहचहाता है तिल उसके होंठ पर
चेहरे पे हरे आम के पकने की महक है।
ये लगता है तेरा जहाँ देखकर अब
तुझे सिरफ़िरों ने खुदा कह दिया है।
खेत यशगान करते रहे मेघ का
कच्चे घर आँसुओं से नहाने लगे।
देखा नहीं है आँख ने वो चाँद अभी तक
जिसका वजूद भूख में रोटी से बड़ा हो।
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