1.
छेड़ने का तो मज़ा तब है कहो और सुनो
बात में तुम तो ख़फ़ा हो गये, लो और सुनो
तुम कहोगे जिसे कुछ, क्यूँ न कहेगा तुम को
छोड़ देवेगा भला, देख तो लो, और सुनो
यही इंसाफ़ है कुछ सोचो तो अपने दिल में
तुम तो सौ कह लो, मेरी एक न सुनो और सुनो
आफ़रीं तुम पे, यही चाहिए शाबाश तुम्हें
देख रोता मुझे यूँ हँसने लगो और सुनो
बात मेरी नहीं सुनते जो अकेले मिल कर
ऐसे ही ढँग से सुनाऊँ के सुनो और सुनो
2.
कमर बांधे हुए चलने को याँ सब यार बैठे हैं ।
बहोत आगे गए, बाक़ी जो हैं तैयार बैठे हैं ।।
न छेड़ ए निक़हत-ए-बाद-ए-बहारी[1], राह लग अपनी ।
तुझे अटखेलियाँ सूझी हैं, हम बेज़ार बैठे हैं ।।
तसव्वुर[2] अर्श[3] पर है और सर है पा-ए-साक़ी पर ।
ग़र्ज़ कुछ और धुन में इस घड़ी मय-ख़्वार बैठे हैं ।।
बसाने नक़्शपाए रहरवाँ[4] कू-ए-तमन्ना[5] में ।
नहीं उठने की ताक़त, क्या करें? लाचार बैठे हैं ।।
यह अपनी चाल है उफ़तादगी[6] से इन दिनों पहरों तक ।
नज़र आया जहां पर साया-ए-दीवार बैठे हैं ।।
कहाँ सब्र-ओ-तहम्मुल[7]? आह! नंगोंनाम क्या शै है ।
मियाँ! रो-पीटकर इन सबको हम यकबार बैठे हैं ।।
नजीबों[8] का अजब कुछ हाल है इस दौर में यारो ।
जहाँ पूछो यही कहते हैं, "हम बेकार बैठे हैं" ।।
भला गर्दिश फ़लक की चैन देती है किसे इंशा !
ग़़नीमत है कि हम सूरत यहाँ दो-चार बैठे हैं ।।
शब्दार्थ:
↑ वसन्तकाल की सुगन्धित वायु
↑ ध्यान
↑ आकाश
↑ मुसाफ़िर के चरणचिन्हों की तरह
↑ अभिलाषाओं के कूचे में
↑ निर्बलता
↑ संतोष
↑ कुलीन मनुष्यों
3.
मैंने जो कहा- हूँ मैं तेरा आशिक़े शैदा-ऐ- कानेमलाहत ।
फ़रमाने लगे हँसके "सुनो और तमाशा- यह शक्ल, यह सूरत" ?
आए जो मेरे घर में वह सब राहे करम से- मैं मूँद दी कुण्डी ।
मुँह फेर लगे कहने तआज्जुब से कि "यह क्या- ऐ तेरी यह ताक़त" ?
लूटा करें इस तरह मज़े ग़ैर हमेशा- टुक सोचो तो दिल में ।
तरसा करे हर वक़्त यह बन्दा ही तुम्हारा- अल्लाह की कुदरत ।।
दीवार-ए-चमन फाँद के पहुँचे जो हम उन तक- इक ताक की ओझल ।
तरसाँ हो कर फ़रमाने लगे कूटके माथा- ऐ वाए फ़ज़ीहत !
शब महफ़िले होली में जो वारिद हुआ ज़ाहिद- रिन्दों ने लिपटकर ।
दाढ़ी को दिया उसकी लगा बज़रे फतूना- और बजने लगी गत ।।
4.
ज़ो’फ आता है दिल को थाम तो लो
बोलियो मत मगर सलाम तो लो
कौन कहता है बोलो, मत बोलो
हाथ से मेरे एक जाम तो लो
इन्हीं बातों पे लौटता हूँ मैं
गाली फिर दे के मेरा नाम तो लो
इक निगाह पर बिके हैं इंशा आज
मुफ़्त में मोल एक गुलाम तो लो
5.
अच्छा जो खफा हम से हो तुम ऐ सनम अच्छा
लो हम भी न बोलेंगे खुदा की क़सम अच्छा
मशगूल क्या चाहिए इस दिल को किसी तौर
ले लेंगे ढूँढ और कोई यार हम अच्छा
गर्मी ने कुछ आग और ही सीने में लगा दी
हर तौर ग़र्ज़ आप से मिलना है कम अच्छा
ऐ गैर से करते हो मेरे सामने बातें
मुझपर ये लगे करने नया तुम सितम अच्छा
कह कर गए आता हूँ कोई दम में, मैं तुम पास
फिर दे चले कल की सी तरह मुझको दम अच्छा
6.
यह जो महंत बैठे हैं राधा के कुण्ड पर
अवतार बन कर गिरते हैं परियों के झुण्ड पर
शिव के गले से पार्वती जी लिपट गयीं
क्या ही बहार आज है ब्रह्मा के रुण्ड पर
राजीजी एक जोगी के चेले पे ग़श हैं आप
आशिक़ हुए हैं वाह अजब लुण्ड मुण्ड पर
'इंशा' ने सुन के क़िस्सा-ए-फरहाद यूँ कहा
करता है इश्क़ चोट तो ऐसे ही मुण्ड पर
छेड़ने का तो मज़ा तब है कहो और सुनो
बात में तुम तो ख़फ़ा हो गये, लो और सुनो
तुम कहोगे जिसे कुछ, क्यूँ न कहेगा तुम को
छोड़ देवेगा भला, देख तो लो, और सुनो
यही इंसाफ़ है कुछ सोचो तो अपने दिल में
तुम तो सौ कह लो, मेरी एक न सुनो और सुनो
आफ़रीं तुम पे, यही चाहिए शाबाश तुम्हें
देख रोता मुझे यूँ हँसने लगो और सुनो
बात मेरी नहीं सुनते जो अकेले मिल कर
ऐसे ही ढँग से सुनाऊँ के सुनो और सुनो
2.
कमर बांधे हुए चलने को याँ सब यार बैठे हैं ।
बहोत आगे गए, बाक़ी जो हैं तैयार बैठे हैं ।।
न छेड़ ए निक़हत-ए-बाद-ए-बहारी[1], राह लग अपनी ।
तुझे अटखेलियाँ सूझी हैं, हम बेज़ार बैठे हैं ।।
तसव्वुर[2] अर्श[3] पर है और सर है पा-ए-साक़ी पर ।
ग़र्ज़ कुछ और धुन में इस घड़ी मय-ख़्वार बैठे हैं ।।
बसाने नक़्शपाए रहरवाँ[4] कू-ए-तमन्ना[5] में ।
नहीं उठने की ताक़त, क्या करें? लाचार बैठे हैं ।।
यह अपनी चाल है उफ़तादगी[6] से इन दिनों पहरों तक ।
नज़र आया जहां पर साया-ए-दीवार बैठे हैं ।।
कहाँ सब्र-ओ-तहम्मुल[7]? आह! नंगोंनाम क्या शै है ।
मियाँ! रो-पीटकर इन सबको हम यकबार बैठे हैं ।।
नजीबों[8] का अजब कुछ हाल है इस दौर में यारो ।
जहाँ पूछो यही कहते हैं, "हम बेकार बैठे हैं" ।।
भला गर्दिश फ़लक की चैन देती है किसे इंशा !
ग़़नीमत है कि हम सूरत यहाँ दो-चार बैठे हैं ।।
शब्दार्थ:
↑ वसन्तकाल की सुगन्धित वायु
↑ ध्यान
↑ आकाश
↑ मुसाफ़िर के चरणचिन्हों की तरह
↑ अभिलाषाओं के कूचे में
↑ निर्बलता
↑ संतोष
↑ कुलीन मनुष्यों
3.
मैंने जो कहा- हूँ मैं तेरा आशिक़े शैदा-ऐ- कानेमलाहत ।
फ़रमाने लगे हँसके "सुनो और तमाशा- यह शक्ल, यह सूरत" ?
आए जो मेरे घर में वह सब राहे करम से- मैं मूँद दी कुण्डी ।
मुँह फेर लगे कहने तआज्जुब से कि "यह क्या- ऐ तेरी यह ताक़त" ?
लूटा करें इस तरह मज़े ग़ैर हमेशा- टुक सोचो तो दिल में ।
तरसा करे हर वक़्त यह बन्दा ही तुम्हारा- अल्लाह की कुदरत ।।
दीवार-ए-चमन फाँद के पहुँचे जो हम उन तक- इक ताक की ओझल ।
तरसाँ हो कर फ़रमाने लगे कूटके माथा- ऐ वाए फ़ज़ीहत !
शब महफ़िले होली में जो वारिद हुआ ज़ाहिद- रिन्दों ने लिपटकर ।
दाढ़ी को दिया उसकी लगा बज़रे फतूना- और बजने लगी गत ।।
4.
ज़ो’फ आता है दिल को थाम तो लो
बोलियो मत मगर सलाम तो लो
कौन कहता है बोलो, मत बोलो
हाथ से मेरे एक जाम तो लो
इन्हीं बातों पे लौटता हूँ मैं
गाली फिर दे के मेरा नाम तो लो
इक निगाह पर बिके हैं इंशा आज
मुफ़्त में मोल एक गुलाम तो लो
5.
अच्छा जो खफा हम से हो तुम ऐ सनम अच्छा
लो हम भी न बोलेंगे खुदा की क़सम अच्छा
मशगूल क्या चाहिए इस दिल को किसी तौर
ले लेंगे ढूँढ और कोई यार हम अच्छा
गर्मी ने कुछ आग और ही सीने में लगा दी
हर तौर ग़र्ज़ आप से मिलना है कम अच्छा
ऐ गैर से करते हो मेरे सामने बातें
मुझपर ये लगे करने नया तुम सितम अच्छा
कह कर गए आता हूँ कोई दम में, मैं तुम पास
फिर दे चले कल की सी तरह मुझको दम अच्छा
6.
यह जो महंत बैठे हैं राधा के कुण्ड पर
अवतार बन कर गिरते हैं परियों के झुण्ड पर
शिव के गले से पार्वती जी लिपट गयीं
क्या ही बहार आज है ब्रह्मा के रुण्ड पर
राजीजी एक जोगी के चेले पे ग़श हैं आप
आशिक़ हुए हैं वाह अजब लुण्ड मुण्ड पर
'इंशा' ने सुन के क़िस्सा-ए-फरहाद यूँ कहा
करता है इश्क़ चोट तो ऐसे ही मुण्ड पर