कुछ फ़र्क़ तो यक़ीनन ’आनन’ में और उसमें
मैं दिल को जोड़ता हूँ ,वो दिल को बाँटता है
परिचय :पूरा नाम : आनन्द कुमार पाठक
तख़ल्लुस : आनन
जन्म : 31 जुलाई 1955
जन्म-स्थान : ग़ाज़ीपुर [उ0प्र0]
शिक्षा : स्नातक [सिविल इंजीनियरींग ,I I T रूड़की ,भारत]
अभिरुचि : कविता ,ग़ज़ल,व्यंग्य लेखन} यदा-कदा विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित
प्रकाशन : अब तक 4-पुस्तकें प्रकाशित
1- शरणम श्रीमती जी -[व्यंग्य संग्रह]
2- अभी संभावना है -[ गीत गज़ल संग्रह]
3- सुदामा की खाट -[ व्यंग्य संग्रह ]
4- मैं नहीं गाता हूँ -[ गीत ग़ज़ल संग्रह]
सम्प्रति महाप्रबन्धक ,भारत संचार निगम लिमिटेड [B S N L] जयपुर में सेवारत
स्थायी पता महुआ बाग ,ग़ाज़ीपुर ,[उ0प्र0] 233001 दूरभाष 0548-2221424
सम्पर्क सूत्र Email akpathak@hotmail.com
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मोबाईल 09413395592
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ग़ज़लें
ऐसे समा गये हो ,जानम मेरी नज़र में
तुम को ही ढूँढता हूँ हर एक रहगुज़र में
इस दिल के आईने में वो अक्स जब से उभरा
फिर उसके बाद कोई आया नहीं नज़र में
पर्दा तो तेरे रुख पर देखा सभी ने लेकिन
देखा तुझे नुमायां ख़ुरशीद में ,क़मर में
जल्वा तेरा नुमायां हर शै में मैने देखा
शम्स-ओ-क़मर में गुल में मर्जान में गुहर में
वादे पे तेरे ज़ालिम हम ऐतबार कर के
भटका किए हैं तनहा कब से तेरे नगर में
आये गये हज़ारों इस रास्ते पे ’आनन’
तुम ही नहीं हो तन्हा इस इश्क़ के सफ़र में
शब्दार्थ
शम्स-ओ-क़मर में =चाँद सूरज में
मर्जान में ,गुहर में= मूँगे में-मोती में
तुम को ही ढूँढता हूँ हर एक रहगुज़र में
इस दिल के आईने में वो अक्स जब से उभरा
फिर उसके बाद कोई आया नहीं नज़र में
पर्दा तो तेरे रुख पर देखा सभी ने लेकिन
देखा तुझे नुमायां ख़ुरशीद में ,क़मर में
जल्वा तेरा नुमायां हर शै में मैने देखा
शम्स-ओ-क़मर में गुल में मर्जान में गुहर में
वादे पे तेरे ज़ालिम हम ऐतबार कर के
भटका किए हैं तनहा कब से तेरे नगर में
आये गये हज़ारों इस रास्ते पे ’आनन’
तुम ही नहीं हो तन्हा इस इश्क़ के सफ़र में
शब्दार्थ
शम्स-ओ-क़मर में =चाँद सूरज में
मर्जान में ,गुहर में= मूँगे में-मोती में
2.
आज फिर से मुहब्बत की बातें करोदिल है तन्हा रफ़ाक़त की बातें करो
ये हवाई उड़ाने बहुत हो चुकीं
अब ज़मीनी हक़ीक़त की बातें करो
माह-ओ-अन्जुम की बातें मुबारक़ तुम्हें
मेरी रोटी सलामत की बातें करो
चन्द रोजां की T.V पे जन्नत दिखी
दौर-ए-हाज़िर सदाक़त की बातें करो
फेकना यूँ ही कीचड़ मुनासिब नहीं
कुछ मयारी सियासत की बातें करो
ये अक़ीदत नहीं ,चापलूसी है ये
गर हो ग़ैरत तो ग़ैरत की बातें करो
बाद मुद्दत के आए हो ’आनन’ के घर
पास बैठो ,न रुख़सत की बातें करो
शब्दार्थ
माह-ओ-अन्जुम की बातें = चाँद तारों की बातें
मुनासिब = उचित
मयारी =स्तरीय standard
्दौर-ए-हाज़िर = वर्तमान समय
सदाक़त =यथार्थ ,सच्चाई
अक़ीदत = किसी के प्रति शुद्ध निष्ठा
3.
वही मुद्दे , वही वादे ,वही चेहरे पुराने हैंसियासत की बिसातें हैं शराफ़त के बहाने हैं
चुनावी दौर में फ़िरक़ापरस्ती की हवाएं क्यूँ
निशाने पर ही क्यों रहते हमारे आशियाने हैं
ज़ुबां शीरी लबों पर है ,मगर दिल में निहां है कुछ
हमारी बेबसी ये है उन्हीं को आज़माने हैं
हमारे दौर का ये भी करिश्मा कम नहीं, यारो !
रँगे है हाथ ख़ूँ से जो ,उन्हीं के हम दिवाने हैं
तुम्हारी झूठी बातों में कहाँ तक ढूँढते सच को
तुम्हारी सोच में क्यूँ साज़िशों के ताने-बाने हैं
जहाँ नफ़रत सुलगती हैं ,वहाँ है ख़ौफ़ का मंज़र
जिधर उल्फ़त महकती है, उधर मौसम सुहाने हैं
चलो इस बात का भी फ़ैसला हो जाये तो अच्छा
तेरी नफ़रत है बरतर या मेरी उल्फ़त के गाने हैं
यही है वक़्त अब ’आनन’ उठा ले हाथ में परचम
अभी लोगो के होंठों पर सजे क़ौमी तराने हैं
4.
अब तो उठिए,बहुत सो लिएखिड़कियां तो ज़रा खोलिए
सोच में है ज़हर भर गया
फिर कहाँ तक शहद घोलिए
बात मेरी सुने ही बिना
जी ! बहाना तो मत बोलिए
लोग क्या क्या हैं कहने लगे
गाँठ मन की तो अब खोलिए
दोस्ती मे तिजारत नहीं
इक भरोसे को मत तोलिए
जो मिला प्यार से हम मिले
बाद उसके ही हम हो लिए
हाल ’आनन’ का क्या पूछना
दाग़ दिल पर थे कुछ,धो लिए
5.
इक धुँआ सा उठा दिया तुम नेझूट को सच बता दिया तुम ने
लकड़िय़ाँ अब भी गीली गीली हैं
फिर भी शोला बना दिया तुम ने
तुम तो शीशे के घर में रहते हो
कैसे पत्थर चला दिया तुम ने
आइनों से तुम्हारी यारी थी
आँख क्योंकर दिखा दिया तुम ने?
नाम लेकर शहीद-ए-आज़म का
इक तमाशा बना दिया तुम ने
खिड़कियाँ बंद अब लगी होने
जब मुखौटा हटा दिया तुम ने
रहबरी की उमीद थी तुम से
पर भरोसा मिटा दिया तुम ने
तुम पे कैसी यकीं करे ’आनन’
रंग अपना दिखा दिया तुम ने
6.
ये बाद-ए-सबा है ,भरी ताज़गी है
फ़ज़ा में अजब कैसी दीवानगी हैनिज़ाम-ए-चमन जो बदलने चला तो
क्यूँ अहल-ए-सियासत को नाराज़गी है
वो सपने दिखाता ,क्यूं बातें बनाता
ख़यालात में उस की बेचारगी है
बदल दे ज़माने की रस्म-ओ-रवायत
अभी सोच में तेरी पाकीज़गी है
दुआयें करो ये तलातुम से उबरे
गो मौजों की कश्ती से रंजीदगी है
वो वादे निभाता तो कैसे निभाता
वफ़ा में कहाँ अब रही पुख़्तगी है
क्यूँ दीवार-ए-ज़िन्दां से हो ख़ौफ़ ’आनन’
अगर मेरी ताक़त मेरी सादगी है
7.
नाम लेकर बुला गया कोई ख़्वाब दिल में जगा गया कोई
बात मेरी तो ज़ेर-ए-लब ही थी
बात अपनी सुना गया कोई
हूर-ए-जन्नत तुम्हीं रखो, ज़ाहिद !
नूर मुझको दिखा गया कोई
रुख़ से पर्दा उठा लिया किसने
ग़ुंचा ग़ुंचा खिला गया कोई
हाय ! बिखरा के ज़ुल्फ़ को अपनी
प्यास मेरी बढ़ा गया कोई
मैं ने पूछा पता जो नासेह का
मैकदा क्यूँ बता गया कोई ?
बात ग़ैरत की आ गई ’आनन’
जान अपनी लुटा गया कोई
8.
मिरे दिल के धड़कन ने उनको पुकाराज़माने को हो ना सका ये गवारा
मुहब्बत में मुझको ख़बर ही कहाँ थी
कि तूफ़ाँ मिला कि मिला था किनारा ?
रह-ए-इश्क़ में ऐसे आये मराहिल
जो देखा नहीं वो भी देखा नज़ारा
तुम्हारे लिए ये हँसी-खेल होगा -
कभी दिल को तोड़ा कभी दिल संवारा
कोई अक्स दिल में उभरता नहीं अब
कि जब से तिरा अक्स दिल में उतारा
चला जो गया छोड़ कर इस मकां को
भला लौट कर कौन आया दुबारा ?
हुई रात "आनन’ की नींद आ रही है
कोई कर रहा अपनी जानिब इशारा
9.
तुम्हारा शौक़ ये होगा भरोसे को जगा देनादिखावा दोस्ती का कर के फिर ख़ंज़र चला देना
हलफ़् सच की उठा कर फिर गवाही झूट की देकर
तुम्हारे दिल पे क्या गुज़री ,ज़रा ये भी बता देना
चले थे इन्क़लाबी दौर में कुर्बानियां करने
कहो,फिर क्या हुआ ’दिल्ली’में जा कर सर झुका देना
बड़ी हिम्मत शिकन होती सफ़र है राह-ए-उल्फ़त की
जहाँ अन्जाम होता है ख़ुदी में ख़ुद मिटा देना
पसीने से लिखा करता हूँ हर्फ़-ए-कामयाबी ख़ुद
तुम्हारा क्या ! ख़रीदे क़लम से कुछ भी लिखा देना
तुम्हारे हुनर में ये भी चलो अब हो गया शामिल
कि सच को झूट कह देना कि बातिल सच बता देना
वही दुनिया के रंज-ओ-ग़म,वही आलाम-ए-हस्ती है
कहीं ’आनन्द’ मिल जाये तो ’आनन’ से मिला देना
शब्दार्थ
आलाम-ए-ह्स्ती =जीवन के दुख
बातिल = झूट
आनन्द = खुशी /अपना नाम ’आनन्द’
10.
गो धूप तो हुई है , पर ताब वो नहीं हैजो ख़्वाब हमने देखा ,ये ख़्वाब वो नहीं है
मजलूम है कि माना,ख़ामोश रहता अकसर
पर बे-नवा नहीं है ,बे-आब वो नहीं है
कुछ मगरिबी हवाओं का पुर-असर है शायद
फ़सलें नई नई हैं ,आदाब वो नहीं है
अपनी लहू से सींचे हैं जांनिसारी कर के
आई बहार लेकिन शादाब वो नहीं है
एहसास-ए-हिर्स-ओ-नफ़रत,अस्बाक़-ए-तर्क़-ए-उलफ़त
मेरी किताब-ए-हस्ती में बाब वो नहीं है
इक नूर जाने किसकी दिल में उतर गई है
एहसास तो यक़ीनन ,पर याब वो नहीं है
ता-उम्र मुन्तज़िर हूँ दीदार-ए-यार का मैं
बेताब जितना "आनन",बेताब वो नहीं है
शब्दार्थ
ताब = गर्मी ,चमक
बे-नवा= बिना आवाज़ के
बे-आब= बिना इज्ज़त के
मगरिबी [हवा]= पश्चिमी [सभ्यता]
जांनिसारी =प्राणोत्सर्ग
आदाब =तमीज-ओ-तहज़ीब
शादाब = हरी भरी ,ख़ुशहाली
एहसास-ए-हिर्स-ओ-नफ़रत,अस्बाक़-ए-तर्क़-ए-उलफ़त= लालच औत नफ़रत की अनुभूति और प्यार मुहब्बत के छोडने/भुलाने के सबक़]
बाब = अध्याय [chapter]
मेरी किताब-ए-हस्ती में=मेरे जीवन की पुस्तक में
मुन्तज़िर = प्रतीक्षक
याब =प्राप्य
11.
आदर्श की किताबें पुरजोर बाँचता हैलेकिन कभी न अपने दिल में वो झाँकता है
जब सच ही कहना तुमको ,सच के सिवा न कुछ भी
फिर क्यूँ हलफ़ उठाते ,ये हाथ काँपता है ?
फ़ाक़ाकशी से मरना ,कोई ख़बर न होती
ख़बरों में इक ख़बर है वो जब भी खाँसता है
रिश्तों को सीढ़ियों से ज़्यादा नहीं समझता
उस नाशनास से क्या उम्मीद बाँधता है !
पैरों तले ज़मीं तो कब की खिसक गई है
लेकिन वो बातें ऊँची ऊँची ही हाँकता है
आँखे खुली है लेकिन दुनिया नहीं है देखी
अपने को छोड़ सबको कमतर वो आँकता है
कुछ फ़र्क़ तो यक़ीनन ’आनन’ में और उस में
मैं दिल को जोड़ता हूँ ,वो दिल को बाँटता है
12.
वो चाहता है तीरगी को रोशनी कहूँकैसे ख़याल-ए-ख़ाम को मैं आगही कहूँ ?
ग़ैरों के दर्द का तुम्हें एहसास ही नहीं
फिर क्या तुम्हारे सामने ग़म-ए-आशिक़ी कहूँ !
सच सुन सकोगे तुम में अभी वो सिफ़त नहीं
कैसे सियाह रात को मैं चाँदनी कहूँ ?
रफ़्तार-ए-ज़िन्दगी से जो फ़ुरसत अगर मिले
रुदाद-ए-ज़िन्दगी की कभी अनकही कहूँ
जाने को थे किधर ,अरे ! जाने लगे किधर ?
इसे बेखुदी कहूँ कि इसे तिश्नगी कहूँ ?
’ज़र’ भी पड़ा है सामने ,’ईमान’ भी खड़ा
’आनन’ किसे मैं छोड़ दूँ,किसमें ख़ुशी,कहूँ
13.
फिर जली कुछ बस्तियाँ ,ये काम रोजाना हुआफिर वही मुद्दआ उठा है , जाना-पहचाना हुआ
हम समझते थे वो दिल के पाक दामन साफ़ हैं
गुप्त समझौते किए थे , हाथ जल जाना हुआ
पीढ़ियाँ-दर-पीढ़ियाँ हम झेलते हैं मुफ़लिसी
आज तक रोटी का मसला हल न हो पाना हुआ
इस जुनून-ए-महज़बी से क्या हुआ हासिल तुम्हें ?
बेगुनाहों की लहू का सिर्फ़ बह जाना हुआ
और भी तो हैं तराइक़ बात कहने के लिए
क्या धमाकों में कभी कुछ बात सुन पाना हुआ ?
खिड़कियाँ खोलो तो समझो फ़र्क-ए-जुल्मत रोशनी
इन अँधेरों में वगरना जी के मर जाना हुआ
फिर वही एलान-ए-राहत, वायद-ए-मुआवज़ा
झुनझुने ’आनन’ के हाथों दे के बहलाना हुआ
14.
मेरे ग़म में वो आँसू बहाने लगेदेख घड़ियाल भी मुस्कराने लगे
नाम उनका हवाले में क्या आ गया
’गाँधी-टोपी’ हैं फिर से लगाने लगे
रोशनी डूब कर तो तभी मर गई
जब अँधेरे गवाही में आने लगे
बोतलों में रहे बन्द ’जिन’ अब तलक
फिर चुनावों में बाहर हैं आने लगे
दल बदल आप करते रहे उम्र भर
बन्दरों को गुलाटी सिखाने लगे
उम्र भर जो कलम के सिपाही रहे
बोलियां ख़ुद वो अपनी लगाने लगे
आजकल जाने ’आनन’ को क्या हो गया
यूं ज़माने से क्यों ख़ार खाने लगे ?
15.
कोई नदी जो उनके घर से गुज़र गई हैचढ़ती हुई जवानी पल में उतर गई है
बँगले की क्यारियों में पानी तमाम पानी
प्यासों की बस्तियों में सूखी नहर गई है
परियोजना तो वैसे हिमखण्ड की तरह थी
पिघली तो भाप बन कर जाने किधर गई है
हर बूँद बूँद तरसी मेरी तिश्नगी लबों की
आई लहर तो उनके आँगन ठहर गई है
"छमिया’ से पूछना था ,थाने बुला लिए थे
’साहब" से पूछना है ,सरकार घर गई है
वो आम आदमी है हर रोज़ लुट रहा है
क्या पास में है उसके सरकार डर गई है
ख़ामोश हो खड़े यूँ क्या सोचते हो "आनन’?
क्योंकर नहीं गये तुम दुनिया जिधर गई है ?
16.
वो आम आदमी है , ज़ेर-ए-नज़र नहीं हैउसको भी सब पता है ,वो बेख़बर नहीं है
सपने दिखाने वाले ,वादे हज़ार कर ले
कैसे यकीन कर लूं , तू मोतबर नहीं है
तू मीर-ए-कारवां है ,ग़ैरों से क्यों मिला है ?
अब तेरी रहनुमाई , उम्मीदबर नहीं है
की सरफ़रोशी तूने जिस रोशनी की ख़ातिर
गो सुब्ह हुई तो लेकिन ये वो सहर नहीं है
तेरी रगों में अब भी वो ही इन्कलाबी ख़ूं हैं
फिर क्या हुआ कि उसमें अब वो शरर नहीं है
यां धूप चढ़ गई है तू ख़्वाबीदा है अब भी
दुनिया किधर चली है तुझको ख़बर नहीं है
मर कर रहा हूँ ज़िन्दा हर रोज़ मुफ़लिसी में
ये मोजिज़ा है शायद ,मेरा हुनर नहीं है
पलकें बिछा दिया हूं वादे पे तेरे आकर
मैं जानता हूँ तेरी ये रहगुज़र नहीं है
किसकी उमीद में तू बैठा हुआ है ’आनन’
इस सच के रास्ते का यां हम सफ़र नहीं है
ज़ेर-ए-नज़र = सामने ,
मोतबर =विश्वसनीय,
मीर-ए-कारवां = यात्रा का नायक
शरर = चिंगारी
ख्वाविंदा = सुसुप्त ,सोया हुआ
मुफ़लिसी = गरीबी ,अभाव,तंगी
मोजिज़ा =दैविक चमत्कार
यां =यहाँ
17.
इज़हार-ए-मुहब्बत के हैं मुख़्तार और भीइस दर्द-ए-मुख़्तसर के हैं गुफ़्तार और भी
ये दर्द मेरे यार ने सौगात में दिया
करता हूं इस में यार का दीदार और भी
कुछ तो मिलेगी ठण्ड यूँ दिल में रक़ीब को
होने दे यूँ ही अश्क़-ए-गुहरबार और भी
आयत रहीम-ओ-राम की वाज़िब तो है,मगर
दुनिया के रंज-ओ-ग़म का है व्यापार और भी
अह्द-ए-वफ़ा की बात वो क्यों हँस के कर गए
अल्लाह ! क्यों आता है एतबार और भी
दहलीज़-ए-हुस्न-ए-यार के ’आनन’ तुम्हीं नहीं
इस आस्तान-ए-यार पे हैं निसार और भी
18.
लोग अपनी बात कह कर फिर मुकर जाते हैं क्यों ?आईने के सामने आते बिखर जातें हैं क्यों ?
बात ग़ैरों की चली तो आप आतिशजन हुए
बात अपनो की चली चेहरे उतर जाते हैं क्यों ?
इन्क़लाबी दौर में कुछ लोग क्यों ख़ामोश हैं ?
मुठ्ठियां भींचे हुए घर में ठहर जाते हैं क्यों?
हौसले परवाज़ के लेकर परिन्दे आ गए
उड़ने से पहले ही लेकिन पर कतर जातें हैं क्यों?
सच की बातें ,हक़ बयानी जब कि राहे-मर्ग है
सिरफ़िरे कुछ लोग ज़िन्दादिल उधर जाते है क्यों?
पाक दामन साफ़ थे उनसे ही कुछ उम्मीद थी
सामने नज़रें चुरा कर ,वो गुज़र जातें हैं क्यों ?
छोड़ ये सब बात ’आनन’ किसकी किसकी रोएगा
लोग ख़ुद को बेंच कर जाने निखर जातें हैं क्यों ?
19.
वो मुखौटे बदलता रहा उम्र भरऔर ख़ुद को भी छलता रहा उम्र भर
मुठ्ठियाँ जब तलक गर्म होती रहीं
मोम सा वो पिघलता रहा उम्र भर
वो खिलौने से ज़्यादा था कुछ भी नहीं
चाबियों से खनकता रहा उम्र भर
जिसके आँगन में उतरी नहीं रोशनी
वो अँधेरों से डरता रहा उम्र भर
उसको गर्द-ए-सफ़र का पता ही नहीं
झूट की छाँव पलता रहा उम्र भर
उसको मंज़िल मिली ही नहीं आजतक
मंज़िलें जो बदलता रहा उम्र भर
बुतपरस्ती मिरा हुस्न-ए-ईमान है
फिर ये ज़ाहिद क्यूं जलता रहा उम्र भर?
मैकदा है इधर और का’बा उधर
दिल इसी में उलझता रहा उम्र भर
आ गया कौन ’आनन’ ख़यालों में जो
दर-ब-दर यूं भटकता रहा उम्र भर ?
20.
ऐसी भी हो ख़बर कभी अख़बार में लिखाकल इक ’शरीफ़’ आदमी था रात में दिखा
लथपथ लहूलुहान ना हो जाए वो कहीं
आदम की नस्ल आख़िरी को या ख़ुदा! बचा
वो क़ातिलों की बस्तियों में आ गया कहां !
उस पर हँसेंगे लोग सब ठेंगे दिखा दिखा
बेमौत मर न जाए वो मेरी तरह कहीं
इस शहर में उसूल की गठरी उठा उठा
जो हैं रसूख़दार वो कब क़ैद में रहे !
मजलूम जो ग़रीब है वो कब हुआ रिहा !
अहल-ए-नज़र में वो यहां पागल क़रार है
’कलियुग’ से पूछता फिरे ’सतयुग’ का जो पता
जब से ख़रीद बेंच की दुनिया ये हो गई
’आनन’ कहो कि कब तलक ईमान है बचा
21.
सोचता हूँ इस शहर में आदमी रहता किधर है ?बस मुखौटे ही मुखौटे जिस तरफ़ जाती नज़र है
दिल की धड़कन मर गई है अब मशीनी धड़कनों में
आंख में पानी नहीं, बस बच गया तीखा ज़हर है
ज़िन्दगी तो कट गई फुट्पाथ से फुटपाथ ,यारो !
ख़्वाब सब गिरवी रखे हैं ,कर्ज़ पर जीवन बसर है
हर ख़ुशी नीलाम कुछ मज़बूरियों के नाम पर है
तीरगी हो, रोशनी हो , सब बराबर बेअसर है
एक मुट्टी आस्मां वो भी किराये पर मिला है
कब्र की दो गज़ ज़मीं से साँस कितनी बेख़बर है !
प्यार के दो पल की ख़्वाहिश ,आँख में सपने हज़ारों
हासिल-ए-हस्ती यही है ,दिल हमारा दर-ब-दर है
लौट कर वापस परिन्दे आयेंगे इस डाल पर भी
बस इसी उम्मीद में ही आज भी ज़िन्दा शज़र है
बरसरे बाज़ार यूं क्या क्या नहीं बिकता है ’आनन’
आदमी का मोल ही कमतर रहा बस हर दहर है
22.
आप इतना ख़ौफ़ क्यों खाए हुए हैं ?इस शहर में क्या नए आए हुए हैं ?
’आदमीयत’ खोजना अब व्यर्थ होगा
आदमी तो मौत के साए हुए हैं
जब सियासी लोग ने कुछ रंग बदले
गिरगिटों के रंग शरमाए हुए हैं
जनसभा में लोग श्रद्धा से नहीं हैं
चन्द सिक्कों की एवज आए हुए हैं
सत्य की कीमत यहां पे कब लगी है
झूट वाले आजकल छाए हुए हैं
वो भला क्या बात मेरी सुन सकेंगे
ख़ुद की डफ़ली राग ख़ुद गाए हुए हैं
सुब्ह जीना शाम मरना रोज़ ’आनन’
आप क्यों मुझ पर तरस खाए हुए हैं
23.
चुनावों के मौसम जो आने लगे हैं’सुदामा’ के घर ’कृश्न’ जाने लगे हैं
जिन्हें पाँच वर्षों से देखा नहीं है
वही ख़ुद को ख़ादिम बताने लगे हैं
हुई जिनकी ’टोपी’ है मैली-कुचैली
मुझे सच की मानी सिखाने लगे हैं
ख़ुदा जाने होता यकीं क्यों नहीं है !
नये ख़्वाब फ़िर से दिखाने लगे हैं
मेरी झोपड़ी पे तरस खाने वालों
बनाने में इसको ज़माने लगे हैं
हमें उनकी नीयत पे शक तो नहीं है
वो नज़रें मगर क्यों चुराने लगे हैं?
चलो मान लेते हैं बातें तुम्हारी
निवाले मिरे कौन खाने लगे हैं?
कहाँ जाके मिलते हम ’आनन’किसी से
यहाँ सब मुखौटे चढ़ाने लगे हैं
24.
मुहब्बत की जादू-बयानी न होतीअगर तेरी मेरी कहानी न होती
न "राधा" से पहले कोई नाम आता
अगर कोई ’मीरा" दिवानी न होती
यह राज़-ए-मुहब्बत न होता नुमायां
जो बहकी हमारी जवानी न होती
हमें दीन-ओ-ईमां से क्या लेना-देना
बलाए अगर आसमानी न होती
उमीदों से आगे उमीदें न होती
तो हर साँस में ज़िन्दगानी न होती
कोई बात तो उन के दिल पे लगी है
ख़ुदाया ! मिरी लन्तरानी न होती
रकीबों की बातों में आता न गर वो
तो ’आनन’ उसे बदगुमानी न होती
नुमायां = ज़ाहिर होना
लन्तरानी = झूटी शेखी /डींग मारना
25.
लहरों के साथ वो भी बहने लगे लहर में ऐसे ही लोग क़ाबिल समझे गए सफ़र में
क्या गाँव ,क्या शहर सब,अब हो गए बराबर
आदर्श की मिनारें तब्दील खण्डहर में
दीवार पे लिखे जो नारों-सा मिट गए हैं
जो कुछ वज़ूद था भी वह मिट गया शहर में
हम एक दूसरे से यूँ ख़ौफ़ खा रहे हैं
हर आदमी है लगता जैसे बुझा ज़हर में
जो दल अदल-बदल कर ’दिल्ली’ में जा के बैठे
उनको ही फूल अर्पित होते रहे समर में
आँखों भरे हैं आँसू ,लब पे दुआ की बातें
डर है कि साथ वाला डँस ले नहीं डगर में
साँपों की बस्तियों में इक खलबली मची है
इक आदमी शहर का जो आ गया नज़र में
26.
संदिग्ध आचरण है , खादी का आवरण है’रावण’ कहाँ मरा है ,’सीता’ का अपहरण है
जो झूठ के हैं पोषक दरबार में प्रतिष्ठित
जो सत्य के व्रती हैं वनवास में मरण है
शोषित,दलित व पीड़ित,मन्दिर कभी व मस्ज़िद
नव राजनीति का यह संक्षिप्त संस्करण है
ज़िन्दा कभी बिकेगा ,कौड़ी से कम बिकेगा
अनुदान लाश पर है ,भुगतान अपहरण है
सरकार मूक दर्शक ,शासन हुआ अपाहिज
सब तालियाँ बजाते भेंड़ों सा अनुसरण है
’रोटी’ की खोज बदले ,’अणु-बम्ब’ खोजते हैं
इक्कीसवीं सदी में दुनिया का आचरण है
हर शाम थक मरा हूँ ,हर सुबह चल पड़ा हूँ
मेरी जिजीविषा ही आशा की इक किरण है
27.
तुमको ख़ुदा कहा है किसने ? पता नहीं है दिल ने न कह दिया हो ! हमने कहा नहीं है
दर पर तिरे न आऊँ ,सर भी नहीं झुकाऊँ !
दुनिया में आशिक़ी की ऐसी सजा नहीं है
पुरतिश्नगी ये मेरी ,जल्वा नुमाई तेरी
मेरी ख़ता भले हो , तेरी ख़ता नहीं है
कब ये जुबाँ खुली है तेरी सितमगरी से
ऐसा कभी न होगा ,ऐसा हुआ नहीं है
वो इश्क़ के सफ़र में ,राही नया नया है
आह-ओ-फ़ुगाँ ,जुनूँ की हद जानता नहीं है
ऐसा नहीं है कोई जो इश्क़ का न मारा
जिसकी न आँख नम हो जो ग़मजदा नहीं है
उल्फ़त का यह सफ़र भी कैसा अजब सफ़र है!
जो एक बार जाता वो लौटता नहीं है
किसके ख़याल में तुम, यूँ गुमशुदा हो ’आनन’?
उल्फ़त की मंज़िलों का तुमको पता नहीं है
28.
जुनून-ए-इश्क़ में हमने न जाने क्या कहा होगा !हैं इतने बेख़ुदी में गुम कि हम को क्या पता होगा
मैं अपने इज़्तिराब-ए-दिल को समझाता हूँ रह रह कर
कि जितना चाहता हूँ वो भी उतना चाहता होगा
हमें मालूम है नाकामी-ए-दिल, हसरत-ए-उल्फ़त
हमें तो आख़िरी दम तक वफ़ा से वास्ता होगा
सभी तो रास्ते जाते तुम्हारी ही गली को हैं
वहाँ से लौट आने का न कोई रास्ता होगा
ख़याल-ओ-ख़्वाब में जिस के, कटी है ज़िन्दगी अपनी
मैं उसको जानता हूँ, क्या वो मुझ को जानता होगा ?
जो उसको ढूँढने निकला ,तो खुद भी खो गया"आनन"
जिसे ख़ुद में नहीं पाया , वो बाहर ला-पता होगा
29.
यहाँ लोगों की आँखों में नमी मालूम होती हैनदी इक दर्द की जैसे थमी मालूम होती है
हज़ारों मर्तबा दिल खोल कर बातें कही अपनी
मगर हर बार बातों में कमी मालूम होती है
चलो रिश्ते पुराने फिर से अपने गर्म कर आएं
दुबारा बर्फ की चादर तनी मालूम होती है
दरीचे खोल कर देखो कहाँ तक धूप चढ़ आई
हवा इस बन्द कमरे की थमी मालूम होती है
हमारे हक़ में जो आता है कोई लूट लेता है
सदाक़त में भी अब तो रहज़नी मालूम होती है
तुम्हारी "फ़ाइलों" में क़ैद मेरी ’रोटियां’ सपने
मिरी आवाज़ "संसद" में ठगी मालूम होती है
उमीद-ओ-हौसला,हिम्मत अभी ना छोड़ना "आनन"
सियाही रात में कुछ रोशनी मालूम होती है
30.
मोहन के बांसुरी की जैसे तान है ग़ज़लकोयल की कूक मीठी जैसी गान है ग़ज़ल
जैसे कि मां की गोद में सोया हुआ बच्चा
चेहरे पर हौले-हौले मुस्कान है ग़ज़ल
खिलते हुए कमल पे ठहरी हुई शबनम
छूने को मचलती हुई अरमान है ग़ज़ल
मिलते कभी सफर में जैसे दो अजनबी
परदेश में ज्यों अपनी पहचान है ग़ज़ल
फूलों की घाटियों में बहती हुई दरिया
बादे - सहर की जैसे उनवान है ग़ज़ल
जीवन के साधना में ऋचा मन्त्र-सी लगे
जैसे ऋषि-मुनि कोई ध्यान है ग़ज़ल
वह पूछती हैं हमसे ग़ज़ल कौन सी बला
तेरा रूप है ग़ज़ल मेरा ईमान हैं ग़ज़ल
धन्यबाद,
प्रस्तुतकर्ता आनन्द पाठक