जन्म: 05 नवंबर 1931
जन्म स्थान: शकरगढ़,पंजाब, अब पाकिस्तान में
कुछ प्रमुख कृतियाँ: मल्हार, तेरे ख़ुश्बू में बसे ख़त, और शाम ढल गई, याद आऊँगा
जाने किस देस जा बसा है कोई
पूछता हूं मैं सारे रस्तों से
उस के घर का भी रास्ता है कोई
एक दिन मैं ख़ुदा से पूछूं गा
क्या ग़रीबों का भी ख़ुदा है कोई
इक मुझे छोड़ के वो सब से मिला
इस से बढ़ के भी क्या सज़ा है कोई
दिल में थोड़ी सी खोट रखता है
यूं तो सोने से भी खरा है कोई
वो मुझे छोड़ दे कि मेरा रहे
हर क़दम पर ये सोचता है कोई
हाथ तुम ने जहां छुड़ाया था
आज भी उस जगह खड़ा है कोई
फिर भी पहुंचा न उस के दामन तक
ख़ाक बन बन के गो उड़ा है कोई
तुम भी अब जा के सो रहो 'रहबर`
ये न सोचो कि जागता है कोई
तज्वीज़ तुम भी करना सज़ाएं नई नई
जब भी हमें मिलो ज़रा हंस कर मिला करो
देंगे फ़क़ीर तुम को दुआएं नई नई
दुन्या को हम ने गीत सुनाये हैं प्यार के
दुन्या ने हम को दी हैं सज़ाएं नई नई
ये जोगिया लिबास, ये गेसू खुले हुए
सीखीं कहां से तुम ने अदाएं नई नई
तुम आ गये बहार सी हर शय पे छा गई
मह्सूस हो रही हैं फ़ज़ाएं नई नई
आंखों में फिर रहे हैं मनाज़िर नऐ नऐ
कानों में गूंजती हैं सदाएं नई नई
गुम हो न जायें मंज़िलें गर्दो-गु़बार में
रहबर नये नये हैं दिशाएं नई नई
जब शायरी हुई है वदीअत हमें तो फिर
ग़ज़लें जहां को क्यों न सुनाएं नई नई
'रहबर` कुदूरतों को दिलों से निकाल कर
हम बस्तियां वफ़ा की बसाएं नई नई
'जगजीत` की आवाज़ में ग़ालिब की ग़ज़ल हो
हर पल जो गुज़रता है वो लाता है तिरी याद
जो साथ तुझे लाये कोई ऐसा भी पल हो
होते हैं सफल लोग मुहब्बत में हज़ारों
ऐ काश कभी अपनी मुहब्बत भी सफल हो
उलझे ही चला जाता है उस ज़ुल्फ़ की मानिन्द
ऐ उक़दा-ए-दुशवारे मुहब्बत कभी हल हो
लौटी है नज़र आज तो मायूस हमारी
अल्लह करे दीदार तुम्हारा हमें कल हो
मिल जाओ किसी मोड़ पे इक रोज़ अचानक
गलियों में हमारा ये भटकना भी सफल हो
अपनी ज़ुल्फ़ों को सँवारोगे तो याद आऊंगा
रंग कैसा हो, ये सोचोगे तो याद आऊंगा
जब नया सूट ख़रीदोगे तो याद आऊंगा
भूल जाना मुझे आसान नहीं है इतना
जब मुझे भूलना चाहोगे तो याद आऊंगा
ध्यान हर हाल में जाये गा मिरी ही जानिब
तुम जो पूजा में भी बैठोगे तो याद आऊंगा
एक दिन भीगे थे बरसात में हम तुम दोनों
अब जो बरसात में भीगोगे तो याद आऊंगा
चांदनी रात में, फूलों की सुहानी रुत में
जब कभी सैर को निकलोगे तो याद आऊंगा
जिन में मिल जाते थे हम तुम कभी आते जाते
जब भी उन गलियों से गुज़रोगे तो याद आऊंगा
याद आऊंगा उदासी की जो रुत आयेगी
जब कोई जश्न मनाओगे तो याद आऊंगा
शैल्फ़ में रक्खी हुई अपनी किताबों में से
कोई दीवान उठाओगे तो याद आऊंगा
शम्अ की लौ पे सरे-शाम सुलगते जलते
किसी परवाने को देखोगे तो याद आऊंगा
जब किसी फूल पे ग़श२ होती हुई बुलबुल को
सह्ने-गुल्ज़ार में देखोगे तो याद आऊंगा
तुम्हारा हुस्न महकते गुलाब जैसा है
मैं बंद आंखों से पढ़ता हूं रोज़ वो चेहरा
जो शायरी की सुहानी किताब जैसा है
नहीं है कोई ख़रीदार अपना दुनिया में
हमारा हाल भी उर्दू किताब जैसा है
ये जिस्मो-जां के घरौंदे बिगड़ने वाले हैं
वुजूद सब का यहां इक हबाब जैसा है
वो रोज़ प्यार से कहते हैं हम को दीवाना
ये लफ्ज़ अपने लिए इक ख़िताब जैसा है
ये पाक साफ़ भी है, और है मुक़द्दस भी
हमारा दिल भी तो गंगा के आब जैसा है
जो लोग रखते हैं दिल में कदूरतें अपने
उन्हें न मिलना भी कारे-सवाब जैसा है
तुम्हें जो सोचें तो होता है कैफ़-सा तारी
तुम्हारा ज़िक्र भी जामे-शराब जैसा है
किये हैं काम बहुत ज़िंदगी ने लाफ़ानी
सफ़र हयात का गो इक हबाब जैसा है
खड़े हैं कच्चा घड़ा ले के हाथ में हम भी
नदी का ज़ोर भी 'रहबर` चिनाब जैसा है
कमबख्त़ फिर भी सोच रहा है कि कम मिले
रोई कुछ और फूट के बरसात की घटा
जब आंसुओं में डूबे हुए उस को हम मिले
कुछ वक्त़ ने भी साथ हमारा नहीं दिया
कुछ आप की नज़र के सहारे भी कम मिले
आंखें जिसे तरसती हैं आये कहीं नज़र
दिल जिस को ढूंडता है कहीं वो सनम मिले
बे-इख्त़ियार आंखों से आंसू छलक पड़े
कल रात अपने आप से जिस वक्त़ हम मिले
जितनी थीं मेरे वास्ते खुशियां मुझे मिलीं
जितने मेरे नसीब में लिक्खे थे ग़म मिले
फ़ाक़ों से नीम-जान, फ़सुर्दा, अलम-ज़दा
ग़म से निढाल, हिन्द के अह्ले-क़लम२ मिले
कुछ तो पता चले कहां जाते हैं मर के लोग
कुछ तो सुरागे़-राह-रवाने-अदम३ मिले
खोया हुआ है आज भी पस्ती में आदमी
मिलने को उस के चांद पे नक्श़े-क़दम मिले
'रहबर` हम इस जनम में जिसे पा नहीं सके
शायद कि वो सनम हमें अगले जनम मिले
चलते हैं आज उनके एह्काम[1] बस्तियों में
हर-सू[2] मचा हुआ है कुहराम बस्तियों में
तह्ज़ीब[3] हो न जाये नीलाम बस्तियों में
घोला था ज़हर किसने कोई न जानता था
तेगें[4] खिंची हुई थीं इक शाम बस्तियों में
जिनके नफ़स-नफ़स में तख़रीब बस रही है
ऐसे हलाकुओं का क्या काम बस्तियों में
कोई न हो शनासा[5] कोई न जानता हो
आओ कि जा बसें हम बे-नाम बस्तियों में
सूने पड़े हैं मन्दिर, वीरान मस्जिदें हैं
धूमें मची हैं क्या-क्या बदनाम बस्तियों में
सब शोरिशें हों `रहबर' नापैद बस्तियों से
अमन-ओ-अमाँ का फैले पैग़ाम[6]बस्तियों में
शब्दार्थ:
१ हुक्म का बहुवचन
२ चारों ओर
३ सभ्यता
४ तलवारें
५ परिचित
६ संदेश
लेकिन वो आंख थी कि बराबर झुकी रही
मेले में ये निगाह तुझे ढूँढ़ती रही
हर महजबीं से तेरा पता पूछती रही
जाते हैं नामुराद तेरे आस्तां से हम
ऐ दोस्त फिर मिलेंगे अगर ज़िंदगी रही
आंखों में तेरे हुस्न के जल्वे बसे रहे
दिल में तेरे ख़याल की बस्ती बसी रही
इक हश्र था कि दिल में मुसलसल बपा रहा
इक आग थी कि दिल में बराबर लगी रही
मैं था, किसी की याद थी, जामे-शराब था
ये वो निशस्त थी जो सहर तक जमी रही
शामे-विदा-ए-दोस्त का आलम न पूछिये
दिल रो रहा था लब पे हंसी खेलती रही
खुल कर मिला न जाम ही उस ने कोई लिया
'रहबर` मेरे ख़ुलूस में शायद कमी रही
बढ़ के ले गा हमारे क़दम रास्ता
कौन गुज़रा है आहों में डूबा हुआ
हो गया किस के अश्कों से नम रास्ता
लम्से-अव्वल तेरे पांव का जब मिला
हो गया और भी मुहतरम रास्ता
राहे-उल्फ़त के पुर-जोश राही हैं हम
चूमता है हमारे क़दम रास्ता
ख़ुद-बख़ुद आयेंगी मंज़िलें सामने
ख़ुद बतायेगा नक्श़े-क़दम रास्ता
हम भी पहुँचें सरे-मंज़िले-सरख़ुशी
दे अगर हम को शामे-अलम रास्ता
ये सफ़र, ये हसीं शाम ये घाटियां
कितना दिलकश है पुर-पेचो-ख़म रास्ता
क्यों न 'रहबर` चलूं मंज़िलों मंज़िलों
मेरी तक्द़ीर में है रक़म रास्ता
किस ने दिल के मिज़ाज को जाना
वो मिरा ढूंढना तुझे हर सू
वो तिरा इस जहां में खो जाना
आंसुओं एक दिन रवां हो कर
आसियों के गुनाह धो जाना
अह्दे-हाज़िर के नेक इन्सानों
बीज तुम नेकियों के बो जाना
गम़ की फुंकारती हुई नागिन
एक शब मेरे साथ सो जाना
आ के ऐ यादेऱ्यार निश्तर सा
रगे-एहसास में चुभो जाना
हम को आता है ये भी फ़न 'रहबर`
ख़ार से भी लिपट के सो जाना
मेरे जितने क़हक़हे थे आंसुओं तक आ गये
ये इशारा है किसी आते हुये तूफ़ान का
आज वो हम को हमारे सारे ख़त लौटा गये
अब बहार आये न आये, क्या ग़रज़ इस से हमें
मुस्कुराहट से हज़ारों फूल वो बरसा गये
जा रहे थे हम तो अपनी धुन में मंज़िल की तरफ़
ले के तुम नज़रानए-दिल रास्ते में आ गये
आओ हम सब मिल के भेजें उन शहीदों पर सलाम
जो वतन के वासिते मैदान में काम आ गये
हम को भी खिलना था इक दिन बांटनी थीं ख़ुशबुयें
हम हवाए-गर्मे-दुन्या से मगर मुर्झा गये
वो समंदर था, बुझाता था वो सहराओं की प्यास
पास उस के कितने तश्ना-लब१ गये, सहरा गये
कुछ तो उन में ख़ूबियां थीं, कुछ तो उन में वस्फ़२ थे
ज़िंदगी में अपने क़द से लोग जो ऊंचा गये
रूठ जाये न जाने कब कोई
वो तो ख़ुशबू का एक झोंका था
उस को लाये कहां से अब कोई
क्यों उसे हम इधर उधर ढूंढे
दिल ही में बस रहा है जब कोई
वो हसीं१ कौन था, कहां का था
पूछ लेता हसब-नसब कोई
प्यार से हम को कह के दीवाना
दे गया इक नया लक़ब कोई
आज दिन क़हक़हों में गुज़रा है
रो के काटेगा आज शब कोई
उस से क्या अपनी दोस्ती 'रहबर`
वो समझता है ख़ुद को रब कोई
तज्वीज़ तुम भी करना सज़ाएं नई नई
जब भी हमें मिलो ज़रा हंस कर मिला करो
देंगे फ़क़ीर तुम को दुआएं नई नई
दुन्या को हम ने गीत सुनाये हैं प्यार के
दुन्या ने हम को दी हैं सज़ाएं नई नई
ये जोगिया लिबास, ये गेसू खुले हुए
सीखीं कहां से तुम ने अदाएं नई नई
तुम आ गये बहार सी हर शय पे छा गई
मह्सूस हो रही हैं फ़ज़ाएं नई नई
आंखों में फिर रहे हैं मनाज़िर नऐ नऐ
कानों में गूंजती हैं सदाएं नई नई
गुम हो न जायें मंज़िलें गर्दो-गु़बार में
रहबर नये नये हैं दिशाएं नई नई
जब शायरी हुई है वदीअत हमें तो फिर
गज़लें जहां को क्यों न सुनाएं नई नई
'रहबर` कुदूरतों को दिलों से निकाल कर
हम बस्तियां वफ़ा की बसाएं नई नई
किसी तन्हा जज़ीरे पर ठहर जा
हथेली पर लिये सर को गुज़र जा
जो जीने की तमन्ना है तो मर जा
मुक़ाबिल से कभी हंस कर गुज़र जा
मेरे दामन को भी फूलों से भर जा
नई मंज़िल के राही, जाते जाते
सब अपने गम़ हमारे नाम कर जा
ये बस्ती है हसीनों की, यहां से
किसी आवारा बादल सा गुज़र जा
बरस जा दिल के आंगन में किसी दिन
ये धरती भी कभी सेराब कर जा
तू ख़ुशबू है तो फिर क्यों है गुरेज़ां
बिखरना ही मुक़द्दर है बिखर जा
ज़माना देखता रह जाये तुझ को
जहां में कोई ऐसा काम कर जा
इधर से आज वो गुज़रेंगे 'रहबर`
तू ख़ुशबू बन के रस्ते में बिखर जा
उस के लिये होंटों पर हर वक्त़ दुआ रखना
जब क़िस्मतें बटती थीं ऐसा भी न था मुश्किल
उस वक्त़ सनम तुझ को क़िस्मत में लिखा रखना
जब हम ने अज़ल ही से तय एक डगर कर ली
फिर रास न आयेगा राहों को जुदा रखना
वो नींद के आलम से बेदार न हो जायें
हौले से क़दम अपना ऐ बादे-सबा रखना
आयेगा कोई भंवरा रस चूसने फूलों का
तुम फूल तबस्सुम के होंटों पे खिला रखना
आयेंगे वो ऐ 'रहबर` सो जायेगी जब दुनिया
पत्तों की भी आहट पर तुम कान लगा रखना
किसी तन्हा जज़ीरे पर ठहर जा
हथेली पर लिये सर को गुज़र जा
जो जीने की तमन्ना है तो मर जा
मुक़ाबिल से कभी हंस कर गुज़र जा
मेरे दामन को भी फूलों से भर जा
नई मंज़िल के राही, जाते जाते
सब अपने गम़ हमारे नाम कर जा
ये बस्ती है हसीनों की, यहां से
किसी आवारा बादल सा गुज़र जा
बरस जा दिल के आंगन में किसी दिन
ये धरती भी कभी सेराब कर जा
तू ख़ुशबू है तो फिर क्यों है गुरेज़ां
बिखरना ही मुक़द्दर है बिखर जा
ज़माना देखता रह जाये तुझ को
जहां में कोई ऐसा काम कर जा
इधर से आज वो गुज़रेंगे 'रहबर`
तू ख़ुशबू बन के रस्ते में बिखर जा
वो अपने बुज़ुर्गों का चलन छोड़ रहा है
अल्लाह निगहबान! मिरा लाडला बेटा
'डॉलर` के लिये अपना वतन छोड़ रहा है
शायद कि वो कांधा भी तुझे देने न पहुंचे
तू जिन के लिये अपना ये धन छोड़ रहा है
ये तर्क की है कौन सी मंज़िल या रब
दुन्या की हर इक चीज़ को मन छोड़ रहा है
उर्यानी का वो दौर मआज़ अल्लाह है जारी
मुर्दा भी यहां अपना कफ़न छोड़ रहा है
मीज़ाइलें, रॉकिट, कभी बौछार बमों की
क्या क्या नहीं धरती पे गगन छोड़ रहा है
आओ कि सलाम अपना गुज़ार आयें रफ़ीक़ो
इक शायरे-ख़ुश-फ़िक्र वतन छोड़ रहा है
इस्टेज के अशआर पे रखते हैं नज़र हम
हम फ़न को तो 'रहबर` हमें फ़न छोड़ रहा है
दोस्तो ख़िज़्रे-राह बन जाओ
थाम लो हाथ बे सहारों का
उन की जाए-पनाह बन जाओ
जिस में आ कर मिलें सभी राहें
तुम वही शाहराह बन जाओ
झूट से तोड़ कर सभी रिश्ते
एक सच्चे गवाह बन जाओ
बे-हिसी से न वासिता रखना
आह बन जाओ वाह बन जाओ
हक़ परस्ती के, हक़ शनासी६ के
दिल से तुम खै़र-ख्व़ाह बन जाओ
सब से बढ़ कर चमक दमक रक्खो
तुम सितारों में माह बन जाओ
जो सभी दुश्मनों पे भारी पड़े
हिन्द की वो सिपाह बन जाओ
दर पे साइल करे जो आ के सदा
उस घड़ी बे-पनाह बन जाओ
कुछ न आये नज़र बजुज़ मह्बूब
एक आशिक़ की चाह बन जाओ
एक दुनिया तुम्हें सलाम करे
सच की आमाजगाह बन जाओ
जन्म स्थान: शकरगढ़,पंजाब, अब पाकिस्तान में
कुछ प्रमुख कृतियाँ: मल्हार, तेरे ख़ुश्बू में बसे ख़त, और शाम ढल गई, याद आऊँगा
शकरगढ़ पाकिस्तान में पैदा हुए रहबर साहब मुल्क के बटवारे के बाद अपने माता -पिता के साथ पठानकोट में चले आये और यहीं के हो कर रह गए.हिन्दू कॉलेज अमृतसर से बी.ऐ , खालसा कॉलेज अमृतसर से एम.ए और पंजाब यूनिवर्सिटी चंडीगढ़ से एल.एल बी के इम्तिहान पास किये। शायरी का शौक उन्हें लकड़पन से ही हो गया जो फिर ता-उम्र उनका हमसफ़र रहा।श्री राजेंद्र नाथ 'रहबर' उर्दू के ऐसे शायर हैं जिन्हें भारतीय संस्कृति की सच्ची पहचान कहा जा सकता है। उनकी रचनाएं भारत के आम आदमी की ज़ुबान हैं, उसकी पहचान हैं। शायरी और खास तौर पर उर्दू साहित्य को अपनी अनोखी प्रतिभा से चार चाँद लगाने वाले रहबर साहब को हाल ही में पंजाब सरकार ने अपने सर्वोच्च साहित्यक पुरूस्कार 'शिरोमणि उर्दू साहित्यकार अवार्ड ' से सम्मानित किया है।
============================
१.
ईद का चांद हो गया है कोई जाने किस देस जा बसा है कोई
पूछता हूं मैं सारे रस्तों से
उस के घर का भी रास्ता है कोई
एक दिन मैं ख़ुदा से पूछूं गा
क्या ग़रीबों का भी ख़ुदा है कोई
इक मुझे छोड़ के वो सब से मिला
इस से बढ़ के भी क्या सज़ा है कोई
दिल में थोड़ी सी खोट रखता है
यूं तो सोने से भी खरा है कोई
वो मुझे छोड़ दे कि मेरा रहे
हर क़दम पर ये सोचता है कोई
हाथ तुम ने जहां छुड़ाया था
आज भी उस जगह खड़ा है कोई
फिर भी पहुंचा न उस के दामन तक
ख़ाक बन बन के गो उड़ा है कोई
तुम भी अब जा के सो रहो 'रहबर`
ये न सोचो कि जागता है कोई
२.
करते रहेंगे हम भी ख़ताएं नई नई तज्वीज़ तुम भी करना सज़ाएं नई नई
जब भी हमें मिलो ज़रा हंस कर मिला करो
देंगे फ़क़ीर तुम को दुआएं नई नई
दुन्या को हम ने गीत सुनाये हैं प्यार के
दुन्या ने हम को दी हैं सज़ाएं नई नई
ये जोगिया लिबास, ये गेसू खुले हुए
सीखीं कहां से तुम ने अदाएं नई नई
तुम आ गये बहार सी हर शय पे छा गई
मह्सूस हो रही हैं फ़ज़ाएं नई नई
आंखों में फिर रहे हैं मनाज़िर नऐ नऐ
कानों में गूंजती हैं सदाएं नई नई
गुम हो न जायें मंज़िलें गर्दो-गु़बार में
रहबर नये नये हैं दिशाएं नई नई
जब शायरी हुई है वदीअत हमें तो फिर
ग़ज़लें जहां को क्यों न सुनाएं नई नई
'रहबर` कुदूरतों को दिलों से निकाल कर
हम बस्तियां वफ़ा की बसाएं नई नई
३.
तुम जन्नते कश्मीर हो तुम ताज महल हो 'जगजीत` की आवाज़ में ग़ालिब की ग़ज़ल हो
हर पल जो गुज़रता है वो लाता है तिरी याद
जो साथ तुझे लाये कोई ऐसा भी पल हो
होते हैं सफल लोग मुहब्बत में हज़ारों
ऐ काश कभी अपनी मुहब्बत भी सफल हो
उलझे ही चला जाता है उस ज़ुल्फ़ की मानिन्द
ऐ उक़दा-ए-दुशवारे मुहब्बत कभी हल हो
लौटी है नज़र आज तो मायूस हमारी
अल्लह करे दीदार तुम्हारा हमें कल हो
मिल जाओ किसी मोड़ पे इक रोज़ अचानक
गलियों में हमारा ये भटकना भी सफल हो
४.
आईना सामने रक्खोगे तो याद आऊंगा अपनी ज़ुल्फ़ों को सँवारोगे तो याद आऊंगा
रंग कैसा हो, ये सोचोगे तो याद आऊंगा
जब नया सूट ख़रीदोगे तो याद आऊंगा
भूल जाना मुझे आसान नहीं है इतना
जब मुझे भूलना चाहोगे तो याद आऊंगा
ध्यान हर हाल में जाये गा मिरी ही जानिब
तुम जो पूजा में भी बैठोगे तो याद आऊंगा
एक दिन भीगे थे बरसात में हम तुम दोनों
अब जो बरसात में भीगोगे तो याद आऊंगा
चांदनी रात में, फूलों की सुहानी रुत में
जब कभी सैर को निकलोगे तो याद आऊंगा
जिन में मिल जाते थे हम तुम कभी आते जाते
जब भी उन गलियों से गुज़रोगे तो याद आऊंगा
याद आऊंगा उदासी की जो रुत आयेगी
जब कोई जश्न मनाओगे तो याद आऊंगा
शैल्फ़ में रक्खी हुई अपनी किताबों में से
कोई दीवान उठाओगे तो याद आऊंगा
शम्अ की लौ पे सरे-शाम सुलगते जलते
किसी परवाने को देखोगे तो याद आऊंगा
जब किसी फूल पे ग़श२ होती हुई बुलबुल को
सह्ने-गुल्ज़ार में देखोगे तो याद आऊंगा
५.
मेरे ख़याल-सा है, मेरे ख़्वाब जैसा है तुम्हारा हुस्न महकते गुलाब जैसा है
मैं बंद आंखों से पढ़ता हूं रोज़ वो चेहरा
जो शायरी की सुहानी किताब जैसा है
नहीं है कोई ख़रीदार अपना दुनिया में
हमारा हाल भी उर्दू किताब जैसा है
ये जिस्मो-जां के घरौंदे बिगड़ने वाले हैं
वुजूद सब का यहां इक हबाब जैसा है
वो रोज़ प्यार से कहते हैं हम को दीवाना
ये लफ्ज़ अपने लिए इक ख़िताब जैसा है
ये पाक साफ़ भी है, और है मुक़द्दस भी
हमारा दिल भी तो गंगा के आब जैसा है
जो लोग रखते हैं दिल में कदूरतें अपने
उन्हें न मिलना भी कारे-सवाब जैसा है
तुम्हें जो सोचें तो होता है कैफ़-सा तारी
तुम्हारा ज़िक्र भी जामे-शराब जैसा है
किये हैं काम बहुत ज़िंदगी ने लाफ़ानी
सफ़र हयात का गो इक हबाब जैसा है
खड़े हैं कच्चा घड़ा ले के हाथ में हम भी
नदी का ज़ोर भी 'रहबर` चिनाब जैसा है
६.
दिल को जहान भर के मुहब्बत में गम़ मिले कमबख्त़ फिर भी सोच रहा है कि कम मिले
रोई कुछ और फूट के बरसात की घटा
जब आंसुओं में डूबे हुए उस को हम मिले
कुछ वक्त़ ने भी साथ हमारा नहीं दिया
कुछ आप की नज़र के सहारे भी कम मिले
आंखें जिसे तरसती हैं आये कहीं नज़र
दिल जिस को ढूंडता है कहीं वो सनम मिले
बे-इख्त़ियार आंखों से आंसू छलक पड़े
कल रात अपने आप से जिस वक्त़ हम मिले
जितनी थीं मेरे वास्ते खुशियां मुझे मिलीं
जितने मेरे नसीब में लिक्खे थे ग़म मिले
फ़ाक़ों से नीम-जान, फ़सुर्दा, अलम-ज़दा
ग़म से निढाल, हिन्द के अह्ले-क़लम२ मिले
कुछ तो पता चले कहां जाते हैं मर के लोग
कुछ तो सुरागे़-राह-रवाने-अदम३ मिले
खोया हुआ है आज भी पस्ती में आदमी
मिलने को उस के चांद पे नक्श़े-क़दम मिले
'रहबर` हम इस जनम में जिसे पा नहीं सके
शायद कि वो सनम हमें अगले जनम मिले
७.
कल तक था नाम जिनका बदनाम बस्तियों में चलते हैं आज उनके एह्काम[1] बस्तियों में
हर-सू[2] मचा हुआ है कुहराम बस्तियों में
तह्ज़ीब[3] हो न जाये नीलाम बस्तियों में
घोला था ज़हर किसने कोई न जानता था
तेगें[4] खिंची हुई थीं इक शाम बस्तियों में
जिनके नफ़स-नफ़स में तख़रीब बस रही है
ऐसे हलाकुओं का क्या काम बस्तियों में
कोई न हो शनासा[5] कोई न जानता हो
आओ कि जा बसें हम बे-नाम बस्तियों में
सूने पड़े हैं मन्दिर, वीरान मस्जिदें हैं
धूमें मची हैं क्या-क्या बदनाम बस्तियों में
सब शोरिशें हों `रहबर' नापैद बस्तियों से
अमन-ओ-अमाँ का फैले पैग़ाम[6]बस्तियों में
शब्दार्थ:
१ हुक्म का बहुवचन
२ चारों ओर
३ सभ्यता
४ तलवारें
५ परिचित
६ संदेश
८.
क्या क्या सवाल मेरी नज़र पूछती रही लेकिन वो आंख थी कि बराबर झुकी रही
मेले में ये निगाह तुझे ढूँढ़ती रही
हर महजबीं से तेरा पता पूछती रही
जाते हैं नामुराद तेरे आस्तां से हम
ऐ दोस्त फिर मिलेंगे अगर ज़िंदगी रही
आंखों में तेरे हुस्न के जल्वे बसे रहे
दिल में तेरे ख़याल की बस्ती बसी रही
इक हश्र था कि दिल में मुसलसल बपा रहा
इक आग थी कि दिल में बराबर लगी रही
मैं था, किसी की याद थी, जामे-शराब था
ये वो निशस्त थी जो सहर तक जमी रही
शामे-विदा-ए-दोस्त का आलम न पूछिये
दिल रो रहा था लब पे हंसी खेलती रही
खुल कर मिला न जाम ही उस ने कोई लिया
'रहबर` मेरे ख़ुलूस में शायद कमी रही
९.
तय करें मिल के हम तुम ब`हम रास्ता बढ़ के ले गा हमारे क़दम रास्ता
कौन गुज़रा है आहों में डूबा हुआ
हो गया किस के अश्कों से नम रास्ता
लम्से-अव्वल तेरे पांव का जब मिला
हो गया और भी मुहतरम रास्ता
राहे-उल्फ़त के पुर-जोश राही हैं हम
चूमता है हमारे क़दम रास्ता
ख़ुद-बख़ुद आयेंगी मंज़िलें सामने
ख़ुद बतायेगा नक्श़े-क़दम रास्ता
हम भी पहुँचें सरे-मंज़िले-सरख़ुशी
दे अगर हम को शामे-अलम रास्ता
ये सफ़र, ये हसीं शाम ये घाटियां
कितना दिलकश है पुर-पेचो-ख़म रास्ता
क्यों न 'रहबर` चलूं मंज़िलों मंज़िलों
मेरी तक्द़ीर में है रक़म रास्ता
१०.
बे-सबब ही उदास हो जाना किस ने दिल के मिज़ाज को जाना
वो मिरा ढूंढना तुझे हर सू
वो तिरा इस जहां में खो जाना
आंसुओं एक दिन रवां हो कर
आसियों के गुनाह धो जाना
अह्दे-हाज़िर के नेक इन्सानों
बीज तुम नेकियों के बो जाना
गम़ की फुंकारती हुई नागिन
एक शब मेरे साथ सो जाना
आ के ऐ यादेऱ्यार निश्तर सा
रगे-एहसास में चुभो जाना
हम को आता है ये भी फ़न 'रहबर`
ख़ार से भी लिपट के सो जाना
११.
फेर कर मुंह आप मेरे सामने से क्या गये मेरे जितने क़हक़हे थे आंसुओं तक आ गये
ये इशारा है किसी आते हुये तूफ़ान का
आज वो हम को हमारे सारे ख़त लौटा गये
अब बहार आये न आये, क्या ग़रज़ इस से हमें
मुस्कुराहट से हज़ारों फूल वो बरसा गये
जा रहे थे हम तो अपनी धुन में मंज़िल की तरफ़
ले के तुम नज़रानए-दिल रास्ते में आ गये
आओ हम सब मिल के भेजें उन शहीदों पर सलाम
जो वतन के वासिते मैदान में काम आ गये
हम को भी खिलना था इक दिन बांटनी थीं ख़ुशबुयें
हम हवाए-गर्मे-दुन्या से मगर मुर्झा गये
वो समंदर था, बुझाता था वो सहराओं की प्यास
पास उस के कितने तश्ना-लब१ गये, सहरा गये
कुछ तो उन में ख़ूबियां थीं, कुछ तो उन में वस्फ़२ थे
ज़िंदगी में अपने क़द से लोग जो ऊंचा गये
१२.
क्या करे एतिबार अब कोई रूठ जाये न जाने कब कोई
वो तो ख़ुशबू का एक झोंका था
उस को लाये कहां से अब कोई
क्यों उसे हम इधर उधर ढूंढे
दिल ही में बस रहा है जब कोई
वो हसीं१ कौन था, कहां का था
पूछ लेता हसब-नसब कोई
प्यार से हम को कह के दीवाना
दे गया इक नया लक़ब कोई
आज दिन क़हक़हों में गुज़रा है
रो के काटेगा आज शब कोई
उस से क्या अपनी दोस्ती 'रहबर`
वो समझता है ख़ुद को रब कोई
१३.
करते रहेंगे हम भी ख़ताएं नई नईतज्वीज़ तुम भी करना सज़ाएं नई नई
जब भी हमें मिलो ज़रा हंस कर मिला करो
देंगे फ़क़ीर तुम को दुआएं नई नई
दुन्या को हम ने गीत सुनाये हैं प्यार के
दुन्या ने हम को दी हैं सज़ाएं नई नई
ये जोगिया लिबास, ये गेसू खुले हुए
सीखीं कहां से तुम ने अदाएं नई नई
तुम आ गये बहार सी हर शय पे छा गई
मह्सूस हो रही हैं फ़ज़ाएं नई नई
आंखों में फिर रहे हैं मनाज़िर नऐ नऐ
कानों में गूंजती हैं सदाएं नई नई
गुम हो न जायें मंज़िलें गर्दो-गु़बार में
रहबर नये नये हैं दिशाएं नई नई
जब शायरी हुई है वदीअत हमें तो फिर
गज़लें जहां को क्यों न सुनाएं नई नई
'रहबर` कुदूरतों को दिलों से निकाल कर
हम बस्तियां वफ़ा की बसाएं नई नई
१४.
सफ़र को छोड़ कश्ती से उतर जा किसी तन्हा जज़ीरे पर ठहर जा
हथेली पर लिये सर को गुज़र जा
जो जीने की तमन्ना है तो मर जा
मुक़ाबिल से कभी हंस कर गुज़र जा
मेरे दामन को भी फूलों से भर जा
नई मंज़िल के राही, जाते जाते
सब अपने गम़ हमारे नाम कर जा
ये बस्ती है हसीनों की, यहां से
किसी आवारा बादल सा गुज़र जा
बरस जा दिल के आंगन में किसी दिन
ये धरती भी कभी सेराब कर जा
तू ख़ुशबू है तो फिर क्यों है गुरेज़ां
बिखरना ही मुक़द्दर है बिखर जा
ज़माना देखता रह जाये तुझ को
जहां में कोई ऐसा काम कर जा
इधर से आज वो गुज़रेंगे 'रहबर`
तू ख़ुशबू बन के रस्ते में बिखर जा
१५.
भला ऐसी भी आख़िर बेरुख़ी क्या
न देखोगे हमारी बेबसी क्या
तमाशाई हुये जाते हैं रुख्स़त
ये रौनक़ है जहां की आरज़ी क्या
नवाजेंगे तुम्हें हम मयकदे में
सुनोगे तुम हमारी शायरी क्या
जो मेला देखने आ ही गये हो
यहां से फिर गुज़रना सरसरी क्या
बहुत ऊंचा मुक़द्दर है तुम्हारा
तुम्हारे साथ है वो सुन्दरी क्या
न गुज़रोगे इधर से क्या किसी दिन
न देखोगे हमारी बेकसी क्या
थे सिक्के हम किसी बीती सदी के
नई हम को सदी पहचानती क्या
हमारी दोस्ती तो तुम ने देखी
न देखोगे हमारी दुश्मनी क्या
किसी दिन पूछ ही लूं उस से 'रहबर`
करोगे साथ मेरे दोस्ती क्या
न देखोगे हमारी बेबसी क्या
तमाशाई हुये जाते हैं रुख्स़त
ये रौनक़ है जहां की आरज़ी क्या
नवाजेंगे तुम्हें हम मयकदे में
सुनोगे तुम हमारी शायरी क्या
जो मेला देखने आ ही गये हो
यहां से फिर गुज़रना सरसरी क्या
बहुत ऊंचा मुक़द्दर है तुम्हारा
तुम्हारे साथ है वो सुन्दरी क्या
न गुज़रोगे इधर से क्या किसी दिन
न देखोगे हमारी बेकसी क्या
थे सिक्के हम किसी बीती सदी के
नई हम को सदी पहचानती क्या
हमारी दोस्ती तो तुम ने देखी
न देखोगे हमारी दुश्मनी क्या
किसी दिन पूछ ही लूं उस से 'रहबर`
करोगे साथ मेरे दोस्ती क्या
१६.
दिल ने जिसे चाहा हो क्या उस से गिला रखना उस के लिये होंटों पर हर वक्त़ दुआ रखना
जब क़िस्मतें बटती थीं ऐसा भी न था मुश्किल
उस वक्त़ सनम तुझ को क़िस्मत में लिखा रखना
जब हम ने अज़ल ही से तय एक डगर कर ली
फिर रास न आयेगा राहों को जुदा रखना
वो नींद के आलम से बेदार न हो जायें
हौले से क़दम अपना ऐ बादे-सबा रखना
आयेगा कोई भंवरा रस चूसने फूलों का
तुम फूल तबस्सुम के होंटों पे खिला रखना
आयेंगे वो ऐ 'रहबर` सो जायेगी जब दुनिया
पत्तों की भी आहट पर तुम कान लगा रखना
१७.
सफ़र को छोड़ कश्ती से उतर जा किसी तन्हा जज़ीरे पर ठहर जा
हथेली पर लिये सर को गुज़र जा
जो जीने की तमन्ना है तो मर जा
मुक़ाबिल से कभी हंस कर गुज़र जा
मेरे दामन को भी फूलों से भर जा
नई मंज़िल के राही, जाते जाते
सब अपने गम़ हमारे नाम कर जा
ये बस्ती है हसीनों की, यहां से
किसी आवारा बादल सा गुज़र जा
बरस जा दिल के आंगन में किसी दिन
ये धरती भी कभी सेराब कर जा
तू ख़ुशबू है तो फिर क्यों है गुरेज़ां
बिखरना ही मुक़द्दर है बिखर जा
ज़माना देखता रह जाये तुझ को
जहां में कोई ऐसा काम कर जा
इधर से आज वो गुज़रेंगे 'रहबर`
तू ख़ुशबू बन के रस्ते में बिखर जा
१८.
जो शख्स़ भी तहज़ीबे-कुहन छोड़ रहा है वो अपने बुज़ुर्गों का चलन छोड़ रहा है
अल्लाह निगहबान! मिरा लाडला बेटा
'डॉलर` के लिये अपना वतन छोड़ रहा है
शायद कि वो कांधा भी तुझे देने न पहुंचे
तू जिन के लिये अपना ये धन छोड़ रहा है
ये तर्क की है कौन सी मंज़िल या रब
दुन्या की हर इक चीज़ को मन छोड़ रहा है
उर्यानी का वो दौर मआज़ अल्लाह है जारी
मुर्दा भी यहां अपना कफ़न छोड़ रहा है
मीज़ाइलें, रॉकिट, कभी बौछार बमों की
क्या क्या नहीं धरती पे गगन छोड़ रहा है
आओ कि सलाम अपना गुज़ार आयें रफ़ीक़ो
इक शायरे-ख़ुश-फ़िक्र वतन छोड़ रहा है
इस्टेज के अशआर पे रखते हैं नज़र हम
हम फ़न को तो 'रहबर` हमें फ़न छोड़ रहा है
१९.
मर्क़जे-हर निगाह बन जाओ दोस्तो ख़िज़्रे-राह बन जाओ
थाम लो हाथ बे सहारों का
उन की जाए-पनाह बन जाओ
जिस में आ कर मिलें सभी राहें
तुम वही शाहराह बन जाओ
झूट से तोड़ कर सभी रिश्ते
एक सच्चे गवाह बन जाओ
बे-हिसी से न वासिता रखना
आह बन जाओ वाह बन जाओ
हक़ परस्ती के, हक़ शनासी६ के
दिल से तुम खै़र-ख्व़ाह बन जाओ
सब से बढ़ कर चमक दमक रक्खो
तुम सितारों में माह बन जाओ
जो सभी दुश्मनों पे भारी पड़े
हिन्द की वो सिपाह बन जाओ
दर पे साइल करे जो आ के सदा
उस घड़ी बे-पनाह बन जाओ
कुछ न आये नज़र बजुज़ मह्बूब
एक आशिक़ की चाह बन जाओ
एक दुनिया तुम्हें सलाम करे
सच की आमाजगाह बन जाओ