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सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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शनिवार, 9 अगस्त 2014

कृष्ण सुकुमार

परिचय:
नाम: कृष्ण सुकुमार
जन्म:15.10.1954
प्रकाशित पुस्तकें-
1. इतिसिद्धम्..............................(उपन्यास) 1988 में वाणी
प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित।
2. पानी की पगडण्डी................(ग़ज़ल-संग्रह) 1997 में अयन प्रकाशन,
नई दिल्ली से प्रकाशित।
3. हम दोपाये हैं.......................(उपन्यास) 1998 में दिशा
प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित।
4. सूखे तालाब की मछलियां..(कहानी-संग्रह) 1998 में पी0 एन0 प्रकाशन, नई
दिल्ली से प्रकाशित।
5. आकाश मेरा भी...................(उपन्यास) 2002 में मनु प्रकाशन, नई
दिल्ली से प्रकाशित।
6. उजले रंग मैले रंग.............(कहानी-संग्रह) 2005 में साक्षी
प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित।
पुरस्कार/सम्मान-
1. उपन्यास “इतिसिद्धम्” की पांडुलिपि पर वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली द्वारा
”प्रेम चन्द महेश“ सम्मान- 1987 तथा वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित
2. उत्तर प्रदेश अमन कमेटी, हरिद्वार द्वारा “सृजन सम्मान”-1994.
3. साहित्यिक संस्था ”समन्वय,“ सहारनपुर द्वारा “सृजन सम्मान”-1994.
4. मध्य प्रदेश पत्र लेखक मंच, “बैतूल द्वारा काव्य कर्ण सम्मान”-2000.
5. साहित्यिक संस्था ”समन्वय,“ सहारनपुर द्वारा “सृजन सम्मान”-2006
सम्प्रति-भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, रुड़की में कार्यरत।
सम्पर्क- 153-ए/7, सोलानी कुंज,
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान,
रुड़की-247667(उत्तराखण्ड)
मोबाइल- 9917888819
ईमेल:kktyagi.1954@gmail.com
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ग़ज़लें
(1)
अचानक बंद दीवारों से इक रस्ता निकल आया
मैं मुद्दत बाद अपनी क़ैद से छूटा, निकल आया

नतीजा प्यास की हद से गुज़र जाने का निकला ये
उठीं फिर जिस तरफ़ नज़रें उधर दरिया निकल आया

मज़ा आया तो फिर इतना मज़ा आया मुसीबत में
ग़मों के साथ अपनेपन का इक रिश्ता निकल आया

निकल आयी मेरी तन्हाइयों से धूप ख़्वाबों की
अँधेरे में भी मेरे जिस्म का साया निकल आया

हटायी आईने से धूल की परतें पुरानी जब
गुज़श्ता वक़्त की ख़ुश्बू का इक चेह्रा निकल आया

(2)
समुन्दर साथ रहता है, न दरिया साथ रहता है
मगर इक प्यास का लम्हा हमेशा साथ रहता है

बहुत सोचा कि तन्हाई को ओढ़ूँ और सो जाऊँ
मगर इस सोच में भी यह ज़माना साथ रहता है

कराती है तआरूफ़ तल्खि़यों से जि़न्दगी जब भी
तो बेआवाज़ कुछ टूटा हुआ-सा साथ रहता है

किसी की बेवफ़ाई मुस्कुराती है हमेशा यूँ
कि ख़ुद का टूटना बन कर तमाशा साथ रहता है

गुज़श्ता दिन परिन्दों की तरह फिर फड़फड़ाते हैं
मुसल्सल जब ख़यालों में तुम्हारा साथ रहता है

(3)
अकेलापन डराता है तो हिम्मत हार जाउं क्या
किसी का साथ पाने को मैं हद से पार जाउं क्या

ज़रा सा मुस्करा, आँखों में मेरी ख़्वाब ही रख दे
तेरी महफि़ल से ख़ाली लौट कर बेकार जाउं क्या

सियासत खींच लेगी खाल ख़ुद्दारी की, लाजि़म है
झुका कर सर मैं फिर नंगा सरे बाज़ार जाउं क्या

तेरा क़द सिर्फ़ है पैसा, मेरा क़द सिर्फ़ ख़ुद्दारी
मैं अपने वास्ते हक़ दूसरों का मार जाउं क्या

तुम्हें तुमसे जुदा कर दूं तो मेरा हाल समझोगे
तुम्हारे दरमियां रख कर कोई दीवार जाउं क्या

(4)
भरोसा इस क़दर मैंने तुम्हारे प्यार पर रक्खा
शरारों पर चला बेख़ौफ़ सर तलवार पर रक्खा

यक़ीनन मैं तुम्हारे घर की पुख़्ता नींव हो जाता
मगर तुमने मुझे ढहती हुई दीवार पर रक्खा

झुका इतना मेरी दस्तार सर पर ही रही क़ाइम
मेरी ख़ुद्दारियो! तुमने मुझे मे'यार पर रक्खा

कभी गिन कर नहीं देखे सफ़र में मील के पत्थर
नज़र मंजि़ल पे रक्खी, हर क़दम रफ़़्तार पर रक्खा

किसी का मोतबर होना नहीं है खेल बच्चों का
कि अपनी जीत के हर दाँव को भी हार पर रक्खा

चुरा कर नींद आँखों से ग़ज़ल ने ख़्वाब दिखलाये
जगा कर रात भर हमको फ़क़त अश्आर पर रक्खा

(5)
बरसने को अगर तैयार बादल हो गया होता
तो सूखापन मेरी आँखों से ओझल हो गया होता

मुझे बस एक लम्हा दे दिया होता अगर उसने
मैं सदियों के लिए बिलकुल मुकम्मल हो गया होता

तेरी ख़ुशबू मुझे घेरे हुए अब तक नहीं होती
तो काँटों से भरा अब तक मैं जंगल हो गया होता

नहीं होता महब्बत के शजर की शाख़ से टूटा
तो सूखा फूल इक रस से भरा फल हो गया होता

उलझने में बहुत मसरूफ़ थीं सुलझी हुई चीज़ें
अगर मैं भी उलझ जाता तो पागल हो गया होता

(6)
फूटा है मेरी प्यास से इक आबशार फिर
शादाब हो रहा है यहाँ रेगज़ार फिर

कुछ इस अदा से जि़न्दगी ने मोड़ ले लिया
गोया यूँ ख़्ुाद पे हो रहा है एतबार फिर

इक ख़्वाब फिर से दे गया जीने का हौसला
हम हो चुके हैं जि़न्दगी तेरे शिकार फिर

सारे तअल्लुक़ात कभी के बिखर चुके
है क्यों किसी की दोस्ती का इंतिज़ार फिर

क्या पुरकशिश महक थी वो पहले गुनाह की
गोया उसी के वास्ते हूँ बेक़रार फिर

(7)
बहुत पीछे कहीं छूटे हुए पल ढूँढने वाले
नहीं फिर लौटता गुज़रा हुआ कल ढूँढने वाले

सफ़र है एक पल का और चलना उम्र भर का है
अधूरे ख़्वाब में जीवन मुकम्मल ढूँढने वाले

हमारी प्यास को दरिया का इक स्पर्श काफ़ी है
समुन्दर में कहीं डूबे हुए तल ढूँढने वाले

मुझे काग़ज़ की कश्ती से समुन्दर पार करना है
मेरी हिम्मत का इक तूफ़ान में हल ढूँढने वाले

मैं अपनी प्यास को बादल बना कर छोड़ देता हूँ
झुलसते मौसमों में बूंद भर जल ढूँढने वाले