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सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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रविवार, 6 सितंबर 2015

महेश कटारे सुगम

परिचय :
जन्म: 24 जनवरी 1954
जन्म स्थान : पिपरई, ललितपुर, उत्तरप्रदेश भारत
प्रमुख कृतियाँ: प्यास (कहानी संग्रह), गाँव के गेंवड़े (बुन्देली ग़ज़ल संग्रह) हरदम हँसता गाता नीम (बाल-गीत संग्रह), तुम कुछ ऐसा कहो (नवगीत संग्रह), वैदेही विषाद (लम्बी कविता), आवाज़ का चेहरा (ग़ज़ल संग्रह)
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ग़ज़लें 
१. 
जो कचरा बीन कर अपने लिए रोटी जुटाते हैं
तुम्हारे आंकड़े खुशहाल उनको भी बताते हैं

जो बचपन होटलों में जूठनों को साफ करता है
तुम्हारी फाइलों में वो सभी स्कूल जाते हैं

किसानों की भलाई के लिए हैं योजनाएं जो
अमल उन पर नहीं होता जो बादल रूठ जाते हैं

मुकदमा पीढ़ियों से चल रहा अब भी अदालत में
भरोसा न्याय पर अपना सभी फिर भी जताते हैं

समंदर पी गया नदियों का पानी फिर भी प्यासा है
सभी प्यासे नदी-नाले यही कीमत चुकाते हैं
२.
रिश्तों को मुट्ठियों की ज़दों में छुपा लिया ।
सच को हथेलियों की ज़मीं पर उगा लिया ।

कोई कहीं न देख ले ऊँचाइयों का सच,
बत्ती बुझा के रेशमी पर्दा गिरा लिया ।

मेरी नज़र में लोग सभी बेईमान थे,
उनकी नज़र से मैंने तो ख़ुद को बचा लिया ।

केक का पर्वत बना रक्खा था सामने,
चाकू से उसे काट के काँटे से खा लिया ।

बदला हुआ रुख देख के पक्का हुआ यक़ीन,
कुछ क़ीमती ज़रूर था जो उसने पा लिया ।

मंज़िल पड़ी थी सामने पैरों के पास ही,
झुक के सुगम ने हाथ से उसको उठा लिया ।
३. 
दिल में अपने लिख रक्खी हैं लूटपाट की तहरीरें ।
लेकिन घर में टाँग रखी हैं राम-कृष्ण की तस्वीरें ।

सुबह-शाम पूजा-पाठों में दो घण्टे लग जाते हैं,
फिर दिन भर ढूँढ़ा करते हैं बदमाशी की तदबीरें ।

करते हैं प्रवचन हमेशा लोभ-मोह को तजने का,
लेकिन ख़ुद ने पहन रखी हैं धन-दौलत की ज़ंजीरें ।

सेवक बने सियासत में तो सामन्तों के बापों से,
ऐश-तैश धन ज़ोर-जुल्म की खड़ी कर रखी जागीरें ।

चौराहे सब सजे हुए थे लोग खड़े थे सड़कों पर,
भाषण ऐसा दिया कि जैसे बदल रहे हों तक़दीरें ।
४. 
गोद में जिस वक्त आया लाल थोड़ी देर को
माँ हुई उस वक्त मालामाल थोड़ी देर को

बांसुरी उसने जो छेड़ी नाच उट्ठी ज़िंदगी
गोपियों में वो बना नन्दलाल थोड़ी देर को

हो गयी मंहगी तो मुद्द्त बाद आई सामने
स्वाद में मुर्गी लगी वो दाल थोड़ी देर को

भाव था ऊँचा बहुत मुँह रह गया मेरा खुला
देख कर घर में टमाटर लाल थोड़ी देर को

फिर सियासत में करोड़ों का घोटाला हो गया
हो गए पढ़कर खबर बेहाल थोड़ी देर को

कौन सी सब्ज़ी बना लूँ पूछ बैठी जब बहू
सास सुनकर हो गयी खुशहाल थोड़ी देर को

ख्वाब में दामन सुगम का वो झटक कर चल दिये
नींद में ही हो गया कंगाल थोड़ी देर में
५. 
गीत अब बदलाव के हम साथ मिलकर गाएँगे ।
चल पड़े हम लोग तो कुछ और भी आ जाएँगे ।।

ज़ुल्म की चूलें हिलेंगी झूठ होंगे बेनक़ाब
चीख़ को अन्याय की देहलीज़ तक पहुचाएँगे ।

ज़ख़्म खाए हम सभी है दर्द सबका एक-सा
ढूँढ़कर अपने ग़मों की हम दवा अब लाएँगे ।

रोज़मर्रा के सवालों को उठाया जाएगा
ख़ौफ़ के रिश्ते न अब हर्गिज़ निभाए जाएँगे ।

साज़िशें जो भी हुई हैं आमजन के साथ में
अब सुगम गिन-गिन के सब बदले चुकाए जाएँगे ।
६. 
ज़ुल्म की चक्की में हमको पीसने का शुक्रिया ।
ज़ात-पाँतों मज़हबों में बाँटने का शुक्रिया ।।

जिस्म पर चड्डी बची थी वो भी ले ली आपने,
ख़त्म झंझट कर दिया है छीनने का शुक्रिया ।

एक साज़िश के तहत ही बरगलाया आपने,
झूठ की ठण्डी फुहारें सींचने का शुक्रिया ।

कर लिए ईज़ाद तुमने लूटने के सिलसिले,
दोस्ती का वास्ता दे लूटने का शुक्रिया ।

आपने तो हर तरफ़ ही जाल फैलाया सुगम,
डालकर चुग मछलियों को फाँसने का शुक्रिया ।।
७. 
क़ैद से अपनी निकल पाए नहीं ।
चाह कर भी हम बदल पाए नहीं ।।

दिल में उठते प्यार के तूफ़ान भी
वक़्त की शह पर मचल पाए नहीं ।

आपकी शर्तों में हम उलझे रहे
अपने साँचे में भी ढल पाए नहीं ।

सामने थी विष बुझी रानाइयाँ
हम सम्भल कर भी सम्भल पाए नहीं ।

एक हसरत रह गई क्वांरी सुगम
दो क़दम भी साथ चल पाए नहीं ।
८. 
करना तो है ज़िद्द्त का सफ़र देखिए क्या हो ।
अब हमने भी कस ली है कमर देखिए क्या हो ।।

हर रोज़ निगाहों में चमकता है आफ़ताब
इस ख़्वाब का उम्मीदे सफ़र देखिए क्या हो ।

मुझको ख़बर है वक़्त पै मेरे रफ़ीक भी
उगलेंगे रक़ीबों-सा ज़हर देखिए क्या हो ।

ये रात तीरगी से भरी काट दी मगर
अब आ गई है उजली सहर देखिए क्या हो ।

निकला है आज मौत का क़द नापने सुगम
है पास मुहब्बत का हुनर देखिए क्या हो ।
 ९. 
सन्त बनकर उग रहे कुछ अस्ल ये कूकर के मूत ।
राख भी ख़ुद की नहीं है बाँटते सुख की भभूत ।

खेलकर ये भावनाओं से चमत्कारी बने,
पास में इनके नहीं हैं सत्य के कोई सुबूत ।

आपको कुछ भी मिले या न मिले ये छोड़िए,
आप हमने दे रखी इनके लिए दौलत अकूत ।

जोंक हैं ये ख़ून चूसेंगे हमारे जिस्म का,
खाएँगे गुर्राएंगे सब ऐश भोगेंगे कुपूत ।

अन्ध-श्रद्धा के सुगम चश्मे उतारो फैंक दो,
जो तुम्हें दिखला रहे पाखण्डियों को देवदूत ।
१०. 
घनी अँधेरी रात हमारे गाँवों में ।
कीचड़ औ बरसात हमारे गाँवों में ।।

राजनीति की काली-काली करतूतें,
मचा रहीं उत्पात हमारे गाँवों में ।

गली-गली में सत्ता है षड्यन्त्रों की
घायल हैं जज्बात हमारे गाँवों में ।

सत्य अहिंसा दीन धर्म ईमानों की,
रोज़ हो रही मात हमारे गाँवों में ।

मरहम के बदले में ताज़े ज़ख्मों की,
रोज़ मिले सौगात हमारे गाँवों में ।
११. 
हमने ऐसा ग़म का मंज़र देखा है ।
जैसे फैला हुआ समन्दर देखा है ।।

हद से बाहर देखी है हमने नफ़रत
मगर प्यार को हद के अन्दर देखा है ।

नाटक हमने नहीं किए व्यवहारों में
दिल के अहसासों को छूकर देखा है ।

सब कुछ पाकर भी आख़िर इस दुनिया से
ख़ाली जाते हुए सिकन्दर देखा है ।

जिसने भी संघर्ष किया तूफ़ानों से
उसको लिखते सुगम मुक़द्दर देखा है
१२. 
ग़रीबों का बज़ट है या कसाई का गंडासा है ।
सभी की गर्दनें काटीं हताशा ही हताशा है ।।

बड़ी उम्मीद थी इनसे मिलेंगी सब्ज़ सुविधाएँ
मगर इन जेबकतरों से मिली ख़ाली निराशा है ।

रियायत दी गई सारी बड़े उद्योगपतियों को,
बज़ट में प्यार उन पर ही लुटाया बेतहाशा है ।

किसानों और श्रमिकों ने दिया था वोट भूले तुम
नहीं उनको मिला कुछ भी अँधेरा है कुहासा है ।

ये सारे मध्यवर्गी आज अपना धुन रहे हैं सर
लिखी है नाम पर उनके दिलासा ही दिलासा है ।

हमारे वोट से जीते खड़े हो उनके पाले में
हाँ मोदी जी बज़ट इस बात का करता खुलासा है ।
 १३. 
हवस का ख़ात्मा हो तो ये कर के भी दिखा देंगे ।
तुम्हें लिखना है जो लिख लो अँगूठा हम लगा देंगे ।।

तुम्हें दौलत का चस्का है ग़रीबी हमने ओढ़ी है,
तुम्हारी बेरुखी पर भी तुम्हें दिल से दुआ देंगे ।

हमें लुटने की आदत है मुहब्बत में तो लुटते हैं,
नज़र से गिर गए जिस दिन तो तो हम नींदें उड़ा देंगे ।

बुरी सोहबत के साए से निकलना चाहते हो गर,
तो वापस लौट आने का तरीका हम बता देंगे ।

चुनावी ईद तक गुस्ताखियाँ बर्दाश्त करते हैं,
सुगम तोड़ा यकीं तो ईद का बकरा बना देंगे ।
१४. 
ख्वाब मेरे भटकते रहे रात भर ।
नींद के सुर उलझते रहे रात भर ।

प्रश्न वेताल बनकर कसकते रहे,
बोझ बनकर लटकते रहे रात भर ।

सुख के साये गले से नहीं लग सके,
हाथ मेरा झटकते रहे रात भर ।

ज़ख्म जो भी दिए दोस्तों ने दिए,
याद बनकर खटकते रहे रात भर ।

मैं पकड़ता रहा हर ख़ुशी का लम्हा,
हाथ से वो रपटते रहे रात भर ।
१५.
मंज़िलें ओझल हुईं पर सीढ़ियाँ पकड़े रहे ।
ज़िन्दगी में चाहतों की उँगलियाँ पकड़े रहे ।

मौसमे गुल था बगीचा था वहाँ सब लोग थे,
फूल चुनकर ले गए हम डालियाँ पकड़े रहे ।

फ़िक्र जिनकी घर की दीवारों के भीतर क़ैद थी,
घर गृहस्थी माँ-पिता घरवालियाँ पकड़े रहे ।

ये समझदारों की दुनिया का बहुत उम्दा उसूल,
कामयाबी की सुनहरी तितलियाँ पकड़े रहे ।

शख़्स ऐसे भी जहाँ में देखने मिल जाएँगे,
जो हमेशा दूसरों की ग़लतियां पकड़े रहे ।

रख दिया सिंहासनों पर और उतारी आरती,
ना पढ़ा समझा न माना पोथियाँ पकड़े रहे ।

भूख ने वो सब किया जो कुछ भी कर सकती थी वो,
लोग भूखे पेट अपनी पसलियाँ पकड़े रहे ।
१६. 
प्यार ने रोज़ ही जीने के तरीके बाँटे ।
दिल के अहसास ने ख़ुशियों के वज़ीफ़े बाँटे ।

काम ने शर्त लगाई थी न पूरे होंगे,
सख़्त मेहनत ने तो भरपूर नतीजे बाँटे ।

कोई हमराह नहीं राह भी आसान नहीं,
हौसलों ने हमें चलने के सलीके बाँटे ।

एक सा वक़्त जो होता तो मज़ा क्या होता,
ये तो अच्छा हुआ सुख-दुःख के दरीचे बाँटे ।

ख़ून से सींच के ख़्वाबों से सजाया हमने,
वक़्त ने तब कहीं शौहरत के गलीचे बाँटे ।
१७. 
ज़नाब जंग का मुददआ तलाश कर लेना ।
ज़रूरी जीत का जरिया तलाश कर लेना ।

तुम्हारे पैर की ख़ातिर नहीं बने हैं हम,
ज़नाब दूसरा जूता तलाश कर लेना ।

तमाम भेंट चढ़ाओगे जाके मन्दिर में,
यतीम भूख का मारा तलाश कर लेना ।

इसी तरह से जो बैठे रहोगे क़िस्मत पर,
तो अपनी मौत का कपड़ा तलाश कर लेना ।

अभी तो और भी ग़म आएँगे रुलाने को,
रखोगे सर को वो कन्धा तलाश कर लेना ।

सुगम ये पाप की गठरी को जिसमें फेंक सको,
कहीं पे एक वो गंगा तलाश कर लेना ।
१८. 
धतूरे के जो फल होते हैं रसवाले नहीं होते ।
खजूरों के दरख़्तों के घने साये नहीं होते ।

खुली आँखों से दुनिया देखने वाले ये कहते हैं,
तज़िरबे जो भी होते हैं कभी झूठे नहीं होते ।

जहाँ पर भी निजामों में अवामी पैठ होती हैं,
वहाँ पर आदमी के साथ में धोखे नहीं होते ।

तबस्सुम जब लवों पर खेलने के वास्ते मचले,
समझ लेना वहां पर ख़ौफ़ के चर्चे नहीं होते ।

निवाले छीनकर जो बेवजह आँसू बहाते हैं.
सुगम ख़ुदगर्ज़ होते हैं वो रखवाले नहीं होते ।
१९. 
खेत की पकती फ़सल घर आती-आती रह गई ।
रोटियों की लोरियाँ अम्मा सुनाती रह गई ।।

हाथ में पुस्तक पकड़नी थी पकड़ ली मुफ़लिसी,
बेबसी में ज़िन्दगी बस कसमसाती रह गई ।

कोई न निकला मुहूरत न कोई शादी हुई,
साध मेरी हाथ में मेंहदी रचाती रह गई ।

मंज़िलों के रेशमी दामन पकड़ न आ सके
ज़िन्दगी जश्नों के मंसूबे बनाती रह गई ।

थी ख़बर ख़ुशहालियों का दौर आएगा सुगम
राह तकती आँख बस आँसू बहाती रह गई ।
२०. 
किसी आगाज़ का कुछ इस तरह अंजाम हो जाए ।
जिसे मशहूर होना हो वही बदनाम हो जाए ।।

ग़मे दिल पूछिए उस से मुहब्बत में जो घायल हो,
दिखा कर हुस्न का जलवा कोई गुमनाम हो जाए ।

वही इक रोज़ जीतेगा इरादे साथ हैं जिसके,
भले ही जंग में कई बार वो नाकाम हो जाए ।

उजाले दो उन्हें जिनको उजालों की ज़रूरत है,
दुआएँ दो अन्धेरों में हमारा काम हो जाए ।

गमों दुश्वारियों से जो सुगम मायूस हो बैठे,
वो मर जाएँ हमेशा के लिए आराम हो जाए ।
२१. 
अब हमारा और चुप रहना नहीं आसान है ।
पेट भूखा जिस्म पर चड्डी फटी बनियान है ।

हम कतारों में खड़े देते रहे हैं अर्ज़ियाँ,
पर सुनी उसकी गई जो भ्रष्ट है, बेइमान है ।

एक जंगल राज का कानून है इस मुल्क में,
एक ताक़तवर यहाँ सबके लिए भगवान है ।

पी रहे मंहगी शराबें कोठियों में बैठकर,
लोग सब ख़ुशहाल हैं कहना बहुत आसान है ।

मैं अकेला ही नहीं हूँ इस व्यवस्था के ख़िलाफ़,
अब सुगम के साथ में सम्पूर्ण हिन्दुस्तान है ।
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