जन्म 7 मार्च 1922 ई को गोंडा में (उ.प्र.) में हुआ। प्रकाशित पुस्तकें : हिंदी गज़ल संरचना-एक परिचय , ग़ज़ल-निर्देशिका,गज़ल-विधा ,गज़ल-लेखन कला ,व्यहवारिक छंद-शास्त्र ,नागफनियों ने सजाईं महफिलें (ग़ज़ल-संग्रह),गज़ल और गज़ल की तकनीक।
१.
जश्न हम क्यों न मनाएंगे मनाने की तरह
वो हमें दिल से बुलाएं तो बुलाने की तरह
तुम ठहरने को जो कहते तो ठहर जाते हम
हम तो जाने को उठे ही थे न जाने की तरह
कोई आंचल भी तो हो उनको सुखाने के लिए
अश्क तब कोई बहाए भी बहाने की तरह
टीस कहती है वहीं उठके तड़पती सी काज़ल
दिल को जब कोई दुखाता है दुखाने की तरह
गर्मजोशी की तपिश भी तो कुछ उसमें होती
हाथ "महरिष " वो मिलाते जो मिलाने की तरह
२.
नाकरदा गुनाहों की मिली यूं भी सज़़ा है
साक़ी नज़रंदाज़ हमें कर के चला है
क्या होती है ये आग भी, क्या जाने समंदर
कब तिश्नालबी का उसे एहसास हुआ है
उस श्ख़्स के बदले हुए अंदाज़ तो देखो
जो टूट के मिलता था, तकल्लुफ़़ से मिला है
महफ़िल में कभी जो मेरी शिरकत से ख़फ़ा था
महफ़िल में वो अब मेरे न आने से ख़फ़ा है
क्यों उसपे जफ़ाएं भी न तूफ़ान उठाएं
जिस राह पे निकला हूं मैं, वो राहे-वफ़ा है
पीते थे न "महरिष",तो सभी कहते थे ज़ाहिद
अब जाम उठाया है तो हंगामा बपा है
३.
१.
जश्न हम क्यों न मनाएंगे मनाने की तरह
वो हमें दिल से बुलाएं तो बुलाने की तरह
तुम ठहरने को जो कहते तो ठहर जाते हम
हम तो जाने को उठे ही थे न जाने की तरह
कोई आंचल भी तो हो उनको सुखाने के लिए
अश्क तब कोई बहाए भी बहाने की तरह
टीस कहती है वहीं उठके तड़पती सी काज़ल
दिल को जब कोई दुखाता है दुखाने की तरह
गर्मजोशी की तपिश भी तो कुछ उसमें होती
हाथ "महरिष " वो मिलाते जो मिलाने की तरह
२.
नाकरदा गुनाहों की मिली यूं भी सज़़ा है
साक़ी नज़रंदाज़ हमें कर के चला है
क्या होती है ये आग भी, क्या जाने समंदर
कब तिश्नालबी का उसे एहसास हुआ है
उस श्ख़्स के बदले हुए अंदाज़ तो देखो
जो टूट के मिलता था, तकल्लुफ़़ से मिला है
महफ़िल में कभी जो मेरी शिरकत से ख़फ़ा था
महफ़िल में वो अब मेरे न आने से ख़फ़ा है
क्यों उसपे जफ़ाएं भी न तूफ़ान उठाएं
जिस राह पे निकला हूं मैं, वो राहे-वफ़ा है
पीते थे न "महरिष",तो सभी कहते थे ज़ाहिद
अब जाम उठाया है तो हंगामा बपा है
३.
यूं पबन, रुत को रंगीं बनाये
ऊदी-ऊदी घटा लेके आये
भीगा-भीगा-सा ये आज मौसम
गीत-ग़ज़लों की बरसात लाये
ख़ूब से क्यों न फिर ख़ूबतर हो
जब ग़ज़ल चांदनी में नहाये
दिल में मिलने की बेताबियां हों
फ़ासला ये करिश्मा दिखाये
साज़े-दिल बजके कहता है‘महरिष’
ज़िंदगी रक़्स में डूब जाये
४.
नाम दुनिया में कमाना चाहिये
कारनामा कर दिखाना चाहिये
चुटकियों में कोई फ़न आता नहीं
सीखने को इक ज़माना चाहिये
जोड़कर तिनके परिदों की तरह
आशियां अपना बनाना चाहिये
तालियां भी बज उठेंगी ख़ुद-ब-ख़ुद
शेर कहना भी तो आना चाहिये
लफ्ज़‘महरिष’, हो पुराना, तो भी क्या?
इक नये मानी में लाना चाहिये
५.
क्यों न हम दो शब्द तरुवर पर कहें
उसको दानी कर्ण से बढ़कर कहें
विश्व के उपकार को जो विष पिये
क्यों न उस पुरुषार्थ को शंकर कहें
हम लगन को अपनी, मीरा की लगन
और अपने लक्ष्य को गिरधर कहें
है ‘सदाक़त’ सत्य का पर्याय तो
“ख़ैर” शिव को‘हुस्न’को सुंदर कहें
तान अनहद की सुनाये जो मधुर
उस महामानव को मुरलीधर कहें
जो रिसालत के लिए नाजिल हुए
बा-अदब, हम उनको पैगंबर कहें
बंदगी को चाहिये‘महरिष’मक़ाम
हम उसे मस्जिद कि पूजाघर कहें
६.
जैसी तुम से बिछुड़ कर मिलीं हिचकियाँ
ऐसी मीठी तो पहले न थीं हिचकियाँ
याद शायद हमें कोई करता रहा
दस्तकें दरपे देती रहीं हिचकियाँ
मैंने जब-जब भी भेजा है उनके लिए
मेरा पैग़ाम लेकर गईं हिचकियाँ
फासला दो दिलों का भी जाता रहा
याद के तार से जब जुड़ीं हिचकियाँ
जब से दिल उनके ग़म में शराबी हुआ
तब से हमको सताने लगीं हिचकियाँ
उनके ग़म में लगी आंसुओं की झड़ी
रोते-रोते हमारी बंधीं हिचकियाँ
उनको ‘महरिष’, जिरा नाम लेना पड़ा
तब कहीं जाके उनकी रुकीं हिचकियाँ
७.
जाम हम बढ़के उठा लेते, उठाने की तरह
क्यों न पीते जो पिलाते वो पिलाने की तरह
तुम ठहरने को जो कहते, तो ठहर जाते हम
हम तो जाने को उठे ही थे, न जाने की तरह
कोई आंचल भी तो हो उनको सुखाने के लिए
अश्क तब कोई बहाए भी, बहाने की तरह
टीस कहती है वहीं उठके तड़पती-सी ग़ज़ल
दिल को जब कोई दुखाता है, दुखाने की तरह
गर्मजोशी की तपिश भी तो कुछ उसमें होती
हाथ ‘महरिष’, जो मिलाते वो मिलाने की तरह
८.
गीत ऐसा कि जैसे कमल चाहिये
उसपे भंवरों का मंडराता दल चाहिये
एक दरिया है नग़्मों का बहता हुआ
उसके साहिल पे शामे-ग़ज़ल चाहिये
जिसको जीभर के हम जी सकें, वो हमें
शोख़, चंचल, मचलता-सा पल चाहिये
और किस रोग की है दवा शाइरी
कुछ तो मेरी उदासी का हल चाहिये
ख़ैर, दो-चार ही की न ‘महरिष’ हमें
हम को सारे जहां की कुशल चाहिये
९.
सोचते ही ये अहले-सुख़न रह गये
गुनगुना कर वो भंवरे भी क्या कह गये
इस तरह भी इशारों में बातें हुई
लफ़्ज़ सारे धरे के धरे रह गये
नाख़ुदाई का दावा था जिनको बहुत
रौ में ख़ुदा अपने जज़्बात की बह गये
लब, कि ढूँढा किये क़ाफ़िये ही मगर
अश्क आये तो पूरी ग़ज़ल कह गये
'महरिष' उन कोकिलाओं के बौराए स्वर
अनकहे, अनछुए-से कथन कह गये.
गुनगुना कर वो भंवरे भी क्या कह गये
इस तरह भी इशारों में बातें हुई
लफ़्ज़ सारे धरे के धरे रह गये
नाख़ुदाई का दावा था जिनको बहुत
रौ में ख़ुदा अपने जज़्बात की बह गये
लब, कि ढूँढा किये क़ाफ़िये ही मगर
अश्क आये तो पूरी ग़ज़ल कह गये
'महरिष' उन कोकिलाओं के बौराए स्वर
अनकहे, अनछुए-से कथन कह गये.