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सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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सोमवार, 14 जनवरी 2013

डॉ. गिरिराजशरण अग्रवाल के मुक्तक

जन्म- १४ जुलाई १९४४ संभल (मुरादाबाद) उ.प्र.।
ईमेल- giriraj3100@gmail.com
 
एक

पेड़ हैं लचकेंगे फिर सीधे खड़े हो जाएँगे
नाचते गाते रहेंगे आँधियों के दरमियाँ
आपदाओं से कहाँ धूमिल हुई जीवन की जोत
फूल खिलते आ रहे हैं कंटकों के दरमियाँ


दो

हर दिशा से तीर बरसे घाव भी लगते रहे
ज़िंदगी भर दिल मेरा आघात से लड़ता रहा

दोस्त! कस-बल की नहीं यह हौसले की बात है
कितना छोटा था दिया पर रात से लड़ता रहा

तीन

यदि कभी अवसर मिले दोनों का अंतर सोचना
दर्द सहना वीरता है जुल्म सहना पाप है
स्वप्न में भी सावधानी शर्त है जीना जो हो
जागती आँखें लिए निंद्रा में रहना पाप है


चार

बिजलियाँ कैसे बनी हैं बादलों से पूछिए
है समंदर का पता क्या बारिशों से पूछिए
छेद कितने कर दिए हैं रात के आकार में

दीपकों की नन्ही-नन्ही उँगलियों से पूछिए

पाँच

आदमी कठिनाइयों में जी न ले तो बात है
ज़िंदगी हर घाव अपना सी न ले तो बात है
एक उँगली भर की बाती और पर्वत जैसी रात
सुबह तक यह कालिमा को पी न ले तो बात है


छह

नाम चाहा न कभी भूल के शोहरत माँगी
हमने हर हाल में ख़ुश रहने की आदत माँगी
हो न हिम्मत तो है बेकार यह दौलत ताक़त
हमने भगवान से माँगी है तो हिम्मत माँगी

सात

असल परछाईं भी क्या है उजाला सीख लेता है
ढलानों पर रुका दरिया फ़िसलना सीख लेता है
सुगंधित पत्र पाकर उसका मैं सोचा किया पहरों
मिले खुशबू तो कागज भी महकना सीख लेता है