जन्म:१९४६ गाँव किराड़ी, दिल्ली,प्राचार्य,मोती लाल नेहरू कॉलेज, दिल्ली
१.
आए भी तो आए जाने की तरह आप
चलिए निभाने को, आए तो सही आप
आई हवा और गिरा कर चली गई
तनकीद जंगलों की मगर कर रहे हैं आप
वह तो हँसा के राह पे अपनी निकल गया
दुनिया की नज़र में मगर दीवाने बने आप
धमका के गए आप ही चौपाल में हमें
खतावार फिर भी हमें कह रहे हैं आप
अब किसको क्या कहें, कहने का फायदा?
अपने बनाए जाल पर जब मर मिटे हैं आप
२.
हाकिम हैं बात का बुरा क्योंकर मनाइए
उनकी बला से मानिये या रूठ जाइए।
घर नहीं दीवानखाने आ गए हैं आप
अब उसूलन आप भी ताली बजाइए
लड़ गई आँखें मगर किस दौर में लड़ीं
है गरज जब आपकी तो खुद ही निभाइए
राह उनकी आप फिर राह पर आए क्यों
ज़ख़्मा गई आत्मा तो आप ही उठाइए
मालूम था आना ही है जब यार! इस जानिब
अपमान क्या और मान क्या अब भूल जाइए
मतलब कि पत्थरों ने ज़ख़्म आप को दिए
ख़ैर है अब भी दिविक जो लौट जाइए
३.
रात में भी रात की सी बात नहीं है
गाँव है कि गाँव में देहात नहीं है
न सही उरियाँ मगर दिल में तो निहाँ थी
आज तो पर दिल में भी वह बात नहीं है
किस किस को आपने न गुनहगार कहा है
है क्या जगह ऐसी भी जहाँ घात नहीं है?
इस दौर में भी मिल गया झुक झुक के कई बार
कैसे कहूँ कि कोई खुराफात नहीं है
टेढ़ा सवाल, पर भला मैं क्या जवाब दूँ
जो आदमी न रह सका बेबात नहीं है
क्या कहूँ कि लौटिए भी घर को ए दिविक
कीजिए भी क्या जो मुलाक़ात नहीं है
१.
आए भी तो आए जाने की तरह आप
चलिए निभाने को, आए तो सही आप
आई हवा और गिरा कर चली गई
तनकीद जंगलों की मगर कर रहे हैं आप
वह तो हँसा के राह पे अपनी निकल गया
दुनिया की नज़र में मगर दीवाने बने आप
धमका के गए आप ही चौपाल में हमें
खतावार फिर भी हमें कह रहे हैं आप
अब किसको क्या कहें, कहने का फायदा?
अपने बनाए जाल पर जब मर मिटे हैं आप
२.
हाकिम हैं बात का बुरा क्योंकर मनाइए
उनकी बला से मानिये या रूठ जाइए।
घर नहीं दीवानखाने आ गए हैं आप
अब उसूलन आप भी ताली बजाइए
लड़ गई आँखें मगर किस दौर में लड़ीं
है गरज जब आपकी तो खुद ही निभाइए
राह उनकी आप फिर राह पर आए क्यों
ज़ख़्मा गई आत्मा तो आप ही उठाइए
मालूम था आना ही है जब यार! इस जानिब
अपमान क्या और मान क्या अब भूल जाइए
मतलब कि पत्थरों ने ज़ख़्म आप को दिए
ख़ैर है अब भी दिविक जो लौट जाइए
३.
रात में भी रात की सी बात नहीं है
गाँव है कि गाँव में देहात नहीं है
न सही उरियाँ मगर दिल में तो निहाँ थी
आज तो पर दिल में भी वह बात नहीं है
किस किस को आपने न गुनहगार कहा है
है क्या जगह ऐसी भी जहाँ घात नहीं है?
इस दौर में भी मिल गया झुक झुक के कई बार
कैसे कहूँ कि कोई खुराफात नहीं है
टेढ़ा सवाल, पर भला मैं क्या जवाब दूँ
जो आदमी न रह सका बेबात नहीं है
क्या कहूँ कि लौटिए भी घर को ए दिविक
कीजिए भी क्या जो मुलाक़ात नहीं है