जन्म:१६ जून सन १९६३,जिला ग्राम्य विकास अभिकरण, फैजाबाद में कम्प्यूटर प्रोग्रामर
ई मेल : kumarasheesh@rediffmail.com
१.
सादगी आँख की किरकिरी हो गयी
छोड़िए बात ही दूसरी हो गयी
उसकी आहट के आरोह अवरोह में
चेतना डुबकियों से बरी हो गयी
नन्दलाला की मुरली की इक तान पर
राधा सुनते हैं कि बावरी हो गयी
मेरी कमियाँ भी अब मुझपे फबने लगीं
वाकई ये तो जादूगरी हो गयी
२.
तू ऐसी चीज नहीं है कि भुलाये तुझको
जुनूँ की हद से गुजर जाये तो पाये तुझको
तू मेरी हार भी है जीत भी सुलह भी है
न जाने नाम क्या लेकर के बुलाये तुझको
अभी तो नज्म मुझे तुझको वो सुनानी है
जो सोच सोच के रह रह के रुलाये तुझको
३.
संसार लुटाता है मुस्कान के खजाने
इंसान मगर पहले खुद आप को पहचाने
बाहर है वही दुनिया जो तुमने बुनी भीतर
खोजो तो सही आखिर सौ प्यार के बहाने
तुमने जो लगायी थी चुपके से वही खुशबू
फुसला के मुझे लायी किस ठौर किस ठिकाने
भीतर से उमड़ता हूँ पोरों से पिघल करके
खुलते हैं मेरे भीतर दरियाओं के मुहाने
मुरझाये तसव्वुर जब तब जानिये आगे है
तारूफ की धरोहर वरना हैं सब निशाने
४.
जिन्दगी मेरी मुझसे डरती है
मुझसे नजरें बचा के चलती है।
दर्द का फर्श इतना चिकना है
रात अक्सर फिसल के गिरती है।
दिल की सुनसान झील में अक्सर
कोई परछाईं-सी उभरती है।
उसके पावों की सोच लेता हूँ
जिसकी आहट से साँस चलती है।
लोग मुझसे तो ये भी कहके गये
उसकी सूरत मुझ ही से मिलती है।
५.
फिर कोई चाह कुनमुनाई है
फिर कहीं ओस झिलमिलाई है
फिर मेरी शाम भीगी भीगी है
फिर मेरी सोच में तनहाई है
फिर तेरी आग कुछ मुलायम है
फिर वही शब वही रुलाई है
और ये रात चौदवीं है सुन
फिर मुझे नींद नहीं आई है
फिर नए जंगलों से गुजरा हूँ
फिर मेरी उम्र लड़खड़ाई है
७.
आँख अश्को का समंदर है तो है
वक्त के हाथों में खंजर है तो है
मैंने कब माँगी खुदा तुझसे ख़ुशी
दर्द ही मेरा मुकद्दर है तो है
फूल कुछ चाहे थे तुझसे बागबां
हाथ में तेरे भी पत्थर है तो है
थक गया हूँ अब तो सोने दो मुझे
सामने काँटों का बिस्तर है तो है
मेरे संग भी है मेरी माँ की दुआ
तू मुकद्दर का सिकंदर है तो है
तूने ही कब घर को घर समझा 'अनिल'
घर से जो तू आज बेघर है तो है
८.
टूटे ख्वाबों के मकबरों में हूँ
न मै जिन्दों में न मरों में हूँ
चीटियाँ लाल भर गया कोई
यूँ तो मखमल के बिस्तरों में हूँ
मुझको फँसी दो या रिहा कर दो
मै खड़ा कब से कटघरों में हूँ
जो जलाते है आँधियों में चराग
उन्ही पगलों में, सिरफिरों में हूँ
तुम मुझे ढूँढते हो प्रश्नों में
मै छिपा जब की उत्तरों में हूँ
बरहना रूह ले के मैं यारो
आजकल कांच के घरो में हूँ
कल सहारा था सारी दुनिया का
आजकल खुद की ठोकरों में हूँ
सबके पाँवों में चुभते रहते हैं
मै उन्ही काँटों, कंकरों में हूँ
अपने जख्मो पे हँस रहा हूँ 'अनिल'
किसी सर्कस के मसखरों में हूँ
९.
ई मेल : kumarasheesh@rediffmail.com
१.
सादगी आँख की किरकिरी हो गयी
छोड़िए बात ही दूसरी हो गयी
उसकी आहट के आरोह अवरोह में
चेतना डुबकियों से बरी हो गयी
नन्दलाला की मुरली की इक तान पर
राधा सुनते हैं कि बावरी हो गयी
मेरी कमियाँ भी अब मुझपे फबने लगीं
वाकई ये तो जादूगरी हो गयी
२.
तू ऐसी चीज नहीं है कि भुलाये तुझको
जुनूँ की हद से गुजर जाये तो पाये तुझको
तू मेरी हार भी है जीत भी सुलह भी है
न जाने नाम क्या लेकर के बुलाये तुझको
अभी तो नज्म मुझे तुझको वो सुनानी है
जो सोच सोच के रह रह के रुलाये तुझको
३.
संसार लुटाता है मुस्कान के खजाने
इंसान मगर पहले खुद आप को पहचाने
बाहर है वही दुनिया जो तुमने बुनी भीतर
खोजो तो सही आखिर सौ प्यार के बहाने
तुमने जो लगायी थी चुपके से वही खुशबू
फुसला के मुझे लायी किस ठौर किस ठिकाने
भीतर से उमड़ता हूँ पोरों से पिघल करके
खुलते हैं मेरे भीतर दरियाओं के मुहाने
मुरझाये तसव्वुर जब तब जानिये आगे है
तारूफ की धरोहर वरना हैं सब निशाने
४.
जिन्दगी मेरी मुझसे डरती है
मुझसे नजरें बचा के चलती है।
दर्द का फर्श इतना चिकना है
रात अक्सर फिसल के गिरती है।
दिल की सुनसान झील में अक्सर
कोई परछाईं-सी उभरती है।
उसके पावों की सोच लेता हूँ
जिसकी आहट से साँस चलती है।
लोग मुझसे तो ये भी कहके गये
उसकी सूरत मुझ ही से मिलती है।
५.
फिर कोई चाह कुनमुनाई है
फिर कहीं ओस झिलमिलाई है
फिर मेरी शाम भीगी भीगी है
फिर मेरी सोच में तनहाई है
फिर तेरी आग कुछ मुलायम है
फिर वही शब वही रुलाई है
और ये रात चौदवीं है सुन
फिर मुझे नींद नहीं आई है
फिर नए जंगलों से गुजरा हूँ
फिर मेरी उम्र लड़खड़ाई है
७.
आँख अश्को का समंदर है तो है
वक्त के हाथों में खंजर है तो है
मैंने कब माँगी खुदा तुझसे ख़ुशी
दर्द ही मेरा मुकद्दर है तो है
फूल कुछ चाहे थे तुझसे बागबां
हाथ में तेरे भी पत्थर है तो है
थक गया हूँ अब तो सोने दो मुझे
सामने काँटों का बिस्तर है तो है
मेरे संग भी है मेरी माँ की दुआ
तू मुकद्दर का सिकंदर है तो है
तूने ही कब घर को घर समझा 'अनिल'
घर से जो तू आज बेघर है तो है
८.
टूटे ख्वाबों के मकबरों में हूँ
न मै जिन्दों में न मरों में हूँ
चीटियाँ लाल भर गया कोई
यूँ तो मखमल के बिस्तरों में हूँ
मुझको फँसी दो या रिहा कर दो
मै खड़ा कब से कटघरों में हूँ
जो जलाते है आँधियों में चराग
उन्ही पगलों में, सिरफिरों में हूँ
तुम मुझे ढूँढते हो प्रश्नों में
मै छिपा जब की उत्तरों में हूँ
बरहना रूह ले के मैं यारो
आजकल कांच के घरो में हूँ
कल सहारा था सारी दुनिया का
आजकल खुद की ठोकरों में हूँ
सबके पाँवों में चुभते रहते हैं
मै उन्ही काँटों, कंकरों में हूँ
अपने जख्मो पे हँस रहा हूँ 'अनिल'
किसी सर्कस के मसखरों में हूँ
९.
दिल में दर्द
दिल में दिल का दर्द छिपाए बैठा
हूँ
होठों पे मुस्कान सजाए बैठा हूँ
ऊपर वाले इसको मत जाने देना
थोड़ा सा सम्मान बचाए बैठा हूँ
आँखों से निकले या तन मन से फूटे
सीने में तूफ़ान छिपाए बैठा हूँ
जो जैसा है मुझको वैसा दिखता है
दिल के शीशे को चमकाए बैठा हूँ
तुम को जब भी आना हो, तुम आ जाना
मै ड्योढ़ी पर दीप जलाए बैठा हूँ
मेरा भाई झाँक ले न कहीं इधर
आँगन में दीवार उठाए बैठा हूँ
मुझको सूरत से कोई पहचान न ले
चेहरे पर चेहरा चिपकाए बैठा हूँ
जाने क्यों अपने ही घर में कुछ दिन से
मै खुद को मेहमान बनाए बैठा हूँ
कभी देवता बनने की ख्वाहिश थी, अब
मुश्किल से इन्सान बनाए बैठा हूँ
होठों पे मुस्कान सजाए बैठा हूँ
ऊपर वाले इसको मत जाने देना
थोड़ा सा सम्मान बचाए बैठा हूँ
आँखों से निकले या तन मन से फूटे
सीने में तूफ़ान छिपाए बैठा हूँ
जो जैसा है मुझको वैसा दिखता है
दिल के शीशे को चमकाए बैठा हूँ
तुम को जब भी आना हो, तुम आ जाना
मै ड्योढ़ी पर दीप जलाए बैठा हूँ
मेरा भाई झाँक ले न कहीं इधर
आँगन में दीवार उठाए बैठा हूँ
मुझको सूरत से कोई पहचान न ले
चेहरे पर चेहरा चिपकाए बैठा हूँ
जाने क्यों अपने ही घर में कुछ दिन से
मै खुद को मेहमान बनाए बैठा हूँ
कभी देवता बनने की ख्वाहिश थी, अब
मुश्किल से इन्सान बनाए बैठा हूँ