जन्म: १ जुलाई १९४२ को ग्राम उमरी ज़िला मुरादाबाद
में।सात गीत संग्रह, बारह ग़ज़ल संग्रह, दो कविता संग्रह, एक
महाकाव्य
१.
नीर की गठरी में वो फिर आग भर कर आ गए
देखिये आकाश में बादल उभर कर आ गए
तै तो यह था जुल्म के नाखून काटे जाएँगे
लोग नन्हीं तितलियों के पर कतर कर आ गए
जल रहा है दिल हमारा यह बताने के लिए
हम किसी के द्वार पर एक दीप धर कर आ गए
धूप निकली तो हमें उसने भी अंधा कर दिया
कैसे कह दें हम अंधेरों से उबर कर आ गए
घर में आँखों के कोई सीढ़ी न थी फिर भी 'कुँअर'
अश्क जाने कौन-सी सीढ़ी उतर कर आ गए
२.
जब सुलगते दिल में आहें बन के छाता है धुआँ
हाथ में आकर भी क्या हाथों में आता है धुआँ
आग की लपटों में जब खुल कर नहाता है धुआँ
तैरकर कुछ दूर फिर क्यों डूब जाता है धुआँ
सबसे पहले तन को अपने ही जलाता है धुआँ
तब कहीं जाकर वे अपना सर उठाता है धुआँ
यह मेरे पलकों का जादू है कि वो काजल बना
वर्ना कब आँखों को अपना घर बनाता है धुआँ
इस धुएँ के सिर्फ़ काले रंग पै मत जाइए
यह भी देखें रोशनी को साथ लाता है धुआँ
यह किसी आँधी की साज़िश है कि जिससे आज भी
एक पूरा जिस्म होकर थरथराता है धुआँ
प्यार भी एक आग है यह आग बुझते ही 'कुँअर'
एक रिश्ते की तरह ही टूट जाता है धुआँ
३.
मत पूछिए कि कैसे सफ़र काट रहे हैं
हर साँस एक सज़ा है मगर काट रहे हैं
ख़ामोश आसमान के साये में बार-बार
हम अपनी तमन्नाओं का सर काट रहे हैं
कमज़ोर छत से आज भी एक ईंट गिरी है
कुछ लोग हैं कि फिर भी गदर काट रहे हैं
आधी हमारी जीभ तो दाँतों ने काट ली
बाकी बची को मौन अधर काट रहे हैं
दो चार हादसों से ही अख़बार भर गए
हम अपनी उदासी की ख़बर काट रहे हैं
हर गाँव पूछता है मुसाफ़िर को रोक कर
हमने सुना है हमको नगर काट रहे हैं
इतनी ज़हर से दोस्ती गहरी हुई कि हम
ओझा के मंत्र का ही असर काट रहे हैं
कुछ इस तरह के हमको मिले हैं बहेलिये
जो हमको उड़ाते हैं न पर काट रहे हैं
४.
अंगुलियाँ थाम के खुद चलना सिखाया था जिसे
राह में छोड़ गया राह पे लाया था जिसे
उसने पोंछे ही नहीं अश्क मेरी आँखों से
मैंने खुद रो के बहुत देर हँसाया था जिसे
छू के होंठों को मेरे मुझसे बहुत दूर गई
वो ग़ज़ल मैंने बड़े शौक से गाया था जिसे
मुझसे नाराज़ है इक शख़्स का नकली चेहरा
धूप में आइना इक रोज़ दिखाया था जिसे
अब बड़ा हो के मेरे सर पे चढ़ा आता है
अपने काँधे पे कुँअर हँस के बिठाया था जिसे
५.
बीती नहीं है रात ज़रा और बात कर
होगा नया प्रभात ज़रा और बात कर
बातें रुकीं तो नींद उतरती है आँख में
होती है वारदात ज़रा और बात कर
सुनने को तुझे आज फिर उठ कर खड़ी हुई
यह सारी कायनात ज़रा और बात कर
अब ज़िंदगी की मौत से बाहर निकल के आ
मिल जाएगी हयात ज़रा और बात कर
चर्खे पै बर्फ़ कात रहे हैं यहाँ के लोग
तू इंकलाब कात ज़रा और बात कर
६.
कफन बाँध कर अपने सर से
निकले हैं फिर आँसू घर से
राहों में इस्पाती पहिये
गुज़र गए जब तब ऊपर से
अपने साथ चला है जीवन
शव को बाँधे हुए कमर से
लौटी हैं कुछ बंद फ़ाइलें
हम कब लौटे हैं दफ्तर से
नीला बदन हुआ सपनों का
किसके विष के तेज़ असर से
हमने अपने शीशे तोड़े
अपने हाथों के पत्थर से
उगता सूरज सोच रहा है
सुबह उठेगी कब बिस्तर से
७.
करो हमको न शर्मिंदा बढ़ो आगे कहीं बाबा
हमारे पास आँसू के सिवा कुछ भी नहीं बाबा
कटोरा ही नहीं है हाथ में बस इतना अंतर है
मगर बैठे जहाँ हो तुम खड़े हम भी वहीं बाबा
तुम्हारी ही तरह हम भी रहे हैं आज तक प्यासे
न जाने दूध की नदियाँ किधर होकर बहीं बाबा
सफाई थी सचाई थी पसीने की कमाई थी
हमारे पास ऐसी ही कई कमियाँ रहीं बाबा
हमारी आबरू का प्रश्न है सबसे न कह देना
वो बातें हमने जो तुमसे अभी खुलकर कहीं बाबा
८.
खुद को नज़र के सामने ला कर ग़ज़ल कहो
इस दिल में कोई दर्द बिठा कर गज़ल कहो
अब तक तो तुमने मैक़दों पै ही ग़ज़ल कही
होंठों से अब यह जाम हटा कर गज़ल कहो
दिन में भी दूर-दूर तलक रोशनी नहीं
अब तुम ही अपने दिल को जला कर गज़ल कहो
पूरी ही ग़ज़ल दिल की इबादत है दोस्तों!
अश्कों में ज़रा तुम भी नहा कर गज़ल कहो
दिल में न अगर आए तुम्हारे कोई 'कुंअर'
तो तुम ही किसी के दिल में समा कर ग़ज़ल कहो
९.
दो दिलों के दरमियाँ दीवार-सा अंतर न फेंक
चहचहाती बुलबुलों पर विषबुझे खंजर न फेंक
हो सके तो चल किसी की आरजू के साथ-साथ
मुस्कराती ज़िंदगी पर मौत का मंतर न फेंक
जो धरा से कर रही है कम गगन का फासला
उन उड़ानों पर अंधेरी आँधियों का डर न फेंक
फेंकने ही हैं अगर पत्थर तो पानी पर उछाल
तैरती मछली, मचलती नाव पर पत्थर न फेंक
यह तेरी काँवर नहीं कर्तव्य का अहसास है
अपने कंधे से श्रवण! संबंध का काँवर न फेंक
१०.
दोनों ही पक्ष आए हैं तैयारियों के साथ
हम गरदनों के साथ है वो आरियों के साथ
बोया न कुछ भी ओर फ़सल ढूँढ़ते हैं लोग
कैसा मज़ाक चल रहा है क्यारियों के साथ
तुम ही कहो कि किस तरह उसको चुराऊँ मैं
पानी की एक बूँद है चिनगारियों के साथ
सेहत हमारी ठीक रहे भी तो किस तरह
आते हैं घर हक़ीम भी बीमारियों के साथ
११.
प्यासे होंठों से जब कोई झील न बोली बाबू जी
हमने अपने ही आँसू से आँख भिगो ली बाबू जी
भोर नहीं काला सपना था पलकों के दरवाज़े पर
हमने यों ही डर के मारे आँख न खोली बाबू जी
दिल के अंदर ज़ख्म बहुत हैं इनका भी उपचार करो
जिसने हम पर तीर चलाए मारो गोली बाबू जी
हम पर कोई वार न करना हैं कहार हम शब्द नहीं
अपने ही कंधों पर है कविता की डोली बाबू जी
यह मत पूछो हमको क्या-क्या दुनिया ने त्यौहार दिए
मिली हमें अंधी दीवाली गूँगी होली बाबू जी
सुबह सवेरे जिन हाथों को मेहनत के घर भेजा था
वही शाम को लेकर लौटे खाली झोली बाबू जी
१२.
फिर युधिष्ठिर को पुकारा है समय के यक्ष ने
कान में इतना ही पीपल के कहा वटवृक्ष ने
यह न कहिएगा कि यह आयोजकों का दोष है
यह सभा खुद ही विसर्जित की सभा अध्यक्ष ने
अब हमें शूलों की भी राहों पै चलना आ गया
यह बड़ा अच्छा हुआ काँटे दिए प्रतिपक्ष ने
द्वार पर कब आएगा दीपावली का जन्म दिन
हर कलैंडर से यही पूछा अंधेरे कक्ष ने
खून का कतरा कोई दिल में न बच पाएगा कल
इस कदर चोटें सही हैं इस सदी के वक्ष ने
कुछ रोज़ से मैं देख रहा हूँ कि हर सुबह
उठती है एक कराह भी किलकारियों के साथ
१३.
कोई रस्ता है न मंज़िल न तो घर है कोई
आप कहिएगा सफ़र ये भी सफ़र है कोई
'पास-बुक' पर तो नज़र है कि कहाँ रक्खी है
प्यार के ख़त का पता है न ख़बर है कोई
ठोकरें दे के तुझे उसने तो समझाया बहुत
एक ठोकर का भी क्या तुझपे असर है कोई
रात-दिन अपने इशारों पे नचाता है मुझे
मैंने देखा तो नहीं, मुझमें मगर है कोई
एक भी दिल में न उतरी, न कोई दोस्त बना
यार तू यह तो बता यह भी नज़र है कोई
प्यार से हाथ मिलाने से ही पुल बनते हैं
काट दो, काट दो गर दिल में भँवर है कोई
मौत दीवार है, दीवार के उस पार से अब
मुझको रह-रह के बुलाता है उधर है कोई
सारी दुनिया में लुटाता ही रहा प्यार अपना
कौन है, सुनते हैं, बेचैन 'कुँअर' है कोई
१४.
१.
नीर की गठरी में वो फिर आग भर कर आ गए
देखिये आकाश में बादल उभर कर आ गए
तै तो यह था जुल्म के नाखून काटे जाएँगे
लोग नन्हीं तितलियों के पर कतर कर आ गए
जल रहा है दिल हमारा यह बताने के लिए
हम किसी के द्वार पर एक दीप धर कर आ गए
धूप निकली तो हमें उसने भी अंधा कर दिया
कैसे कह दें हम अंधेरों से उबर कर आ गए
घर में आँखों के कोई सीढ़ी न थी फिर भी 'कुँअर'
अश्क जाने कौन-सी सीढ़ी उतर कर आ गए
२.
जब सुलगते दिल में आहें बन के छाता है धुआँ
हाथ में आकर भी क्या हाथों में आता है धुआँ
आग की लपटों में जब खुल कर नहाता है धुआँ
तैरकर कुछ दूर फिर क्यों डूब जाता है धुआँ
सबसे पहले तन को अपने ही जलाता है धुआँ
तब कहीं जाकर वे अपना सर उठाता है धुआँ
यह मेरे पलकों का जादू है कि वो काजल बना
वर्ना कब आँखों को अपना घर बनाता है धुआँ
इस धुएँ के सिर्फ़ काले रंग पै मत जाइए
यह भी देखें रोशनी को साथ लाता है धुआँ
यह किसी आँधी की साज़िश है कि जिससे आज भी
एक पूरा जिस्म होकर थरथराता है धुआँ
प्यार भी एक आग है यह आग बुझते ही 'कुँअर'
एक रिश्ते की तरह ही टूट जाता है धुआँ
३.
मत पूछिए कि कैसे सफ़र काट रहे हैं
हर साँस एक सज़ा है मगर काट रहे हैं
ख़ामोश आसमान के साये में बार-बार
हम अपनी तमन्नाओं का सर काट रहे हैं
कमज़ोर छत से आज भी एक ईंट गिरी है
कुछ लोग हैं कि फिर भी गदर काट रहे हैं
आधी हमारी जीभ तो दाँतों ने काट ली
बाकी बची को मौन अधर काट रहे हैं
दो चार हादसों से ही अख़बार भर गए
हम अपनी उदासी की ख़बर काट रहे हैं
हर गाँव पूछता है मुसाफ़िर को रोक कर
हमने सुना है हमको नगर काट रहे हैं
इतनी ज़हर से दोस्ती गहरी हुई कि हम
ओझा के मंत्र का ही असर काट रहे हैं
कुछ इस तरह के हमको मिले हैं बहेलिये
जो हमको उड़ाते हैं न पर काट रहे हैं
४.
अंगुलियाँ थाम के खुद चलना सिखाया था जिसे
राह में छोड़ गया राह पे लाया था जिसे
उसने पोंछे ही नहीं अश्क मेरी आँखों से
मैंने खुद रो के बहुत देर हँसाया था जिसे
छू के होंठों को मेरे मुझसे बहुत दूर गई
वो ग़ज़ल मैंने बड़े शौक से गाया था जिसे
मुझसे नाराज़ है इक शख़्स का नकली चेहरा
धूप में आइना इक रोज़ दिखाया था जिसे
अब बड़ा हो के मेरे सर पे चढ़ा आता है
अपने काँधे पे कुँअर हँस के बिठाया था जिसे
५.
बीती नहीं है रात ज़रा और बात कर
होगा नया प्रभात ज़रा और बात कर
बातें रुकीं तो नींद उतरती है आँख में
होती है वारदात ज़रा और बात कर
सुनने को तुझे आज फिर उठ कर खड़ी हुई
यह सारी कायनात ज़रा और बात कर
अब ज़िंदगी की मौत से बाहर निकल के आ
मिल जाएगी हयात ज़रा और बात कर
चर्खे पै बर्फ़ कात रहे हैं यहाँ के लोग
तू इंकलाब कात ज़रा और बात कर
६.
कफन बाँध कर अपने सर से
निकले हैं फिर आँसू घर से
राहों में इस्पाती पहिये
गुज़र गए जब तब ऊपर से
अपने साथ चला है जीवन
शव को बाँधे हुए कमर से
लौटी हैं कुछ बंद फ़ाइलें
हम कब लौटे हैं दफ्तर से
नीला बदन हुआ सपनों का
किसके विष के तेज़ असर से
हमने अपने शीशे तोड़े
अपने हाथों के पत्थर से
उगता सूरज सोच रहा है
सुबह उठेगी कब बिस्तर से
७.
करो हमको न शर्मिंदा बढ़ो आगे कहीं बाबा
हमारे पास आँसू के सिवा कुछ भी नहीं बाबा
कटोरा ही नहीं है हाथ में बस इतना अंतर है
मगर बैठे जहाँ हो तुम खड़े हम भी वहीं बाबा
तुम्हारी ही तरह हम भी रहे हैं आज तक प्यासे
न जाने दूध की नदियाँ किधर होकर बहीं बाबा
सफाई थी सचाई थी पसीने की कमाई थी
हमारे पास ऐसी ही कई कमियाँ रहीं बाबा
हमारी आबरू का प्रश्न है सबसे न कह देना
वो बातें हमने जो तुमसे अभी खुलकर कहीं बाबा
८.
खुद को नज़र के सामने ला कर ग़ज़ल कहो
इस दिल में कोई दर्द बिठा कर गज़ल कहो
अब तक तो तुमने मैक़दों पै ही ग़ज़ल कही
होंठों से अब यह जाम हटा कर गज़ल कहो
दिन में भी दूर-दूर तलक रोशनी नहीं
अब तुम ही अपने दिल को जला कर गज़ल कहो
पूरी ही ग़ज़ल दिल की इबादत है दोस्तों!
अश्कों में ज़रा तुम भी नहा कर गज़ल कहो
दिल में न अगर आए तुम्हारे कोई 'कुंअर'
तो तुम ही किसी के दिल में समा कर ग़ज़ल कहो
९.
दो दिलों के दरमियाँ दीवार-सा अंतर न फेंक
चहचहाती बुलबुलों पर विषबुझे खंजर न फेंक
हो सके तो चल किसी की आरजू के साथ-साथ
मुस्कराती ज़िंदगी पर मौत का मंतर न फेंक
जो धरा से कर रही है कम गगन का फासला
उन उड़ानों पर अंधेरी आँधियों का डर न फेंक
फेंकने ही हैं अगर पत्थर तो पानी पर उछाल
तैरती मछली, मचलती नाव पर पत्थर न फेंक
यह तेरी काँवर नहीं कर्तव्य का अहसास है
अपने कंधे से श्रवण! संबंध का काँवर न फेंक
१०.
दोनों ही पक्ष आए हैं तैयारियों के साथ
हम गरदनों के साथ है वो आरियों के साथ
बोया न कुछ भी ओर फ़सल ढूँढ़ते हैं लोग
कैसा मज़ाक चल रहा है क्यारियों के साथ
तुम ही कहो कि किस तरह उसको चुराऊँ मैं
पानी की एक बूँद है चिनगारियों के साथ
सेहत हमारी ठीक रहे भी तो किस तरह
आते हैं घर हक़ीम भी बीमारियों के साथ
११.
प्यासे होंठों से जब कोई झील न बोली बाबू जी
हमने अपने ही आँसू से आँख भिगो ली बाबू जी
भोर नहीं काला सपना था पलकों के दरवाज़े पर
हमने यों ही डर के मारे आँख न खोली बाबू जी
दिल के अंदर ज़ख्म बहुत हैं इनका भी उपचार करो
जिसने हम पर तीर चलाए मारो गोली बाबू जी
हम पर कोई वार न करना हैं कहार हम शब्द नहीं
अपने ही कंधों पर है कविता की डोली बाबू जी
यह मत पूछो हमको क्या-क्या दुनिया ने त्यौहार दिए
मिली हमें अंधी दीवाली गूँगी होली बाबू जी
सुबह सवेरे जिन हाथों को मेहनत के घर भेजा था
वही शाम को लेकर लौटे खाली झोली बाबू जी
१२.
फिर युधिष्ठिर को पुकारा है समय के यक्ष ने
कान में इतना ही पीपल के कहा वटवृक्ष ने
यह न कहिएगा कि यह आयोजकों का दोष है
यह सभा खुद ही विसर्जित की सभा अध्यक्ष ने
अब हमें शूलों की भी राहों पै चलना आ गया
यह बड़ा अच्छा हुआ काँटे दिए प्रतिपक्ष ने
द्वार पर कब आएगा दीपावली का जन्म दिन
हर कलैंडर से यही पूछा अंधेरे कक्ष ने
खून का कतरा कोई दिल में न बच पाएगा कल
इस कदर चोटें सही हैं इस सदी के वक्ष ने
कुछ रोज़ से मैं देख रहा हूँ कि हर सुबह
उठती है एक कराह भी किलकारियों के साथ
१३.
कोई रस्ता है न मंज़िल न तो घर है कोई
आप कहिएगा सफ़र ये भी सफ़र है कोई
'पास-बुक' पर तो नज़र है कि कहाँ रक्खी है
प्यार के ख़त का पता है न ख़बर है कोई
ठोकरें दे के तुझे उसने तो समझाया बहुत
एक ठोकर का भी क्या तुझपे असर है कोई
रात-दिन अपने इशारों पे नचाता है मुझे
मैंने देखा तो नहीं, मुझमें मगर है कोई
एक भी दिल में न उतरी, न कोई दोस्त बना
यार तू यह तो बता यह भी नज़र है कोई
प्यार से हाथ मिलाने से ही पुल बनते हैं
काट दो, काट दो गर दिल में भँवर है कोई
मौत दीवार है, दीवार के उस पार से अब
मुझको रह-रह के बुलाता है उधर है कोई
सारी दुनिया में लुटाता ही रहा प्यार अपना
कौन है, सुनते हैं, बेचैन 'कुँअर' है कोई
१४.
ज़िंदगी यूँ भी जली, यूँ भी जली मीलों तक
चाँदनी चार क़दम, धूप चली मीलो तक
प्यार का गाँव अजब गाँव है जिसमें अक्सर
ख़त्म होती ही नहीं दुख की गली मीलों तक
प्यार में कैसी थकन कहके ये घर से निकली
कृष्ण की खोज में वृषभानु-लली मीलों तक
घर से निकला तो चली साथ में बिटिया की हँसी
ख़ुशबुएँ देती रही नन्हीं कली मीलों तक
माँ के आँचल से जो लिपटी तो घुमड़कर बरसी
मेरी पलकों में जो इक पीर पली मीलों तक
मैं हुआ चुप तो कोई और उधर बोल उठा
बात यह है कि तेरी बात चली मीलों तक
हम तुम्हारे हैं 'कुँअर' उसने कहा था इक दिन
मन में घुलती रही मिसरी की डली मीलों तक
१५.
अगर हम अपने दिल को अपना इक चाकर बना लेते
तो अपनी ज़िदंगी को और भी बेहतर बना लेते
ये काग़ज़ पर बनी चिड़िया भले ही उड़ नही पाती
मगर तुम कुछ तो उसके बाज़ुओं में पर बना लेते
अलग रहते हुए भी सबसे इतना दूर क्यों होते
अगर दिल में उठी दीवार में हम दर बना लेते
हमारा दिल जो नाज़ुक फूल था सबने मसल डाला
ज़माना कह रहा है दिल को हम पत्थर बना लेते
हम इतनी करके मेहनत शहर में फुटपाथ पर सोये
ये मेहनत गाँव में करते तो अपना घर बना लेते
'कुँअर' कुछ लोग हैं जो अपने धड़ पर सर नहीं रखते
अगर झुकना नहीं होता तो वो भी सर बना लेते