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शुक्रवार, 11 जनवरी 2013

उदयभानु हंस

जन्‍म- २ अगस्‍त १९२६, 'उदयभानु हंस रचनावली' दो खंड (कविता) दो खंड (गद्य)।

१.

बैठे हों जब वो पास, ख़ुदा ख़ैर करे
फिर भी हो दिल उदास, ख़ुदा ख़ैर करे।


मैं दुश्मनों से बच तो गया हूँ, लेकिन
हैं दोस्त आस-पास, ख़ुदा ख़ैर करे


नारी का तन उघाड़ने की होड़ लगी
यदि है यही विकास, ख़ुदा ख़ैर करे।


अब देश की जड़ खोदनेवाले नेता
खुद लिखेंगे इतिहास, ख़ुदा ख़ैर करे।


मंदिर मठों में बैठ के भी संन्यासी
उमेटन लगे कपास, ख़ुदा ख़ैर करे।


मावस की रात उन की छत पर देखो तो
पूनम का है उजास, ख़ुदा ख़ैर करे।


दिन-रात 'हंस' रहते हुए पानी में
मछली को लगे प्यास, ख़ुदा ख़ैर करे।


२.
मन में सपने अगर नहीं होते
हम कभी चाँद पर नहीं होते


सिर्फ़ जंगल में ढूँढ़ते क्यों हो
भेड़िए अब किधर नहीं होते


कब की दुनिया मसान बन जाती
उसमें शायर अगर नहीं होते


किस तरह वो ख़ुदा को पाएँगे
खुद से जो बेख़बर नहीं होते


पूछते हो पता ठिकाना क्या
हम फकीरों के घर नहीं होते।


३.

आदमी खोखले हैं पूस के बादल की तरह,
शहर लगते हैं मुझे आज भी जंगल की तरह।


हमने सपने थे बुने इंद्रधनुष के जितने,
चीथड़े हो गए सब विधवा के आँचल की तरह।


जेठ की तपती हुई धूप में श्रम करते हैं जो,
तुम उन्हें छाया में ले लो किसी पीपल की तरह।


दर्द है जो दिल का अलंकार, कोई भार नहीं
झील में जल की तरह आँख में काजल की तरह।


सोने-चाँदी के तराज़ू में न तोलो उसको
प्यार अनमोल सुदामा के है चावल की तरह।


जन्म लेती नहीं आकाश से कविता मेरी
फूट पड़ती है स्वयं धरती से कोंपल की तरह।


जुल्म की आग में तुम जितना जलाओगे मुझे,
मैं तो महकूँगा अधिक उतना ही संदल की तरह।


ऐसी दुनिया को उठो, आग लगा दें मिलकर,
नारी बिकती हो जहाँ मंदिर की बोतल की तरह।


पेट भर जाएगा जब मतलबी यारों का कभी,
फेंक देंगे वो तुम्हें कूड़े में पत्तल की तरह।


दिल का है रोग, भला 'हंस' बताएँ कैसे,
लाज होंठों को जकड़ लेती है साँकल की तरह।


४.

मत जियो सिर्फ़ अपनी खुशी के लिए
कोई सपना बुनो ज़िंदगी के लिए।


पोंछ लो दीन दुखियों के आँसू अगर,
कुछ नहीं चाहिए बंदगी के लिए।


सोने चाँदी की थाली ज़रूरी नहीं,
दिल का दीपक बहुत आरती के लिए।


जिसके दिल में घृणा का है ज्वालामुखी
वह ज़हर क्यों पिये खुदकुशी के लिए।


उब जाएँ ज़ियादा खुशी से न हम
ग़म ज़रूरी है कुछ ज़िंदगी के लिए।


सारी दुनिया को जब हमने अपना लिया,
कौन बाकी रहा दुश्मनी के लिए।


तुम हवा को पकड़ने की ज़िद छोड़ दो,
वक्त रुकता नहीं है किसी के लिए।


शब्द को आग में ढालना सीखिए,
दर्द काफी नहीं शायरी के लिए।


सब ग़लतफहमियाँ दूर हो जाएँगी,
हँस मिल लो गले दो घड़ी के लिए।


५.

ज़िंदगी फूस की झोंपड़ी है,
रेत की नींव पर जो खड़ी है।


पल दो पल है जगत का तमाशा,
जैसे आकाश में फुलझ़ड़ी है।


कोई तो राम आए कहीं से,
बन के पत्थर अहल्या खड़ी है।


सिर छुपाने का बस है ठिकाना,
वो महल है कि या झोंपड़ी है।


धूप निकलेगी सुख की सुनहरी,
दुख का बादल घड़ी दो घड़ी है।


यों छलकती है विधवा की आँखें.,
मानो सावन की कोई झ़ड़ी है।


हाथ बेटी के हों कैसे पीले
झोंपड़ी तक तो गिरवी पड़ी है।


जिसको कहती है ये दुनिया शादी,
दर असल सोने की हथकड़ी है।


देश की दुर्दशा कौन सोचे,
आजकल सबको अपनी पड़ी है।


मुँह से उनके है अमृत टपकता,
किंतु विष से भरी खोपड़ी है।


विश्व के 'हंस' कवियों से पूछो,
दर्द की उम्र कितनी बड़ी है।