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सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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बुधवार, 13 फ़रवरी 2013

ज़िया फतेहाबादी

१.
ग़म-ए उल्फ़त में जान दी होती ।
ख़िज्र की उम्र मिल गई होती ।

ताक़त-ए इन्तिज़ार थी कि न थी.
जुर्रत-ए इन्तिज़ार की होती ।

न हुआ हुस्न मूलतफ़ित वरना,
दिल की दुनिया बदल गई होती ।

ज़ब्त-ए ग़म में लबों का हिलना क्या,
बेज़ुबाँ आँख मुलतजी होती ।

मशवरा तर्क-ए मय का ठीक मगर,
शेख़, तू ने कभी तो पी होती ।

जान देते ख़ुशी से मौत अगर,
काशिफ़-ए राज़-ए ज़िन्दगी होती ।

गुनगुनाता कोई ’ज़िया’ की ग़ज़ल,
और फ़िज़ा साज़ छेड़ती होती ।

 
२.
होश में करके बेख़बर होश में फिर न ला सके ।
ऐसे हुए वो परदापोश ख़्वाब में भी न आ सके ।

चाहिए मुझ को एक दिल और वो ऐसे ज़रफ का,
दर्द की सारी कायनात जिस में सिमट के आ सके ।

मेरी निगाह-ए आशना जलवागह-ए जमाल है,
ग़ैर की क्या मजाल है मुझ से नज़र मिला सके ।

या मेरी ज़िन्दगी को दे अपनी निगाह में अमाँ,
या मुझे इस तरह मिटा फिर न कोई मिटा सके ।

काश किसी का इल्तिफ़ात हो मेरे सोज़ की निजात
दिल में सुलग रही है आग़ कोई उसे बुझा सके ।

 
३.
गीत तेरे हुस्न के गाता हूँ मैं ।
चाँद की किरणों को तड़पाता हूँ मैं ।

मंज़िल ए मक़सूद होती है क़रीब,
रास्ते में जब भटक जाता हूँ मैं ।

दे रहा हूँ रात-दिन ग़म को फ़रेब,
दिल को उम्मीदों से बहलाता हूँ मैं ।

मेरे इस्तक़बाल को साक़ी उठे,
मयकदे में झूम कर आता हूँ मैं ।

उसके दिल में भी है दाग़-ए सोज़-ए इश्क़,
चाँद को हमदास्ताँ पाता हूँ मैं ।

छेड़ती है सुबह जब साज़-ए हयात
वज्द में आकर ग़ज़ल गाता हूँ मैं ।

ख़ुद तड़पता हूँ तड़प कर ऐ ’ज़िया’,
अहल-ए महफ़िल को भी तड़पाता हूँ मैं ।

 
४.
हसरत ए दीद मुसीबत ही सही ।
हमें ग़म खाने की आदत ही सही ।

दश्त-ओ सहरा कोई दोज़ख तो नहीं,
तेरा कूचा मेरी जन्नत ही सही ।

बेअसर मेरी दुआएँ क्यूँ हों,
लादवा दर्द-ए मुहब्बत ही सही ।

ज़िन्दगी मौत से बेहतर है मगर,
दो घड़ी के लिए राहत ही सही ।

अमन से बैर नहीं रखते हम,
शोरिशें दाख़िल-ए फ़ितरत ही सही ।

सर कटाने की मगर बात कहाँ,
सर में सौदा-ए शहादत ही सही ।

देख कर इश्क ’ज़िया’ बढ़ता है,
हुस्न तस्वीर-ए नज़ाकत ही सही ।

 
५.
गीत तेरे हुस्न के गाता हूँ मैं ।
चाँद की किरणों को तड़पाता हूँ मैं ।

मंज़िल ए मक़सूद होती है क़रीब,
रास्ते में जब भटक जाता हूँ मैं ।

दे रहा हूँ रात-दिन ग़म को फ़रेब,
दिल को उम्मीदों से बहलाता हूँ मैं ।

मेरे इस्तक़बाल को साक़ी उठे,
मयकदे में झूम कर आता हूँ मैं ।

उसके दिल में भी है दाग़-ए सोज़-ए इश्क़,
चाँद को हमदास्ताँ पाता हूँ मैं ।

छेड़ती है सुबह जब साज़-ए हयात
वज्द में आकर ग़ज़ल गाता हूँ मैं ।

ख़ुद तड़पता हूँ तड़प कर ऐ ’ज़िया’,
अहल-ए महफ़िल को भी तड़पाता हूँ मैं ।

 
६.
साँचे में जुनूँ के दिल को ढालें,
होश-ओ ख़िरद का भेद पा लें ।

रूख़ से जो नक़ाब वो उठा लें,
हम ज़ौक़-ए नज़र को आज़मा लें ।

ऐ अक़ल न दे फ़रेब हम को,
खोए हुए हैं कि उन को पा लें ।

हस्ती इक राग है अधूरा,
इस की न गतें हैं न तालें ।

पिन्हाँ वो यहीं कहीं तो होंगे,
हर शय को बगौर देखें-भालें ।

हम चलते हैं तेरे साथ ऐ मौत !
अन्जाम-ए हयात तो सुना लें ।

हर समत है कहकहों की झंकार,
क्या हम भी ज़रा-सा मुस्कुरा लें ।

जी में है ’ज़िया’ कि अपने दिल को,
बेगाना-ए आरज़ू बना लें ।

 
७.
शाख़ अरमानों की हरी ही नहीं ।
आँसुओं की झड़ी लगी ही नहीं ।

साया-ए आफ़्ताब में ऐ रिंद,
तीरगी भी है रोशनी ही नहीं ।

क़ैद-ए हस्ती से किस तरह छूटें,
राह कोई फ़रार की ही नहीं ।

मेरे शे’रों में ज़िंदगी की है,
वो हक़ीक़त जो शायरी ही नहीं ।

वो हुनर आदमी की फ़ितरत है,
जो हुनर ऐब से बरी ही नहीं ।

धरम आदमगरी सिखाता है,
सिर्फ़ तक़सीम-ए आदमी ही नहीं ।

गिनता हूँ दिल की धडकनें कि अब,
तू ने आवाज़ मुझ को दी ही नहीं ।

उसे इरफ़ान-ए ज़ुहद क्या हो ’ज़िया’,
मस्त आँखों से जिस ने पी ही नहीं ।

 
८.
शब ए ग़म है मेरी तारीक बहुत |
हो न हो सुबह है नज़दीक बहुत |

उन से मैं दूर हुआ ख़ूब हुआ
आ गए वो मेरे नज़दीक बहुत |

ग़म ए जानाँ मेरे दिल से न गया
की ग़म ए दहर ने तहरीक बहुत |

मिल गई मर के हयात ए जावेद
तेरे बीमार हुए ठीक बहुत |

कम से कम हुस्न की रुसवाई में
थी ग़म ए इश्क़ की तज़हीक बहुत |

रहनवरदान ए जुनूँ बैठ गए
मंज़िल ए शौक़ थी नज़दीक बहुत |

ऐ ” ज़िया ” हम को दर ए साक़ी से
कम सही फिर भी मिली भीक बहुत |

 
९.
शब ओ रोज़ रोने से क्या फ़ायदा है ?
गरेबाँ भिगोने से क्या फ़ायदा है ?

जहाँ फूल ख़ुद ही करें कार-ए निशतर,
वहाँ ख़ार बोने से क्या फ़ायदा है ?

उजालों को ढूँढो सहर को पुकारो,
अन्धेरों में रोने से क्या फ़ायदा है ?

हमें मोड़ना है रुख़-ए मौज-ए दरिया,
सफ़ीना भिगोने से क्या फ़ायदा है ?

तेरी याद से दिल को बहला रहा हूँ,
मगर इस खिलौने से क्या फ़ायदा है ?

सितारों से नूर-ए सहर छीन लो तुम,
शब-ए ग़म में रोने से क्या फ़ायदा है ?

परीशानियाँ हासिल-ए ज़िन्दगी हैं,
परीशान होने से क्या फ़ायदा है ?

वही तीरगी है अभी तक दिलों में
’ज़िया’ सुबह होने से क्या फ़ायदा है ?

 
१०.
वो मुसाफ़िर जो थक गया होगा,
रास्ते से भटक गया होगा ।

गुन्चा-गुन्चा चटक गया होगा,
गोशा-गोशा महक गया होगा ।

आहटें नर्म-नर्म पत्तों की,
पेड़ पर आम पक गया होगा ।

डाल कर फन्दा अपनी गरदन में,
कोई छत से लटक गया होगा ।

मुड़ के देखा जो तू ने लोगों को,
मेरी नज़रों पे शक गया होगा ।

उसकी उँगली पकड़ के चलता था,
हाथ मेरा झटक गया होगा ।

अरे अहसास-ए तिशनगी तौबा,
कोई साग़र ख़नक गया होगा

गिरता पड़ता ये जादा-ए पुरपेच
ऐ ’ज़िया’ दूर तक गया होगा ।

 
११.
वा मेरा दीदा-ए बीना है तो ।
मैंने दुनिया तुझे देखा है तो ।

इक नई कहकशाँ का मंज़र,
मैंने पलकों पे सजाया है तो ।

आईना देख के मालूम हुआ,
कोई दीवाना भी मुझ-सा है तो ।

पा बा जौलाँ रहे क़तरा-क़तरा,
लम्हे-लम्हे का तकाज़ा है तो ।

कई सदियों से जुड़ा हूँ अब तक,
मेरा मैं टूट के बिखरा है तो ।

अक्स ही अक्स हैं लेकिन हर अक्स
आईनाख़ाने में तनहा है तो ।

ऐ ’ज़िया’ तू भी किसी का हो जा,
कोई दुनिया में किसी का है तो ।

 
१२.
रात को जब तारे अपने रोशन गीत सुनाएँगे ।
हम भी दिल की गरमी से दुनिया को गरमाएँगे ।

फूल ज़रा खिल जाने दे सहन ए गुलशन में साक़ी,
इक पयमाना चीज़ है क्या मयख़ाना पी जाएँगे ।

साक़ी को बेदार करो मयख़ाना क्यूँ सूना है,
बादल तो घिर आए हैं मयकश भी आ जाएँगे ।

उनसे कहने जाते हैं बेताबी अपने दिल की,
वो रूदाद-ए ग़म सुन कर देखें क्या फ़रमाएँगे ।

फूलो, तुम महफूज़ रहो बाद-ए खिज़ाँ के झोंकों से,
अब हम रुखसत होते हैं इक दिन फिर से आएँगे ।

सावन की बरसातों में तेरा मलहारें गाना,
ये लम्हे याद आएँगे याद आ कर तड़पाएँगे ।

वो सोते हैं तो सोने दो वा है आग़ोश-ए उलफ़त,
कहते-कहते अफ़साना हम भी तो सो जाएँगे ।

बाक़ी इक रह जाएगा नक्श ’ज़िया’ ए उलफ़त का,
दुनिया भी मिट जाएगी और हम भी मिट जाएँगे ।

 
१३.
रात कहती थी दिल से आँसू पी |
यूँ ही उम्मीद में सहर के जी |

जगमगाए चिराग़ ज़ररों के
पड़ गई माँद शमें तारों की |

गुल ए नरगिस है महव ए आईना
वाह रे आलम ए दुरूँबीनी |

वो तो मैं ही था बारहा जिस ने
ज़िन्दा रहने को ख़ुदकुशी कर ली |

किसे अहसास था असीरी का
बन्द खिड़की अगर नहीं खुलती |

जल बुझा जो पतँगा उस की ख़बर
आग की तरह शहर में फैली |

शेअर कहते रहो ” ज़िया ” साहिब
ख़िदमत ए उर्दू और क्या होगी |

 
१४.
रह ए वफ़ा में ज़रर सूदमन्द है यारो |
है दर्द अपनी दवा ज़हर क़न्द है यारो |

घटा बढ़ा के भी देखा मगर न बात बनी
ग़ज़ल का रूप रिवायत पसन्द है यारो |

खुला जिसे ग़लती से मैं छोड़ आया था
मेरे लिए वही दरवाज़ा बन्द है यारो |

ग़ज़लसराई थी जिसके लिए बगैर उसके
गुलों का ख़न्दा ए लब ज़हर ख़न्द है यारो |

मुझे ख़बर है कि अपनी ख़बर नहीं मुझ को
मेरे सिवा भी कोई होशमन्द है यारो |

मिले जो दस्त ए तमन्ना से क्यूँ न पी जाऊं
वो ज़हर भी तो मेरे हक़ में क़न्द है यारो |

न जाने तोड़ के उड़ जाएगी कहाँ इक दिन
हिसार ए जिस्म में जो रूह बन्द है यारो |

ज़मीं पे रहता है उड़ता है आसमानों पर
” ज़िया ” कि पस्ती भी कितनी बुलन्द है यारो |

 
१५.
मौज ए ग़म गुल क़तर गई होगी ।
नद्दी चढ़ कर उतर गई होगी ।

ग़र्क होना था जिस को वो किश्ती,
साहिलों से गुज़र गई होगी ।

हम ज़मींवालों की जो पहले-पहल,
आसमाँ पर नज़र गई होगी ।

आईनाख़ाने में बा हर सूरत,
आब-ओ ताब-ए गुहर गई होगी ।

हादसों आफ़तों मसाइब से,
ज़िन्दगी क्या जो डर गई होगी ।

उस सफ़र में ख़लाओं के ता दूर,
हसरत-ए बाल-ओ पर गई होगी ।

ऐ ’ज़िया’ बात अक़ल-ओ दानिश की
दिल का नुक़सान कर गई होगी ।

 
१६.
मिरा साया जुदा नहीं होता
ये कभी दूसरा नहीं होता

अजनबी अजनबी ही है लेकिन
आशना आशना नहीं होता

सुनते आए थे आज देख लिया
बेकसों का ख़ुदा नहीं होता

खटखटाता रहूँगा मैं जब तक
घर का दरवाज़ा वा नहीं होता

इतने सदमे सहे कि अब दिल को
ऐतबार ए वफ़ा नहीं होता

गोहर ए ताबदार था आँसू
जो पलक से गिरा नहीं होता

क्या कहा रात के अँधेरे में
आसमाँ देखता नहीं होता

उनकी आती अगर ख़बर तो ज़िया
कहीं मेरा पता नहीं होता

 
१७.
बीते हुए दिनों की यादें सजा रहे हैं
जो पा के खो चुके थे वो खो के पा रहे हैं

इक हम कि बदली बदली आँसू बहा रहे हैं
इक वो कि बिजली बिजली शम्में जला रहे हैं

नादाँ हैं कितने भौरें फूलों की जुस्तजू में
काँटों से अपने दामन नाहक़ बचा रहे हैं

क्या जाने रात गुज़री क्या शाख़ ए आशियाँ पर
ख़ामोश बुलबुलें हैं गुल गुनगुना रहे हैं

मुँह अपना देखते हैं जो दिल के आईने में
बेचेहरा ज़िन्दगी से परदा हटा रहे हैं

कैफ़ियत अपने दिल की समझा न कोई अब तक
हम शहर ए आरज़ू में बे मुद्दा रहे हैं

ख़वाबों में रहनेवाले कैसे हैं जो ज़मीं से
बस एक जस्त ही में गर्दूं पे जा रहे हैं

कासा तही है लेकिन बे दस्त ओ पा नहीं हम
तदबीर के धनी हैं बिगड़ी बना रहे हैं

उनको ज़िया है कैसी फ़िक्र ए ख़ुदाशनासी
जो अपने आप से भी ना आशना रहे हैं

 
१८.
पा शिकस्ता रबाब है ख़ामोश ।
पर्दा-पर्दा हिजाब है ख़ामोश ।

ख़ुमकदे में सुकूत का आलम,
ख़ाना ए आफ़्ताब है ख़ामोश ।

थम गई कायनात की गरदिश,
शोरिश-ए इन्क़लाब है ख़ामोश ।

हादसों की ये ख़ुद पशेमानी,
ख़लिश-ए इज़्तिराब है ख़ामोश ।

बेसवाली दलील-ए नाफ़हमी,
आईना-ए लाजवाब है ख़ामोश ।

मंज़िल-ए रेगज़ार ख़ाक बसर,
तिशनगी-ए शराब है ख़ामोश ।

ऐ ग़म-ए दिल न शोर-ए हश्र उठा,
ज़िन्दगी महाव-ए ख़्वाब है ख़ामोश ।

बेकराँ दश्त-ए बेकसी में ’ज़िया’
दिल-ए ख़ानाख़राब है ख़ामोश ।

 
१९.
पर ए हुमा इक महान पर है |
परिन्दा ऊँची उड़ान पर है |

ज़मीं को पामाल करने वाला
दिमाग़ जो आसमान पर है |

उतर के धरती पे आ न जाए
वो धूप जो सायबान पर है |

कभी तो आएगी मेरे लब पर
वो बात जो हर ज़ुबान पर है |

बिगड़ के जब से गया है कोई
बनी हुई दिल पे जान पर है |

क़दम हद ए लामकाँ में लेकिन
नज़र अभी तक मकान पर है |

समुन्दरों से कहाँ बुझेगी
वो तिशनगी जो उठान पर है |

” ज़िया ” ये कैसी है बदगुमानी
शक उस को मेरे गुमान पर है |

 
२०.
पर ए हुमा इक महान पर है |
परिन्दा ऊँची उड़ान पर है |

ज़मीं को पामाल करने वाला
दिमाग़ जो आसमान पर है |

उतर के धरती पे आ न जाए
वो धूप जो सायबान पर है |

कभी तो आएगी मेरे लब पर
वो बात जो हर ज़ुबान पर है |

बिगड़ के जब से गया है कोई
बनी हुई दिल पे जान पर है |

क़दम हद ए लामकाँ में लेकिन
नज़र अभी तक मकान पर है |

समुन्दरों से कहाँ बुझेगी
वो तिशनगी जो उठान पर है |

” ज़िया ” ये कैसी है बदगुमानी
शक उस को मेरे गुमान पर है |

 
२१.
नाला ए नारसा नहीं कुछ भी ।
अब मुझे आसरा नहीं कुछ भी ।

पूछते हैं वो क्या नहीं कुछ भी ।
क्या कहूँ हौसला नहीं कुछ भी ।

हो वफ़ा या जफ़ा मुहब्बत की
इब्तदा इन्तेहा नहीं कुछ भी ।

मैं हूँ किश्ती है मौज ए तूफाँ है
साहिल ए नाख़ुदा नहीं कुछ भी ।

रोज़ करते हैं यूँ जफ़ा मुझ पर
जैसे मेरी वफ़ा नहीं कुछ भी ।

गुफ़ता ए अक़ल कुछ तो है वरना
जो जुनूँ ने कहा नहीं कुछ भी ।

कट गई उम्र पा ए साक़ी पर
तलखियों का गिला नहीं कुछ भी ।

हो मेरी ख़ामुशी पे चींबजबीं
अभी मैंने कहा नहीं कुछ भी ।

आज़माईश अगर वफ़ा की न हो
इम्तिहान ए वफ़ा नहीं कुछ भी ।

मेरी दुनिया में क्यूँ सिवाए अजल
ज़िन्दगी का सिला नहीं कुछ भी ।

वादी ए ग़म में ला के छोड़ दिया
अब खुला, रहनुमा नहीं कुछ भी ।

ऐ ” ज़िया ” इन बुतों के इश्क़ में क्यूँ
नारवा और रवा नहीं कुछ भी ।

 
२२.
देता है जलवा आँख को दावत ही अब कहाँ ?
आती है लब पे दिल की हिकायत ही अब कहाँ ?

ये ग़लग़ला ये शोर ये हँगामा शाम-ए ग़म,
है इन्तिज़ार-ए सुबह-ए क़यामत ही अब कहाँ ?

काँटे वही हैं फूल वही हैं बुलबुलें वही,
लेकिन अजूबाकारी-ए वहशत ही अब कहाँ ?

क्या आँख खोलिए यहाँ पहचानिए किसे,
आईनाख़ाने में कोई सूरत ही अब कहाँ ?

इस कारोबार-ए ज़ीस्त की मसरूफ़ियत न पूछ,
इन्सान को है मरने की फुरसत ही अब कहाँ ?

दिल के निहाँकदे में कोई जलवाबार है,
परदे की रह गई है ज़रूरत ही अब कहाँ ?

कहने को तो ग़ज़ल है मगर इस में ऐ ’ज़िया’,
शोख़ी ही अब कहाँ है शरारत ही अब कहाँ ?

 
२३.
दुनिया मेरी नज़र से तुझे देखती रही ।
फिर मेरे देखने में बता क्या कमी रही ।

क्या ग़म अगर क़रार-ओ सुकूँ की कमी रही,
ख़ुश हूँ कि कामयाब मेरी ज़िन्दगी रही ।

इक दर्द था जिगर में जो उठता रहा मुदाम,
इक आग़ थी कि दिल में बराबर लगी रही ।

दामन दरीदा लब पे फुगाँ आँख खूंचकाँ,
गिर कर तेरी नज़र से मेरी बेकसी रही ।

आई बहार जाम चले मय लुटी मगर,
जो तिशनगी थी मुझको वही तिशनगी रही ।

खोई हुई थी तेरी तजल्ली में कायनात,
फिर भी मेरी निगाह तुझे ढूँढती रही ।

जलती रही उम्मीद की शमएँ तमाम रात
मायूस दिल में कुछ तो ’ज़िया’ रोशनी रही ।

 
२४.
दिल ए आदम को वहशत है ज़मीं से |
हवा आई कोई ख़ुल्द ए बरीं से |

जो निकली थी दिल ए अन्दोहगीं से |
जली बिजली उस आह ए आतिशीं से |

हुई तैयारियाँ दार ओ रसन की
अनालहक़ की सदा आई कहीं से |

जहां से क़हक़हे उठे थे शायद
मेरे आँसू भी आए हैं वहीँ से |

चली दुनिया में रस्म ए सजदारेज़ी
कुछ उनके दर से कुछ मेरी जबीं से |

यकीं के पाँव में लग़ज़ीश न आए
बदल जाती हैं तक़दीरें यकीं से |

मुहब्बत की ” ज़िया ” सरशारियाँ हैं
नहीं मुझ को ग़रज़ दुनिया ओ दीं से |

 
२५.
तुम चले आए तो सारी बेकली जाती रही ।
ज़िन्दगी में थी जो यकगूना कमी जाती रही ।

दिल की धड़कन तेज़ हो जाती है जिस को देख कर,
सुरमगीं आँखों की वो जादूगरी जाती रही ।

उन से हम और हम से वो कुछ इस तरह घुल-मिल गए,
दो मुलाक़ातों में सब बेगानगी जाती रही ।

दिल लगाते ही हुए रुख़सत क़रार-ओ सब्र-ओ होश,
जो मय्यसर थी कभी आसूदगी जाती रही ।

उन के जलवों में कुछ ऐसे खो गए होश-ओ हवास,
आशिक़ी में फ़िक्र-ए सुबह-ओ शाम भी जाती रही ।

ख़ार-ए इशरत में उलझ कर दामन-ए दिल रह गया,
थी जो लज़्ज़त इज़्तिराब-ए रूह की जाती रही ।

वो तो रुख़सत हो गए छा कर दिमाग़-ओ क़ल्ब पर,
याद उनकी दम-ब-दम आती रही जाती रही ।

रंग ले आई वफ़ाकोशी मेरी अन्जाम-ए कार,
मुझ से उनकी बेनयाज़ी बेरुखी जाती रही ।

दिल में रोशन शमा-ए उल्फ़त जब से की हमने ’ज़िया’,
ख़ुदनुमाई, ख़ुदरवी, ख़ुदपरवरी जाती रही ।

 
२६.
तमाशा है सब कुछ मगर कुछ नहीं ।
सिवाए फ़रेब-ए नज़र कुछ नहीं ।

ज़माना ये है रक्स-ए ज़र्रात का,
हिकायात-ए ओ क़मर कुछ नहीं ।

सितारों से आगे मेरी मंज़िलें,
बला से अगर बाल-ओ पर कुछ नहीं ।

मुहब्बत की ये महवीयत क्या कहूँ,
वो आए तो अपनी ख़बर कुछ नहीं ।

मेरा शौक़ ए मंज़िल है साबित क़दम,
कोई रहज़न-ओ राहबर कुछ नहीं ।

मुहब्बत है इन्सान की आबरू,
बग़ैर-ए मुहब्बत बसर कुछ नहीं ।

’ज़िया’ तो मरीज़-ए ग़म-ए इश्क़ है
इलाज इसका ऐ चारागर, कुछ नहीं ।

 
२७.
छोड़ो ये दुनिया की बातें
आओ प्यार की बातें कर लें
ख़ाली है मुद्दत से झोली
उस को आस उम्मीद से भर लें
आस उम्मीद न हो तो इन्साँ
जीते जी ही मर जाता है
टक्कर क्या तूफ़ान से लेगा
जो इक मौज से डर जाता है

डर कर जीना मौत से बदतर
चलती फिरती ज़िंदा लाशें
सोई हुई जज़्बात की हलचल
कुचले हुए ज़हनों के सुकूँ में
ज़हन अगर बेदार न होंगे
खौफ़ दिलों पर तारी होगा
आग़ाज़ ओ अंजाम-ए हस्ती
मजबूरी , लाचारी होगा
इन मजबूर फ़िज़ाओं में हम
प्रीत और प्यार का रंग मिला दें
सहराओं और वीरानों को
सेराबी का भेद बता दें
चेहरों से हो दूर उदासी
रग रग दौड़े खून ए हस्ती
आज़ादी , आज़ाद रवी है
उनवान ए मज़मून ए हस्ती
राहें नई खुल जाएँ सब पर
कुल दुनिया का नक्शा बदले
होश ओ ख़िरद के दीवाने भी
क़ायल हों दिल की अज़मत के
मुफ़लिस की नादारी में भी
अंदाज़-ए शाही पैदा हो
इश्क में लोच इतना आ जाए
हुस्न की महबूबी पैदा हो
माह ए मुहब्बत की किरणों से
रोशन अपनी रातें कर लें
छोडो ये दुनिया की बातें
आओ प्यार की बातें कर लें

 
२८.
कल शाम नागहाँ सर ए राह मिल गई मुझे
फ़ितने क़दम-क़दम पे जगाती हुई ग़ज़ल
पूछा के आज पा ए सफ़र का है रुख़ किधर
बोली नज़र झुका के लज्जाती हुई ग़ज़ल :
कहती हूँ दिल की बात जो फैली है शहर में
पर्दा ही उठ गया है तो तुझ से छुपाऊँ क्या
महबूबा जिस की हूँ, मेरा महबूब है वही
सौदा है किस दयार का सर में, बताऊँ क्या
गरमी है बज़्म-ए शे’र में जिस की नवाओं से
मेरे खदंग ए नाज़ का बिस्मिल वही तो है
सरगर्दां कू ब कू हूँ मैं जिस की तलाश में
दिलबर मेरा वही , मेरी मंज़िल वही तो है

 
२९.
निशात अफरोज़ शाम ए रंगीन लताफतों को बढ़ा रही है
लिए हुए साज़ बदलियों का शबाब के गीत गा रही है
दिलों में बेताब वलवले हैं, दिमाग़ और होश खो चले हैं
निगाह के सामने तजल्ली बहार की जगमगा रही है
अगरचे ख़ुरशीद छुप गया है मगर अभी तक शुआ ए आखिर
कहीं कहीं बादलों में मंज़र हसीं ओ दिलकश बना रही है
निशात तक़सीम हो रही है, चमन चमन जन्नतें बनेंगी
टपक रही है जो बूँद रस की फ़लक से, गूँचे खिला रही है
दिलों में वहशत, सरों में सौदा, निगाह मुज़्तर, हवास ग़ायब
गरज गरज कर सियाह बदली हज़ार फ़ितने जगा रही है
हवा भी रंगीं, फ़िज़ा भी रंगीं,ज़मीं भी रंगीं, फ़लक भी रंगीं
ग़रूब ए ख़ुरशीद भी है रंगीं, तुल्लू ए शब् की झलक भी रंगीं

वो पैकर ए हुस्न जिस ने मेरे दिमाग़ को जज़्ब कर लिया है
निसार क़दमों पे जिस के, मुद्दत हुई दिल ए जार हो चुका है
मेरे तसव्वुर के आईने में है जिस का परतो जमाल ए एमन
जो मेरे टूटे हुए सफ़ीने का बहर ए हस्ती में नाख़ुदा है
जो मेरी आँखों की रोशनी है, जो मेरे दिल का क़रार ए मुतलक
जिसे मेरा हर नफ़स , समझ कर ख़ुदा का अवतार पूजता है
सिमट के जिस में समा रही हैं तमाम ताबानियाँ जहाँ की
ग़लत सरासर ग़लत जो मैं ये कहूँ के वो महताब-सा है
कि उस का दोनों जहाँ में सानी नहीं है कोई नहीं है कोई
वो आप ही है नज़ीर अपनी, वो आप ही अपना दूसरा है
वो सुन रही है मैं दास्ताँ उस को अपने दिल की सुना रहा हूँ
जो साज़ बूँदों का बज रहा है उसी पे मैं गीत गा रहा हूँ

ना ख़त्म हो गीत ये अबद तक, ये कैफ यूँ ही रहे ईलाही
रहे हमेशा मुहीत ए आलम ये शाम की पुरसुकूँ सियाही
ठहर अभी आफ़ताब ए रोशन ना डूब मग़रिब की पस्तीओं में
कि अहद ए उलफ़त की मेरे देनी पड़ेगी इक दिन तुझे गवाही
घटाओ ! तुम आज खूब बरसो उछाल दो कुल समुन्द्रों को
महल ओ मौक़े से बेताल्लुक है अब तुम्हारी ये कमनिगाही
वो सुन रही है फ़साना ए शौक़ मेरा और मुस्करा रही है
खामोशी ए हुस्न फिर है आमादा ए सितम, माईल ए तबाही
ये बन्दगान ए गुनाह ओ इसीयां हवस समझते हैं इश्क़ को भी
खटक रही है तमाम दुनिया की आँख में मेरी बेगुनाही
हवा ज़माने की है मुखालिफ़, ख़ुदा मुझे कामयाब कर दे
यहीं ठहर जाए तौसन ए वक़्त ये दुआ मुस्तजाब कर दे

 
३०.
ग़म ए अन्जाम ए शादमानी से ।
दिल हिरासाँ है कामरानी से ।

निकहत ओ रंग ए गुल से क्या निसबत
मेरे ग़म से तेरी जवानी से ।

कारोबार ए हवस चला क्या क्या
जिन्स ए इखलास की गिरानी से ।

हुआ हमवार जादा ए मंज़िल
पा ए हिम्मत की सख्तजानी से ।

सोज़ भी अश्क ए ग़म में शामिल है
आग़ का मेल और पानी से ?

क्यूँ मेरा दिल धड़कने लगता है
कैस ओ फ़रहाद की कहानी से ।

सीख ली बुलबुलों ने नगमागरी
ऐ ” ज़िया ” तेरी ख़ुशबयानी से ।

 
३१.
ख़ूबसूरत फ़रेब शादी है |
फ़ितरत ए ग़म ही मुस्करा दी है |
हम ने छेड़ा है जब भी साज़ ए जुनूँ
तीरगी शब की गुनगुना दी है |
 
आलम ए वज्द ओ बेख़ुदी में तुझे
हम ने आवाज़ बारहा दी है |
 
ऐ ज़मीं हम ने तेरे क़दमों पर
आसमाँ की जबीं झुका दी है |
 
हम ने तूफ़ान ए शोर ओ शेवन से
किश्ती ए जब्र डगमगा दी है |
 
कोशिश ए अमन तो बजा है मगर
आदमी फ़ितरतन फ़सादी है |
 
ऐ ख़ुदा तू ने अपने बन्दों को
ज़िन्दगी की कड़ी सज़ा दी है |
 
ऐ ” ज़िया ” क़लब ए इश्क़ परवर में
हुस्न ने आग-सी लगा दी है |
३२.
ख़ुलूस-ओ वफ़ा का सिला पाइएगा ।
हुजूम-ए तमन्ना में खो जाइएगा ।

दिए जाएगा ग़म कहाँ तक ज़माना,
कहाँ तक ज़माने का ग़म खाइएगा ।

जिसे दीजिएगा सबक़ डूबने का,
उसे क़तरे क़तरे को तरसाइएगा ।

अँधेरों में दामन छुडाया है लेकिन,
उजालों से बच कर कहाँ जाइएगा ।

बढ़ाए चला जा रहा हूँ पतंगें,
न कब तक मेरे हाथ आप आइएगा ।

उधर हूर-ओ कौसर इधर जाम-ओ साक़ी,
किसे खोइएगा किसे पाइएगा ।

सहर ने रबाब र रग-ए गुन्चा छेड़ा,
‘ज़िया’ की ग़ज़ल अब कोई गाइएगा


३३.
ख़ुदसरी का भरम न खुल जाए ।
आदमी का भरम न खुल जाए ।

तीरगी का तिलिस्म टूट गया,
रोशनी का भरम न खुल जाए ।

मौत का राज़ फ़ाश तो कर दूँ,
ज़िन्दगी का भरम न खुल जाए ।

हुस्न मुख़तार और मैं मजबूर,
आशिक़ी का भरम न खुल जाए ।

कौन दीवानगी को दे इलज़ाम,
आगही का भरम न खुल जाए ।

कीजिए रहबरों का क्या शिकवा,
गुमरही का भरम न खुल जाए ।

इम्तिहान-ए वफ़ा दुरुस्त मगर,
जोर ही का भरम न खुल जाए ।

ऐ मुगन्नी ग़ज़ल ’ज़िया’ की न छेड़
शायरी का भरम ही न खुल जाए ।


३४.
इन्तज़ार ए सुबह ए नो है शाम से
रात कट जाए कहीं आराम से

जल उठे दिल में उम्मीदों के चिराग़
दी मुझे आवाज़ किसने बाम से

कारोबार ए ज़िन्दगी चलता रहा
इक मुसलसिल कोशिश ए नाकाम से

और कितनी दूर है मंज़िल अभी
पूछता हूँ लग़ज़िश ए हर गाम से

कूबकू सहरा ब सहरा दर ब दर
हम रहे आवारा ओ बदनाम से

इशरत ए आग़ाज़ का अन्दाज़ा कर
ऐ दिल ए मुज़तर ग़म ए अन्जाम से

तोड़ ही दी हमने तोबा ऐ ज़िया
तंग आकर गरदिश ए अय्याम से


३५.
इन्तज़ार ए सुबह ए नो है शाम से
रात कट जाए कहीं आराम से

जल उठे दिल में उम्मीदों के चिराग़
दी मुझे आवाज़ किसने बाम से

कारोबार ए ज़िन्दगी चलता रहा
इक मुसलसिल कोशिश ए नाकाम से

और कितनी दूर है मंज़िल अभी
पूछता हूँ लग़ज़िश ए हर गाम से

कूबकू सहरा ब सहरा दर ब दर
हम रहे आवारा ओ बदनाम से

इशरत ए आग़ाज़ का अन्दाज़ा कर
ऐ दिल ए मुज़तर ग़म ए अन्जाम से

तोड़ ही दी हमने तोबा ऐ ज़िया
तंग आकर गरदिश ए अय्याम से


३६.
इक क़यामत मेरी हयात बनी |
गरमी ए बज़्म ए कायनात बनी |

आशना ए सुकूँ थी ला इलमी
आगही फ़िक्र ए शशजहात बनी |

मौत ने जब फ़ना की दी तालीम
वो घडी मुश्दा ए हयात बनी |

मौसम ए बरशिगाल ख़ूब आया
इक दुल्हन सारी कायनात बनी |

दामन ए ज़ब्त में सुकूँ पाया
शोर ओ शेवन से जब न बात बनी |

फिर वही रात सुबह बनती है
जो सहर शाम हो के रात बनी |

जब्र का सब तिलिस्म टूट गया
जब ईरादों की कायनात बनी |

किस ज़मीं में ग़ज़ल कही है ” ज़िया ”
कि बनाए से भी न बात बनी |


३७.
अश्क़ पलकों पे फिर सजाऊं क्या ?
फिर मुहब्बत के गीत गाऊं क्या ?

दिल ही जब बुझ गया तो ऐ शब ए ग़म
आँधियों में दिये जलाऊं क्या ?

आफ़तें हैं तो ज़िन्दगी भी है
आफ़तों से निजात पाऊं क्या ?

राज़दार ए अलम, शरीक ए ग़म
दर ओ दीवार को बनाऊं क्या ?

तीरह ओ तार है मेरी दुनिया
मेहर ओ माह का फ़रेब खाऊं क्या ?

लाख परदे , हज़ार चहरे हैं
ऐ ” ज़िया ” अब नज़र हटाऊं क्या ?


३८.
अभी उम्मीद ए क़रार ओ सुकूँ नहीं मुझको |
अभी तो इश्क़ के देने हैं इम्तिहाँ मुझको |

कभी गुलों कभी मौजों कभी सितारों में
तलाश ए हुस्न तो रखती है सरगराँ मुझको |

न दैर में न हरम में झुकी जबीन ए नियाज़
कहीं तो मिलता तेरा सँग ए आस्ताँ मुझको |

अज़ल में जब हुई तक़सीम ए आलम ए फ़ानी
बतौर ए ख़ास मिला सोज़ ए जाविदाँ मुझको |

मेरे बगैर ” ज़िया ” कारवाँ रवाना हुआ
मिली अमाँ तो तह ए गरद ए कारवाँ मुझको |


३९.
अहसास को ज़ुबां न मिली किस तरह कहूँ
कैफ़ियत ए लतीफ़ जो रंज ओ मुहन में है |

शरह ओ बयान ए ग़म की इजाज़त मिली मगर
अपनी ख़बर ही किस को तेरी अन्जुमन में है |

ताब ए नज़र अगर हो तमाशा करें कलीम
अब हर तरफ़ ज़िया ही ” ज़िया ” अन्जुमन में है |


४०.
अजनबी दुनिया में तेरा आशना मैं ही तो था ।
दी सज़ा तू ने जिसे वो बेख़ता मैं ही तो था ।

मैं जो टूटा हो गया हंगामा-ए महशर बपा,
तार-ए साज़-ए बेसदा-ओ बेनवा मैं ही तो था ।

नाख़ुदा-ओ मौज-ए तूफाँ की शिकायत क्या करूँ,
जिसने ख़ुद किश्ती डुबो दी ऐ ख़ुदा, मैं ही तो था ।

उस को बाहर ला के रुसवा कर दिया बाज़ार में,
जो मुझे अन्दर से देता था सदा मैं ही तो था ।

ता अबद करना पड़ेगा सुबह-ए नौ का इन्तिज़ार,
मुन्तज़िर रोज़-ए अज़ल से शाम का मैं ही तो था ।

हो गया मसरूर बुत अपनी अना को तोड़ कर,
दरमियान-ए मा ओ तो इक फ़ासला मैं ही तो था ।

था ’ज़िया’ अहसास-ए तनहाई भरी महफ़िल में भी
मुझ से रह कर भी जुदा जो था मेरा मैं ही तो था ।


४१.
वो इठलाती हुई आई, वो बल खाती हुई आई
लुटाती मस्तियाँ,पैमाने छलकती हुई आई

लचकती, झूमती, महशर को ठुकराती हुई आई
बसद अंदाज़ आई, बरक़ लहराती हुई आई

महकती,झिलमिलाती, नाचती, गाती हुई आई
नसीम ए सुबह की मानिन्द इतराती हुई आई

अदा ओ नाज़ ओ शोख़ी, मुस्कराहट, बांकपन, जोबन
हज़ारों बिजलियाँ महफ़िल में चमकाती हुई आई

शबाब ओ शेअर की तकमील का इक पैकर ए रंगी
ख़याल ओ ज़हन ए शायर पर सितम ढाती हुई आई

सहर की ताज़गी में नौशगुफ़्ता फूल की सूरत
चमनवालों में हँसती और इतराती हुई आई

सियाह गेसू, जबीं रोशन, नज़र तीखी, लब ए लाली
हज़ारों तीर अहल ए दिल पे बरसाती हुई आई

नक़ूश ए पा से लाखों गुल कतरती राह ए उलफ़त में
लज्जाती, मुस्कराती, नूर बरसाती हुई आई

लिए गँग ओ जमुन अपनी नशीली, मस्त आँखों में
घटा बन कर दिमाग़ ओ रूह पर छाती हुई आई

दिलों में हश्र ए अहसासात बरपा क्यूँ न हो जाता
रगों में ज़िन्दगी की बरक़ दौड़ाती हुई आई

४२.
मुज़्दा ए दिल, फिर गुलिस्ताँ में बहार आने को है
अज़ सर ए नौ लाला ओ गुल पर निखार आने को है
भीगी भीगी हैं हवाएँ रूहपरवर है फ़िज़ा
फिर कोई काली घटा दीवानावार आने को है
इन्क़लाबी सूर फूँका जा रहा है दहर में
ग़मज़दों को इशरत ए ग़म साज़गार आने को है
चाँदनी सोई हुई है वादी ए गुलपोश में
कोह से गाता हुआ कोई आबशार आने को है
ग़र्क़ ए मय होने को है फिर आलम ए इम्काँ तमाम
साक़ी ए मख़मूर सू ए जू ए बार आने को है
गूँजते हैं साज़ ए पैमाना पे नग़मात ए शराब
मयकदे की सिमत हर परहेज़गार आने को है
फिर नज़र के सामने है जलवाज़ार ए रू ए दोस्त
रूह को आराम और दिल को क़रार आने को है
दिल से दाग़ ए सोज़ ए नाकामी फ़ना हो जाएगा
अब बहार आती है, आलम गुलक़दा हो जाएगा


४३.
जब घटाएँ आस्माँ पर चार जानिब छाएँगी
बादा ए तसनीम ओ कौसर ख़ाक पर बरसाएँगी
मुझको तड़पाएँगी लेकिन तुझको भी तड़पाएंगी
तू मुझे याद आएगी और मैं तुझे याद आऊँगा

जब चमन में मुनाकिद होगी गुलों की अंजुमन
रक्स पर आमादा होगी अंदलीब ए नाग्माज़ंन
हर कली के लब पे होगा नारा ए तोबा शिकन
दिल मुझे तड़पाएगा और दिल को मैं तड़पाऊँगा

जब मेरा साक़ी मुझे भर-भर के देगा जाम-ए मय
भूल जाऊँगा के दुनिया में कोई शय ग़म भी है
साज़ ए हस्ती से करूँगा इक नई ईजाद नै
और उसी से मैं नई मस्ती के नगमे गाऊँगा

तूर का रूमान फिर दुनिया में होगा जलवागर
नूर से भर कर छलक जाएगा हर जाम ए नज़र
मुन्तज़िर गुल होंगे आग़ोश ए मुसर्रत खोल कर
मैं भी अपने बाजूओं को दूर तक फैलाऊँगा

जब माह-ओ ख़ुरशीद हो जाएँगे बेनूर ओ ज़िया
हर तरफ छा जाएगा जब ज़ुल्मतों का सिलसिला
रहनुमा को भी ना होगा राह ए मंजिल का पता !
खुद भी बहकूँगा, ज़माने को भी मैं बहकाऊँगा

जब ख़ुदी को भूल कर हो जाएगी दुनिया तबाह
हर दिल ए नाकाम से निकलेगी इक पुरसोज़ आह
दीन-ओ दुनिया में किसी सूरत ना होगा जब निबाह
मैं ही फिर भटके हुओं को रास्ते पर लाऊँगा

जब तिलिस्म-ए रंग-ओ बू को तोड़ कर निकलूँगा मैं
गुलशन ए हस्ती का भांडा फोड़ कर निकलूँगा मैं
शोरिश आबाद ए जहाँ की छोड़ कर निकलूँगा मैं
अपने माज़ी पर नज़र डालूँगा और पछताऊँगा

जब सुकूँ की गोद में मदहोश होगी कायनात
नगमाजारों में सरापागोश होगी कायनात
सूरत ए हंगामा ए ख़ामोश होगी कायनात
मैं उठूँगा और सुकूँ पर बिजलियां चमकाऊँगा

जब नहीं होगा बुलंद-ओ पस्त में कुछ इम्तीआज़
नेकियाँ होंगी निगुंसर , ऐब होंगे सरफ़राज़
भूल जाएगा ज़माना जब हक ओ बातिल का राज़
फिर वही दौर ए शऊर अक़ल वापस लाऊँगा

जब खिज़ाँ बेकैफियों को साथ लेकर आएगी
जब गुल-ओ लाला के चेहरे पर उदासी छाएगी
जब बिसात ए बादा गुलशन से उठा ली जाएगी
खो कर इस दुनिया को फिर मैं आप भी खो जाऊँगा