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सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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शनिवार, 16 फ़रवरी 2013

जॉन एलिया


जन्म: 14 दिसंबर 1931,अनेक भाषाओं के जानकार जॉन एलिया का जन्म उत्तर प्रदेश के अमरोहा शहर में हुआ था और वे मशहूर फ़िल्मकार और शायर कमाल अमरोही के भाई थे.उनके परिवार में दो बेटियाँ और एक बेटा हैं और उनकी पत्नी ज़ाहिदा हिना एक मशहूर लेखक और स्तंभकार हैं.
कुछ प्रमुख कृतियाँ: शायद(1990), यानी(2003),गुमान(2004)
निधन: 8 नवंबर 2004 (कराची-पाकिस्तान)
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१.

उसके पहलू से लग के चलते हैं
हम कहीं टालने से टलते हैं

मै उसी तरह तो बहलता हूँ
और सब जिस तरह बहलतें हैं

वो है जान अब हर एक महफ़िल की
हम भी अब घर से कम निकलते हैं

क्या तकल्लुफ्फ़ करें ये कहने में
जो भी खुश है हम उससे जलते हैं


२.
अख़लाक़ न बरतेंगे मुदारा न करेंगे
अब हम किसी शख़्स की परवाह न करेंगे

कुछ लोग कई लफ़्ज़ ग़लत बोल रहे हैं
इसलाह मगर हम भी अब इसलाह न करेंगे

कमगोई के एक वस्फ़-ए-हिमाक़त है बहर तो
कमगोई को अपनाएँगे चहका न करेंगे

अब सहल पसंदी को बनाएँगे वातिरा
ता देर किसी बाब में सोचा न करेंगे

ग़ुस्सा भी है तहज़ीब-ए-तआल्लुक़ का तलबगार
हम चुप हैं भरे बैठे हैं गुस्सा न करेंगे

कल रात बहुत ग़ौर किया है सो हम ए “जॉन”
तय कर के उठे हैं के तमन्ना न करेंगे


३.
उम्र गुज़रेगी इम्तहान में क्या?
दाग ही देंगे मुझको दान में क्या?

मेरी हर बात बेअसर ही रही
नुक्स है कुछ मेरे बयान में क्या?

बोलते क्यो नहीं मेरे अपने
आबले पड़ गये ज़बान में क्या?

मुझको तो कोई टोकता भी नहीं
यही होता है खानदान मे क्या?

अपनी महरूमिया छुपाते है
हम गरीबो की आन-बान में क्या?

वो मिले तो ये पूछना है मुझे
अब भी हूँ मै तेरी अमान में क्या?

यूँ जो तकता है आसमान को तू
कोई रहता है आसमान में क्या?

है नसीम-ए-बहार गर्दालूद
खाक उड़ती है उस मकान में क्या

ये मुझे चैन क्यो नहीं पड़ता
एक ही शक्स था जहान में क्या?


४.
आगे असबे खूनी चादर और खूनी परचम निकले
जैसे निकला अपना जनाज़ा ऐसे जनाज़े कम निकले

दौर अपनी खुश-दर्दी रात बहुत ही याद आया
अब जो किताबे शौक निकाली सारे वरक बरहम निकले

है ज़राज़ी इस किस्से की, इस किस्से को खतम करो
क्या तुम निकले अपने घर से, अपने घर से हम निकले

मेरे कातिल, मेरे मसिहा, मेरी तरहा लासनी है
हाथो मे तो खंजर चमके, जेबों से मरहम निकले

‘जॉन’ शहादतजादा हूँ मैं और खूनी दिल निकला हूँ
मेरा जूनू उसके कूचे से कैसे बेमातम निकले


५.
अब जुनूँ कब किसी के बस में है
उसकी ख़ुशबू नफ़स-नफ़स में है

हाल उस सैद का सुनाईए क्या
जिसका सैयाद ख़ुद क़फ़स में है

क्या है गर ज़िन्दगी का बस न चला
ज़िन्दगी कब किसी के बस में है

ग़ैर से रहियो तू ज़रा होशियार
वो तेरे जिस्म की हवस में है

बाशिकस्ता बड़ा हुआ हूँ मगर
दिल किसी नग़्मा-ए-जरस में है

‘जॉन’ हम सबकी दस्त-रस में है
वो भला किसकी दस्त-रस में है


६.
एक ही मुश्दा सुभो लाती है
ज़हन में धूप फैल जाती है

सोचता हूँ के तेरी याद आखिर
अब किसे रात भर जगाती है

फर्श पर कागज़ो से फिरते है
मेज़ पर गर्द जमती जाती है

मैं भी इज़न-ए-नवागरी चाहूँ
बेदिली भी तो नब्ज़ हिलाती है

आप अपने से हम सुखन रहना
हमनशी सांस फूल जाती है

आज एक बात तो बताओ मुझे
ज़िन्दगी ख्वाब क्यो दिखाती है

क्या सितम है कि अब तेरी सूरत
गौर करने पर याद आती है

कौन इस घर की देख भाल करे
रोज़ एक चीज़ टूट जाती है


७.
रूह प्यासी कहाँ से आती है
ये उदासी कहाँ से आती है

दिल है शब दो का तो ऐ उम्मीद
तू निदासी कहाँ से आती है

शौक में ऐशे वत्ल के हन्गाम
नाशिफासी कहाँ से आती है

एक ज़िन्दान-ए-बेदिली और शाम
ये सबासी कहाँ से आती है

तू है पहलू में फिर तेरी खुशबू
होके बासी कहाँ से आती है


८.
हर बार मेरे सामने आती रही हो तुम,
हर बार तुम से मिल के बिछड़ता रहा हूँ मैं,

तुम कौन हो ये ख़ुद भी नहीं जानती हो तुम,
मैं कौन हूँ ये ख़ुद भी नहीं जानता हूँ मैं,

तुम मुझ को जान कर ही पड़ी हो आज़ाब में,
और इस तरह ख़ुद अपनी सज़ा बन गया हूँ मैं,
९.
एक हुनर है जो कर गया हूँ मैं
सब के दिल से उतर गया हूँ मैं

कैसे अपनी हँसी को ज़ब्त करूँ
सुन रहा हूँ के घर गया हूँ मैं

क्या बताऊँ के मर नहीं पाता
जीते जी जब से मर गया हूँ मैं

अब है बस अपना सामना दरपेश
हर किसी से गुज़र गया हूँ मैं

वो ही नाज़-ओ-अदा, वो ही ग़मज़े
सर-ब-सर आप पर गया हूँ मैं

अजब इल्ज़ाम हूँ ज़माने का
के यहाँ सब के सर गया हूँ मैं

कभी खुद तक पहुँच नहीं पाया
जब के वाँ उम्र भर गया हूँ मैं

तुम से जानां मिला हूँ जिस दिन से
बे-तरह, खुद से डर गया हूँ मैं

कू–ए–जानां में सोग बरपा है
के अचानक, सुधर गया हूँ मैं


१०.
हम तो जैसे यहाँ के थे ही नहीं|
धूप थे सायबाँ के थे ही नहीं|

रास्ते कारवाँ के साथ रहे,
मर्हले कारवाँ के थे ही नहीं|

अब हमारा मकान किस का है,
हम तो अपने मकाँ के थे ही नहीं|

इन को आँधि में ही बिखरना था,
बाल-ओ-पर यहाँ के थे ही नहीं|

उस गली ने ये सुन के सब्र किया,
जाने वाले यहाँ के थे ही नहीं|

हो तेरी ख़ाक-ए-आस्ताँ पे सलाम,
हम तेरे आस्ताँ के थे ही नहीं|


११.
यह गम क्या दिल की आदत है? नहीं तो
किसी से कुछ शिकायत है? नहीं तो

है वो इक ख्वाब-ए-बे ताबीर इसको
भुला देने की नीयत है? नहीं तो

किसी के बिन किसी की याद के बिन
जिए जाने की हिम्मत है ? नहीं तो

किसी सूरत भी दिल लगता नहीं? हाँ
तू कुछ दिन से यह हालत हैं? नहीं तो

तेरे इस हाल पर हैं सब को हैरत
तुझे भी इस पर हैरत है? नहीं तो

वो दरवेशी जो तज कर आ गया…..तू
यह दौलत उस की क़ीमत है? नहीं तो

हुआ जो कुछ यही मक़्सूम था क्या
यही सारी हकायत है ? नहीं तो

अज़ीयत नाक उम्मीदों से तुझको
अमन पाने की हसरत है? नहीं तो


१२.
महक उठा है आँगन इस ख़बर से
वो ख़ुशबू लौट आई है सफ़र से

जुदाई ने उसे देखा सर-ए-बाम
दरीचे पर शफ़क़ के रंग बरसे

मैं इस दीवार पर चढ़ तो गया था
उतारे कौन अब दीवार पर से

गिला है एक गली से शहर-ए-दिल की
मैं लड़ता फिर रहा हूँ शहर भर से

उसे देखे ज़माने भर का ये चाँद
हमारी चाँदनी छाए तो तरसे

मेरे मानन गुज़रा कर मेरी जान
कभी तू खुद भी अपनी रहगुज़र से


१३.
बेदिली! क्या यूँ ही दिन गुजर जायेंगे
सिर्फ़ ज़िन्दा रहे हम तो मर जायेंगे

ये खराब आतियाने, खिरद बाख्ता
सुबह होते ही सब काम पर जायेंगे

कितने दिलकश हो तुम कितना दिलजूँ हूँ मैं
क्या सितम है कि हम लोग मर जाएंगे


१४.
दिल ने वफ़ा के नाम पर कार-ए-जफ़ा नहीं किया
ख़ुद को हलाक कर लिया ख़ुद को फ़िदा नहीं किया

कैसे कहें के तुझ को भी हमसे है वास्ता कोई
तूने तो हमसे आज तक कोई गिला नहीं किया

तू भी किसी के बाब में अहद-शिकन हो ग़ालिबन
मैं ने भी एक शख़्स का क़र्ज़ अदा नहीं किया

जो भी हो तुम पे मौतरिज़ उस को यही जवाब दो
आप बहुत शरीफ़ हैं आप ने क्या नहीं किया

जिस को भी शेख़-ओ-शाह ने हुक्म-ए-ख़ुदा दिया क़रार
हमने नहीं किया वो काम हाँ बा-ख़ुदा नहीं किया

निस्बत-ए-इल्म है बहुत हाकिम-ए-वक़्त को अज़ीज़
उस ने तो कार-ए-जेहन भी बे-उलामा नहीं किया


१५.
तू भी चुप है मैं भी चुप हूँ यह कैसी तन्हाई है
तेरे साथ तेरी याद आई, क्या तू सचमुच आई है

शायद वो दिन पहला दिन था पलकें बोझल होने का
मुझ को देखते ही जब उन की अँगड़ाई शरमाई है

उस दिन पहली बार हुआ था मुझ को रफ़ाक़ात का एहसास
जब उस के मलबूस की ख़ुश्बू घर पहुँचाने आई है

हुस्न से अर्ज़ ए शौक़ न करना हुस्न को ज़ाक पहुँचाना है
हम ने अर्ज़ ए शौक़ न कर के हुस्न को ज़ाक पहुँचाई है

हम को और तो कुछ नहीं सूझा अलबत्ता उस के दिल में
सोज़ ए रक़बत पैदा कर के उस की नींद उड़ाई है

हम दोनों मिल कर भी दिलों की तन्हाई में भटकेंगे
पागल कुछ तो सोच यह तू ने कैसी शक्ल बनाई है

इश्क़ ए पैचान की संदल पर जाने किस दिन बेल चढ़े
क्यारी में पानी ठहरा है दीवारों पर काई है

हुस्न के जाने कितने चेहरे हुस्न के जाने कितने नाम
इश्क़ का पैशा हुस्न परस्ती इश्क़ बड़ा हरजाई है

आज बहुत दिन बाद मैं अपने कमरे तक आ निकला था
ज्यों ही दरवाज़ा खोला है उस की खुश्बू आई है

एक तो इतना हब्स है फिर मैं साँसें रोके बैठा हूँ
वीरानी ने झाड़ू दे के घर में धूल उड़ाई है


१६.
तुम हक़ीक़त नहीं हो हसरत हो
जो मिले ख़्वाब में वो दौलत हो

तुम हो ख़ुशबू के ख़्वाब की ख़ुशबू
औए इतने ही बेमुरव्वत हो

तुम हो पहलू में पर क़रार नहीं
यानी ऐसा है जैसे फुरक़त हो

है मेरी आरज़ू के मेरे सिवा
तुम्हें सब शायरों से वहशत हो

किस तरह छोड़ दूँ तुम्हें जानाँ
तुम मेरी ज़िन्दगी की आदत हो

किसलिए देखते हो आईना
तुम तो ख़ुद से भी ख़ूबसूरत हो

दास्ताँ ख़त्म होने वाली है
तुम मेरी आख़िरी मुहब्बत हो


१७.
तुम जिस ज़मीन पर हो मैं उस का ख़ुदा नहीं
बस सर- ब-सर अज़ीयत-ओ-आज़ार ही रहो

बेज़ार हो गई हो बहुत ज़िन्दगी से तुम
जब बस में कुछ नहीं है तो बेज़ार ही रहो

तुम को यहाँ के साया-ए-परतौ से क्या ग़रज़
तुम अपने हक़ में बीच की दीवार ही रहो

मैं इब्तदा-ए-इश्क़ में बेमहर ही रहा
तुम इन्तहा-ए-इश्क़ का मियार ही रहो

तुम ख़ून थूकती हो ये सुन कर ख़ुशी हुई
इस रंग इस अदा में भी पुरकार ही रहो

मैंने ये कब कहा था के मुहब्बत में है नजात
मैंने ये कब कहा था के वफ़दार ही रहो

अपनी मता-ए-नाज़ लुटा कर मेरे लिये
बाज़ार-ए-इल्तफ़ात में नादार ही रहो


१८.
ख़ुद से हम इक नफ़स हिले भी कहाँ|
उस को ढूँढें तो वो मिले भी कहाँ|

ख़ेमा-ख़ेमा गुज़ार ले ये शब,
सुबह-दम ये क़ाफिले भी कहाँ|

अब त’मुल न कर दिल-ए- ख़ुदकाम,
रूठ ले फिर ये सिलसिले भी कहाँ|

आओ आपस में कुछ गिले कर लें,
वर्ना यूँ है के फिर गिले भी कहाँ|

ख़ुश हो सीने की इन ख़राशों पर,
फिर तनफ़्फ़ुस के ये सिले भी कहाँ|


१९.
ख़ामोशी कह रही है, कान में क्या
आ रहा है मेरे, गुमान में क्या

अब मुझे कोई, टोकता भी नहीं
यही होता है, खानदान में क्या

बोलते क्यों नहीं, मेरे हक़ में
आबले
 पड़ गये, ज़बान में क्या

मेरी हर बात, बे-असर ही रही
नुक़्स है कुछ, मेरे बयान में क्या

वो मिले तो ये, पूछना है मुझे
अब भी हूँ मैं तेरी, अमान में क्या

शाम ही से, दुकान-ए-दीद है बंद
नहीं नुकसान तक, दुकान में क्या

यूं जो तकता है, आसमान को तू
कोई रहता है, आसमान में क्या

ये मुझे चैन, क्यूँ नहीं पड़ता
इक ही शख़्स था, जहान में क्या


२०.
उसके पहलू से लग के चलते हैं
हम कहाँ टालने से टलते हैं

मैं उसी तरह तो बहलता हूँ यारों
और जिस तरह बहलते हैं

वोह है जान अब हर एक महफ़िल की
हम भी अब घर से कम निकलते हैं

क्या तकल्लुफ़ करें ये कहने में
जो भी खुश है हम उससे जलते हैं

है उसे दूर का सफ़र दरपेश
हम सँभाले नहीं सँभलते हैं

है अजब फ़ैसले का सहरा भी
चल न पड़िए तो पाँव जलते हैं

हो रहा हूँ मैं किस तरह बर्बाद
देखने वाले हाथ मलते हैं

तुम बनो रंग, तुम बनो ख़ुशबू
हम तो अपने सुख़न में ढलते हैं


२१.
कोई हालत नहीं ये हालत है
ये तो आशोभना सूरत है

अन्जुमन में ये मेरी खामोशी
गुर्दबारी नहीं है वहशत है

तुझ से ये गाह-गाह का शिकवा
जब तलक है बस गनिमत है

ख्वाहिशें दिल का साथ छोड़ गईं
ये अज़ीयत बड़ी अज़ीयत है

लोग मसरूफ़ जानते हैं मुझे
या मेरा गम ही मेरी फुरसत है

तंज़ पैरा-या-ए-तबस्सुम में
इस तक्ल्लुफ़ की क्या ज़रूरत है

हमने देखा तो हमने ये देखा
जो नहीं है वो ख़ूबसूरत है

वार करने को जाँनिसार आए
ये तो इसार है इनायत है

गर्म-जोशी और इस कदर क्या बात
क्या तुम्हें मुझ से कुछ शिकायत है

अब निकल आओ अपने अन्दर से
घर में सामान की ज़रूरत है

आज का दिन भी ऐश से गुज़रा
सर से पाँव तक बदन सलामत है


२२.
किसी लिबास की ख़ुशबू जब उड़ के आती है
तेरे बदन की जुदाई बहुत सताती है

तेरे बगैर मुझे चैन कैसे पड़ता है
मेरे बगैर तुझे नींद कैसे आती है

रिश्ता-ए-दिल तेरे ज़माने में
रस्म ही क्या निभानी होती

मुस्कुराए हम उससे मिलते वक्त
रो न पड़ते अगर खुशी होती

दिल में जिनका कोई निशाँ न रहा
क्यों न चेहरो पे वो रंग खिले

अब तो ख़ाली है रूह जज़्बों से
अब भी क्या तबाज़ से न मिले
23.

हमारे शौक के आंसू दो, खुशहाल होने तक
तुम्हारे आरज़ू केसो का सौदा हो चुका होगा

अब ये शोर-ए-हाव हूँ सुना है सारबानो ने
वो पागल काफिले की ज़िद में पीछे रह गया होगा

है निस-ए-शब वो दिवाना अभी तक घर नहीं आया
किसी से चन्दनी रातों का किस्सा छिड़ गया होगा