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सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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रविवार, 10 फ़रवरी 2013

सिराज अजमली


१.
रौशनी चस्मे-ख़रीदार में आती ही नहीं
कुछ कमी रौनक़े-बाजार मेँ आती ही नहीँ
उससे कुछ ऐसा तअल्लक है कि शिद्दत जिसकी
किसी पैरायए-इज़हार मेँ आती ही नहीँ
जो नहीँ होता बहुत होती है शोहरत उसकी
जो गुज़रती है वो अशआर मेँ आती ही नहीँ
ज़िन्दगी धूप मेँ जलने की है आदी इतनी
कमबख़त सायए दीवार मेँ आती ही नहीँ
सख्त हैराँ है सलाहीयते-ख़ैबर-शिकनी
वारिस-ए-हैदर-ए करार मेँ आती ही नहीँ
तुमने देखी है अजब कैफ़ियत-ए-चश्म सिराज
बात वो नर्गिस-ए-बीमार मेँ आती ही नहीँ
 
२.
बज़ाहिर जो नज़र आते हो तुम मसरुर ऐसे कैसे करते हो
बताना तो सही वीरानी-ए-दिल का नज़ारा कैसे करते हो
तुम्हारी इक अदा तो वाक़ई तारीफ़ के क़ाबिल है जानेमन
मैं शशदर हूँ कि उसको प्यार इतना बेतहाशा कैसे करते हो
सुना है लोग दरिया बन्द कर लेते है कूज़े में हुनर है ये
मगर तुम मुन्सिफ़ी से ये कहो क़तरे को दजलह कैसे करते हो
हमारी बात पर वो कान धरता ही नहीं है टाल जाता है
तुन्हें क्या-क्या नहीं हासिल कहों अर्ज़े तमन्ना कैसे करते हो
तअज्जुब है तअल्लुक़ याद रखना और आराम से सोना
अगर उसको भूला पाए नहीं अब तक सवेरा कैसे करते हो
तुम्हारी आह का ये कौन सा अन्दाज़ है वाज़ेह नहीं होता
मुअम्मा ये नहीं खुलता की तुम दरिया को सहरा कैसे करते हो
 
३.
वफ़ा तक़्सीम में कसरत की क़िल्लत लोग करते हैं
सितम इस तौर के बस नेक-तीनत लोग करते हैं
तेरी बस्ती में रहना और ख़िरद की राह पर चलना
न जाने इस क़दम की कैसे जुरअत लोग करते हैं
तदारुक दर्द-ए-बेदमाँ का करना चाहते है वो
बड़ी अख़लाक़मन्दी से अदावत लोग करते है
तअल्लुक़ की सभीशर्तों को पूरा कर रहें हैं हम
हमारी इस अदा पर आज हैरत लोग करते हैं
मेरा आहू तो इक दश्ते-ख़यालो-ख्वाब में गुम है
मगर इस बाब में क्यों इतनी वहशत लोग करते हैं
 
४.
फिर सूरज ने शहर पे अपने क़हर का यूँ आग़ाज़किया
जिन –जिन के लम्बे दामन थे उनका अफ़शा राज़ किया
ज़हर-ए-नसीहत,तीर-ए-मलामत,दर्से-ए-हक़िक़त सबने दिए
एक वही था जिसने मेरी हर आदत पर नाज़ किया
नक़द-ए-तअल्लुक़ खूब कमाया लेकिन खर्च!अरे तौबा
ये तो बताओ कल की खातिर क्या कुछ प्स अन्दाज़ किया
शहर में इस कैफ़ियत का है कौन मुहर्रिक कुछ तो कहो
जिस कैफ़ियत ने तुम को दिवानों में मुम्ताज़ किया
कुए-मलामत के बाशिन्दें तुम को सज्दा करते है
किस ने इस बस्ती में आख़िर ऐसे सर अफ़राज़ किया
दिल्ली में रहना है अगर तो तर्ज़-ए-मीर ज़रूरी है
उसने भी तो इश्क़ किया फिर याँ रहना आगाज़ किया
पहले उड़ने की दावत दी ता हद्दे इम्कान ‘सिराज’
फिर जाने क्यों ख़ुद ही उसने क़त्अ परे परवाज़ किया
 
५.
क्या दास्ताँ थी पहले बयाँ ही नहीं हुई
फिर यूँ हुआ कि सुबह अज़ाँ ही नहीं हुई
दुनिया कि दाश्ताँ से ज़ियादा न थी मुझे
यूँ सारी उम्र फ़िक्र-ए-ज़ियाँ ही नहीं हुई
गुलहाए-लुत्फ़ का उसे अम्बार करना था
कमबख़्त आरज़ू कि जवाँ ही नहीं हुई
ता सुबह मेरी लाश रही बेकफ़नतो क्या
बानूए-शाम नौहा-कुनाँ ही नहीं हुई
 
६.
ख़िदमत का बदल माँगे उलफ़त का सिला चाहे
क्या आदमी होगा वो अंजाम बुरा चाहे
इस दिल पे इनायत की ज़हमत नहीं करने का
आएगा वो मेरे घर लेकिन जो ख़ुदा चाहे
पलकों पे क़दम रखकर,दिल में तो चला आए
पर वज़्म ये कहती है आँखों की रज़ा चाहे
देता है हसीनाएं और दौलत-ओ-सरवर भी
लेकिन जो मैं कहता हूँ उसको न किया जाए
ख़्वाहिश है यही उसकी सब खैर हो हर जानिब
लेके अपने ही कूचे में तूफ़ान उठा चाहे
 
७.
बज़ाहिर जो नज़र आते हो तुम मसरुर ऐसे कैसे करते हो
बताना तो सही वीरानी-ए-दिल का नज़ारा कैसे करते हो
तुम्हारी इक अदा तो वाक़ई तारीफ़ के क़ाबिल है जानेमन
मैं शशदर हूँ कि उसको प्यार इतना बेतहाशा कैसे करते हो
सुना है लोग दरिया बन्द कर लेते है कूज़े में हुनर है ये
मगर तुम मुन्सिफ़ी से ये कहो क़तरे को दजलह कैसे करते हो
हमारी बात पर वो कान धरता ही नहीं है टाल जाता है
तुन्हें क्या-क्या नहीं हासिल कहों अर्ज़े तमन्ना कैसे करते हो
तअज्जुब है तअल्लुक़ याद रखना और आराम से सोना
अगर उसको भूला पाए नहीं अब तक सवेरा कैसे करते हो
तुम्हारी आह का ये कौन सा अन्दाज़ है वाज़ेह नहीं होता
मुअम्मा ये नहीं खुलता की तुम दरिया को सहरा कैसे करते हो
 
८.
ये तग़य्युर रुनुमा हो जाएगा सोचा न था
उसका दिल दर्द-अशना हो जाएगा सोचा न था
नित नए रागों की थी जिस साज़े हस्ती से उमीद
वो भी बे सौत-ओ-सदा हो जाएगा सोचा न था
यूँ सरापा इल्तिजा बनकर मिला था पहले रोज़
इतनी जल्दी वो ख़ुदा हो जाएगा सोचा न था
वो तअल्लुक़ जिसको दोनों ही समझते थे मज़ाक़
इस क़दर बा-क़ाएदा हो जाएगा सोचा न था
जिस सिराजे अजमली से थीं उमीदें बेशुमार
वो भी नज़्रे-वाह वा हो जाएगा सोचा न था
 
९.
बेसुकूनी में भी तस्कीन को पा लेते है
कौन है जिसको तसव्वुर में बसा लेते है
ज़हर आलूद फ़ज़ा से भी नहीं डरते तुम
साँस-तलवार को सीने से लगा लेते है

सारी दुनिया मुतअज्जिब हुई ग़व्वासी पर
जब उतरते हो गुहर बेरा-बहा लेते हो
लोग जीने का चलन तुमसे ही सीखेंगे कि तुम
क़हक़हे शहर-ए- ज़िया में भी लगा लेते हो
कौन होता है हरीफ़-ए-मये-मर्द अफ़गने-इश्क़
तुम हर ऐक दौर में इस राज़ को पा लेते हो
 
१०.
 
वीराँ बहुत है ख्वाब महल जागते रहो
हमसाए में खड़ी है अजल जागते रहो
जिसपर निसार नर्गिसे-शहला की तमकिनत
वो आँख इस घड़ी है सजल जागते रहो

ये लमह ए-उमीद भी है वक़्त-ए-ख़ौफ भी
हासिल न होगा इसका बदल जागते रहो

जिन बाज़ुओं में पे चारागरी का मदार था
वो तो कभी के हो गये शल जगाते रहो
ज़ेहनों में था इरादा-ए-शबख़ून कल तलक
अब हो रहा है रु-ब-अमल जगाते रहो

जिस रात में न हिज्र हो नए वस्ल अजमली
उस रात में कहाँ की ग़ज़ल जगाते रहो
 
११.
किऐ अश्क तुमने अक़ब राएगाँ
करोगे तबस्सुम को अब राएगाँ

ख़ुदा राम हो ही न पाए तो फिर
मुनाजात-ओ-इल्हाहे शब राएगाँ
लब-ओ-चश्म ओ रुख्सार तो देखते
जवाहिर कि ये बेसबब राएगाँ

सितारे मवाफ़िक रहे सुबह तक
गया हम लए गुर्गे-शब राएगाँ
कहा था कि मत उससे नाराज़ हो
किया सारा क़हर-ओ-ग़ज़ब राएगाँ

सिराज उससे कहना कि तशरीफ़ लाए
है दरअसल सूए अदब- राएगाँ
 
१२.
समुन्दरों में सराब और ख़ुश्कियों मे गिर्दाब देखता है
वो जगते और राह चलते अजब अजब ख़्वाब देखते हैं
कभी तो रिश्तों को ख़ून के भी फ़रेब-ओ-वहमो गुमान समझा
कभी नर्ग़े को दुश्मनों के हुजूमे अहबाब देखता है
शनावरी रास आए ऐसी समुन्दरों मे ही घर बना ले
कभी तलाशे गुहर में अपने तईं वो ग़र्क़ाब देखता है
कभी तक़द्दुस तवाफ़ का सा करे है तारी वो जिस्में-जाँ पर
सरों पे गिरता हुआ कभी लानतों का मीज़ाब देखता है
एख़ततामें-सफ़र की साअत्में हैरती सा हर एक सर पर
ग़ुबार-ओ-ख़ाल्शाक रास्तों के बशक्ले असबाब देखता है
 
१३.
गिरवी क़लम को रख दिया तलवारबेच आये
तुम अपने सारे असलहे इस बार बेच आये
तुर्रे का बाँकपन था तुझे किस क़दर अज़ीज़
और तुम उसी को बरसरे दरबार बेच आये
बदले में इक हसीन तबस्सुम के यार लोग
ताबो तवानो जुरअते इन्कार बेच आये
ख़ामोश रहना ठीक है सेहत के वास्ते
लेकिन ये क्या कि क़ूव्वते गुफ़्तार बेच आये
जिनकी जड़ों में दफ़्न थीं यादें तुम्हारियाँ
इस बार गाँव जाके वह अशजार बेच आये
क्या शक्ल अब बनाई है तुमने मियाँ सिराज
उसकी गली में जुब्बा-ओ-दस्तार बेच आये
 
१४.
क्या सोचते रहते हो तस्वीर बना करके
क्यों उससे नहीं कहते हो कुछ होंट हिला करके
घर उसने बनाया था इक सब्रो-रज़ा करके
मिट्टी में मिला डाला एहसान जता करके
जो जान से प्यारे थे नाम उनने ही पूछा है
हैरान हुआ मैं तो इस शहर मे करके
तहज़ीबे मुसल्ला से वाक़िफ़ ही था कुछ भी
और बैठ गया देखो सज्जादे पे करके
मुद्दत से पता उसका मालूम नहीं कुछ भी
मशुहूर बहुत था जो आशुफ़्ता नवा करके
 
१५.
जिससे मिलने की ख़्वाहिश ज़माने की है
आज की रात वह याद आने को है

सबने तसलीम कर ली खुदाई तेरी
एतराज़ अब तो बस इक दिवाने को है

मुज़्तरिब अहले जन्नत खुदामुन्तज़िर
आओ देखें ज़रा कौन आने को है

दिल में उसको बसाना मुनासिब नहीं
ये इमारत तो कल ढाई जाने को है

कौन ज़न्जीर बस्ता हुआ था यहां
जिसका ग़म आज तक क़ैदखाने में है

दोस्तों रौशनी के लिये कुछ करो
वो चराग तअल्लुक़ बुझाने को है
 
१६.