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सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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रविवार, 3 फ़रवरी 2013

इक़बाल

 
१.
सारे जहाँ से अच्छा हिन्दुस्तान हमारा
हम बुलबुलें हैं इस की ये गुलिस्ताँ हमारा

ग़ुर्बत में हों अगर हम रहता है दिल वतन में
समझो वहीं हमें भी दिल हो जहाँ हमारा

पर्वत वो सब से ऊँचा हमसाया आस्माँ का
वो सन्तरी हमारा वो पासबाँ हमारा

गोदी में खेलती हैं इस की हज़ारों नदियाँ
गुल्शन है जिन के दम से रश्क-ए-जनाँ हमारा

ऐ आब-ए-रूद-ए-गन्गा वो दिन है याद तुझ को
उतरा तेरे किनारे जब कारवाँ हमारा

मज़्हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना
हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दुस्ताँ हमारा

यूनान -ओ-मिश्र-ओ-रोमा सब मिट गये जहाँ से
अब तक मगर है बाक़ी नाम-ओ-निशाँ हमारा

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
सदियो रहा है दुह्मन दौर-ए-ज़माँ हमारा

'ईक़्बाल' कोई महरम अपना नहीं जहाँ में
मालूम क्या किसी को दर्द-ए-निहाँ हमारा

 
२.
मुम्किन है के तु जिसको समझता है बहाराँ
औरों की निगाहों में वो मौसम हो ख़िज़ाँ का

है सिल-सिला एहवाल का हर लहजा दगरगूँ
अए सालेक-रह फ़िक्र न कर सूदो-ज़याँ का

शायद के ज़मीँ है वो किसी और जहाँ की
तू जिसको समझता है फ़लक अपने जहाँ का

 
३.
तू अभी रहगुज़र में है क़ैद-ए-मकाम से गुज़र
मिस्र-ओ-हिजाज़ से गुज़र, पारेस-ओ-शाम से गुज़र

जिस का अमाल है बे-गरज़, उस की जज़ा कुछ और है
हूर-ओ-ख़याम से गुज़र, बादा-ओ-जाम से गुज़र

गर्चे है दिलकुशा बहोत हुस्न-ए-फ़िरन्ग की बहार
तायरेक बुलंद बाल दाना-ओ-दाम से गुज़र

कोह शिग़ाफ़ तेरी ज़रब तुझसे कुशाद शर्क़-ओ-ग़रब
तेज़े-हिलाहल की तरह ऐश-ओ-नयाम से गुज़र

तेरा इमाम बे-हुज़ूर, तेरी नमाज़ बे-सुरूर
ऐसी नमज़ से गुज़र, ऐसे इमाम से गुज़र

 
४.
तेरे इश्क़ की इन्तहा चाहता हूँ
मेरी सादगी देख क्या चाहता हूँ

सितम हो कि हो वादा-ए-बेहिजाबी
कोई बात सब्र-आज़मा चाहता हूँ

ये जन्नत मुबारक रहे ज़ाहिदों को
कि मैं आप का सामना चाहता हूँ

कोई दम का मेहमाँ हूँ ऐ अहल-ए-महफ़िल
चिराग़-ए-सहर हूँ, बुझा चाहता हूँ

भरी बज़्म में राज़ की बात कह दी
बड़ा बे-अदब हूँ, सज़ा चाहता हूँ

 
५.
सितारों से आगे जहाँ और भी हैं
अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और भी हैं

ताही ज़िन्दगी से नहीं ये फ़ज़ायें
यहाँ सैकड़ों कारवाँ और भी हैं

कना'अत न कर आलम-ए-रन्ग-ओ-बु पर
चमन और भी, आशियाँ और भी हैं

अगर खो गया एक नशेमन तो क्या ग़म
मक़ामात-ए-आह-ओ-फ़ुगाँ और भी हैं

तू शहीं है पर्वाज़ है काम तेरा
तेरे सामने आस्माँ और भी हैं

इसी रोज़-ओ-शब में उलझ कर न रह जा
के तेरे ज़मीन-ओ-मकाँ और भी हैं

गए दिन की तन्हा था मैं अंजुमन में
यहाँ अब मेरे राज़दाँ और भी हैं

 
६.
सख़्तियाँ करता हूँ दिल पर ग़ैर से ग़ाफ़िल हूँ मैं
हाय क्या अच्छी कही ज़ालिम हूँ मैं जाहिल हूँ मैं

है मेरी ज़िल्लत ही कुछ मेरी शराफ़त की दलील
जिस की ग़फ़लत को मलक रोते हैं वो ग़ाफ़िल हूँ मैं

बज़्म-ए-हस्ती अपनी आराइश पे तू नाज़ाँ न हो
तू तो इक तस्वीर है महफ़िल की और महफ़िल हूँ मैं

ढूँढता फिरता हूँ ऐ "इक़बाल" अपने आप को
आप ही गोया मुसाफ़िर आप ही मंज़िल हूँ मैं

 
७.
सच कह दूँ ऐ ब्रह्मन गर तू बुरा न माने
तेरे सनम कदों के बुत हो गये पुराने

अपनों से बैर रखना तू ने बुतों से सीखा
जन्ग-ओ-जदल सिखाया वाइज़ को भी ख़ुदा ने

तन्ग आके आख़िर मैं ने दैर-ओ-हरम को छोड़ा
वाइज़ का वाज़ छोड़ा, छोड़े तेरे फ़साने

पत्थर की मूरतों में समझा है तू ख़ुदा है
ख़ाक-ए-वतन का मुझ को हर ज़र्रा देवता है

आ ग़ैरत के पर्दे इक बार फिर उठा दें
बिछड़ों को फिर मिला दें नक़्श-ए-दुई मिटा दें

सूनी पड़ी हुई है मुद्दत से दिल की बस्ती
आ इक नया शिवाला इस देस में बना दें

दुनिया के तीरथों से ऊँचा हो अपना तीरथ
दामान-ए-आस्माँ से इस का कलस मिला दें

हर सुबह मिल के गायें मन्तर वो मीठे मीठे
सारे पुजारियों को मै पीत की पिला दें

शक्ती भी शान्ती भी भक्तों के गीत में है
धरती के बासियों की मुक्ती प्रीत में है

 
८.
मोहब्बत का जुनूँ बाक़ी नहीं है
मुसलमानों में ख़ूं बाक़ी नहीं है

सफ़ें कज, दिल परेशान, सज्दा बेज़ूक
के जज़्बाए-अंदरून बाक़ी नहीं है

रगों में लहू बाक़ी नहीं है
वो दिल, वो आवाज़ बाक़ी नहीं है

नमाज़-ओ-रोज़ा-ओ-क़ुर्बानी-ओ-हज
ये सब बाक़ी है तू बाक़ी नहीं है

 
९.

लब पे आती है दुआ बनके तमन्ना मेरी

ज़िन्दगी शम्मा की सुरत हो ख़ुदाया मेरी

दूर दुनिया का मेरे दम से अँधेरा हो जाये

हर जगह मेरे चमकने से उजाला हो जाये

हो मेरे दम से यूँ ही मेरे वतन की ज़ीनत

जिस तरह फूल से होती है चमन की ज़ीनत

ज़िन्दगी हो मेरी परवाने की सुरत या रब

इल्म की शम्मा से हो मुझको मोहब्बत या रब

हो मेरा काम ग़रीबों की हिमायत करना

दर्द-मंदों से ज़इफ़ों से मोहब्बत करना

मेरे अल्लाह बुराई से बचाना मुझको

नेक जो राह हो उस रह पे चलाना मुझको


 
१०.

उट्ठो मेरी दुनिया के ग़रीबों को जगा दो

ख़ाक-ए-उमरा के दर-ओ-दीवार हिला दो

गरमाओ ग़ुलामों का लहू सोज़-ए-यक़ीं से

कुन्जिश्क-ए-फिरोमाया को शाहीं से लड़ा दो

सुल्तानी-ए-जमहूर का आता है ज़माना

जो नक़्श-ए-कुहन तुम को नज़र आये मिटा दो

जिस खेत से दहक़ाँ को मयस्सर नहीं रोज़ी

उस ख़ेत के हर ख़ोशा-ए-गुन्दम को जला दो

क्यों ख़ालिक़-ओ-मख़लूक़ में हायल रहें पर्दे

पीरान-ए-कलीसा को कलीसा से हटा दो

मैं नाख़ुश-ओ-बेज़ार हूँ मरमर के सिलों से

मेरे लिये मिट्टी का हरम और बना दो

तहज़ीब-ए-नवीं कारगह-ए-शीशागराँ है

आदाब-ए-जुनूँ शायर-ए-मश्रिक़ को सिखा दो

११.

ख़िर्द के पास ख़बर के सिवा कुछ और नहीं

तेरा इलाज नज़र के सिवा कुछ और नहीं

हर मुक़ाम से आगे मुक़ाम है तेरा

हयात ज़ौक़-ए-सफ़र के सिवा कुछ और नहीं

रंगों में गर्दिश-ए-ख़ूँ है अगर तो क्या हासिल

हयात सोज़-ए-जिगर के सिवा कुछ और नहीं

उरूस-ए-लाला मुनासिब नहीं है मुझसे हिजाब

कि मैं नसीम-ए-सहर के सिवा कुछ और नहीं

जिसे क़ साद समझते हैं ताजरन-ए-फ़िरन्ग

वो शय मता-ए-हुनर के सिवा कुछ और नहीं

गिराँबहा है तो हिफ़्ज़-ए-ख़ुदी से है वरना

गौहर में आब-ए-गौहर के सिवा कुछ और नहीं

१२.
कभी ऐ हक़ीक़त-ए-मुंतज़िर नज़र आ लिबास-ए-मजाज़ में
के हज़ारों सज्दे तड़प रहे हैं तेरी जबीन-ए-नियाज़ में
तरब आशना-ए-ख़रोश हो तू नवा है महरम-ए-गोश हो
वो सुरूर क्या के छाया हुआ हो सुकूत-ए-पर्दा-ओ-साज़ में
तू बचा बचा के न रख इसे तेरा आईना है वो आईना
के शिकस्ता हो तो अज़ीज़ तर है निगाह-ए-आईना-साज़ में
दम-ए-तौफ़ कर मक-ए-शम्मा न ये कहा के वो अस्र-ए-कोकहन
न तेरी हिकायत-ए-सोज़ में न मेरी हदीस-ए-गुदाज़ में
न कहीं जहाँ में अमन मिली जो अमन मिली तो कहाँ मिली
मेरे जुर्म-ए-ख़ानाख़राब को तेरे अज़ो-ए-बंदा-नवाज़ में
न वो इश्क़ में रहीं गर्मियाँ न वो हुस्न में रहीं शोख़ियाँ
न वो ग़ज़नवी में तड़प रही न वो ख़म है ज़ुल्फ़-ए-अयाज़ में
जो मैं सर-ब-सज्दा कभी हुआ तो ज़मीं से आने लगी सदा
तेरा दिल तो है सनम-आशनाअ तुझे क्या मिलेगा नमाज़ में