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सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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रविवार, 17 मार्च 2013

रईस फ़रोग

१.
किसी-किसी की तरफ़ देखता तो मैं भी हूँ।
बहोत बुरा न सही, पर बुरा तो मैं भी हूँ।

खरामे-उम्र तेरा काम पायमाली है,
मगर ये देख तेरे ज़ेरे-पा तो मैं भी हूँ।

बहोत उदास हो दीवारों-दर के जलने से,
मुझे भी ठीक से दखो, जला तो मैं भी हूँ।

तलाशे-गुम्शुदागां में निकल तो सकता हूँ
मगर मैं क्या करूँ खोया हुआ तो मैं भी हूँ।

ज़मीं पे शोर जो इतना है सिर्फ़ शोर नहीं,
कि दरमियाँ में कहीं बोलता तो मैं भी हूँ।

अजब नहीं जो मुझी पर वो बात खुल जाए,
बराए नाम सही, सोचता तो मैं भी हूँ।

2
हाथ हमारे सब से ऊँचे, हाथों ही से गिला भी है
घर ऐसे को सौंप दिया जो आग भी है और हवा भी है

अपनी अना का जाल किसी दिन पागल-पन में तोड़ूँगा
अपनी अना के जाल को मैं ने पागल-पन में बुना भी है

दिये के जलने और बुझने का भेद समझ में आये तो क्या
इसी हवा से जल भी रहा था इसी हवा से बुझा भी है

रौशनियों पर पाँव जमा के चलना हम को आये नहीं
वैसे दर-ए-ख़ुर्शीद तो हम पर गाहे-गाहे खुला भी है

दर्द की झिलमिल रौशनियों से बारह ख़्वाब की दूरी पर
हम ने देखी एक धनक जो शोला भी है सदा भी है

तेज़ हवा के साथ चला है ज़र्द मुसाफ़िर मौसम का
ओस ने दामन थाम लिया तो पल दो पल को रुका भी है

साहिल जैसी उम्र में हम से सागर ने इक बात न की
लहरों ने तो जाने का-क्या कहा भी है और सुना भी है

इश्क़ तो इक इल्ज़ाम है उस का वस्ल को तो बस नाम हुआ
वो आया था क़ातिल बन के क़त्ल ही कर के गया भी है

3.

अपनी मिट्टी को सर - अफराज़ नहीं कर सकते,
ये दर - ओ - बाम तो परवाज़। नहीं कर सकते।

आलम - ए - ख्वाइश - ओ - तर्ग़ीब में रहते हैं मगर,
तेरी चाहत को सुबू - ताज़ नहीँ कर सकते।

हुस्न को हुस्न बनाने में मेरा हाथ भी है,
आप मुझ को नज़र अंदाज़ नहीं कर सकते।

शहर में एक ज़रा से किसी घर की खातिर,
अपने सहराओं को नाराज़ नहीं कर सकते।

इश्क़ वो कार - ए - मुसलसल है की हम अपने लिए,
इक लम्हा भी पस - अंदाज़ नहीं कर सकते।