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सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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रविवार, 31 मार्च 2013

इरफ़ान सिद्दीक़ी



१.

शोलए-इश्क़ बुझाना भी नहीं चाहता है
वो मगर ख़ुद को जलाना भी नहीं चाहता है
उसको मंज़ूर नहीं है मेरी गुमराही भी
और मुझे राह पे लाना भी नहीं चाहता है
सैर भी जिस्म के सहरा की खुश आती है मगर
देर तक ख़ाक उड़ाना भी नहीं चाहता है
कैसे उस शख्स से ताबीर पे इसरार करे
जो कोई ख्वाब दिखाना भी नहीं चाहता है
अपने किस काम में आएगा बताता भी नहीं
हमको औरों पे गंवाना भी नहीं चाहता है
मेरे अफ्जों में भी छुपता नहीं पैकर उसका
दिल मगर नाम बताना भी नहीं चाहता है.