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सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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शनिवार, 9 मार्च 2013

फिराक गोरखपुरी

(28अगस्त 1896, गोरखपुर, उत्तर प्रदेश, फ़िराक़ का पूरा नाम 'रघुपति सहाय फ़िराक़' था, किंतु अपनी शायरी में वे अपना उपनाम 'फ़िराक़' लिखते थे। उनके पिता का नाम मुंशी गोरख प्रसाद था, जो पेशे से वकील थे।वर्ष 1970 में उन्हें 'साहित्य अकादमी' का सदस्य भी मनोनीत किया गया था। मृत्यु- 3 मार्च, 1982, दिल्ली। 
1. 

किसी का यूं तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी
ये हुस्न-ओ-इश्क़ तो धोका है सब मगर फिर भी

हज़ार बार ज़माना इधर से गुज़रा है
नई नई है मगर कुछ तेरी रहगुज़र फिर भी

खुशा इशारा-ए-पैहम, जेह-ए-सुकूत नज़र
दराज़ हो के फ़साना है मुख़्तसर फिर भी

झपक रही हैं ज़मान-ओ-मकाँ की भी आँखें
मगर है काफ्ला आमादा-ए-सफ़र फिर भी

तेरी निगाह से बचने में उम्र गुज़री है
उतर गया रग-ए-जां में ये नश्तर फिर भी

2.

मुझको मारा है हर इक दर्द-ओ-दवा से पहले
दी सज़ा इश्क ने हर ज़ुर्म-ओ-खता से पहले

आतिश-ए-इश्क़ भड़कती है हवा से पहले
होंठ जलते हैं मुहब्बत में दुआ से पहले

अब कमी क्या है तेरे बेसर-ओ-सामानों को
कुछ ना था तेरी कसम तर्क-ओ-फ़ना से पहले

इश्क़-ए-बेबाक को दावे थे बहुत ख़लवत में
खो दिया सारा भरम शर्म-ओ-हया से पहले

मौत के नाम से डरते थे हम ऐ शौक-ए-हयात
तूने तो मार ही डाला था कज़ा से पहले

हम उन्हें पा के फ़िराक कुछ और भी खोते गए
ये तकल्लुफ़ तो ना थे अहद-ए-वफ़ा से पहले

3.

तहों में दिल के जहां कोई वारदात हुई 
हयात-ए-ताज़ा से लबरेज़ क़ायनात हुई

तुम्हीं ने बायसे-ग़म बारहा किया दरयाफ़्त
कहा तो रूठ गए यह भी कोई बात हुई

हयात राज़े-सुकूँ पा गई अज़ल ठहरी
अज़ल में थोड़ी-सी लर्ज़िश हुई हयात हुई

थी एक काविशे-बेनाम दिल में फ़ितरत के
सिवा हुई तो वही आदमी की ज़ात हुई

बहुत दिनों में मुहब्ब़त को ये हुआ मालूम
जो तेरे हिज़्र में गुज़री वो रात रात हुई

‘फ़ि‍राक’ को कभी इतना ख़मोश देखा था
जरूर ऐ! निगाह-ए-नाज़ कोई बात हुई

4.

होकर अयाँ वो ख़ुद को छुपाए हुए-से हैं 
अहले-नज़र ये चोट भी खाए हुए-से हैं

वो तूर हो कि हश्रे-दिल अफ़्सुर्दगाने-इश्क़
हर अंजुमन में आग लगाए हुए-से हैं

सुब्हे-अज़ल को यूँ ही ज़रा मिल गई थी आंख
वो आज तक निगाह चुराए हुए-से हैं

हम बदगु़माने-इश्क़ तेरी बज़्म-ए-नाज़ से
जाकर भी तेरे सामने आए हुए-से हैं

ये क़ुर्बो-बोद भी हैं सरासर फ़रेब-ए-हुस्न
वो आके भी ‘फ़िराक़’ न आए हुए-से हैं

5.

गैर क्या जानिये क्यों मुझको बुरा कहते हैं
आप कहते हैं जो ऐसा तो बज़ा कहते हैं

वाकई तेरे इस अन्दाज को क्या कहते हैं
ना वफ़ा कहते हैं जिस को ना ज़फ़ा कहते हैं

हो जिन्हे शक, वो करें और खुदाओं की तलाश
हम तो इन्सान को दुनिया का ख़ुदा कहते हैं


तेरी सूरत नजर आई तेरी सूरत से अलग
हुस्न को अहल-ए-नज़र हुस्न नुमां कहते हैं


शिकवा-ए-हिज़्र करें भी तो करें किस दिल से
हम खुद अपने को भी अपने से जुदा कहते हैं

तेरी रूदाद-ए-सितम का है बयान नामुमकिन
फायदा क्या है मगर यूं जो ज़रा कहते हैं

लोग जो कुछ भी कहें तेरी सितमकोशी को
हम तो इन बातों को अच्छा ना बुरा कहते हैं

औरों का तजुर्बा जो कुछ हो मगर हम तो ‘फ़िराक’
तल्ख़ी-ए-ज़ीस्त को जीने का मज़ा कहते हैं

6.

सकूत-ए-शाम मिटाओ बहुत अंधेरा है 
सुख़न की शमा जलाओ बहुत अंधेरा है

दयार-ए-ग़म में दिल-ए-बेक़रार छूट गया
सम्भल के ढूँढ़ने जाओ बहुत अंधेरा है
ये रात वो कि सूझे जहाँ न हाथ को हाथ 
ख़यालों दूर न जाओ बहुत अंधेरा है

लटों को चेहरे पे डाले वो सो रहा है कहीं
ज़या-ए-रुख़ को चुराओ बहुत अंधेरा है 


हवा-ए-नीम शबी हों कि चादर-ए-अंजुम 
नक़ाब रुख़ से उठाओ बहुत अंधेरा है

शब-ए-सियाह में गुम हो गई है राह-ए-हयात
क़दम सम्भल के उठाओ बहुत अंधेरा है

गुज़श्ता अह्द की यादों को फिर करो ताज़ा
बुझे चिराग़ जलाओ बहुत अंधेरा है 


थी एक उचकती हुई नींद ज़िंदगी उसकी 
'फ़िराख़' को न जगाओ बहुत अंधेरा है

7.

सर में सौदा भी नहीं दिल में तमन्ना भी नहीं
लेकिन इस तर्क़-ए-मुहब्बत का भरोसा भी नहीं

यूँ तो हंगामा उठाते नहीं दीवाना-ए-शौक़
मगर ऐ दोस्त, कुछ ऐसों का ठिकाना भी नहीं

मुद्दतें गुजरी, तेरी याद भी आई ना हमें
और हम भूल गए हों तुझे ऐसा भी नहीं

ये भी सच है कि मुहब्बत में नहीं मैं मजबूर
ये भी सच है कि तेरा हुस्न कुछ ऐसा भी नहीं

बदगुमाँ हो के मिल ऐ दोस्त जो मिलना है तुझे
ये झिझकते हुऐ मिलना कोई मिलना भी नहीं

शिकवा-ए-शौक करे क्या कोई उस शोख़ से जो
साफ़ कायल भी नहीं, साफ़ मुकरता भी नहीं

मेहरबानी को मुहब्बत नहीं कहते ऐ! दोस्त
आह! मुझसे तो मेरी रंजिश-ए-बेजां भी नहीं

बात ये है कि सूकून-ए-दिल-ए-वहशी का मकाम
कुंज़-ए-ज़िन्दां भी नहीं, वुसअत-ए-सहरा भी नहीं

मुँह से हम अपने बुरा तो नहीं कहते कि ‘फ़िराक’
है तेरा दोस्त मगर आदमी अच्छा भी नहीं

8.

रात भी नींद भी कहानी भी
हाय! क्या चीज़ है जवानी भी

एक पैगाम-ए-ज़िन्दगानी भी
आशिक़ी मर्गे-नागहानी भी

इस अदा का तेरी जवाब नहीं
मेहरबानी भी सरगरानी भी

दिल को अपने भी ग़म थे दुनिया में
कुछ बलाएँ थी आसमानी भी

मंसबे-दिल खुशी लुटाता है
ग़मे-पिन्हां भी पासबानी भी

दिल को शोलों से करती है सैराब
ज़िन्दगी आग भी है पानी भी

शादकामों को ये नहीं तौफ़ीक़
दिले-गमगीं की शादमानी भी

लाख हुस्न-ए-यकीं से बढ़कर है
इन निगाहों की बदगुमानी भी


तंगना-ए-दिले-मलाल में है
देहर-ए-हस्ती की बेकरानी भी

इश्क़-ए--नाक़ाम की है परछाई
शादमानी भी कामरानी भी

देख दिल के निगारख़ाने में
ज़ख्म-ए-पिन्हां की है निशानी भी

ख़ल्क क्या-क्या मुझे नहीं कहती
कुछ सुनूं मैं तेरी जुबानी भी


आए तारीक-ए-इश्क़ में सौ बार
मौत के दौर दरमियानी भी

अपनी मासूमियों के परदे में
हो गई वो नजर सयानी भी

दिन को सूरजमुखी है वो नौगुल
रात को वो है रातरानी भी

दिल-ए-बदनाम तेरे बारे में
लोग कहते हैं इक कहानी भी

नज़्म करते कोई नई दुनिया
कि ये दुनिया हुई पुरानी भी

दिल को आदाब-ए-बंदगी भी ना आए
कर गए लोग हुक्मरानी भी

जौरे-कम कम का शुक्रिया बस है
आप की इतनी मेहरबानी भी

दिल में एक हूक-सी उठे ऐ दोस्त
याद आए तेरी जवानी भी

सर से पा तक सुपुर्दगी की अदा
एक अन्दाज़-ए-तुर्कमानी भी

पास रहना किसी का रात की रात
मेहमानी भी मेजबानी भी

जो ना अक्स-ए-जबीं-ए-नाज़ की है
दिल में इक नूर-ए-कहकशानी भी
ज़िन्दगी ऐन दीद-ए-यार ’फ़िराक़’
ज़िन्दगी हिज़्र की कहानी भी


9.
सितारों से उलझता जा रहा हूँ 
शब-ए-फ़ुरक़त बहुत घबरा रहा हूँ
तेरे ग़म को भी कुछ बहला रहा हूँ 
जहाँ को भी समझा रहा हूँ

यक़ीं ये है हक़ीक़त खुल रही है
गुमाँ ये है कि धोके खा रहा हूँ

अगर मुमकिन हो ले ले अपनी आहट
ख़बर दो हुस्न को मैं आ रहा हूँ

हदें हुस्न-ओ-इश्क़ की मिलाकर
क़यामत पर क़यामत ढा रहा हूँ 


ख़बर है तुझको ऐ ज़ब्त-ए-मुहब्बत 
तेरे हाथों में लुटाता जा रहा हूँ

असर भी ले रहा हूँ तेरी चुप का
तुझे कायल भी करता जा रहा हूँ 


भरम तेरे सितम का खुल चुका है
मैं तुझसे आज क्यों शरमा रहा हूँ

तेरे पहलू में क्यों होता है महसूस
कि तुझसे दूर होता जा रहा हूँ

जो उलझी थी कभी आदम के हाथों
वो गुत्थी आज तक सुलझा रहा हूँ

मुहब्बत अब मुहब्बत हो चली है
तुझे कुछ भूलता-सा जा रहा हूँ

ये सन्नाटा है मेरे पाँव की चाप
‘फ़िराक़’ अपनी कुछ आहट पा रहा हूँ

10.

रात आधी से ज्यादा गई थी, सारा आलम सोता था
नाम तेरा ले ले कर कोई दर्द का मारा रोता था

चारागरों, ये तस्कीं कैसी, मैं भी हूं इस दुनिया में
उनको ऐसा दर्द कब उठा, जिनको बचाना होता था


कुछ का कुछ कह जाता था मैं फ़ुरकत की बेताबी में
सुनने वाले हँस पड़ते थे होश मुझे तब आता था


तारे अक्सर डूब चले थे, रात को रोने वालों को
आने लगी थी नींद-सी कुछ, दुनिया में सवेरा होता था

तर्के-मोहब्बत करने वालों, कौन ऐसा जग जीत लिया
इश्क़ के पहले के दिन सोचो, कौन बड़ा सुख होता था

उसके आँसू किसने देखे, उसकी आहें किसने सुनी
चमन चमन था हुस्न भी लेकिन दरिया दरिया रोता था


पिछला पहर था हिज़्र की शब का, जागता रब, सोता इन्सान
तारों कि छांव में कोई ’फ़िराक’ सा मोती पिरोता था