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सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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सोमवार, 15 अप्रैल 2013

अहमद नदीम क़ास्मी

जन्म:नवम्बर 20, 1916 – निधन:जुलाई 10, 2006
1.

गुल तेरा रंग चुरा लाये हैं गुल्ज़ारों में
जल रहा हूँ भरी बरसात की बौछारों में

मुझसे कतरा के निकल जा मगर ऐ जाने-हया
दिल की लौ देख रहा हूँ तेरे रुख्सारों में

हुस्ने-बेगानए-एहसासे-जमाल अच्छा है
गुंचे खिलते हैं तो बिक जाते हैं बाज़ारों में

ज़िक्र करते हैं तेरा मुझसे ब-उनवाने-जफ़ा
चारा-गर फूल पिरो लाये हैं तलवारों में

मुझको नफरत से नहीं प्यार से मस्लूब करो
मैं तो शामिल हूँ मुहब्बत के गुनाहगारों में

2.

किसको कातिल मैं कहूँ किसको मसीहा समझूं
सब यहाँ दोस्त ही बैठे हैं, किसे क्या समझूं

वो भी क्या दिन थे के हर वह्म यकीं होता था
अब हकीकत नज़र आए तो उसे क्या समझूं

दिल जो टूटा तो कई हाथ दुआ को उट्ठे
ऐसे माहौल में अब किसको पराया समझूं

ज़ुल्म ये है के है यकता तेरी बेगाना-रवी
लुत्फ़ ये है के मैं अबतक तुझे अपना समझूं

3.

लबों पे नर्म तबस्सुम रचा के धुल जाएँ
खुदा करे मेरे आंसू किसी के काम आएँ

जो इब्तिदाए-सफर में दिए बुझा बैठे
वो बदनसीब किसी का सुराग़ क्या पाएँ

तलाशे-हुस्न कहाँ ले चली खुदा जाने
उमंग थी के फ़क़त ज़िंदगी को अपनाएँ

न कर खुदा के लिए बार-बार ज़िक्रे-बहिश्त
हम आसमां का मुक़र्रर फरेब क्यों खाएँ

तमाम मैकदा सुनसान मैगुसार उदास
लबों को खोल के कुछ सोचती हैं मीनाएँ

४.

इंक़लाब अपना काम करके रहा
बादलों में भी चांद उभर के रहा
है तिरी जुस्तजू गवाह,कि तू
उम्र-भर सामने नज़र के रहा
रात भारी सही कटेगी जरूर
दिन कड़ा था मगर गुज़र के रहा
गुल खिले आहनी हिसारों के
ये त
' आत्तर मगर बिखर के रहा
अर्श की ख़िलवतों से घबरा कर
आदमी फ़र्श पर उतर के रहा
हम छुपाते फिरे दिलों में चमन
वक़्त फूलों में पाँव धर के रहा
मोतियों से कि रेगे-साहिल से
अपना दामन
'नदीम' भर के रहा
५.
साँस लेना भी सज़ा लगता है
अब तो मरना भी रवा लगता है
कोहे-ग़म पर से जो देखूँ,तो मुझे
दश्त
, आगोशे-फ़ना लगता है
सरे-बाज़ार है यारों की तलाश
जो गुज़रता है ख़फ़ा लगता है
मौसमे-गुल में सरे-शाखे़-गुलाब
शोला भड़के तो वजा लगता है
मुस्कराता है जो उस आलम में
ब-ख़ुदा मुझ को ख़ुदा लगता है
इतना मानूस हूँ सन्नाटे से
कोई बोले तो बुरा लगता है
उनसे मिलकर भी न काफूर हुआ
दर्द ये सबसे जुदा लगता है
इस क़दर तुंद है रफ़्तारे-हयात
वक़्त भी रिश्ता बपा लगता है
६.
शाम को सुबह-ए-चमन याद आई
किसकी ख़ुश्बू-ए-बदन याद आई
जब ख़यालों में कोई मोड़ आया
तेरे गेसू की शिकन याद आई
याद आए तेरे पैकर के ख़ुतूत
अपनी कोताही-ए-फ़न याद आई
चांद जब दूर उफ़क़ पर डूबा
तेरे लहजे की थकन याद आई
दिन शुआओं से उलझते गुज़रा
रात आई तो किरन याद आई
७.
गो मेरे दिल के ज़ख़्म ज़ाती हैं
उनकी टीसें तो कायनाती हैं
आदमी शशजिहात का दूल्हा
वक़्त की गर्दिशें बराती हैं
फ़ैसले कर रहे हैं अर्शनशीं
आफ़तें आदमी पर आती हैं
कलियाँ किस दौर के तसव्वुर में
ख़ून होते ही मुस्कुराती हैं
तेरे वादे हों जिनके शामिल-ए=हाल
वो उमंगें कहाँ समाती हैं
८.
मरूँ तो मैं किसी चेहरे में रंग भर जाऊँ
नदीम! काश यही एक काम कर जाऊँ
ये दश्त-ए-तर्क-ए-मुहब्बत ये तेरे क़ुर्ब की प्यास
जो इज़ाँ हो तो तेरी याद से गुज़र जाऊँ
मेरा वजूद मेरी रूह को पुकारता है
तेरी तरफ़ भी चलूं तो ठहर ठहर जाऊँ
तेरे जमाल का परतो है सब हसीनों पर
कहाँ कहाँ तुझे ढूंढूँ किधर किधर जाऊँ
मैं ज़िन्दा था कि तेरा इन्तज़ार ख़त्म न हो
जो तू मिला है तो अब सोचता हूँ मर जाऊँ
ये सोचता हूं कि मैं बुत-परस्त क्यूँ न हुआ
तुझे क़रीब जो पाऊँ तो ख़ुद से डर जाऊँ
किसी चमन में बस इस ख़ौफ़ से गुज़र न हुआ
किसी कली पे न भूले से पाँव धर जाऊँ
ये जी में आती है,तख़्लीक़-ए-फ़न के लम्हों में
कि ख़ून बन के रग-ए-संग में उतर जाऊँ
९.
ज़ीस्त आज़ार हुई जाती है
साँस तलवार हुई जाती है
जिस्म बेकार हुआ जाता है
रूह बेदार हुई जाती है
कान से दिल में उतरती नहीं बात
और गुफ़्तार हुई जाती है
ढल के निकली है हक़ीक़त जब से
कुछ पुर-असरार हुई जाती है
अब तो हर ज़ख़्म की मुँहबन्द कली
लब-ए-इज़हार हुई जाती है
फूल ही फूल हैं हर सिम्त 'नदीम'
राह दुश्वार हुई जाती है
१०.
जेहनों में ख़याल जल रहे हैं
सोचों के अलाव-से लगे हैं
दुनिया की गिरिफ्त में हैं साये
हम अपना वुजूद ढूंढते हैं
अब भूख से कोई क्या मरेगा
मंडी में ज़मीर बिक रहे हैं
माज़ी में तो सिर्फ़ दिल दुखते थे
इस दौर में ज़ेहन भी दुखे हैं
सिर काटते थे कभी शहनशाह
अब लोग ज़ुबान काटते हैं
हम कैसे छुड़ाएं शब से दामन
दिन निकला तो साए चल पड़े हैं
लाशों के हुजूम में भी हंस दें
अब ऐसे भी हौसले किसे हैं
११.
तुझे खोकर भी तुझे पाऊं जहाँ तक देखूँ
हुस्न-ए-यज़्दां से तुझे हुस्न-ए-बुतां तक देखूं
तूने यूं देखा है जैसे कभी देखा ही न था
मैं तो दिल में तेरे क़दमों के निशां तक देखूँ
सिर्फ़ इस शौक़ में पूछी हैं हज़ारों बातें
मै तेरा हुस्न तेरे हुस्न-ए-बयां तक देखूँ
वक़्त ने ज़ेहन में धुंधला दिये तेरे खद्द-ओ-खाल
यूं तो मैं तूटते तारों का धुआं तक देखूँ
दिल गया था तो ये आँखें भी कोई ले जाता
मैं फ़क़त एक ही तस्वीर कहाँ तक देखूँ
एक हक़ीक़त सही फ़िरदौस में हूरों का वजूद
हुस्न-ए-इन्सां से निपट लूं तो वहाँ तक देखूँ
१२.
फूलों से लहू कैसे टपकता हुआ देखूँ
आँखों को बुझा लूँ कि हक़ीक़त को बदल दूँ
हक़ बात कहूंगा मगर है जुर्रत-ए-इज़हार
जो बात न कहनी हो वही बात न कह दूँ
हर सोच पे ख़ंजर-सा गुज़र जाता है दिल से
हैराँ हूँ कि सोचूँ तो किस अन्दाज़ में सोचूँ
आँखें तो दिखाती हैं फ़क़त बर्फ़-से पैकर
जल जाती हैं पोरें जो किसी जिस्म को छू लूँ
चेहरे हैं कि मरमर से तराशी हुई लौहें
बाज़ार में या शहरे-ख़मोशाँ में खड़ा हूँ
सन्नाटे उड़ा देते हैं आवाज़ के पुर्ज़े
यारों को अगर दस्त-ए-मुसीबत में पुकारूँ
मिलती नहीं जब मौत भी मांगे से, तो या रब
हो इज़्न तो मैं अपना सलीब आप उठा लूँ
१३.
वो कोई और न था चंद ख़ुश्क पत्ते थे
शजर से टूट के जो फ़स्ल-ए-गुल पे रोए थे
अभी अभी तुम्हें सोचा तो कुछ न याद आया
अभी अभी तो हम एक दूसरे से बिछड़े थे
तुम्हारे बाद चमन पर जब इक नज़र डाली
कली कली में ख़िज़ां के चिराग़ जलते थे
तमाम उम्र वफ़ा के गुनाहगार रहे
ये और बात कि हम आदमी तो अच्छे थे
शब-ए-ख़ामोश को तन्हाई ने ज़बाँ दे दी
पहाड़ गूँजते थे दश्त सन-सनाते थे
वो एक बार मरे जिनको था हयात से प्यार
जो जि़न्दगी से गुरेज़ाँ थे रोज़ मरते थे
नए ख़याल अब आते है ढल के ज़ेहन में
हमारे दिल में कभी खेत लह-लहाते थे
ये इरतीक़ा का चलन है कि हर ज़माने में
पुराने लोग नए आदमी से डरते थे
'नदीम'जो भी मुलाक़ात थी अधूरी थी
कि एक चेहरे के पीछे हज़ार चेहरे थे


१४.
 इक सहमी सहमी सी आहट है, इक महका महका साया है 
एहसास की इस तन्हाई में यह रात गए कौन आया है

ए शाम आलम कुछ तू ही बता, यह ढंग तुझे क्यों भाया है
वोह मेरी खोज में निकला था और तुझ को ढूँढ के आया है

मैं फूल समझ के चुन लूंगा इस भीगे से अंगारों को
आँखों की इबादत का मैं ने बस एक ये ही फल पाया है

कुछ रोज़ से बरपा चार तरफ हैं शादी-ओ-ग़म के हंगामे
सुनते हैं चमन को माली ने फूलों का कफ़न पहनाया है