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सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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सोमवार, 8 अप्रैल 2013

शकेब जलाली

जन्म: 01 अक्तूबर 1934,कस्बा जलाली, अलीगढ़, उत्तरप्रदेश,निधन: 12 नवम्बर 1966,जिन्दगी से तंग आकर मात्र ३२ साल के उम्र में आत्महत्या,कृतियाँ -पानियों के देश, रौशनी ऐ रौशनी





१.


आके पत्थर तो मेरे सहन में दो-चार गिरे
जितने उस पेड़ के फल थे पसे-दीवार गिरे

ऐसी दहशत थी फ़िज़ाओं में खुले पानी की
आँख झपकी भी नहीं हाथ से पतवार गिरे.

मुझको गिरना है तो मैं अपने ही क़दमों में गिरुं
जिस तरह सायंए-दीवार पे दीवार गिरे

तीरगी छोड़ गई दिन में उजाले के खुतूत
ये सितारे मेरे घर टूट के बेकार गिरे.

देख कर अपने दरो-बाम लरज़ उठता हूँ
मेरे हमसाये में जब भी कोई दीवार गिरे

२.

जाती है धूप उजले परों को समेट के
ज़ख्मों को अब गिनूंगा मैं बिस्तर पे लेट के

मैं हाथ की लकीरें मिटाने पे हूँ बज़िद
गो जनता हूँ नक्श नहीं ये सिलेट के

दुनिया को कुछ ख़बर नहीं क्या हादसा हुआ
फेंका था उसने संग गुलों में लपेट के

फौवारे की तरह न उगल दे हरेक बात
कम-कम वो बोलते हैं जो गहरे हैं पेट के

३.

मुरझा के काली झील में गिरते हुए भी देख
सूरज हूँ मेरा रंग मगर दिन ढले भी देख.

कागज़ की कतरनों को भी कहते हैं लोग फूल
रंगों का एतबार है क्या सूंघ के भी देख.

हर चन्द राख हो के बिखरना है राह में
जलते हुए परों से उड़ा हूँ मुझे भी देख.

तूने कहा न था कि मैं कश्ती पे बोझ हूँ
तलवों में जो हवा के हैं वो आबले भी देख.

इन्सान नाचता है यहाँ पुतलियों के रंग
दुनिया में आ गया है तो इसके मज़े भी देख.

4.

फिर सुन रहा हूँ गुज़रे ज़माने की चाप को
भूला हुआ था देर से मैं अपने आप को

रहते हैं कुछ मलूल से चेहरे पड़ोस में
इतना न तेज़ कीजिए ढोलक की थाप को

अश्कों की एक नहर थी जो ख़ुश्क हो गई
क्यूँ कर मिटाऊँ दिल से तेरे ग़म की छाप को

कितना ही बे-किनार समंदर हो, फिर भी दोस्त
रहता है बे-क़रार नदी के मिलाप को

पहले तो मेरी याद से आई हया उन्हें
फिर आईने में चूम लिया अपने आपको

तारीफ़ क्या हो कामत-ए-दिलदार की शकेब
ताज्सीम कर दिया है किसी ने अलाप को

5 .

हमजिंस अगर मिले न कोई आसमान पर
बेहतर है ख़ाक डालिए ऐसी उड़ान पर

आकर गिरा था कोई परिन्दा लहू से तर
तस्वीर अपनी छोड़ गया है चट्टान पर

पूछो समन्दरों से कभी ख़ाक का पता
देखो हवा का नक़्श कभी बादबान पर

यारों मैं इस नज़र की बलंदी का क्या करूँ
साया भी अपना देखता हूँ आसमान पर

कितने ही ज़ख़्म मेरे एक ज़ख़्म में छिपे
कितने ही तीर आन लगे इक निशान पर

जल-थल हुई तमाम ज़मीं आसपास की
पानी की बूँद भी न गिरी सायबान पर

मलबूस ख़ुशनुमा है मगर खोखले हैं जिस्म
छिलके सजे हों जैसे फलों की दुकान पर

हक़ बात आके रुक-सी गई थी कभी शकेब
छाले पड़े हुए हैं अभी तक ज़बान पर

6 .

वहाँ की रोशनियों ने भी ज़ुल्म ढाए बहुत
मैं उस गली में अकेला था और साए बहुत

किसी के सर पे कभी टूटकर गिरा ही नहीं
इस आसमाँ ने हवा में क़दम जमाए बहुत

हवा की रुख़ ही अचानक बदल गया वरना
महक के काफ़िले सहराँ की सिम्त आए बहुत

ये क़ायनात है मेरी ही ख़ाक का ज़र्रा
मैं अपने दश्त से गुज़रा तो भेद पाए बहुत

जो मोतियों की तलब ने कभी उदास किया
तो हम भी राह से कंकर समेट लाए बहुत

बस एक रात ठहरना है क्या गिला कीजे
मुसाफ़िरों को ग़नीमत है ये सराय बहुत

जमी रहेगी निगाहों पे तीरगी दिन भर
कि रात ख़्वाब में तारे उतर के आए बहुत

शकेब कैसी उड़ान अब वो पर ही टूट गए
कि ज़ेरे-दाम जब आए थे फड़फड़ाए बहुत

7.

पास रह के भी बोहत दूर हैं दोस्त
अपने हालात से मजबूर हैं दोस्त

तर्क-ए-उल्फत भी नहीं कर सकते
साथ देने से भी माज़ूर हैं दोस्त

गुफ्तगू के लिए उनवां भी नहीं
बात करने पे भी मजबूर हैं दोस्त

यह चिराग अपने लिए रहने दे
तेरी रातें भी तो बे-नूर हैं दोस्त

सभी पज़मुर्दा हैं महफ़िल में शकेब
मैं परेशान हूँ, रंजूर हैं दोस्त

8 .

ख़मोशी बोल उठे, हर नज़र पैग़ाम हो जाये
ये सन्नाटा अगर हद से बढ़े, कोहराम हो जाये

सितारे मशालें ले कर मुझे भी ढूँडने निकलें
मैं रस्ता भूल जाऊँ, जंगलों में शाम हो जाये

मैं वो आदम-गजीदा हूँ जो तन्हाई के सहरा में
ख़ुद अपनी चाप सुन कर लरज़ा-ब-अन्दाम हो जाये

मिसाल ऎसी है इस दौर-ए-ख़िरद के होशमन्दों की
न हो दामन में ज़र्रा और सहरा नाम हो जाये

शकेब अपने तआरुफ़ के लिए ये बात काफ़ी है
हम उससे बच के चलते हैं जो रास्ता आम हो जाये

9.

उतरीं अजीब रोशनियाँ रात ख़्वाब में
क्या क्या न अक्स तैर रहे थे सराब में

कब से हैं एक हर्फ़ पे नज़रें जमीं हुईं
वो पढ़ रहा हूँ जो नहीं लिक्खा किताब में

फिर तिरगी के ख़्वाब से चौंका है रास्ता
फिर रौशनी-सी दौड़ गई है सहाब में


पानी नहीं कि अपने ही चेहरे को देख लूँ
मन्ज़र ज़मीं के ढूँढता हूँ माहताब में

कब तक रहेगा रूह पे पैराहन-ए-बदन
कब तक हवा असीर रहेगी हुबाब में

जीने के साथ मौत का डर है लगा हुआ
ख़ुश्की दिखाई दी है समन्दर को ख़्वाब में

एक याद है कि छीन रही है लबों से जाम
एक अक्स है कि काँप रहा है शराब में
10. 
जहाँ तलक भी ये सहरा दिखाई देता है 
मेरी तरह से अकेला दिखाई देता है 

न इतना तेज़ चले सर-फिरी हवा से कहो 
शजर पे एक ही पत्ता दिखाई देता है 

बुरा न मानिये लोगों की ऐब-जूई का 
इन्हें तो दिन का भी साया दिखाई देता है 

ये एक अब्र का टुकड़ा कहाँ- कहाँ बरसे 
तमाम दश्त ही प्यासा दिखाई देता है 

वो अलविदा का मंज़र वो भीगती पलकें 
पस-ए-ग़ुबार भी क्या क्या दिखाई देता है 

मेरी निगाह से छुप कर कहाँ रहेगा कोई 
के अब तो संग भी शीशा दिखाई देता है 

सिमट के रह गये आख़िर पहाड़- से क़द भी 
ज़मीं से हर कोई ऊँचा दिखाई देता है 

ये किस मक़ाम पे लाई है जुस्तजू तेरी 
जहाँ से अर्श भी नीचा दिखाई देता है 

खिली है दिल में किसी के बदन की धूप "शकेब" 
हर एक फूल सुनहरा दिखाई देता है
11. 
वही झुकी हुई बेलें वही दरीचा था
मगर वो फूल-सा चेहरा नज़र न आता था

मैं लौट आया हूँ ख़ामोशियों के सहरा से
वहाँ भी तेरी सदा का ग़ुबार फैला था

क़रीब तैर रहा था बतों का एक जोड़ा
मैं आबजू के किनारे उदास बैठा था

बनी नहीं जो कहीं पर कली की तुर्बत थी
सुना नहीं जो किसी ने हवा का नौहा था

ये आड़ी-तिर्छी लकीरें बना गया है कौन
मैं क्या कहूँ कि मेरे दिल का वरक़ तो सादा था

उधर से बारहा गुज़रा मगर ख़बर न हुई
कि ज़ेर-ए-सन्ग ख़ुनुक पानियों का चश्मा था

वो उस का अक्स-ए-बदन था कि चांदनी का कँवल
वही नीली झील थी या आसमाँ का टुकड़ा था

12. 

गले मिला न कभी चाँद बख़्त ऐसा था
हरा भरा बदन अपना दरख़्त ऐसा था

सितारे सिसकियाँ भरते थे ओस रोती थी
फ़साना-ए-जिगर लख़्त-लख़्त ऐसा था

ज़रा न मोम हुआ प्यार की हरारत से
चटख के टूट गया, दिल का सख़्त ऐसा था

ये और बात कि वो लब थे फूल-से नाज़ुक
कोई न सह सके, लहजा करख़्त ऐसा था

कहाँ की सैर न की तौसन-ए-तख़य्युल पर
हमें तो ये भी सुलेमान* के तख़्त ऐसा था

इधर से गुज़रा था मुल्क-ए-सुख़न का शहज़ादा
कोई न जान सका साज़-ओ-रख़्त ऐसा था