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मंगलवार, 14 मई 2013

रहीम के दोहे

अर्ब्दुरहीम ख़ानख़ाना (१५५६-१६२७) मुगल सम्राट अकबर के दरबारी कवियों में से एक थे।तीन प्रसिद्ध ग्रंथ हैं - रहीम दोहावली, बरवै नायिका भेद और नगर शोभा।

छिमा बड़न को चाहिये, छोटन को उतपात।

कह रहीम हरि का घट्यौ, जो भृगु मारी लात॥1॥



तरुवर फल नहिं खात है, सरवर पियहि न पान।

कहि रहीम पर काज हित, संपति सँचहि सुजान॥2॥



दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय।

जो सुख में सुमिरन करे, तो दुख काहे होय॥3॥



खैर, खून, खाँसी, खुसी, बैर, प्रीति, मदपान।

रहिमन दाबे न दबै, जानत सकल जहान॥4॥



जो रहीम ओछो बढ़ै, तौ अति ही इतराय।

प्यादे सों फरजी भयो, टेढ़ो टेढ़ो जाय॥5॥



बिगरी बात बने नहीं, लाख करो किन कोय।

रहिमन बिगरे दूध को, मथे न माखन होय॥6॥



आब गई आदर गया, नैनन गया सनेहि।

ये तीनों तब ही गये, जबहि कहा कछु देहि॥7॥



खीरा सिर ते काटिये, मलियत नमक लगाय।

रहिमन करुये मुखन को, चहियत इहै सजाय॥8॥



चाह गई चिंता मिटी, मनुआ बेपरवाह।

जिनको कछु नहि चाहिये, वे साहन के साह॥9॥



जे गरीब पर हित करैं, हे रहीम बड़ लोग।

कहा सुदामा बापुरो, कृष्ण मिताई जोग॥10॥



जो रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सोय।

बारे उजियारो लगे, बढ़े अँधेरो होय॥11॥


अर्ब्दुरहीम ख़ानख़ाना (१५५६-१६२७) मुगल सम्राट अकबर के दरबारी कवियों में से एक थे। 

रहिमन देख बड़ेन को, लघु न दीजिये डारि।

जहाँ काम आवै सुई, कहा करै तलवारि॥12॥



बड़े काम ओछो करै, तो न बड़ाई होय।

ज्यों रहीम हनुमंत को, गिरिधर कहे न कोय॥13॥



माली आवत देख के, कलियन करे पुकारि।

फूले फूले चुनि लिये, कालि हमारी बारि॥14॥



एकहि साधै सब सधै, सब साधे सब जाय।

रहिमन मूलहि सींचबो, फूलहि फलहि अघाय॥15॥



रहिमन वे नर मर गये, जे कछु माँगन जाहि।

उनते पहिले वे मुये, जिन मुख निकसत नाहि॥16॥



रहिमन विपदा ही भली, जो थोरे दिन होय।

हित अनहित या जगत में, जानि परत सब कोय॥17॥



बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर।

पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर॥18॥



रहिमन निज मन की व्यथा, मन में राखो गोय।

सुनि इठलैहैं लोग सब, बाटि न लैहै कोय॥19॥



रहिमन चुप हो बैठिये, देखि दिनन के फेर।

जब नीके दिन आइहैं, बनत न लगिहैं देर॥20॥



बानी ऐसी बोलिये, मन का आपा खोय।

औरन को सीतल करै, आपहु सीतल होय॥21॥



मन मोती अरु दूध रस, इनकी सहज सुभाय।

फट जाये तो ना मिले, कोटिन करो उपाय॥22॥



दोनों रहिमन एक से, जब लौं बोलत नाहिं।

जान परत हैं काक पिक, ऋतु वसंत कै माहि॥23॥



रहिमह ओछे नरन सो, बैर भली ना प्रीत।

काटे चाटे स्वान के, दोउ भाँति विपरीत॥24॥



रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय।

टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गाँठ परि जाय॥25॥



रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून।

पानी गये न ऊबरे, मोती, मानुष, चून॥26॥



वे रहीम नर धन्य हैं, पर उपकारी अंग।

बाँटनवारे को लगै, ज्यौं मेंहदी को रंग॥27॥


जो रहीम उत्‍तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग।
चंदन विष व्‍यापत नहीं, लिपटे रहत भुजंग।।28॥



कहि रहीम संपति सगे, बनत बहुत बहु रीत।
बिपति कसौटी जे कसे, ते ही साँचे मीत।।29।।



कदली सीप भुजंग मुख, स्‍वाति एक गुन तीन।
जैसी संगति बैठिए, तैसो ही फल दीन।।30।।



दीन सबन को लखत है, दीनहिं लखै न कोय।
जो रहीम दीनहिं लखै, दीनबंधु सम होय।।31।।



धनि रहीम जल पंक को, लघु जिय पिअत अघाय।
उदधि बड़ई कौन है, जगत पिआसो जाय।।32।।



बसि कुसंग चाहत कुसल, यह रहीम जिय सोस।
महिमा घटि सागर की, रावण बस्‍यो पड़ोस।।33।।



रुठे सुजन मनाइए, जो रुठै सौ बार।
रहिमन फिरि-फिरि पोहिए, टूटे मुक्‍ताहार।।34।।



समय पाय फल होत है, समय पाय झरि जाय।
सदा रहे नहिं एकसो, का रहिम पछिताय।।35।।


रहिमन मोम तुरंग चढ़ि, चलिबो पावक मांहि।
प्रेम पंथ ऐसो कठिन, सब कोउ निबहत नांहि।।36।।

रहिमन याचकता गहे, बड़े छोट है जात।
नारायण हू को भयो, बावन आंगुर गात।।37।।

रहिमन वित्त अधर्म को, जरत न लागै बार।
चोरी करि होरी रची, भई तनिक में छार।।38।।