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सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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रविवार, 5 मई 2013

देवी नागरानी


जन्म:कराची, हैदराबाद - मई 11, 1941,चराग़े दिल (ग़ज़ल संग्रह), सरला प्रकाशन, यादों का आँगान (ग़ज़ल संग्रह), दिल से दिल तक (ग़ज़ल संग्रह)सम्पर्क:devi1941@yahoo.com






१.

सुनाए जो लोरी वो माँ
चाहिये
हमें अपनी हिंदी ज़बां चाहिये

कहा किसने सारा जहाँ चाहिये
हमें सिर्फ़ हिन्दोस्तां चाहिये

जहाँ हिंदी भाषा के महकें सुमन
वो सुंदर हमें गुलसितां चाहिये

जहाँ भिन्नता में भी हो एकता
मुझे एक ऐसा जहां चाहिये

मुहब्बत के बहती हों धारे जहाँ
वतन ऐसा जन्नत निशां चाहिये

तिरंगा हमारा हो ऊँचा जहाँ
निगाहों में वो आसमां चाहिये

खिले फूल भाषा के देवी जहाँ
उसी बाग़ में आशियां चाहिये.


२.
ये दुनियाँ हैं घबराई मंहगी दरों से
परेशां है उसपर वो बढ़ते करों से

मैं सुनसान बस्ती में जैसे ही आई
हुई बात मेरी कई पत्थरों से

घरों के किये बंद सब दर-दरीचे
सभी सहमे-सहमे हैं फ़ितनागरों से

नज़र आए आसार हड़ताल के जब
तो मालिक ने की सुलह कारीगरों से

जो हिम्मत से जाते हैं जंगो-जदल में
वो अच्छे हैं बेशक़ सभी कायरों से

लगा कर वो माथे पे टीका लहू का
कफ़न वीर बांधे चले हैं सरों से

हवाओं में तकरार होती है ‘देवी’
ये जाना परिन्दों के गिरते परों से


३.

कितने पिये हैं दर्द के, आँसू बताऊँ क्या
ये दास्ताने-ग़म भी किसी को सुनाऊँ क्या?


रिश्तों के आईने में दरारें हैं पड़ गईं
अब आईने से चेहरे को अपने छुपाऊँ क्या?


दुश्मन जो आज बन गए, कल तक तो भाई थे
मजबूरियाँ हैं मेरी, मैं उनसे छुपाऊँ क्या?


चारों तरफ़ से तेज़ हवाओं में हूँ घिरी
इन आँधियों के बीच में दीपक जलाऊँ क्या?


दीवानगी में कट गए मौसम बहार के
अब पतझड़ों के ख़ौफ़ से दामन बचाऊँ क्या?


साज़िश ख़िलाफ़ मेरे दोस्तों की थी
इल्ज़ाम दुशमनों पे मैं ‘देवी’ लगाऊँ क्या?

४.
दीवारो-दर थे, छत थी वो अच्छा मकान था
दो चार तीलियों पे ही कितना गुमान था।


जब तक कि दिल में तेरी ही यादें जवान थीं
छोटे से एक घर में ही सारा जहान था।


शब्दों के तीर छोड़े गये मुझ पे इस तरह
हर ज़ख़्म का हमारे दिल पर निशान था।


तन्हा नहीं है तू ही यहाँ और हैं बहुत
तेरे न मेरे सर पे कोई सायबान था।


कोई नहीं था ‘देवी’ गर्दिश में मेरे साथ
बस मैं, मिरा मुक़द्दर और आसमान था।

५.
देखकर मौसमों के असर रो दिये
सब परिंदे थे बे-बालो-पर रो दिये।

बंद हमको मिले दर-दरीचे सभी
हमको कुछ भी न आया नज़र रो दिये।

काम आये न जब इस ज़माने के कुछ
देखकर हम तो अपने हुनर रो दिये।

कांच का जिस्म लेकर चले तो मगर
देखकर पत्थरों का नगर रो दिये।

हम भी महफ़िल में बैठे थे उम्मीद से
उसने डाली न हम पर नज़र रो दिये।

फ़ासलों ने हमें दूर सा कर दिया
अजनबी- सी हुई वो डगर रो दिये।

६.
उड़ गए बालो-पर उड़ानों में
सर पटकते हैं आशियानों में।

जल उठेंगे चराग़ पल भर में
शिद्दतें चाहिये तरानों में।

नज़रे बाज़ार हो गए रिश्ते
घर बदलने लगे दुकानों में।

धर्म के नाम पर हुआ पाखंड
लोग जीते हैं किन गुमानों में।

कट गए बालो-पर, मगर हमने
नक़्श छोड़े हैं आसमानों में।

वलवले सो गए जवानी के
जोश बाक़ी नहीं जवानों में।

बढ़ गए स्वार्थ इस क़दर ‘देवी’
एक घर बंट गया घरानों में।

७.
आँधियों के भी पर कतरते हैं
हौसले जब उड़ान भरते हैं।


गै़र तो गै़र हैं चलो छोड़ो
हम तो बस दोस्तों से डरते हैं।


जिंदगी इक हसीन धोका है
फिर भी हँस कर सुलूक करते हैं।


राह रौशन हो आने वालों की
हम चराग़ों में खून भरते हैं।


खौफ़ तारी है जिनकी दहशत का
लोग उन्हीं को सलाम करते हैं।


कल तलक सच के रास्तों पर थे
झूठ के पथ से अब गुज़रते हैं।


हम भला किस तरह से भटकेंगे
हम तो रौशन ज़मीर रखते हैं


आदमी देवता नहीं फिर भी
बन के शैतान क्यों विचरते हैं।

८.
ताज़गी कुछ नहीं हवाओं में
फ़स्ले‍‌‍‍‍‍‌‌-ग़ुल जैसे है खिज़ाओं में।


हम जिसे मन की शांति हैं कहते,
वो तो मिलती है प्रार्थनाओं में।


यूँ तराशा है उनको शिल्पी ने
जान- सी पड़ गई शिलाओं में।


जो उतारी थीं दिल में तस्वीरें
वो अजंता की है गुफाओं में।


सच की आवाज़ ही जहां वालो,
खो गई वक्त की सदाओं में।


तू कहाँ ढूँढने चली ‘देवी’
बू वफ़ाओं की बेवफ़ाओं में।

९.
या बहारों का ही ये मौसम नहीं
या महक में ही गुलों के दम नहीं।

स्वप्न आँखों में सजाया था कभी
आँसुओं से भी हुआ वह नम नहीं।

हम बहारों के न थे आदी कभी
इसलिये बरबादियों का ग़म नहीं।

आशियाना दिल का है उजड़ा हुआ
ज़िंदगी के साज़ पर सरगम नहीं।

जश्न खुशियों का भी अब बेकार है
ग़म का भी कोई रहा जब ग़म नहीं।

मौत का क्यों ख़ौफ़ ‘देवी’ दिल में हो
जीने से बेहतर कोई मौसम नहीं।

१०.
डर उसे फिर न रात का होगा
जब ज़मीर उसका जागता होगा।

क़द्र वो जानता है खुशियों की
ग़म से रखता जो वास्ता होगा।

बात दिल की निगाह कह देगी
चुप ज़ुबां गर रहे तो क्या होगा?

क्या बताएगा स्वाद सुख का वो
ग़म का जिसको न ज़ायका होगा।

सुलह कैसे करें अँधेरों से
रौशनी से भी सामना होगा।

दूर साहिल से आ गए ‘देवी’
अब तो मौजों पे रास्ता होगा।

११.
 बारिशों में बहुत नहाए हैं
आज हम धूप खाने आए हैं।

अश्क जिनके लिये बहाए हैं
आज वो खु़द ही मिलने आए हैं।

लेके माँ की दुआ मैं निकली हूँ
दूर तक रास्तों में साए हैं।

घिर गई हूँ न जाने किनके बीच
लोग अपने लगे पराए हैं।

दिल की बाज़ी लगाई है अक्सर
गो कि हर बार मात खाए हैं।

हौसले देखिये हमारे भी
आँधियों में दिये जलाए हैं।

मुस्कराकर भी देखिये ‘देवी’
अश्क तो उम्र भर बहाए हैं।


१२.
लबों पर गिले यूँ भी आते रहे हैं
तुम्हारी जफ़ाओं को गाते रहे हैं।

कभी छाँव में भी बसेरा किया था
कभी धूप में हम नहाते रहे हैं।

रहा आशियां दिल का वीरान लेकिन
उम्मीदों की महफ़िल सजाते रहे हैं।

लिये आँख में कुछ उदासी के साये
तेरे ग़म में पलकें जलाते रहे हैं।

ज़माने से ‘देवी’ न हमको मिला कुछ
ज़माने से फिर भी निभाते रहे हैं।

१३.
तारों का नूर लेकर ये रात ढल रही है
दम तोड़ती हुई इक शम्अ जल रही है।

नींदों की ख़्वाहिशों में रातें गुज़ारती हूँ
सपनों की आस अब तक दिल में ही पल रही है।

ऐसे न डूबते हम पहले जो थाम लेते
मौजों की गोद में अब कश्ती सँभल रही है।

तुम जब जुदा हुए तो सब कुछ उजड़ गया था
तुम आ गए तो दुनियाँ करवट बदल रही है।

इस ज़िंदगी में रौनक़ कम तो नहीं है ‘देवी’
बस इक तेरी कमी ही दिन रात खल रही है।

१४.
अपने जवान हुस्न का सदक़ा उतार दे
दर्शन दे एक बार मुक़द्दर सँवार दे।

जो खिल उठें गुलाब मेरे दिल के बाग़ में
रब्बा, मेरे नसीब में ऐसी बहार दे।

अच्छा तो मेरे क़त्ल में मेरा ही हाथ था
आ सारी तुहमतें तू मेरे सर पे मार दे।

इक जामे-‍बेख़ुदी की है दरकार आजकल
हर ग़म को भूल जाऊँ मैं, ऐसा ख़ुमार दे।

मोहलत ज़रा सी दे मुझे लौटूँ अतीत में
दो चार पल के वास्ते दुनियाँ सँवार दे।

१५.
बाक़ी न तेरी याद की परछाइयाँ रहीं
बस मेरी ज़िंदगी में ये तन्हाइयाँ रहीं।

डोली तो मेरे ख़्वाब की उठ्ठी नहीं, मगर
यादों में गूँजती हुई शहनाइयाँ रहीं।

बचपन तो छोड़ आए थे, लेकिन हमारे साथ
ता- उम्र खेलती हुई अमराइयाँ रहीं।

चाहत, ख़ुलूस, प्यार के रिश्ते बदल गए
जज़बात में न आज वो गहराइयाँ रहीं।

अच्छे थे जो भी लोग वो बाक़ी नहीं रहे
‘देवी’ जहां में अब कहाँ अच्छाइयाँ रहीं।

१६.
सपने कभी आँखों में बसाए नहीं हमने
बेकार के ये नाज़ उठाए नहीं हमने।

दौलत को तेरे दर्द की रक्खा सहेज कर
मोती कभी पलकों से गिराए नहीं हमने।

आई जो तेरी याद तो लिखने लगी गज़ल
रो रो के गीत औरों को सुनाए नहीं हमने।

है सूखा पड़ा आज तो, कल आयेगा सैलाब
ख़ेमे किसी भी जगह लगाए नहीं हमने।

इतने फ़रेब खाए हैं ‘देवी’ बहार में
जूड़े में गुलाब अब के लगाये नहीं हमने।

१७.
कैसे दावा करूँ मैं सच्ची हूँ
झूठ की बस्तियों में रहती हूँ।

मेरी तारीफ़ वो भी करते हैं
जिनकी नज़रों में रोज़ गिरती हूँ।

दुश्मनों का मलाल क्या कीजे
दोस्तों के लिये तो अच्छी हूँ।

दिल्लगी इससे बढ़के क्या होगी
दिलजलों की गली में रहती हूँ।

भर गया मेरा दिल ही अपनों से
सुख से ग़ैरों के बीच रहती हूँ।

गागरों में जो भर चुके सागर
प्यास उनके लबों की बनती हूँ।

जीस्त ‘देवी’ है खेल शतरंजी
बनके मोहरा मैं चाल चलती हूँ।

१८.
झूठ सच के बयान में रक्खा
बिक गया जो दुकान में रक्खा।

क्या निभाएगा प्यार वह जिसने
ख़ुदपरस्ती को ध्यान में रक्खा।

ढूँढते थे वजूद को अपने
भूले हम, किस मकान में रक्खा।

जिसने भी मस्लहत से काम लिया
उसने खुद को अमान में रक्खा।

जो भी जैसा है ठीक ही तो है
कुछ नहीं झूठी शान में रक्खा।

ज़िंदगी तो है बेवफ़ा ‘देवी’
इसने मुझको गुमान में रक्खा।

१९.
तू न था कोई और था फिर भी
याद का सिलसिला चला फिर भी।

शहर सारा है जानता फिर भी
राह इक बार पूछता फिर भी।

ख़ाली दिल का मकान था फिर भी
कुछ न किसको पता लगा फिर भी।

याद की कै़द में परिंदा था
कर दिया है उसे रिहा फिर भी।

ज़िंदगी को बहुत सँभाला था
कुछ न कुछ टूटता रहा फिर भी।

गो परिंदा वो दिल का घायल था
सोच के पर लगा उड़ा फिर भी।

तोहमतें तू लगा मगर पहले
फ़ितरतों को समझ ज़रा फिर भी।

कर दिया है ख़ुदी से घर खाली
क्यों न ‘देवी’, ख़ुदा रहा फिर भी।

२०.
गर्दिशों ने बहुत सताया है
हर क़दम पर ही आज़माया है।

दफ़्न हैं राज़ कितने सीने में
हर्फ़ लब पर कभी न आया है।

मुझको हँस हँस के मेरे साक़ी ने
उम्र भर ज़हर ही पिलाया है।

ज़ोर मौजों का खूब था लेकिन
कोई कश्ती निकाल लाया है।

मुस्कराया है इस अदा से वो
जैसे ख़त का जवाब आया है।

बनके अनजान उसने फिर मेरे
दिल के तारों को झन-झनाया है।

मुझको ठहरा दिया कहाँ ‘देवी’
सर पे छत है न कोई साया है।

२१.
दर्द बनकर समा गया दिल में
कोई महमान आ गया दिल में।

चाहतें लेके कोई आया था
आग सी इक लगा गया दिल में।

झूठ में सच मिला गया कोई
एक तूफ़ां उठा गया दिल में।

ख़ुशबुओं से बदन महक उठ्ठा
फूल ऐसे खिला गया दिल में।

मैं अकेली थी और अँधेरा था
जोत कोई जला गया दिल में।

२२.
छीन ली मुझसे मौसम ने आज़ादियाँ
रास फिर आ गईं मुझको तन्हाइयाँ।

बनके भँवरे चुराते रहे रंगो-बू
रँग है अपना कोई, न है आशियां।

दूसरा ताज कोई बनाएगा क्या
अब लहू मैं रही हैं कहाँ गर्मियाँ।

खुद से हारा हुआ आज इन्सान है
हौसलों में कहाँ अब हैं अंगड़ाइयाँ।

आज जो ज़हमतों का मिला है सिला
बावफ़ा वो निभाती हैं दुशवारियाँ।

पहले अपने गरेबान में देख लो
फिर उठा ‘देवी’ औरों पे तू उँगलियाँ।

२३.
चराग़ों ने अपने ही घर को जलाया
कि हैरां है इस हादसे पर पराया।
किसी को भला कैसे हम आज़माते
मुक़द्दर ने हमको बहुत आज़माया।
दिया जो मेरे साथ जलता रहा है
अँधेरा उसी रौशनी का है साया।
रही राहतों की बड़ी मुंतज़िर मैं
मगर चैन दुनियाँ में हरगिज़ न पाया।
संभल जाओ अब भी समय है ऐ ‘देवी’
क़यामत का अब वक़्त नज़दीक आया।

२४.
हिज्र में उसके जल रहे जैसे
प्राण तन से निकल रहे जैसे।

जो भटकते रहे जवानी में
वो कदम अब सँभल रहे जैसे।

मौसमों की तरह ये इन्सां भी
फ़ितरत अपनी बदल रहे जैसे।

दर्द मुझसे ज़ियादा दूर नहीं
पास में ही टहल रहे जैसे।

आईना रोज़ यूँ बदलते वो
अपने चेहरे बदल रहे जैसे।

साँस लेते हैं इस तरह ‘देवी’
सिसकियों में हों पल रहे जैसे।

२५.
तेरे क़दमों में मेरा सजदा है
तुझको अपना खुदा बनाया है।


जिसकी ख़ातिर ख़ता हुई हमसे
वो ही इल्ज़ाम देने आया है।


ख़ुद की नज़रों से गिर गए हैं जो
हमने बढ़कर उन्हें उठाया है।


हौसला है बुलंद कुछ इतना
हमने तूफां में घर बनाया है।


हमको पूरा यकीन था जिसपर
तोड़कर उसने ही रुलाया है।


उसने धोका दिया हमें देवी
राज़े-दिल जिसको भी बताया है।

२६.
दिल को हम कब उदास रखते हैं
आज भी उनकी आस करते हैं।

हमको ढूँढो नहीं मकानों में
हम दिलों में निवास करते हैं।

पहले ख़ुद ही उदास रहते थे
अब वो सबको उदास करते हैं।

चढ़के काँधों पे हो गए ऊँचे
इस तरह भी विकास करते हैं।

इत्तफ़ाकन निगाह उट्ठी थी
लोग क्या क्या क़यास करते हैं।

२७.
ख़्यालों ख़्वाब में ही महफिलें सजाता है।
और उसके बाद उदासी में डूब जाता है।

वो चाहता है के नज़्दीक रहूँ मैं उसके
क़रीब जाऊँ तो फिर फ़ासले बढ़ाता है।

कुछ ऐसे भाए हैं रस्तों के पचोख़म उसको
क़रीब जाके भी मंज़िल से लौट आता है।

किसी ज़ुबान के शब्दों से उसको नफ़रत है
किसी के धर्म पे उँगली भी वो उठाता है।

वो रूठ जाता है यूँ भी कभी कभी मुझसे
कभी कभी तो मिरे नाज़ भी उठाता है।

२८.
हमने चाहा था क्या और क्या दे गई
ग़म का पैग़ाम बादे-सबा दे गई।

मुस्कराहट को होटों से दाबे रक्खा
मेरी नीची नज़र ही दग़ा दे गई।

मौत से कम नहीं तेरी चाहत, के जो
जीते रहने की हमको सज़ा दे गई।

आके इक मौज हल्की सी साहिल पे आज
आना वाला है तूफाँ पता दे गई।

हम झुलसते रहे हिज्र की आग में
ज़िंदगी मुझको देवी सज़ा दे गई।

२९.
चोट ताज़ा कभी जो खाते हैं
ज़ख्मे-‍‌दिल और मुस्कराते हैं।


मयकशी से ग़रज़ नहीं हमको
तेरी आँखों में डूब जाते हैं।


जिनको वीरानियों ही रास आईं
कब नई बस्तियाँ बसाते हैं।


शाम होते ही तेरी यादों के
दीप आँखों में झिलमिलाते हैं।


कुछ तो गुस्ताख़ियों को मुहलत दो
अपनी पलकों को हम झुकाते हैं।


तुम तो तूफां से बच गई देवी
लोग साहिल पे डूब जाते हैं।

३०.
वो अदा प्यार भरी याद मुझे है अब तक
बात बरसों की मगर कल की लगे है अब तक।


हम चमन में ही बसे थे वो महक पाने को
ख़ार नश्तर की तरह दिल में चुभे है अब तक।


जा चुका कब का ये दिल तोड़ के जाने वाला
आखों में अश्कों का इक दरिया बहे है अब तक।


आशियां जलके हुआ राख, ज़माना गुज़रा
और रह रह के धुआँ उसका उठे है अब तक।


क्या ख़बर वक़्त ने कब घाव दिये थे ‘देवी’
वक़्त गुज़रा है मगर खून बहे है अब तक।

३१.
ठहराव ज़िंदगी में दुबारा नहीं मिला
जिसकी तलाश थी वो किनारा नहीं मिला।

वर्ना उतारते न समंदर में कश्तियाँ
तूफान आया जब भी इशारा नहीं मिला।

हम ने तो खुद को आप सँभाला है आज तक
अच्छा हुआ किसी का सहारा नहीं मिला।

बदनामियाँ घरों में दबे पाँव आईं
शोहरत को घर कभी भी, हमारा नहीं मिला।

ख़ुशबू, हवा और धूप की परछाइयाँ मिलीं
रौशन करे जो शाम, सितारा नहीं मिला।

खामोशियाँ भी दर्द से ‘देवी’ पुकारतीं
हम-सा कोई नसीब का मारा नहीं मिला।

३२.
जाने क्या कुछ हुई ख़ता मुझसे
रूठा वो बे सबब न था मुझसे।

जिसको हासिल न कुछ हुआ मुझसे
मौन का अर्थ पूछता मुझसे।

लोग क्या जाने जानने आए
नाता जिनका न था जुड़ा मुझसे।

जिसने रक्खा था कै़द में मुझको
खुद रिहाई था चाहता मुझसे।

ना-शनासों की बस्तियों में, कब
किसने रक्खा है राब्ता मुझसे।

सिलसिला राहतों का टूट गया
दिल की धड़कन हुई खफ़ा मुझसे।

३३.
अँधेरी गली में मेरा घर रहा है
जहाँ तेल-बाती बिना इक दिया है।

जो रौशन मेरी आरज़ू का दिया है
मेरे साथ वो मेरी माँ की दुआ है।

अजब है, उसी के तले है अँधेरा
दिया हर तरफ़़ रौशनी बाँटता है।

यहाँ मैं भी मेहमान हूँ और तू भी
यहाँ तेरा क्या है, यहाँ मेरा क्या है।

खुली आँख में खाहिशों का समुंदर
न अंजाम जिनका कोई जानता है।

जहाँ देख पाई न अपनी ख़ुदी मैं
न जाने वहीं मेरा सर क्यों झुका है।

तुझे वो कहाँ ‘देवी’ बाहर मिलेगा
धड़कते हुए दिल के अंदर खुदा है।

३४.
ये सायबां है जहां, मुझको सर छुपाने दो
करम ख़ुदा का है सब पर, वो आज़माने दो।


जो दिल के तार न छेड़े थे हमने बरसों से
उन्हें तो आज अभी छेड़ कर बजाने दो।


ख़फा न तुम हो किसी से भी देखकर काँटे
कि फूल कहता है जो कुछ, उसे बताने दो।


कभी तो दर्द भुलाकर भी मुस्कराओ तुम
न दर्द के वो पुराने कभी बहाने दो।


ख़फ़ा हुई है खुशी इस क़दर भी क्यों हमसे
ग़मों का जश्‌ने-मुबारक हमें मनाने दो।


उदासियों को छुपाओ न दिल में तुम ‘देवी’
कभी लबों को भी कुछ देर मुस्कराने दो।

३५.
ख़ता अब बनी है सजा का फ़साना
बताऊँ तुम्हें क्या है दिल का लगाना।


हवा में न जाने ये कैसा नशा है
पिये बिन ही झूमे है सारा ज़माना।


यहाँ रोज सजती है खुशियों की महफ़िल
मचलता है लब पर खुशी का तराना।


सदा घूमते हैं सरे-आम खतरे
बहुत ही है दुश्वार खुद को बचाना।


करें कैसे अपने-पराये की बातें
दिलों ने अगर दिल से रिश्ता न माना।

३६.
बहता रहा जो दर्द का सैलाब था न कम
आँखें भी रो रही हैं, ये अशआर भी है नम।


जिस शाख पर खड़ा था वो, उसको ही काटता
नादां न जाने खुद पे ही करता था क्यों सितम।


रिश्तों के नाम जो भी लिखे रेगज़ार पर
कुछ लेके आँधियाँ गईं, कुछ तोड़ते हैं दम।


मुरझा गई बहार में, वो बन सकी न फूल
मासूम-सी कली पे ये कितना बड़ा सितम।


रोते हुए-से जश्न मनाते हैं लोग क्यों
चेहरे जो उनके देखे तो, असली लगे वो कम।

३७.
बुझे दीप को जो जलाती रही है
यही रौशनी है, यही रौशनी है।

जो बेलौस अपने ख़ज़ाने लुटा दे
यही सादगी है,यही सादगी है।

रहे दूर सुख मेँ, मगर पास दुख में
यही दोस्ती है, यही दोस्ती है।

पिया हो मगर प्यास फिर भी हो बाक़ी
यही तिशनगी है, यही तिशनगी है।

बिना कुछ कहे बात आए समझ में
यही आशिकी है, यही आशिकी है।

कभी शांति में ख़ुश, कभी शोर में ख़ुश
यही बेदिली है, यही बेदिली है।

जो चाहा था वो सब न कर पाई ‘देवी’
यही बेबसी है, यही बेबसी है।

३८.
कोई षडयंत्र रच रहा है क्या
जन्मदाता बना हुआ है क्या?


राहगीरों को मिलके राहों पर
राह को घर समझ रहा है क्या?


रात दिन किस ख़ुमार में है तू
तुझ को अपना भी कुछ पता है क्या?


सुर्खियाँ जुल्म की हैं चेहरे पर
इस पे ख़ुश होने में मज़ा है क्या?


दुष्ट ‘देवी’ हो कोई तुमको क्या
छोड़ इस सोच में रखा है क्या?

३९.
 तर्क कर के दोस्ती फिरता है क्यों
बनके आखिर अजनबी फिरता है क्यों?

चल वहाँ होगी जहाँ शामे-गज़ल
साथ लेकर बेदिली फिरता है क्यों?


बैठ आपस में चलो बातें करें
ओढ़ कर तू ख़ामुशी फिरता है क्यों?


जब नहीं दिल में खुशी तो किस लिये
लेके होटों पर हँसी फिरता है क्यों?


चाहतों के फूल, रिश्तों की महक
लेके ये दीवानगी फिरता है क्यों?


दाग़ दामन के ज़रा तू धो तो ले
इतनी लेकर गँदगी फिरता है क्यों?


है हकीकत से सभी का वास्ता
करके उससे बेरुख़ी फिरता है क्यों?

४०.
कितने आफ़ात से लड़ी हूँ मैं
तब तेरे दर पे आ खड़ी हूँ मैं।

वो किसी से वफ़ा नहीं करता
कहता है बेवफ़ा बड़ी हूँ मैं।

आसमां पर हैं चाँद तारे सब
इस ज़मीं पर फ़कत पड़ी हूँ मैं।

कद में बेशक बड़ा है तू मुझसे
उम्र में चार दिन बड़ी हूँ मैं।

मैं तो नायाब इक नगीना हूँ
अपने ही साँस में जड़ी हूँ मै।

नाम है ज़िंदगी मगर देवी
अस्ल में मौत की कड़ी हूँ मैं।

४१.
यूँ उसकी बेवफ़ाई का मुझको गिला न था
इक मैं ही तो नहीं जिसे सब कुछ मिला ना था।


लिपटे हुए थे झूठ से कोई सच्चा न था
खोटे तमाम सिक्के थे, इक भी खरा न था।


उठता चला गया मेरी सोचों का कारवां
आकाश की तरफ़ कभी, वो यूँ उड़ा न था।


माहौल था वही सदा, फि़तरत भी थी वही
मजबूर आदतों से था, आदम बुरा न था।


जिस दर्द को छुपा रखा मुस्कान के तले
बरसों में एक बार भी कम तो हुआ न था।


ढोते रहे है बोझ सदा तेरा ज़िंदगी
जीने में लुत्फ़ क्यों कोई बाक़ी बचा न था।


कितने नकाब ओढ़ के देवी दिये फरेब
जो बेनकाब कर सके वो आईना न था।

४२.
रिश्ता तो सब ही जताते हैं
पर कुछ ही खूब निभाते हैं।


दुख दर्द हैं ऐसे महमां जो
आहट के बिन आ जाते हैं।


गर्दिश में सितारे हैं जिनके
वो दिन में भी घबराते हैं।


विश्वास की दौलत वालों को
रातों के अँधेरे भाते हैं।


ज़ंजीर में यादों की देवी
हम खुद को जकड़ते जाते हैं।

४३.
हक़ीक़त में हमदर्द है वो हमारा
बुरे वक़्त में आके दे जो सहारा।

कभी साहिलों से भी उठते हैं तूफां
कभी मौज़े-तूफां में पाया किनारा।

दबी चीख़ जब भी सुनी हसरतों की
कभी आँख रोई, कभी दिल हमारा।

ये किस मोड़ पर ज़िंदगी लेके आई
खुशी है गवारा, न ग़म है गवारा।

कभी बद्दुआओं ने दी ज़िंदगानी
कभी तो तुम्हारी दुआओं ने मारा।

मेरी ज़िंदगी में बहार आ रही है
तुम्हारे तबस्सुम ने शायद पुकारा।

मुझे डर है देवी तो बस दोस्तों से
मुझे दुशमनों ने दिया है सहारा।

४४.
नहीं उसने हरगिज रज़ा रब की पाई
न जिसने कभी हक की रोटी कमाई।

रहे खटखटाते जो दर हम दया के
दुआ बनके उजली किरण मिलने आई।

मिली है वहाँ उसको मंज़िल मुबारक
जहाँ जिसने हिम्मत की शम्अ जलाई।

खुदी को मिटाकर खुदा को है पाना
हमारी समझ में तो ये बात आई।

रहा जागता जो भी सोते में देवी
मुक़द्दर की देता नहीं वो दुहाई।

४५.
दीवार दर तो ठीक थे, बीमार दिल वहाँ
टूटे हुए उसूल थे, जिनका रहा गुमाँ।

दीवारो-दर को हो न हो अहसास भी अगर
दिल नाम का जो घर मेरा, यादें बसी वहाँ।

नश्तर चुभो के शब्द के, गहरे किये है जख़्म
जो दे शफ़ा-सुकून भी, मरहम वो है कहाँ?

झोंके से आके झाँकती खुशियाँ कभी कभी,
बसती नहीं है जाने क्यों बनके वो महरबाँ।

ख़ामोश तो जुबां मगर आँखें न चुप रही,
नादां है वो न समझे इशारों की जो जुबाँ।

इन गर्दिशों के दौर से देवी न बच सकें,
जब तक ज़मीँ पे हम है और ऊपर है आसमाँ।

४६.
सोच को मेरी नई वो इक रवानी दे गया
मेरे शब्दों को महकती ख़ुशबयानी दे गया।

कर दिया नीलाम उसने आज ख़ुद अपना ज़मीर
तोड़कर मेरा भरोसा बदगुमानी दे गया।

सौदेबाज़ी करके ख़ुद वो अपने ही ईमान की
शहर के सौदागरों को बेईमानी दे गया।

जाने क्या क्या बह गया था आँसुओं की बाढ़ में
ना ख़ुदा घबराके उसमें और पानी दे गया।

साथ अपने लेके आया ताज़गी चारों तरफ़़
सूखते पत्तों को फिर से नौजवानी दे गया।

आशनाई दे सके ऐसा बशर मिलता नहीं
बरसों पहले जो मिला वो इक निशानी दे गया।

एक शाइर आके इक दिन पत्थरों के शहर में
मेरी ख़ामोशी को ‘देवी’ तर्जुमानी दे गया।

४७.
सोच की चट्टान पर बैठी रही
जाल मख़मल का वहीं बुनती रही।

कहने के क़ाबिल न थी उसकी जुबां
ख़ामशी की गूँज मैं सुनती रही।

हार मानी थी न कल तक, आज फिर
हौसले लेकर न क्यों चलती रही?

क्या बहारों से है मेरा वास्ता
मैं खिज़ाओं में सदा पलती रही।

जिसने तूफ़ां से बचाया था मुझे
सामने उसके सदा झुकती रही।

४८.
है गर्दिश में क़िस्मत का अब भी सितारा
कभी तो डुबोया कभी तो उभारा।

दबे पाँव तूफ़ान आए हैं कैसे
न कोई ख़बर थी न कोई इशारा।

अचानक ये झड़ने लगे फूल पते
अचानक बदलने लगा है नज़ारा।

यहीं छोड़ कर सब चले जाएँगे हम
रहेगा कहीं भी न कुछ भी हमारा।

मुझे मेरे रब का सहारा मिला है
नहीं चाहिये अब किसी का सहारा।

४९.
ज़िंदगी है ये, ऐ बेख़बर
मुख़्तसर, मुख़्तसर, मुख़्तसर।

तू न इतनी भी नादान बन
आख़िरत का है ‘देवी’ सफ़र।

ज़ायका तो लिया उम्र भर
ज़हर को समझे अमृत मगर।

फिर भी लौटे हैं प्यासे यहाँ
यूँ तो साहिल पे थे उम्र भर।

बनके बेख़ौफ़ चलता है क्यों?
मौत रखती है तुझ पर नज़र।

बस उन्हें देखते रह गये
हमसे ख़ुशियाँ चलीं रूठकर।

रक्स करती थी ख़ुशियाँ अभी
ग़म उन्हें ले गया लूटकर।

कैसे परवाज़ देवी करे
नोचे सैयाद ने उसके पर।

५०.
यूँ मिलके वो गया है कि मेहमान था कोई
उसका वो प्यार मुझपे इक अहसान था कोई।

वो राह में मिला भी तो कुछ इस तरह मिला
जैसे के अपना था न वो, अनजान था कोई।

घुट घुट के मर रही थी कोई दिल की आरज़ू
जो मरके जी रहा था वो अरमान था कोई।

नज़रें झुकीं तो झुकके ज़मीं पर ही रह गईं
नज़रें उठाना उसका न आसान था कोई।

था दिल में दर्द, चेहरा था मुस्कान से सजा
जो सह रहा था दर्द वो इन्सान था कोई।

उसके करम से प्यार-भरा, दिल मुझे मिला
‘देवी’, वो दिल के रूप में वरदान था कोई।

५१.
बददुआओं का है ये असर
हर दुआ हो गई बेअसर।


ज़ख्म अब तक हरे है मिरे
सूख कर रह गए क्यों शजर।


यूँ न उलझो किसी से यहाँ
फितरती शहर का है बशर।


राह तेरी मेरी एक थी
क्यों न बन पाया तू हमसफ़र।


वो मनाने तो आया मुझे
रूठ कर ख़ुद गया है मगर।


चाहती हूँ मैं ‘देवी’ तुझे
सच कहूँ किस क़दर टूटकर।

५२.
शबनमी होंठ ने छुआ जैसे
कान में कुछ कहे हवा जैसे।


लेके आँचल उड़ी हवा जैसे
सैर को निकली हो सबा जैसे।


उससे कुछ इस तरह हुआ मिलना
मिलके कोई बिछड़ रहा जैसे।


इक तबीयत थी उनकी, इक मेरी
मैं हंसी उनपे बल पड़ा जैसे।


लोग कहकर मुकर भी जाते हैं
आँख सच का है आईना जैसे।


वो किनारों के बीच की दूरी
है गवारा ये फ़ासला जैसे।


शहर में बम फटा था कल लेकिन
दिल अभी तक डरा हुआ जैसे।

५३.
दिल अकेला कहाँ रहा होगा
फिक्र का साथ काफ़िला होगा।

याद की बज़्म में जो रहता हूँ
कुछ तो उनसे भी वास्ता होगा।

साथ सूरज के चाँद तारे हों
रात-दिन में न फ़ासला होगा।

कुछ करिश्मे अजीब अनदेखे
कुछ न कुछ उन का क़ायदा होगा।

उम्र भर का सफ़र है जीवन ये
‘मौत’ मंज़िल है, सामना होगा।

साथ अपना निभा सकें कैसे
ख़ुद से जब तक न राबता होगा।

५४.
मजबूरियों में भीगता, हर आदमी यहाँ
सौदा करे ज़मीर का, हर आदमी यहाँ।

इक दूसरे के कर्ज़ में डूबे हुए हैं सब
इक दूसरे से डर रहा, हर आदमी यहाँ।

कहते हैं जिसको शाइरी शब्दों का खेल है
शाइर मगर छुपा हुआ, हर आदमी यहाँ।

सब बुझ गए चराग़, उजाले समेट कर
इक ढेर राख का बचा, हर आदमी यहाँ।

शतरंज की बिसात पे देवी है ज़िंदगी
मोहरा ही बनके रह गया, हर आदमी यहाँ।

५५.
वो नींद में आना भूल गए
हम ख़्वाब सजाना भूल गए।

दरिया तक दिल को ले आए
पर प्यास बुझाना भूल गए।

कुछ ऐसे उलझे ख़ारों में
दामन को बचाना भूल गए।

कुछ राह में ऐसे मोड़ मिले
घर वापस आना भूल गए।

दीवार कुरेदी यादों की
और ज़ख्म दिखाना भूल गए।

कस्में भी हमें कुछ याद नहीं
रस्में भी निभाना भूल गए।

पल भर में बदलता है मंज़र
हम याद दिलना भूल गए।

इस जीने की उलझन में ‘देवी’
बचपन का ज़माना भूल गए।

५६.
इक नश्शा-सा बेख़ुदी में हो
हुस्न ऐसा भी सादगी में हो।

दे सके जो ख़ुलूस का साया
ऐसी ख़ूबी तो आदमी में हो।

शक की बुनियाद पर महल कैसा
कुछ तो ईमान दोस्ती में हो।

दुख के साग़र को खुश्क जो कर दे
ऐसा कुछ तो असर ख़ुशी में हो।

ख़ुद-ब-ख़ुद आ मिले ख़ुदा मुझसे
कुछ तो अहसास बंदगी में हो।

अपनी मंज़िल को पा नहीं सकता
वो जो गुमराह रौशनी में हो।

सारे मतलाब परस्त है ‘देवी’
कुछ मुरव्वत भी तो किसी में हो।

५७.
मिट्टी का मेरा घर अभी पूरा बना नहीं
है हमसफ़र ग़रीब मेरा, बेवफ़ा नहीं।

माना कि मेरे दिल में ज़रा भी दया नहीं
फिर भी किसी के बारे में कुछ भी कहा नहीं।

आँगन में बीज बोए कल, अब पेड़ हैं उगे
हैरत है शाख़ पर कोई पत्ता हरा नहीं।

विशवास कर सको तो करो, वर्ना छोड़ दो
इस दम समय बुरा है मेरा, मैं बुरा नहीं।

अच्छी बुरी हैं फितरतें, टकराव लाज़मी
शतरंज का हूँ मोहरा मैं फिर भी चला नहीं।

रस्मों के रिश्ते और हैं, जज़बात के हैं और
मैंने ज़बां से नाम किसी का लिया नहीं।

शादाब इसलिये भी है दिल की मेरी ज़मीं
क्योंकि मेरा ज़मीर है जिंदा, मरा नहीं।

५८.
वैसे तो अपने बीच नहीं है कोई ख़ुदा
लेकिन ख़ुदी ने दोनों में रक्खा है फासला।

दीवार की तरह है ये रिश्तों में इक दरार
डर बनके दिल में पलती है इन्सान की ख़ता।

ये ज्वार भाटे आते ही रहते हैं ज़ीस्त में
हर रोज़ आके जाते हैं देकर हमें दगा़।

तेरे ही ऐतबार में डूबी हुई हूँ मैं
देखो ये ऐतबार ही मुझको न दे डुबा।

भंवरों के इन्तज़ार में मुरझा गए सुमन
ऐ मौत, आ मुझे भी तू अपने गले लगा।

५९.
गुफ़्तगू हमसे वो करे जैसे
खामुशी के हैं लब खुले जैसे।

तुझसे मिलने की ये सज़ा पाई
चांदनी-धूप सी लगे जैसे। 

तोड़ता दम है जब भी परवाना
शम्अ की लौ भी रो पड़े जैसे। 

यूँ ख़यालों में पुख़्तगी आई
बीज से पेड़ बन गये जैसे। 

ये तो नादानी मेरे दिल ने की
और सज़ा मिल गई मुझे जैसे। 

याद ‘देवी’ को उनकी क्या आई
ज़ख़्म ताज़ा कोई लगे जैसे।
६०.
राहत न मेरा साथ निभाए तो क्या करूँ?
घर, धूल गर्दिशों की सजाए तो क्या करूँ?
वो बात मेरे मन की न कागज पे आ सकी
वो दास्तां कुछ और सुनाए तो क्या करूँ?
क्यूं दिल से कर रही हैं यूँ खिलवाड़ हसरतें
दामन को आग घर की जलाए तो क्या करूँ?
मैं ख़्वाहिशों की क़ैद में रहती रही सदा
मन को रिहाई फिर भी न भाए तो क्या करूँ?
किसने कहा कि दिल ये मेरा बे-ज़ुबान है
तेरी समझ में बात न आए तो क्या करूँ?
अंतर में मेरे राम बसे हैं, रहीम भी
काबू में मेरा मन जो न आए तो क्या करूँ?
‘देवी’ सफर में यूँ भी अकेली रही हूँ मैं
उल्फ़त किसी की रास न आए तो क्या करूँ? 

६१.
छोड़ आसानियाँ गईं जब से
साथ दुश्वारियाँ रहीं तब से।

लुत्फ़ जीने का पा लिया तब से
दर्द साँसें है ले रहा जब से।

इतनी गहरी घुटन मेरे मन की
हर्फ़ निकला न एक भी लब से।

रात भर एक पल न सो पाई
सुबह का इंतज़ार था शब से।

जो मेरी साँस में समाया था
मैं उसे माँगती रही रब से।

आह बनके टपक पड़े तारे
जिनका रिश्ता रहा नहीं शब से।

ग़ालिबो-मीर कितने आए गए
शेर अब वो नहीं रहे तब से।

इतना ईमान तुझपे है ‘देवी’
तोड़ बैठी हूँ वास्ता सबसे।

६२.
शम्अ की लौ पे जल रहा है वो
ख़ुदकुशी वो नहीं तो क्या है वो।

इतना बालिग़ नज़र हुआ है वो
इल्म नीलाम कर रहा है वो।

है उसूलों की कशमकश फिर भी
काले बाज़ार में खड़ा है वो।

वक़्त भी ले रहा है अँगड़ाई
करवटें ज्यूँ बदल रहा है वो।

वो तो ‘देवी’, है दिल की नादानी
जुर्म मुझसे कहाँ हुआ है वो।

६३.
ज़ख़्म दिल का अब भरा तो चाहिये
बा-असर उसकी दवा तो चाहिये।

खींच ले मुझको जो वो अपनी तरफ़
शोख़-सी कोई अदा तो चाहिये।

जिनको मिलती है हमेशा ही दग़ा
उनको भी थोड़ी वफ़ा तो चाहिये।

काम अच्छा या बुरा, जो भी हुआ
उसका मिलना कुछ सिला तो चाहिये।

जलते बुझते जुगनुओं की ही सही
जुल्मतों में कुछ ज़िया तो चाहिये।६

मैं मना तो लूँ उसे ‘देवी’, कोई
रूठकर बैठा हुआ तो चाहिये।

६४.
शहर अरमानों का जले अब तो
शोले उठते हैं आग से अब तो।

जान पहचान किसकी है किससे
हैं नक़ाबों में सब छुपे अब तो।

चाँदनी से सजे हैं ख़ाब मेरे
धूप में जलते देखिये अब तो।

ऐब मेरे गिना दिये जिसने
दोस्त बनकर मिला गले अब तो।

मन की कड़वाहटों को पी न सकी
हो रही है घुटन मुझे अब तो।

वहशी मँज़र जो देखा आँखों ने
ख़ुद ब ख़ुद होंठ हैं सिले अब तो।

‘देवी’ दिल के हज़ार टुकड़े हैं
हम हज़ारों में बट गए अब तो।

६५.
उसे इश्क क्या है पता नहीं
कभी शम्अ पर जो जला नहीं।

वो जो हार कर भी है जीतता
उसे कहते हैं वो जुआ नहीं।

है अधूरी-सी मेरी ज़िंदगी
मेरा कुछ तो पूरा हुआ नहीं।

न बुझा सकेंगी ये आँधियाँ
ये चराग़े‍‍ दिल है दिया नहीं।

मेरे हाथ आई बुराइयाँ
मेरी नेकियों को गिला नहीं।

मैं जो अक्स दिल में उतार लूँ
मुझे आइना वो मिला नहीं।

जो मिटा दे ‘देवी’ उदासियाँ
कभी साज़े-दिल यूँ बजा नहीं।

६६.
खुबसूरत दुकान है तेरी
हर नुमाइश में जान है तेरी।

यूँ तो गूँगी ज़बान है तेरी
हर तमन्ना जवान है तेरी।

कुछ तो काला है दाल में शायद
लड़खड़ाती ज़ुबान है तेरी।

पेट टुकड़ों पे पल ही जाता है
अब ज़रूरत मकान है तेरी।

चीर कर तीर ने रखा दिल को
टेढ़ी चितवन कमान है तेरी।

फूल-सा दिल लगे है कुम्हलाने
आग जैसी ज़बान है तेरी।

सारा आकाश नाप लेता है,
कितनी ऊँची उड़ान है तेरी।

तुझको पढ़ते रहे, तभी जाना
‘देवी’ दिलकश ज़ुबान है तेरी।

६७.
अपने मक़्सद से हटा कर तू नज़र
क्यों भटकता फिर रहा है दरबदर।

चार दिन की ज़िंदगी हँसकर गुज़ार
इस हक़ीक़त से न रहना बेख़बर।

बात करने के कई अंदाज़ हैं
दिल पे लेकिन सब नहीं करते असर।

हम तो अपनों में रहे ता-ज़िंदगी
अब अकेले में नहीं होती बसर।

मीठी बातें क्यों भली लगने लगी
ज़हर भी मुझको लगा है बेअसर।

नक्शे -पा ‘देवी’ मिलें जो राह में
मुश्किलें आसान आएँगी नज़र।

६८.
फिर खुला मैंने दिल का दर रक्खा
ख्वाहिशों से सजाके घर रक्खा।

मैं निगेहबाँ बनी थी औरों की
ज़िंदगानी को दाव पर रक्खा।

छलनी छलनी किया जिगर मेरा
मुझको उसने निशान पर रक्खा।

कहना चाहा, न कुछ भी कह पाये
ज़ब्त हमने ज़बान पर रक्खा।

सोचना छोड़ अब तो ऐ ‘देवी’
फैसला जब अवाम पर रक्खा।

६९.
वफ़ाओं पे मेरी जफ़ा छा गई
तबीयत मुहब्बत से उकता गई।

करेगा न रोटी तलब पेट अब
कि ग़ुरबत मेरी भूख को खा गई।

ग़ज़ब है मिलीं मुख़तलिफ फितरतें
मुहबत गुलो - ख़ार को भा गई।

पिलाती रही ज़हर के जाम जो
वही ज़िंदगी मुझको रास आ गई।

छुपाया है ‘देवी’ उसे इस तरह
हक़ीक़त मगर सामने आ गई।

७०.
छू गई मुझको ये हवा जैसे
फूल के होंठ ने छुआ जैसे।

कोई शोला लपक गया जैसे
दिल में मेरे धुआँ उठा जैसे।

यूँ हवा ले उड़ी मेरा दामन
कोई मुझसे अलग हुआ जैसे।

मैं भरे से जहां में तन्हा थी
उन सितारों में चाँद था जैसे।

उस तरह मैं कभी न जी पाई
ज़िंदगी ने मुझे जिया जैसे।

हल न कर पाई ‘देवी’ दुशवारी
ले गया कोई हौसला जैसे।

७१.
किस किस से बचाऊँ अपना घर
जब हाथ में है सबके पत्थर।

जो बात सलीके से कह दे
पहचान बने उसका ये हुनर।

दुनिया की सराय के महमाँ हम
क्यों रोज़ है कहते मेरा घर।

बेख़ौफ रहे मुमताज़ वहाँ
जो ताज को समझे अपना घर।

है तख़्त के नाकाबिल राजा
कुदरत की नवाजिश है उसपर।

क्या हाल सुनाते हम उनको
जो हाल से अपने है बेख़बर।

दुख में हो जिनकी आँखें तर
उन्हें खार चुभें जैसे नश्तर।

पाने की तमन्ना कुछ भी नहीं
सजदे में झुका जब ‘देवी’ सर।

७२.
ज़िदगी यूँ भी जादू चलाती रही
वो ज़मीं आसमां को मिलाती रही।

दुख का विष जाम में वो पिलाती रही
ज़िंदगी अब वही मुझको भाती रही।

नफरतों पर बने प्यार के आशियां
मेरी उल्फ़त सदा धोखा खाती रही।

फिक्र क्या, बहर क्या, क्या गज़ल, गीत क्या
मैं तो शब्दों के मोती सजाती रही।

अपनी पलकों पे सपने सजाए थे जो
आँसुओं से उन्हें मैं मिटाती रही।

वह सुखों का जो पन्ना मुक़द्दर में था
बेरुख़ी से हवा वह उड़ाती रही।

७३.
बिजलियाँ यूँ गिरीं उधर जैसे
उजड़ा अरमान का शजर जैसे।

दिन को लगता था रात ने लूटा
ऐन हैरत में था क़मर जैसे।

ख़वाब पलकों पे जो सजाए कल
आज टूटे, लगी नज़र जैसे।

तेरी यादों के साये थे शीतल
हो गई धूप बेअसर जैसे।

दिल्लगी दिल से किसने की है यूँ
जिंदगानी गई ठहर जैसे।

उस तरह मैं कभी न जी पाई
ज़िंदगी ने मुझे जिया जैसे।

हमको ज़िंदा न तू समझ ‘देवी’
दम निकलता है हर पहर जैसे।

७४.
सुनामी की ज़द में रही जिंदगानी
बहाती रहीं अश्क आँखें दिवानी।

हुईं धुंधली शक्लें ख़ुद अपनी नज़र में
हुई ख़त्म जेसे सुहानी कहानी।

भयानक वो मंजर, वो ख़ूंखार लहरें
था जब खून का प्यासा बारिश का पानी।

बुने ख्वाब, और कितने अरमाँ सजाए
सभी बह गये आँख से बन के पानी।

दबी खौफ से चीख सीने के अंदर
जो मौजों की देखी भयानक रवानी।

कई बह गये ‘देवी’ सपने सुहाने
वो बारिश थी या आफ़ते नागहानी।

७५.
कैसी हवा चली है मौसम बदल रहे हैं
सर सब्ज़ पेड़, जिनके साये में जल रहे हैं।

वादा किया था हमसे, हर मोड़ पर मिलेंगे
रुस्वाइयों के डर से अब रुख़ बदल रहे हैं।

चाहत, वफ़ा, मुहब्बत की हो रही तिजारत
रिश्ते तमाम आख़िर सिक्कों में ढल रहे हैं।

शादी की महफिलें हों या जन्म दिन किसीका
सब के खुशी से, दिल के अरमाँ निकल रहे हैं।

शहरों की भीड़ में हम तन्हा खड़े हैं ‘देवी’
बेचेहरा लोग सारे खुद को ही छल रहे हैं।

७६.
कितनी लाचार कितनी बिस्मिल मैं
कितनी बेबस हुई हूँ ऐ दिल मैं।

आशना तब मुझे मिला ऐ दिल
तेरी खुशियों में जब थी शामिल मैं।

दीप अरमाँ के ख़ुद बुझाए हैं
अपनी खुशियों की खुद ही कातिल मैं।

दिल हक़ीक़त से हो गया वाक़िफ़
हो गई खुद से कैसे ग़ाफ़िल मैं।

एक भी वादा कर सकूं पूरा
इतनी भी तो नहीं हूँ क़ाबिल मैं।

किस की करती शिकायतें ‘देवी’
सामने शीशा और मुकाबिल मैं।

७७.
किसी से कभी बात दिल की न कहना
न होगा किसी को भी सुनना गवारा।

सफर में रहे साथ रख़्ते-सफ़र भी
कहीं पड़ न जाए कहीं तुमको रुकना।

कभी बाँध पाया न कोई समय को
न देखा कभी हमने ऐसा करिश्मा।

कभी दौड़ में तू था पहले, कभी मैं
पड़ा तुझको मुझको कई बार थकना।

फिसलती हुई रेत है उम्र मानो
न जाने यूँ सहरा में कब तक है रहना।

गनीमत है साँसों का चलना ऐ ‘देवी’
थमेंगी जो ये तो तुझे भी है थमना।

७८.
ज़िंदगी इस तरह से जीता हूँ
जैसे हर वक़्त ज़हर पीता हूँ।

हाल दिल का सुनाके क्या हासिल
क्या करूँ अपने होंठ सीता हूँ।

ऐसा जीना भी कोई जीना है
रोज़ मरता हूँ, रोज़ जीता हूँ।

इल्म अपना हुआ तो जाना है
मैं ही कुरआन, मैं ही गीता हूँ।

है अयोध्या बसी मेरे मन में
वो तो है राम, मैं तो सीता हूँ।

दर्द साँझा जो सबका है ‘देवी’
मैं वही दर्द लेके जीता हूँ।

७९.
क्या बताऊँ तुम्हें मैं कैसी हूँ
पीती रहती हूँ फिर भी प्यासी हूँ।

तुम इन्हें अश्क मत समझ लेना
बनके आँसू मैं खुद ही बहती हूँ।

सामना उनसे हो नहीं सकता
बस इसी से उदास रहती हूँ।

भर गया दिल मेरा तो अपनों से
अब तो गैरों की राह चलती हूँ।

मेरी फ़ितरत अजीब है ‘देवी’
कोई तड़पे तो मैं तड़पती हूँ।

८०.
कुछ तो इसमें भी राज़ गहरे हैं
कहते गूँगे हैं सुनते बहरे हैं।

रिश्ते रिश्तों को अब भी ठगते है
झूठ के जब से सच पे पहरे हैं।

मेरी फ़रियाद कोई कैसे सुने
जो भी बैठे हैं लोग बहरे हैं।

लब हिलाना भी जुर्म ठहराया
मेरे होंटों पे गोया पहरे हैं।

फूल झड़ते हैँ उनकी बातों से
लफ़्ज जितने है सब सुन्हरे हैं।

वक़्त मरहम न बन सका अब तक
ज़ख़्म जितने भी हैं वो गहरे हैं।

ख़्वाब रेशम के बुन रही ‘देवी’
रात चाँदी, तो दिन सुनहरे हैं।

८१.
बेसबब बेरुख़ी भी होती है
प्यार में बेकसी भी होती है।
आओ तन्हाई में करें बातें
राज़दां खामुशी भी होती है।
खिल न पाए बहार में भी जो
एक ऐसी कली भी होती है।
रुख़ पे जो आँसुओं को छलका दे
ग़म नहीं, वो खुशी भी होती है।
दुनियाँ जिस बात को ग़लत समझे
दरहक़ीकत सही भी होती है।
मौत से भी कहें जिसे बदतर
एक यूँ ज़िंदगी भी होती है।
घौंप दे पीठ में छुरी हँस कर
इस तरह दोस्ती भी होती है।
और बढ़ती है जो बुझाने से
ऐसी इक तिशनगी भी होती है।
बेदिली से करे अगर ‘देवी’
बेअसर बंदगी भी होती है।

८२.
बंद हैं खिड़कियाँ मकानों की
क्या ज़रूरत नहीं हवाओं की।
सुर्ख़ुरू हो न ज़िंदगी फिर क्यों
साथ जब हों दुआएँ माओं की।
पास होकर भी दूर थी मंज़िल
भटके हम जुस्तजू में राहों की।
ये फसाना है बेगुनाही का
पाई हमने सज़ा गुनाहों की।
तन को ढाँपे है शर्म की चादर
पड़ न जाए नज़र परायों की।
डर से पीले हुए सभी पत्ते
आहटें जब सुनी ख़िज़ाओं की।
ढूँढें देवी उसे कहाँ ढूँढें
कुछ कमी तो नहीं ठिकानों की।

८३.
ज़िंदगी रंग क्या दिखाती है
ये हँसाती है और रुलाती है।
यह तो फितरत है उसकी, क्या कहिये
शम्अ जलती है और जलाती है।
खुद से मिलने के वास्ते अक्सर
बेख़ुदी में वो डूब जाती है।
मुश्किलें जब भी सामने आईं
ज़िंदगी हौसला बढ़ाती है।
झूठ- सच की दुकां खुली जब से
वो ज़मीरों को आज़माती है
भीड़ सोचों की और गर्दिश की
क्या परेशानियाँ बढ़ाती है।
जो नचाते थे सबको उंगली पर
आज दुनिया उन्हें नचाती है।
रूठकर मुझसे ज़िंदगी ‘देवी’
कौन जाने कहाँ वो जाती है।

८४.
ज़माने से रिश्ता बनाकर तो देखो
समझ- बूझ से तुम निभाकर तो देखो।
किया है जो नफ़रत ने पैदा दिलों में
वो अंतर दिलों से मिटाकर तो देखो।
तुम्हें देखकर क्यों लजाता है शीशा
कभी अपनी पलकें उठाकर तो देखो।
गिराते हो अपनी नज़र से जिन्हें तुम
उन्हें पलकों पर भी बिठाकर तो देखो।
उठाना है आसान औरों पे उंगली
कभी खुद पे उंगली उठाकर तो देखो।
ये सेहत का नुस्ख़ा है बरसों पुराना
मिलावट से खुद को बचाकर तो देखो।
न घबराओ ‘देवी’ ग़मों से तुम इतना
ज़रा इनसे दामन सजाकर तो देखो।

८५.
नगर पत्थरों का नहीं आशना है
मैं हूँ इसमें जिंदा मगर दिल मरा है।
न मेरी वो सुनते न अपनी सुनाते
न जाने खुदा को मेरे क्या हुआ है।

रहा लूटता वो वफ़ा के बहाने
ये माना अभी वो सनम बेवफ़ा है।

न छोटी खुशी से कभी मोड़ना मुँह
कि सुकरात का जाम हमको अता है।

मुझे छोड़ कर सबने पाए है मोती
नसीबों को शायद हमीं से गिला है।

न मायूस हो ज़िंदगी से ऐ ‘देवी’
यही एक जीने का मौसम भला है।

८६.
रेत पर घर जो अब बनाया है
अपनी किस्मत को आज़माया है।
रिश्ता इस तरह से निभाया है
अपना होकर भी वो पराया है।
मैं सितारों से बात करती थी
बीच में चाँद क्योंकर आया है।
आज का हाल देख मुस्तक़बिल
कौन माज़ी को देख पाया है।
बात जब अनसुनी रही मेरी
ख़ामशी को गले लगाया है।
क़त्ल उसने किया है तो फिर क्यों
सर पे इल्ज़ाम मेरे आया है।
रिश्ता वो ही निभाएगा ‘देवी’
जिसको रिश्ता समझ में आया है।

८७.
चलें तो चलें फिक्र की आँधियाँ
न छोड़ो कभी जीस्त की बाजियाँ।
न मंज़िल पे पहुँचे अगर ये कदम
तो रफ्तार की समझो कमज़ोरियाँ।
चिता का दिया है सदा हाथ में
हैं फिरते जहां में लिये अर्थियाँ।
सफ़र तो सफ़र है कठिन या सरल
न मंजिल की देखो कभी दूरियाँ।
सहारों के जुगनू चमकते रहें
भले आज़माए हमें आँधियाँ।
रकीबों से ‘देवी’, कभी दोस्ती
निभाओ तो समझोगी कठिनाइयाँ।

८८.
दर्द से दिल सजा रहे हो क्यों
ज़ख़्म दिल के दिखा रहे हो क्यों?
इक बयाबां है सामने फिर भी
दिल की बस्ती बसा रहे हो क्यों?
तुम हो बौने पहाड़ के आगे
अपना क़द फिर बढ़ा रहे हो क्यों?
पास ही तो तुम्हारी मंज़िल है
दूर साहिल से जा रहे हो क्यों?
दिल की कश्ती भंवर में डूब गई
साथ खुद को डुबो रहे हो क्यों?
तंग सोचें हैं तंग राहें भी
ऐसी गलियों से जा रहे हो क्यों?
जो तुम्हारा न बन सका ‘देवी’
उसको ख़्वाबों में ला रहे हो क्यों?

८९.
स्वप्न आँखों में बसा पाए न हम
आँसुओं से भी सजा पाए न हम।
किस गिरावट ने हमें ऊँचा किया
कोई अंदाज़ा लगा पाए न हम।
दर्द के आँसू बहुत हमने पिये
गै़र का अहसाँ उठा पाए न हम।
हमने अश्कों से लिखी थी जो ग़ज़ल
दुख है ये तुमको सुना पाए न हम।
आईना अपनी ही सब कहता रहा
हाले-दिल अपना सुना पाए न हम।
आज़माए हौसले हमने सदा
छू बुलँदी को कभी पाए न हम।

९०.
 देखी तबदीलियाँ जमानों में
क्यों है वीरानियाँ मकानों में।
सख़्त ज़ख़्मी था आस का पंछी
कैसे उड़ता वो आसमानों में।
होश में था ख़ुमारे-मदहोशी
इक तमाशा था बादाखानों में।
धर्मों-मज़हब के नाम पर कैसी
छिड़ गई जंग बदगुमानों में।
पाँव की धूल रख ली माथे पर
जाने क्या मिल गया निशानों में।
आड़ में दोस्ती के अब ‘देवी’
दुश्मनी निभ रही घरानों में।

९१.
लगती है मन को अच्छी, शाइर गज़ल तुम्हारी
आवाज़ है ये दिल की, शाइर गज़ल तुम्हारी।
ये नैन-हों चुप है, फिर भी सुनी है हमने
उन्वां थी गुफ्तगू की, शाइर गज़ल तुम्हारी।
ये रात का अँधेरा, तन्हाइयों का आलम
ऐसे में सिर्फ साथी, शाइर गज़ल तुम्हारी।
नाचे हैं राधा मोहन, नाचे है सारा गोकुल
मोहक ये कितनी लगती, शाइर गज़ल तुम्हारी।
है ताल दादरा ये, और राग भैरवी है
संगीत ने सजाई, शाइर गज़ल तुम्हारी।
मन की ये भावनायें, शब्दों में हैं पिरोई
है ये बड़ी रसीली, शाइर गज़ल तुम्हारी।
अहसास की रवानी, हर एक लफ्ज़ में है
है शान शायरी की, शाइर गज़ल तुम्हारी।
अनजान कोई रिश्ता, दिल में पनप रहा है
धड़कन ये है उसीकी, शाइर गज़ल तुम्हारी।
दो अक्षरों का पाया जो ग्यान तुमने ‘देवी’
उससे निखर के आई, शायर गजल तुम्हारी।

९२.
ज़िंदगी मान लें बेवफ़ा हो गई
मौत क्यों हम से लेकिन खफ़ा हो गई।
बस्तियाँ आजकल सब परेशान हैं
शायद आबादियों से ख़ता हो गई।
दिल की बातें दिमाग़ों से समझा किये
एक ये भी तुम्हारी अदा हो गई।
भीड़ में कोई चेहरा शनासा नहीं
रस्म-दुनियाँ भी हमसे जुदा हो गई।
सब गुनहगार ‘देवी’ मज़े में रहे
बेगुनाही पे मुझको सज़ा हो गई।

९३.
पंछी उड़ान भरने से पहले ही डर गए
था जिनपे नाज़ उनको बहुत, बालो-पर गए।
तिनकों से मैंने जितने बनाए थे आशियां
जलकर वो ग़म की आग में कैसे बिखर गए।
इन्सानियत को खा गई इन्सान की हवस
बरबादियों की धूप में जलते बशर गए।
तेग़ों से वार करते वो मुझ पर तो ग़म न था
लफ़्जों के तीर चीरके मेरा जिगर गए।
कुरूक्षेत्र है ये ज़िंदगी, रिश्तों की जंग है
हम हौसलों के साथ हमेशा गुज़र गए।
तन मन से लिपटी रूह तो बीमार ही रही
जितने किये इलाज वो सब बेअसर गए।
छोटे से घर में ख़ुश थी मैं कितनी, बताऊँ क्या
अफसोस है के देवी वो दिन भी गुज़र गए।

९४.
 गम के मारों में मिलेगा, तुमको मेरा नाम भी
दिल-शिक्सतों में मिलेगा तुमको मेरा नाम भी।
जो ख़बर रखते हैं सब की खुद से लेकिन बेख़बर
उन अदीबों में मिलेगा तुमको मेरा नाम भी।
भीष्म बन कर सो रहे हैं सेज पर काँटों की जो
उन सलीबों मेँ मिलेगा तुमको मेरा नाम भी।
धन की दौलत की बदौलत रह गए कंगाल जो
उन गरीबों मेँ मिलेगा तुमको मेरा नाम भी।
इन्तहाए ज़ुल्म पर भी ज़ब्त से सीते है लब
उन श़रीफों मेँ मिलेगा तुमको मेरा नाम भी।
हार के पहले यकीं था जिनको अपनी जीत का
उन यकींनों में मिलेगा तुमको मेरा नाम भी।
हाथ फैलाते नहीं देवी जो दर पर गैर के
उन फकीरों मेँ मिलेगा तुमको मेरा नाम भी।

९५.
वो रूठा रहेगा उसूलों से जब तक
नसीब उसके राजी न हों उससे तब तक।
कदम हर कदम आज़माइश है मेरी
मुझे इम्तहानों में रक्खोगी कब तक।
गुनह करके जीना बहुत ही कठिन है
कचोटे-ज़मीर उसका उसको न जब तक।
खुशी और ग़म मुझको यकसाँ रहे हैं
न आया कभी कोई शिकवा भी लब तक।
सदा पीठ पर ज़ख़्म खाए हैं देवी
ये तोहफे़ मिले मुझको अपनों से अब तक।

९६.
जो मुझे मिल न पाया रुलाता रहा
याद के गुलिस्ताँ में वो आता रहा।
जिस तरफ़ देखिये आग ही आग है
आँसुओं से उसे मैं बुझाता रहा।
हौसले टूटकर सब बिखरने लगे
गीत फिर भी मैं उनको सुनाता रहा।
ज़िंदगी हसरतों का दिया है, मगर
आँधियों में वही टिमटिमाता रहा।
ये अलग बात थी पत्थरों में बसा
काँच के घर को अपने बचाता रहा।
दौर देवी गया जो गुज़र कर अभी
याद बीते दिनों की दिलाता रहा।

९७.
ख़ुशी का भी छुपा ग़म में कभी सामान होता है
कभी ग़म में ख़ुशी मिलने का भी इमकान होता है।
हुई है आँख मेरी नम भरी महफ़िल में जाने क्यों
यहाँ जज़बात से हर शख़्स ही अनजान होता है।
गिला तुमने किया मुझसे, समझ पाई नहीं तुमको
समझ पाना तो खुद को भी, कहाँ आसान होता है।
ज़माना खुद फ़रेबी है, हक़ीक़त से नहीं वाकिफ़
यहाँ हर सच को झुठलाना बड़ा आसान होता है।
वही मक्कार होता है करे गुमराह जो सबको
जो ख़ुद को ही छले अक्सर, बड़ा नादान होता है।
सहर हो, शाम हो या रात, तन्हाई है रहे कायम
करूँ क्या भीड़ को जब दिल मेरा वीरान होता है।
ख़ुशी में आके हर कोई बटोरेगा ख़ुशी देवी
मुसीबत में जो काम आए वही इन्सान होता है

९८.
हैरान है ज़माना, बड़ा काम कर गए
हम मुश्कलों के दौर से हँस कर गुज़र गए।
ढूँढा किये वजूद को अपने ही आस-पास
देखा जो आईना तो अचानक बिखर गए।
अश्कों को हमने आँखों से बहने नहीं दिया
सैलाब खुश्क आँखों से बहते मगर गए।
आबाद वो वहाँ न थे, उजड़ी हूँ मैं यहाँ
लेकर ख़बर हवाओं के रुख़, हर डगर गए।
इतने सवाल हैं यहाँ किस किस को दें जवाब
हैं मसअले वहीं के वहीं, हल ठहर गए।
देवी कभी दवा न दुआ काम आ सकी
ऐसा हुआ इलाज कि सब ज़ख़्म मर गए।

९९.
न सावन है न भादों है न बादल का ही साया है
मेरे अश्कों से लेकिन एक इक ज़र्रा नहाया है।
जिसे तू देख कर घबरा रहा है ऐ मेरे हमदम
नहीं है ये तेरा दुश्मन, ये तेरा ही तो साया है।
जो बरसों से सजाकर थी रखी तस्वीर आँखों में
उसी तस्वीर ने मेरा सुकूने-दिल चुराया है।
ज़माने में कहाँ होती हैं पूरी चाहतें सबकी
मुकम्मल कौन-सी शै है, किसीने जिसको पाया है।
हुईँ नम क्यों ये आँखें बैठकर इस बज्म में ‘देवी’
किसीने ग़म को सुर और ताल में गा कर सुनाया है।

१००.
देख कर तिरछी निगाहों से वो मुस्काते हैं
जाने क्या बात मगर करने से शरमाते हैं।

मेरी यादों में तो वो रोज़ चले आते हैं
अपनी आँखों में बसाने से वो कतराते हैं।

दिल के गुलशन में बसाया था जिन्हें कल हमने
आज वो बनके ख़लिश ज़ख्म दिये जाते हैं।

बेवफ़ा मैं तो नहीं हूँ ये उन्हें है मालूम
जाने क्यों फिर भी मुझे दोषी वो ठहराते हैं।

मेरी आवाज़ उन्होंने भी सुनी है, फिर क्यों
सामने मेरे वो आ जाने से करताते हैं।

दिल के दरिया में अभी आग लगी है जैसे
शोले कैसे ये बिना तेल लपक जाते हैं।

रँग दुनियाँ के कई देखे है देवी लेकिन
प्यार के इँद्रधनुष याद बहुत आते हैं।

१०१.
उस शिकारी से ये पूछो पर क़तरना भी है क्या
पर कटे पंछी बता परवाज़ भरना भी है क्या?

आशियाना ढूँढते हैं, शाख़ से बिछड़े हुए
गिरते उन पत्तों से पूछो, आशियाना भी है क्या?

अब बायाबां ही रहा है उसके बसने के लिए
घर से इक बर्बाद दिल का यूँ उखड़ना भी है क्या?

महफ़िलों में हो गई है शम्अ रौशन, देखिए
पूछो परवानों से उसपर उनका जलना भी है क्या?

वो खड़ी है बाल खोले आईने के सामने
एक बेवा का संवरना और सजना भी है क्या?

पढ़ ना पाए दिल ने जो लिक्खी लबों पर दास्तां
दिल से निकली आह से पूछो कि लिखना भी है क्या?

जब किसी राही को कोई रहनुमाँ ही लूट ले
इस तरह ‘देवी’ भरोसा उस पे रखना भी है क्या।

१०२.
दोस्तों का है अजब ढब, दोस्ती के नाम पर
हो रही है दुश्मनी अब, दोस्ती के नाम पर।

इक दिया मैने जलाया, पर दिया उसने बुझा
सिलसिला कैसा ये यारब, दोस्ती के नाम पर।

दाम बिन होता है सौदा, दिल का दिल के दर्द से
मिल गया है दिल से दिल जब, दोस्ती के नाम पर।

जो दरारें ज़िंदगी डाले, मिटा देती है मौत
होता रहता है यही सब, दोस्ती के नाम पर।

किसकी बातों का भरोसा हम करें ये सोचिए
धोखे ही धोखे मिलें जब, दोस्ती के नाम पर।

कुछ न कहने में ही अपनी ख़ैरियत समझे हैं हम
ख़ामुशी से हैं सजे लब, दोस्ती के नाम पर।

दिल का सौदा दर्द से होता है ‘देवी’ किसलिए
हम समझ पाए न ये ढब, दोस्ती के नाम पर।