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सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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बुधवार, 8 मई 2013

एहतेशाम अख़तर


१.
कहानी दर्द की मैं ज़िन्दगी से क्या कहता
ये दर्द उसने दिया है उसी से क्या कहता।

गिला तो मुझको भी करना था प्यास का लेकिन
जो ख़ुद ही सूख गई उस नदी से क्या कहता।

मैं जानता हूं लहू सब का एक होता है
जो खू.ं बहाता है उस आदमी से क्या कहता।

मेरे अज़ीज़ ही मुझ को समझ न पाए हैं
मैं अपना हाल किसी अजनबी से क्या कहता।

तमाम शहर में झूठों का राज है 'अख्.तर'
मैं अपने ग़म की हक़ीकत किसी से क्या कहता।