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सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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सोमवार, 29 जुलाई 2013

डॉ सुरेन्द्र सैनी

IIT Roorkee, Uttrakhand, भारत
(आपका पूर्ण परिचय चाहिए कृपया सम्पर्क करें।)








१. क्या ख़्यालों से खोखला हूँ मैं ?
इन सवालात से घिरा हूँ मैं ||

आज मेरा वजूद क्या कुछ है ?
आईने से ये पूछता हूँ मैं ||
मेरी हस्ती उबर नहीं पाई |
दर्द के बोझ से लदा हूँ मैं ||

ख़ुद से बाहर नहीं निकल पाता |
ख़ुद में सिमटा सा दायरा हूँ मैं ||

अपनी तक़दीर के सितारों में |
इक बुलंदी को ढूंढता हूँ मैं ||

वक़्त एसा भी मैंने देखा है |
ग़र्क़ होने से बस बचा हूँ मैं ||

बिन रुके रोज़ चल रहा अब तक |
आज भी एक फ़ासिला हूँ मैं ||


२. 
मेरी अश्कबार आँखों का जो तू ख़याल करता |
क्यूँ ज़माना फिर ये मुझसे इतने सवाल करता ||

मेरी सोच को परखने का मिला नहीं है मौक़ा |
मैं भी ज़िंदगी में अपनी कुछ तो कमाल करता ||

तू जो मेरे साथ होता मेरा रहनुमा सा बन कर |
मुझे आज आके दुशमन नहीं पायमाल करता ||

किसी फ़ैसले से पहले क्या नहीं था ये मुनासिब |
कुछ तू सवाल करता कुछ मैं सवाल करता ||

कोई साथ में नहीं था जो बढ़ाता रहता हिम्मत |
मैं अकेला ज़िंदगी से कब तक ज़िदाल करता ||

मेरे सर पे हाथ रख कर मेरी चूमता ज़बीं को |
दुनिया में एसे मिल कर कोई तो निहाल करता ||

जो मिला उसी को पाकर मैं तो मुतमैयन रहा हूँ |
ये तो मर्ज़ी है ख़ुदा की कैसे मलाल करता ||


३. 
जब कभी भी ज़िन्दगी की खोल कर देखी किताब |
सफ़हे - सफ़हे का दिखा कर ज़ख़्म तब रोई किताब ||


देख कर नाकामियाँ एसी मेरी तालीम की |
फेंक दी बच्चे ने मेरे एकदम अपनी किताब ||

फेल होने पर मेरा बच्चा जो रोया जार-जार |
मैंने पूछा क्या मियाँ तुमने पढ़ी भी थी किताब ?

जिसमें रक्खे थे किसी के ख़त हिफ़ाज़त से सभी |
वक़्त की दीमक ने कब की चाट ली सारी किताब ||

देखता हूँ जब कभी उलझा किताबों में मिले |
काम की होती नहीं कोई मगर उसकी किताब ||

ज़िन्दगी शायद सँवर जाती मेरी भी कुछ न कुछ |
खोल कर जो देखता माँ-बाप की अच्छी किताब ||

आप जिसको ढूंढते फिरते हो यूँ ही दर - ब - दर |
ज़िन्दगी है अस्ल में वो आपकी असली किताब ||


४. 
ख़त्म क्यों हो न पाई ग़रीबी ?
आज भी है ग़रीबी ग़रीबी ||

आपकी सादगी सादगी है |
सादगी है हमारी ग़रीबी ||

आदमी कुछ भी कर बैठता है |
जब कभी भी सताती ग़रीबी ||

उम्र से लग रहा है वो बूढ़ा |
ओढ़ उसने जो रक्खी ग़रीबी ||

बेटियों की तरफ़ देखता हूँ |
नोचती मुझको मेरी ग़रीबी ||

बात बढ़- बढ़ के सब बोलते हैं |
क्या किसी ने हटा दी ग़रीबी ?

मर गया वो ग़रीबी में आख़िर |
पर न मर पाई उसकी ग़रीबी ||

अपने अख़लाक़ से गिर न जाऊं |
इससे अच्छी है प्यारी ग़रीबी ||

काम आती सियासत में अक्सर |
ये हमारी तुम्हारी ग़रीबी ||


५. 
सख़्त थोड़ी ज़ुबाँ है तो क्या है ?
आदमी वो मगर काम का है ||

देर तक वो मुझे देखता है |
मेरे बारे में क्या सोचता है ?

खोल कर माल देखा तो नकली |
चिपका लेबल बड़े नाम का है ||

झूठ का कर रहा ये दिखावा |
सर ज़मीं तक झुका कर मिला है ||

ज़हर जिसमे हसद का भरा है |
वो किसी को नहीं छोड़ता है ||

साँप तो छेड़ने पर ही काटे |
आदमी हर समय काटता है ||

जान अटकी हुई है उसी में |
बेटा लेकर के बाइक गया है ||

है पडौसी की आदत बुरी ये |
घर से निकलो तभी टोकता है ||

भूलने की अजब उसकी आदत |
नाम बस मेरा ही भूलता है ||


६. 

चाँद तारों की महफ़िल सजी है |
आ भी जाओ तुम्हारी कमी है ||

चाँद की मेज़बानी में पीलो |
चांदनी रात साक़ी बनी है ||

सोचता है मुझे अजनबी हूँ |
उस सितमगर की ये दिल्लगी है ||

उनसे उनकी शिकायत तो कर दी |
या ख़ुदा क्या अजब बेख़ुदी है ||

बाँट दो सब को आकर उजाले |
देखिये हर तरफ तीरगी है ||

जी रहा हूँ मैं फज़्ले ख़ुदा पर |
कुछ दुआओं ने इमदाद की है ||

झूठ किसने उड़ा दी ख़बर ये ?
मैंने कहनी ग़ज़ल छोड़ दी है ||

७.

बेबसी बेकली बेकसी है |
क्या इसी को कहूँ ? जिंदगी है ||

आ गया हूँ मैं ये किस जगह पर |
हर कोई दीखता अजनबी है ||

ठीक से घर अमीरों के बैठो |
इनका सोफा बड़ा कीमती है ||

आँख उससे मिलाना सम्भल के |
वो नज़र का बड़ा पारखी है ||

मैंने बेटी को दी है लियाक़त |
पर पडोसी ने बस कार दी है ||

मेरी क़श्ती को देखा उभरते |
मौज फिर आके टकरा गई है ||

वासना है हवस और वहशत |
नाम इस का ही बस आशक़ी है ||

८.

आजकल लोगों में अपना हो रहा चर्चा बहुत |
लोग दानिशमंद हैं या फिर मैं ही हूँ अच्छा बहुत ||

दिल लगाकर आपसे मैं मुश्किलों में पड़ गया |
लोग कहते हैं की अब मैं उड़ रहा ऊँचा बहुत ||

मेरे नग़में मेरे छोटे पन में दब के रह गए |
वो रिसालों में छपा क्या उसका था रुतबा बहुत ?

अब ज़रा सख़्ती दिखाने का सही पल आगया |
सामने उनके किया हमने अरे सजदा बहुत ||

हैं नहीं यूँ हर किसी से ठीक यें नज़दीकियाँ |
फ़ासला भी बीच में रक्खा करो थोड़ा बहुत ||

तेरे मेरे तेरे बीच में बस एक यही तो फर्क है |
मैं तुझे चाहा बहुत पर तू ने दिल तोडा बहुत ||


८. 

मुठ्ठी में कोई आग छुपा कर तो देखिये |
दिल में किसी दिलबर को बसा कर तो देखिये ||

हमने पिए हैं अश्क़ तो पी लेगे ज़हर भी |
हाथों से अपने आप पिला कर तो देखिये ||

आ जायेगा दातों में पसीना ज़नाब के |
बिगड़े हुए दिलबर को मना कर तो देखिये ||

उम्मीद का दामन कभी छोडूगां मैं नहीं |
चट्टान से जिगर को हिला कर तो देखिये ||

गठरी गु़नाह की कर तो ली तैयार आपने |
कितना है इसमें बोझ उठा कर तो देखिये ?

९.

किस तरफ से इशारे हुए |
आप दुश्मन हमारे हुए ||

मुझको देकर फ़रेब-ए-वफ़ा |
फूल भी तो शरारे हुए ||

छोड़ दी जिसने शर्म -ओ -हया |
उसके रौशन सितारे हुए ||

ज़ीस्त क्या है पता तब चला |
मौत के जब नज़ारे हुए ||

है सियासत में इतना मज़ा |
सारे रिश्तें किनारे हुए ||

१०. 


जो रौनक - ए - महफ़िल थी वो जिस पल चली गई |
उस पल से क़ायनात की हलचल चली गई ||

जाहिद हुए सरकार में शामिल तो देखिये |
हम मैकशों के हाथ से बोतल चली गई ||

ढेरों इनआम मिल गए सय्याद को मगर |
इंसाफ़ मांगती हुई बुलबुल चली गई ||

ग्रंथों में छापी जा रही कौवों की कावं-कावं |
गुमनाम कूकती हुई कोयल चली गई ||

शाम - ओ- सहर सिसक रहीं रोती रही शफ़क़ |
देकर जिन्हें उदासियाँ वो कल चली गई ||

११.

एक था वो हमारा ज़माना |
एक है ये तुम्हारा ज़माना ||

पार हद सब किये जा रहा है |
ज़ुर्म की आज सारा ज़माना ||
मुफ़लिसी में हुआ क्या वो पैदा |
मुफ़लिसी में गुज़ारा ज़माना ||

उसको सूली चढ़ाया गया है |
जिस किसी ने सुधारा ज़माना ||

इसको देखोगे जैसी नज़र से |
देगा वैसा नज़ारा ज़माना ||

आपकी मुस्कुराहट पे करदूं |
मैं निछावर ये सारा ज़माना ||

क्या कभी वो घडी आ सकेगी |
ज़मज़मासंज हो सारा ज़माना ||
१२.  

वादे लेकर के सारे बेकार के |
दर से झोली भर लाये सरकार के ||

मुफ़लिस घर का खा़विन्द तो मजबूर है |
कैसे बेग़म को दे दो पल प्यार के ||

कैसे - कैसे लीडर चुन कर भेजे हैं |
वोटर शायद चूक गए इस बार के ||

होटल जाने पर आमादा बच्चों को |
मैंने समझाया दो थप्पड़ मार के ||

मस्ज़िद कोई टूटी है इस पार यदि |
मंदिर भी तो टूटें हैं उस पार के ||

ख़ुद का हाल - ए - दिल कहना है नादानी |
घर पे जब पहुंचे हो इक बीमार के ||

चारागर ने फल खाना बतलाया है |
पर क्या हैं अब अच्छे फल बाज़ार के ||

१३. 

ज़ख़्म कितने खा चुके उनको गिनाते जाइए ?
और अपने हाल पे आँसूं बहाते जाइए ||

जाते - जाते इक ग़ज़ल हमको सुनाते जाइए |
जिंदगी का सच ज़रा सबको बताते जाइए ||

आज की तहज़ीब है बस रास्ता मिलने के बाद |
रहबरों के नक़्श - ए -पाँ ख़ुद ही मिटाते जाइए ||

इक न इक दिन आपकी सरकार बन ही जायेगी |
वोटरों को बस ज़रा दारु पिलाते जाइए ||

याद क्या कोई करेगा आपकी क़ुर्बानियाँ ?
आप तो बस सर झुकाकर सर कटाते जाइए ||

कान में डाले रुई सरकार बैठी है यहाँ |
बीन अपनी भैंस के आगे बजाते जाइए ||


१४. 

महफ़िलों में आया जाया कीजिये |
कुछ तो लोगों पे भरोसा कीजिये ||

जानते हैं सब हक़ीक़त आपकी |
आप चाहे लाख़ पर्दा कीजिये ||

दूसरों को कोसना आसान है |
ख़ुद के बारे में भी सोचा कीजिये ||

देख फिर किस शान से मिलता है वो ?
प्यार के जज़्बात पैदा कीजिये ||

ख़ारा पानी मय में जायेगा बदल |
यूँ समंदर में न देखा कीजिये ||

१५.

कुछ देखा है ख़ास तुम्हारी आँखों में |
हमने सारी रात गुज़ारी आँखों में ||

सारी क़ायनात नज़र आ जायेगी |
देखो तो इक बार हमारी आँखों में ||

इनका हो बस काम सदा राहत देना |
अच्छी है न आग दुलारी आँखों में ||

किस पंछी को आज जुदा होना होगा ?
लेकर घूमे मौत शिकारी आँखों में ||

धोखा हम हर बार नहीं खा सकतें हैं |
क्यूँ झोके रे धूल मदारी आँखों में ||

१६.

दौर - ए- वहशत हुआ है शुरू |
खाक़ में मिल रही आबरू ||

ज़ीस्त की कर रहा आरज़ू |
मौत के होके मैं रू - ब- रू ||

उड़ गईं इस क़दर धज्जियाँ |
कौन दामन करेगा रफ़ू ?

यूँ तो दुनिया में लाखों हसीं |
पर कहाँ आपसा खू़बरू ?

तेरी नज़रों में मैं कुछ नहीं |
मेरी नज़रों में इक तू हो तू ||

१७.

आबले इक समंदर लिए पावँ में |
तुझको ढूंढा किये शहर में गावँ में ||

तू न पहचाने मुझको अलग बात है |
और सब जानते हैं तेरे गावँ में ||

जिस जगह पर हुआ अपना पहला मिलन |
इक कशिश सी है अनजानी उस ठावँ में ||

उनकी नज़रें बदलती रहीं इस तरह |
जैसे बदले हैं मौसम पहलगावँ में ||

आज उसके वही लोग क़ातिल हुए |
कल जो बैठे थे उस पेड़ की छावँ में ||

लाख़ चाहा संभलना मगर देखिये |
आ गए ज़िन्दगी हम तेरे दावँ में ||

१८. 


इतना हमको दे बता तू ए चमन के बागबाँ |
हर जगह लाशें बिछीं हैं क़ब्र हम खोदे कहाँ ?

रहनुमाँ पत्थर बने हैं गिर रही हैं बिजलियाँ |
ख़ाक़ हमको कर ही देगीं आपकी खामोशियाँ ||

बेवजह हर वक़्त की ये छेड़खानी छोड़ दो |
क्यों मिटाने पर तुले हो क़ौम का नामोनिशाँ ?

बात सच कह दी किसी ने तो वो दुश्मन होगया |
जिस ने कर ली जीहुज़ूरी हो गया वो जाने - जाँ ||

गोश्त रिश्तेदार नोचें ख़ूँ पिए औलाद ये |
ज़ुल्म अपनों के सहे जाती हैं बूढी हड्डियाँ ||

१९. 

समय की आग में जो भी जला है |
उसीकी आँख में इक ज़लज़ला है ||

समय आख़िर किसी का कब टला है ?
यही जीवन मरण का सिलसिला है ||

हमारा मान लेने पर तुला है |
कहाँ का दूध का तू भी धुला है ?
परिंदा आसमाँ में उड़ चला है |
शिकारी साज़िशों में मुब्तला है ||

तुम्हारे शहर के अमृत से अच्छा |
हमारे गावँ का पानी भला है ||

जो दिल से काम लेते हैं उन्हें तो |
सदा ही भावनाओं ने छला है ||
ख़ुदा क्या ख़ुद को भी मैं भूल बैठा | 
अरे ये इश्क़ देखो क्या बला है ||

चुराके दिल दिखाओ पारसाई |
हमें बस आपसे ये ही गिला है ||

मेरी बन्दूक हो कांधा तुम्हारा |
यही तो आज जीने की कला है ||

वफ़ा के नाम पर हम जान देदें |
हमें तो ये विरासत में मिला है ||

मुसलसल लहर टकराती है देखो |
नहीं साहिल हिलाए से हिला है ||

मेरा तो नाम तक भी भूल बैठा |
मगर ग़ैरों से क़ाफ़िर जा मिला है ||


२०. 

लोगों से तू चाहे परदादारी रख |
मुझसे थोड़ी सी तो आपसदारी रख ||

लीक पे चलना तो दुनिया की आदत है |
अपनी कुछ बातें दुनिया से न्यारी रख ||

जिसके घर कल पूरी बोतल पी आया |
उसके ग़म में भी कुछ हिस्सेदारी रख ||

मुझको मेरी तन्हाईं में जीने दे |
ले तू अपने पास ये दुनिया सारी रख ||

हिंदी उर्दू के चक्कर में मत पड़ना |
दिल के यूँ जज़्बात सुनाना जारी रख ||

माना की महबूब रूठ कर चला गया |
तू भी अपने अंदर कुछ ख़ुद्दारी रख ||

घायल हों जज़्बात कभी तो मत डरना |
तू अपनी चाहत का पलड़ा भारी रख ||

हो हंगामा कोई इससे पहले ही |
मैख़ाने से उठने की तैयारी रख ||


२१. 

कहने पर आमादा है कुछ सुनने पर आमादा है |
जैसे तैसे मुझसे वो बस लड़ने पर आमादा है ||

क्या तेरा घर क्या मेरा घर इक दिन तो छीन जायेगा ?
फिर क्यूँ इस बेगाने घर में रहने पर आमादा है ||

डरता हूँ यें घर की बातें दुनिया वाले सुन लेगें |
पर छोटा बच्चा सारा सच कहने पर आमादा है ||

घर की पहली शादी के इस मस्ती वाले आलम में |
दादी क्या परदादी तक भी नचने पर आमादा है ||

मेरा क़ातिल घर के अन्दर छत से दाख़िल क्यूँ होगा ?
जब घायल दरवाज़ा ख़ुद ही खुलने पर आमादा है ||

२२

साज़िश की गई ड्राई डे की अफ़वाहें फैलाने में |
साक़ी भी है मीना भी है सब कुछ मैख़ाने में ||

दीवाने की कैसी ज़िद है जीना है तो पीना है |
दीवाना तो दीवाना है क्या आये समझाने में ?

महगांई के मारों का ग़म मैं भी मिल कर बाँटूगा |
साक़ी बस थोड़ी ही देना तू मेरे पैमाने में ||

बेचारे रिंदों की नज़रें ठहरी हैं दरवाज़े पर |
साक़ी अटका है ट्रेफिक में वक़्त लगेगा आने में ||

अब तो कोई भिजवादे इक बोतल मेरे घर पर ही |
बूढा तन थकता है मैख़ाने तक आने जाने में ||

२३.

अपनी ज़िद पर अड़े हुए हैं क्यूँ ?
बीच रस्ते खड़े हुए हैं क्यूँ ?

हमने मागां तो कुछ नहीं उनसे |
उनके तेवर चढ़े हुए हैं क्यूँ ?

खूब पढ़ -लिख गए मगर फिर भी |
ज़हन इतने सड़े हुए हैं क्यूँ ?

आप आदी हैं छोटी बातों के |
यूँ ही इतने बड़े हुए हैं क्यूँ ?

जिनको आग़ाज नया करना है |
वो ज़मीं पर पड़े हुए हैं क्यूँ ?

२४.

जोश में आकर कभी पत्थर न यूँ फेंका करो |
ख़ुद हो शीशे से भी नाज़ुक यार कुछ सोचा करो ||

धूप में तप कर हमारा तन तो लोहा हो गया |
मोम सा है तन तुम्हारा छाँव में बैठा करो ||

मानता हूँ ज़ुल्म ढाना आपकी फ़ितरत में है |
तुम गिरेबाँ में भी अपने झांक कर देखा करो ||

चापलूसों से घिरे रहना सदा जायज़ नहीं |
साफगो लोगों से भी मिलने कभी आया करो ||

पहले छेड़ा आपने और हमने छेड़ा चिढ गए |
ये कहाँ की है शराफ़त सोच कर छेड़ा करो ?


२५. 

ये ग़ज़ल ही नहीं ज़िन्दगी है |
मेरे ख़ाबों की ये पालकी है ||

दिल तो लफ़्ज़ों से खेले ग़ज़ल के |
बस ग़ज़ल से मिले ताज़गी है ||

जब भी आते हैं ग़म के अन्धेरें |
तब ग़ज़ल ही सुकूँ बाँटती है ||

याद आती है पी की मुसलसल |
बन के साथी ग़ज़ल बैठती है ||

जब जुबां कुछ भी कहना न चाहे |
आगे बढ़ के ग़ज़ल बोलती है ||

मन ही मन में घुटन हो रही हो |
मन की गांठें ग़ज़ल खोलती है ||

आपकी पैंठ कितनी है गहरी ?
आदमी को ग़ज़ल तौलती है ||

सिर्फ दिल ही नहीं भावना की |
भी ग़ज़ल से मिले बानगी है ||

भूख हो प्यास हो मुस्कुरा कर |
ज़िन्दगी की ग़ज़ल खेलती है ||

२६. 


ख्वाहिशें हैं मेरी कम मैं इसीलिए तो अच्छा हूँ |
हर पल रहता ताज़ादम मैं इसीलिए तो अच्छा हूँ ||

उसके सुख में हँसता हूँ उसके दुःख में कर लेता हूँ |
मैं भी अपनी आँखें नम मैं इसीलिए तो अच्छा हूँ ||

और की ख़ुशियों में शामिल हो के बाँटू मैं ख़ुशी |
चिढ नहीं तो कैसा ग़म मैं इसीलिए तो अच्छा हूँ ||

मन की पीड़ा को ग़ज़ल में अक्सर कहता रहता हूँ |
झट आंसू जाते हैं थम मैं इसीलिए तो अच्छा हूँ ||

मुझसे भी हो जाती है तो फिर औरों की गलती पर |
लहजा रक्खूं ख़ास नरम मैं इसीलिए तो अच्छा हूँ ||

२७.

मुस्कुरा कर मिले एक पल |
हो गई नाम उनके ग़ज़ल ||

ज़िन्दगी के उलट फेर में |
वो भी उलझे हुए आजकल ||

आपका हुस्न बाँका सही |
प्यार मेरा मगर है सरल ||

मुश्किलों से न मायूस हो |
ग़ैर - मुमकिन नहीं कोई हल ||

रहबरों के सितम याद कर |
फिर उसी रहगुज़र पे न चल ||

२८. 

आग पानी में लगाने की ज़िद छोड़ भी दो |
हाथ सुरज से मिलाने की ज़िद छोड़ भी दो ||

आँख के हैं न जो अन्धें मगर अख़लाक़ के हैं |
आइना उनको दिखाने की ज़िद छोड़ भी दो ||

अपनी फ़ितरत से वफ़ा के हम हैं शैदाई |
ख़ाक में हमको मिलाने की ज़िद छोड़ भी दो ||

गुस्सा जायज़ है तो फिर जम के निकालो यारो |
ख़ामख़ा उस को पचाने ज़िद छोड़ भी दो ||

जो भी हल्का हुआ दुनिया में वो ऊपर ही उठा |
फ़ालतू बोझ उठाने की ज़िद छोड़ भी दो ||

आपसी बात है मिल बैठ के सुलझा लीजे |
रूठ के औरों पे जाने की ज़िद छोड़ भी दो ||

सैंकड़ों हैं गिलें किस - किस पे फाँसी चढ़ लें ?
पल में यूँ ख़ुद को मिटाने की ज़िद छोड़ भी दो ||


२९. 

कुछ को मिला सब कुछ मगर कुछ जी रहे हैं अभाव में |
यह खो दिया वह पा लिया हर आदमी है तनाव में ||

दो चार तिनकों से फ़क़त इक आशियाँ जो बना लिया |
वो आँधियों की ज़द में है यूँ उड़ न जाए बहाव में ||

मुंसिफ़ की नीयत पर अबस उठते नहीं यें सवाल यूँ |
क्यूँ फ़ैसले देने लगा वो क़ातिलों के दबाव में ?

चुपचाप कोई सह रहा शैतान के ज़ुल्म - ओ - सितम |
उठ्ठा नहीं है एक भी तो हाथ उसके बचाव में ||

जाने कहाँ पर आ गए हम मंजिलों की तलाश में ?
शायद कमी कुछ रह गई थी रास्ते के चुनाव में ||


३०. 

मुझको हाँ सुनने की आदत तुझको ना कहने की आदत |
मेरी अपनी तेरी अपनी है कहने सुनने की आदत ||

सर्दी का मौसम आते ही मुझको दुखदाई लगती है |
मुझको अनदेखा करके उनकी स्वेटर बुनने की आदत ||

झूठी झूठी क़समें खाओ या फिर धोखा देना सीखो |
सच कहना चाहो तो डालो सूली पे चढ़ने की आदत ||

जो कुछ भी करना है अपने बलबूते पर करते जाओ |
यूँ भी लोगों की होती है कामों से बचने की आदत ||

पहले गर्मी में तपने का जज़्बा तो कुछ पैदा करले |
धीरे- धीरे पड़ जाएगी शोलों में रहने की आदत ||

सब की अपनी - अपनी मर्ज़ी अपने ढंग से अपना जीना |
फिर क्यूँ है लोगों को आपस में पर्दा रखने की आदत ?

एसे बन्दे तो अक्सर ही मुश्किल में पड़ते रहते हैं |
जिनको होती है दुनिया के झंझट में पड़ने की आदत ||

अब तो बस मोबाईल पर ही सारी बातें हो जाती हैं |
अब तो सब की छूटी है चिठ्ठी - पत्री लिखने की आदत ||


३१. 

यूँ बागबाँ की खैर जो पूछी कभी होती |
उजड़े शजर की डालियाँ फूलों भरी होती ||

मैं दौड़ कर तुम तक उसी पल आ गया होता |
मुझको अगर जो आपने आवाज़ दी होती ||

वो रहमतों से यूँ तुझे महरूम क्यूँ करता ?
उससे अगर नज़र- ए - इनायत मांग ली होती ||
ये आपसी शिकवे - गिले तो ख़त्म हो जाते |
इक बार हमसे रूबरू जो बात की होती ||

कुछ हम रहे बस बदगुमाँ जो खो दिया मौक़ा |
ये ज़िन्दगी वर्ना सही में ज़िन्दगी होती ||


३२. 

है यहाँ पर भीड़ पर महफ़िल नहीं है |
ये जगह तक़रीर के क़ाबिल नहीं है ||

राबता आपस में क्या क़ायम रहेगा |
याँ के बाशिंदों में उतना दिल नहीं है ||

नेकबख्तों की बनी फ़ेहरिस्त है जो |
नाम उसमें क्यूँ मेरा शामिल नहीं है ?

बेगु़नाहों की हज़ारों हैं दलीलें |
साफ़ नीयत का मगर आदिल नहीं है ||

लोग दावेदारी लेकर आ गए सब |
एक भी इनमें मगर कामिल नहीं है ||

क़ायदा क़ानून सारा जानता है |
आज का इंसान यूँ गा़फ़िल नहीं है ||

बोझ ख़ुद का ख़ुद ही पड़ता है उठाना |
एक भी हामिल हमें हासिल नहीं है ||

३३. 


चार पैसे दान में बस क्या दिए हैं |
शहर भर में पोस्टर टंगवा दिए हैं ||

अब के होगी जीत पक्की ही हमारी |
बस्ती में दारु के ड्रम खुलवा दिए हैं ||

ये बशर जो सच के पर्चे बांटता था |
हाथ इसके आज ही कटवा दिए हैं ||

जब भी पूछा क्या किया है ज़िंदगी में ?
बस ज़रा सा हौले से मुस्का दिए हैं ||

आज आमद है किसी लीडर की शायद |
रास्तों पर फूल जो बिछवा दिए हैं ||

उम्र भर जो बुतपरस्ती से लड़े थे |
हमने उनके बुत भी अब बनवा दिए हैं ||

छाँट कर शातिर से शातिर लोग हमने |
राजधानी में सभी भिजवा दिए हैं ||

कल वही पेपर में टीचर पूछ लेगा |
प्रश्न सारे आज जो समझा दिए हैं ||

साब जब से बन गए फूफा हमारे |
डॉग भी इम्पोर्टेड मंगवा दिए हैं ||

३४. 

सूरत से जाना पहचाना लगता है |
ये क़ातिल होगा क्या एसा लगता है ?

पल - पल गिरगिट जैसा रंग बदलता है |
करतूतों से ये दीवाना लगता है ||

बार - बार ये बिजली हम पर गिरती है |
दुश्मन का इससे याराना लगता है ||
मेरी रूदाद - ए - ग़म पे वो हँसतें हैं |
उनको ये कोरा अफ़साना लगता है ||

अपनी बस्ती में ही क़ातिल रहता हो |
अक्सर क्या इसका अन्दाज़ा लगता है ?


३५. 

जिसे मेरा ही हंसना बोलना अच्छा नहीं लगता |
मुझे भी देख ऐसा दिलरुबा अच्छा नहीं लगता ||

सितमगर हो जफ़ाजू हो ज़माना कुछ कहे लेकिन |
हमारे मुंह से ऐसा तज़किरा अच्छा नहीं लगता ||

नज़र उनकी पे गो हक़ उनका है चाहे जिसे देखें |
मगर गैरों से ऐसा सिलसिला अच्छा नहीं लगता ||

किया है वादा तो फिर कीजिये जी जान से पूरा |
बहाने से किसी को टालना अच्छा नहीं लगता ||

मैं पाबन्दी तो औरों पे लगा सकता नहीं लेकिन |
तुम्हें देखे कोई मेरे सिवा अच्छा नहीं लगता ||

तुम्हारी बेरुख़ी का तुम से शिकवा यूँ नहीं करते |
जवाबन तुम कहोगे फिर गिला अच्छा नहीं लगता ||

वफ़ा तुझ में है या मुझ में चलो ये फ़ैसला कर लें ?
हमें भी झगड़ा ये हर रोज़ का अच्छा नहीं लगता ||