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सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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शनिवार, 1 मार्च 2014

अतीक उल्लाह




1.

क्या तुम ने कभी ज़िंदगी करते हुए देखा
मैं ने तो इसे बार-हा मरते हुए देखा

पानी था मगर अपने ही दरिया से जुदा था
चढ़ते हुए देखा न उतरते हुए देखा

तुम ने तो फ़क़त उस की रिवायत ही सुनी है
हम ने वो ज़माना भी गुज़रते हुए देखा

याद उस के वो गुलनार सरापे नहीं आते
इस ज़ख़्म से उसे ज़ख़्म को भरते हुए देखा

इक धुँद कि रानों में पिघलती हुई पाई
इक ख़्वाब कि ज़र्रे में उतरते हुए देखा

बारीक सी इक दरज़ थी ओर उस से गुज़र था
फिर देखने वालों ने गुज़रते हुए देखा

2.

दे कर पिछली यादों का अम्बार मुझे
फेंक दिया है सात समुंदर पार मुझे

हर मंज़र के अंदर भी इक मंज़र है
देखने वाला भी तो हो तय्यार मुझे

तेरे कमी गर मुझ से पूरी होती है
ले आएँगे लोग सर-ए-बाज़ार मुझे

सारी चीज़ें ग़ैर-मुनासिब लगती हैं
हाथ में दे दी जाए इक तल्वार मुझे

ईंटें जाने कब हरकत में आ जाएँ
जाने किस दिन चुन ले ये दीवार मुझे

एक मुसलसल चोट सी लगती रहती है
सामना ख़ुद अपना है हर हर बार मुझे

3.

मैं जो ठहरा ठहरता चला जाऊँगा
या ज़मीं में उतरता चला जाऊँगा

जिस जगह नूर की बारिशें थम गईं
वो जगह तुझ से भरता चला जाऊँगा

दरमियाँ में अगर मौत आ भी गई
उस के सर से गुज़रता चला जाऊँगा

तेरे क़दमों के आसार जिस जा मिले
इस हथेली पे धरता चला जाऊँगा

दूर होता चला जाऊँगा दूर तक
पास ही से उभरता चला जाऊँगा

रौशनी रखता जाएगा तू हाथ पर
और मैं तहरीर करता चला जाऊँगा

4.

चलो सुरंग से पहले गुज़र के देखा जाए
फिर इस पहाड़ को काँधों पे धर के देखा जाए

उधर के सारे तमाशों के रंग देख चुके
अब इस तरफ़ भी किसी रोज़ मर के देखा जाए

वो चाहता है क्या जाए ए‘तिबार उस पर
तो ए‘तिबार भी कुछ रोज़ कर के देखा जाए

कहाँ पहुँच के हदें सब तमाम होती हैं
इस आसमान से नीचे उतर के देखा जाए

ये दरमियान में किस का सरापा आता है
अगर ये हद है तो हद से गुज़र के देखा जाए

ये देखा जाए वो कितने क़रीब आता है
फिर इस के बाद ही इंकार कर के देखा जाए

6.

एक सूखी हड्डियों का इस तरफ़ अम्बार था
और उधर उस का लचीला गोश्त इक दीवार था

रेल की पटरी ने उस के टुकड़े टुकड़े कर दिए
आप अपनी ज़ात से उस को बहुत इंकार था

लोग नंगा करने के दर पे थे मुझ को और मैं
बे-सरोसामानियों के नश्शे में सरशार था

मुझ में ख़ुद मेरी अदम-ए-मौजूदगी शामिल रही
वर्ना इस माहौल में जीना बहुत दुश्वार था

एक जादुई छड़ी ने मुझ को ग़ाएब कर दिया
मैं कि अल्फ़-ए-लैला के क़िस्से का अहम किरदार था

7.

कुछ और दिन अभी इस जा क़याम करना था
यहाँ चराग़ वहाँ पर सितारा धरना था

वो रात नींद की दहलीज़ पर तमाम हुई
अभी तो ख़्वाब पे इक और ख़्वाब धरना था

अगर रसा में न था वो भरा भरा सा बदन
रंग-ए-ख़याल से उस को तुलू करना था

निगाह और चराग़ और ये असासा-ए-जाँ
तमाम होती हुई शब के नाम करना था

गुरेज़ होता चला जा रहा था मुझ से वो
और एक पल के सिरे पर मुझे ठहरना था

8.

तू भी तो एक लफ़्ज़ है इक दिन मिरे बयाँ में आ
मेरे यक़ीं में गश्त कर मेरी हद-ए-गुमाँ में आ

नींदों में दौड़ता हुआ तेरी तरफ़ निकल गया
तू भी तो एक दिन कभी मेरे हिसार-ए-जाँ में आ

इक शब हमारे साथ भी ख़ंजर की नोक पर कभी
लर्ज़ीदा चश्म-ए-नम में चल जलते हुए मकाँ में आ

नर्ग़े में दोस्तों के तू कब तक रहेगा सुर्ख़-रू
नेज़ा-ब-नेज़ा दू-ब-दू-सफ़्हा-ए-दुश्मनान में आ

इक रोज़ फ़िक्र-ए-आब-ओ-नाँ तुझ को भी हो जान-ए-जहाँ
क़ौस-ए-अबद को तोड़ कर इस अर्सा-ए-ज़ियाँ में आ

9.

फ़रार के लिए जब रास्ता नहीं होगा
तो बाब-ए-ख़्वाब भी क्या कोई वा नहीं होगा

इक ऐसे शहर में कुछ दिन ठहर के देखा जाए
जहाँ किसी को कोई जानता नहीं होगा

वो बात थी तो कई दूसरे सबब भी थे
ये बात है तो सबब दूसरा नहीं होगा

यूँ इस निगाह को अपनी कुशादा रखते हैं
कि इस के बाद कभी देखना नहीं होगा

जो तंग होते गए क़ल्ब-हा-ए-सीना-मक़ाम
कोई मक़ाम मक़ाम-ए-दुआ नहीं होगा

कोई ज़मीन तो होगी तिरी ज़मीनों पर
हमारे जैसा कोई नक़्श-ए-पा नहीं होगा

10.

इस दश्त नवर्दी में जीना बहुत आसाँ था
हम चाक गरेबाँ थे सर पर कोई दामाँ था

हम से भी बहुत पहले आया था यहाँ कोई
जब हम ने क़दम रक्खा ये ख़ाक-दाँ वीराँ था

उड़ते हुए फिरते थे आवारा ग़ुबारों से
वो वक़्त था जब उस के लौट आने का इम्काँ था

ये राह-ए-तलब यारो गुमराह भी करती है
सामान उसी का था जो बे-सर-ओ-सामाँ था