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सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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शुक्रवार, 8 अगस्त 2014

राजेश चड्ढा

रचनाकार परिचय:
नाम:राजेश चड्ढ़ा
जन्म- 18 जनवरी, 1963 को हनुमानगढ़ ,राजस्थान
लोकप्रिय उद्घोषक व शायर। 1980 से निरंतर सृजनरत। अखिल भारतीय साहित्य-विविधा 'मरुधरा' के चार सम्पादकों में से एक।उल्लेखनीय है कि आपकी कहानियां हिन्दी की नामचीन पत्र-पत्रिकाओं में छपती रही हैं तथा कहानी लेखन के क्षेत्र में भी आप पुरस्कृत हो चुके हैं। वर्तमान में आकाशवाणी सूरतगढ़ (राजस्थान) में वरिष्ठ उद्घोषक।
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 ग़ज़लें 
१.
उम्र कहने को हर रोज बढ़ी जाए है,
जिंदगी साल में दो चार घड़ी आए है।

अनवरत इसकी तरफ देख लें लेकिन,
जिंदगी किरच सी आंखों में गड़ी जाए है।

जब भी उधड़ें हैं हम संवरने के लिए,
जिंदगी टाट सी मखमल में जड़ी जाए है।

हिसाब-ए उम्र हम लिखते हैं टूट जाते हैं,
जिंदगी नोक से हर बार घड़ी जाए है।

अब तो बस उम्र हमें सोने की इजाजत दे दे,
जिंदगी सफर में कब तक यूं खड़ी जाए है।

२.

उतरी होटों से आस लगती है
तिश्नग़ी अब लिबास लगती है

बहते पानी को क्या छुआ मैने
अब नदी भी उदास लगती है

जिस्म तो आ गया है साहिल पे
डूबती सांस - सांस लगती है

आंख में ख़्वाब भी है गीला सा
इक नमी आस - पास लगती है

मैं समंदर हूं और मुझको भी
इक नदी भर के प्यास लगती है

३.

तुम्हीं तलाशो तुम्हें तलाश-ए-सहर होगी,
हमको मालूम है सहर किसे मयस्सर होगी।

पाग़ल हो हाथ उठाए हो दुआ माँग रहे हो,
पिघला ख़ुदा का दिल तो बारिश-ए-ज़हर होगी।

चाँदनी की आस में आँखें गँवाए बैठे हो,
चाँद जलाके रख देगी अगर हमारी नज़र होगी।

छोड़ो हमारा साथ हम इम्तिहान की तरह हैं,
नतीजे वाली बात हुक्मरान के घर होगी।

अपनी तो ज़िंदगी की रफ़्तार ही कुछ ऐसी है,
जीने को यहाँ जिए हैं उम्र अगले शहर होगी।

४.

ज़िंदगी जितना तू चाहे मुझे परेशान करके देख,
घटा दे उम्र मेरी सुन, उसी के नाम करके देख ।

गुनाह मैंने किया है, हाँ मोहब्बत करके देखी है,
जफ़ा का ज़िक्र क्या करना वफ़ा बदनाम करके देख ।

मैं कब कहता हूँ ज़ख़्मों की कोई मरहम बनाकर दे,
हादसे ख़ुद तलाशेंगे मुझे बेनाम करके देख ।

सहर जब होने को होती है मुझे तब नींद आती है,
मुझसे बात करनी हो, शाम मेरे नाम करके देख ।

हँसते खेलते ये लोग तेरा गिरेबान क्यूँ थामें,
मेरे दुख जागते हों उस घड़ी आराम करके देख ।

५.

शर्त पर आपने हाथों में मेरे हाथ दिया,
शर्त के टूटने तक कायदे से साथ दिया ।

निगाह टूट गई चाँद तक आते जाते,
रात के सफ़र में जुगनू ने बड़ा साथ दिया ।

कट गई उम्र यहाँ एक ख़्वाब की ख़ातिर,
आपने ख़्वाब ही में उम्रभर को काट दिया ।

आपने मंच से उस मंच की तारीफ़ कर दी,
भीड़ ख़ामोश है किस आदमी का साथ दिया ।

वो जो हँसने में दर्शन तलाश करते हैं,
पूछिए रोने पर कितनों ने उनका साथ दिया ।

६.

आदमी और आदमी की जात देखिए,
इसकी शह पे उसको दी है मात देखिए ।

इक हाथ में उसूल, दूजे में स्वार्थ है ।
साथ साथ उठेंगे दोनों हाथ देखिए ।

आपकी ख़ामोशी की कीमत बताइए,
निकल न जाए मुँह से सच्ची बात देखिए ।

अब दोस्तों से दुश्मनी का जादू सीख लो,
रिश्ते ही देंगे ज़ख़्मों की सौगात देखिए ।

अब गिरेगी छत या डूबेगा मेरा घर ,
आप दिल बहलाइए बरसात देखिए ।

इस नस्ल में ऐसे भी कुछ लोग होते हैं,
गोया है अदब बीवी सुलाया साथ देखिए ।

७.

मत मांग गरीब रात से, तू गोरे चांद सी रोटी ,
तोड़ देगी भूख़ तेरी, ये लोहारी हाथ सी रोटी ।

नहीं करेगा कोई तमन्ना, पूरी ख़ाली पेट की,
अरे नहीं मिलेगी तुझे कभी, सौग़ात सी रोटी।

सोचता है मिलेगी, औरत जैसी कठपुतली सी,
अरे ! पीस देगी बेदर्द ये मर्द ज़ात सी रोटी ।

तेरा जीवन कब तेरा है, मरना तेरा अपना है,
बात-बात में सब देंगे, बस कोरी बात सी रोटी

हवा ओढ़ ले ढ़ांचे पर, सो जा ये मिट्टी तेरी है,
शायद नींद में ही मिल जाए, ख़्वाब सी रोटी ।

८.

आज फिर याद पुरानी वो कहानी आई,
उम्र हल्की-सी हुई फिर से जवानी आई ।

ख़त का रंग खुद ही गुलाबी-सा हुआ,
और कुछ बात तेरी याद जुबानी आई ।

दिन को फूलों से बहुत हमने सजा कर रखा,
ख़्वाब में आई तो बस रात की रानी आई ।

अब भी हाथों को मेरे तेरा भरम होता है
जब भी हाथों में मेरे तेरी निशानी आई ।

९.

सजा हुआ हूं नश्तरों की, बनी मीनार पर,
नुमाईश लगी है ग़मों की, टूटी दीवार पर।

सीने के दरम्यां है, अभी वजूद ख़ंजर का,
जाने क्यों छाई नहीं, दहशत लोहार पर ।

दर्द अब तक बैठा था, जिस अंधी सुरंग में,
नज़र पड़ी है बस अभी उस की दरार पर।

रतजगों की हिदायतें, सुर्ख़ आंखें दे गयीं,
पहरे लगे हैं अश्क़ों के, जैसे ख़ुमार पर।

सफ़र का आग़ाज़ था, कांटों का पायदान,
आख़िर में चल रहा हूं, जलते अंगार पर।

१०

मेरे सामर्थ्य को चुनौती मत दो,
दर्द में बेशक कटौती मत दो ।

बंधक है मेरे पास ख़ुदगर्ज़ी आपकी,
मुझे सहानुभूति की फ़िरौती मत दो ।

रोशनी उधार की घर चाट जाएगी,
अपने नाम की रंगीन ज्योति मत दो ।

छीन कर खाने की तुम्हें आदत है,
मेरे मासूम से बच्चे को रोटी मत दो ।

११.

कश्ती का मुसाफ़िर हूँ उस पार उतरना है,
मल्लाह के हाथों में जीना और मरना है ।

जीना है समंदर के सीने से लिपट जाना,
साहिल की तरफ बढ़ना जीना नहीं मरना है ।

घर छोड़ के जाना तुम गर छोड़ दे घर तुमको,
तारों का निकलना ही रातों का सँवरना है ।

महबूब के चेहरे में है भोलापन कितना,
बस आँख में बस जाऊँ मेरा यही सपना है ।

घर दुनिया नहीं मेरी, दुनिया है घर मेरा,
हद-बेहद दोनों के तूफ़ाँ से गुजरना है ।

दिल की तुझे कह डालूँ, फिर तेरी सुनूँ तुझसे,
राजेश रिषि होकर हमको क्या करना है ।