परिचय:
जन्म : 21.10.1943, होशंगाबाद में। पूरा नाम सजीवन दरस गुबरेले ‘मयंक’।
संकलन: गाते चलें पढ़ाते चलें। उजाले की कसम, माटी चंदन है, फागुन आनें वाला है।
संप्रति : शा.उत्कृष्ठ उ.मा.शाला बाबई होशंगाबाद से 31-10-2005 को प्राचार्य के पद से सेवानिवृत्त। वर्तमान में साहित्य सृजन एवं सामाजिक कार्य में संलग्न
नये पत्ते डाल पर आने लगे ।
फिर परिंदे लौटकर गाने लगे ।।
जो अंधेरे की तरह डसते रहे ।
अब उजाले की कसम खाने लगे ।।
चंद मुर्दे बैठकर श्मशान में ।
जिंदगी का अर्थ समझाने लगे ।।
उनकी ऐनक टूटकर नीचे गिरी ।
दूर तक के लोग पहिचाने लगे ।।
जब सियासत का नया नक्शा बना ।
थे जो अंधे लोग चिल्लाने लगे ।।
आईनों की साफ गोई देखकर ।
सामने जानें से कतराने लगे ।।
जब सच्चाई निर्वसन होने लगी ।
लोग उसको वस्त्र पहनाने लगे ।।
२.
एक भी खिड़की नहीं चारों तरफ दीवार है ।
घुट रहा है दम यहॉं , वातावरण बीमार है ।।
एक लंगड़ा आदमी जैसे घिसटकर चल रहा ।
ठीक वैसी ही हमारे , वक्त की रफ्तार है ।।
अपना चेहरा आईनें में देखकर कहनें लगे ।
हम तो ऐसे हैं नहीं यह आईना बेकार है ।।
जिंदगी के बाद रिश्ते शुरू होते हैं यहां ।
शव को कंधा लगा देना एक शिष्टाचार है ।।
उस सड़क पर भीड़ ज्यादा बढ़ गई है आजकल ।
चल रहा है जिस जगह पर मौत का व्यापार है ।।
हमने जो भी कुएं खुदवाये सभी सूखे रहे ।
लोग कहते हैं कोई चट्टान पानी दार है ।।
३.
पुराना ठूंठ बरगद का पुनः हमने हरा देखा।
लगाए जो नये पौधे सभी को अधमरा देखा ॥
सभी दुकान दारों ने जिसे लौटा दिया था कल।
जो खोटा था कभी सिक्का उसी को अब खरा देखा॥
किसे हम दोष दें यारों हमारी ऐसी किस्मत है।
गिरी है वहीं पर बिजली जहाँ आसरा देखा॥
जहां इंसाफ अंधा है सभी कानून बहरे हैं।
वहां गूंगे हैं फरियादी अजब ये माजरा देखा॥
बहुत उम्मींद लेकर आईनें के पास पहुंचे हम।
वहां अपनी शक्ल का आदमी कोई दूसरा देखा॥
४.
फोड़ लो सर किसी पत्थर से।
या लड़ो अपनें मुकद्दर से॥
आज जिस घर जा रही डोली।
लाश निक्लेगी उसी घर से॥
इतनी कायरता नहीं अच्छी।
ओंठ सी लो तुम किसी डर से॥
आग पानी में कहां पर है।
पूछ लो जाकर समन्दर से॥
जीत कैसे हार बनती है।
हमने ये जाना सिकन्दर से॥
यहां भी जलसे हुये होंगे।
महल जो है आग खंडहर से॥
रहनुमा जितने चुने हमनें ।
सो रहे हैं मस्त अजगर से॥
किसी को भी काट सकता है।
दूर रखना हाथ खंजर से॥
५.
बात कुछ की कुछ बताई जाती है।
आग यूं घर में लगाई जाती है॥
उम्र भर की जमा पूंजी खर्च कर।
बेटी की डोली सजाई जाती है॥
लोग लाखों मर गये जब युद्द में।
संधि की बैठक बुलाई जाती है॥
बहुत मीठा बोलती इसलिये मैना।
कैद में रखकर सताई जाती है॥
राज भक्तों के सहारे से टिकी।
झोंपड़ी अक्सर गिराई जाती है॥
पूछिये उससे जो बोझा ठो रहा।
किस तरह रोटी कमाई जाती है॥
वक्त आया सीख लेंगे आप से।
दुश्मनी कैसे निभाई जाती है॥
६.
आम सड़क पर जाने लायक दौर नहीं है।
हम ही हम हैं भीड़- भाड़ में और नहीं है॥
ऊनके अक्सर मिल जाता है रैन बसेरा।
रहनें लायक जिनका कोई ठोर नहीं है॥
बहुत लोग हैं गाजे बाजे भी हैं लेकिन।
ये कैसा जलसा है जिसमें शोर नहीं है॥
हम जिन राहों पर चलकर अब तक आये हैं।
उन राहों का आगे कोई छोर नहीं है॥
कुछ तो खाना फेंक रहे हैं जान- बूझकर।
कुछ हाथों में खाने लायक कौर नहीं है॥
आम आदमी कैसे काट रहा है जीवन।
आज सियासत को इस पर कुछ गौर नहीं है॥
७.
आकाश साफ़ है मगर खटका ज़रूर है।
दिखता नहीं है फिर भी कुछ अटका ज़रूर है।
बस आ रही है बैठकर डोली में हर खुशी।
जिसके लिए हर आदमी भटका ज़रूर है।
ये देश जा रहा था रसातल को दोस्तों।
अब जा किसी खजूर में अटका ज़रूर है।
बर्तन तो आम आदमी के पेट खा गए।
घर के किसी कोने में एक मटका ज़रूर है।
शीशा ए दिल हमारा किसी ने नहीं तोड़ा।
बस उनके देखने से कुछ चटका ज़रूर है।
हो लाल किला दिल्ली का या ताजमहल हो।
छत होगी जहाँ पर वहाँ टपका ज़रूर है।
दे देकर वोट अपना दिवाला निकल गया।
ले ले जिस हर कोई सटका ज़रूर है।
८.
लोग जो तूफ़ान से टकराते हैं
ठोकरें खाते हैं मुसकुराते हैं
वक्त के साथ-साथ चलते जो
अपना इतिहास खुद बनाते हैं
लोग उन्हें देवता समझते हैं
गीत जो आदमी के गाते हैं
उसने महफ़िल में कब बुलाया है
फिर भी हम हैं कि रोज़ आते हैं
पसीने की बूँद को पारस समझो
खेत के खेत लहलहाते हैं
धर्म को व्यापार समझने वाले
रोज़ गीता की कसम खाते है
रेत के महलों में कौन रहता है
हवा चलती है बिखर जाते है
९.
जब कभी गुज़रा ज़माना याद आता है
बना मिट्टी का अपना घर पुराना याद आता है
वो पापा से चवन्नी रोज़ मिलती जेब खर्चे को
वो अम्मां से मिला एक आध-आना याद आता है
वो छोटे भाई का लड़ना, वो जीजी से मिली झिड़की
सभी कुछ शाम को फिर भूल जाना याद आता है
सुबह मंदिर की पूजा साथ मस्ज़िद की अजानों का
अजब-सा एक गठबंधन सुहाना याद आता है
वो काली गाय रामू की वो अब्दुल की बड़ी बकरी
वो जंगल साथ जाना और आना याद आता है
वो अपना बाग अपने हाथ से रोपे हुए पौधे
वो उसके साथ संग क्यारी बनाना याद आता है
वो घर के सामने की अधखुली खिड़की अभी भी है
वहाँ पर छिप किसी का मुसकुराना याद आता है
वो उसका रोज़ ही मिलना न मिलना फिर कभी कहना
ज़रा-सी बात पर हँसना-हँसाना याद आता है
१०.
सभी को लुत्फ़ आता है पराये माल में जैसे।
लचकता चल रहा है हर कोई भोपाल में जैसे।।
हमारी लेखनी से काव्य की धारा यों चलती है।
कि बाबू भागता ऑफ़िस को आपात काल में जैसे।
हमारे दोस्त हमको देखकर नज़रें चुराते हैं।
कि घूँघट, डाल बीबी देखती ससुराल में जैसे।।
सभी रस काव्य में कुछ इस तरह हमने निचोड़े हैं।
ले पेटी इत्र की कोई चले रूमाल में जैसे।।
सभी छंदों को हमने बंधनों से मुक्त कर डाला।
कि महिलाएँ हुई उन्मुक्त महिला साल में जैसे।।
हर महफ़िल हमारा साथ पाकर यों महक जाती।
नमक ज़्यादा ज़रा-सा हो गया हो दाल में जैसे।।
नई नित कल्पना को हम सहजता से पकड़ते हैं।
कि कोई सोन मछली फँस तड़फती जाल में जैसे।।
हम हर विधा में दखल रखते हैं बराबर का।
कि सिक्के एक से ही ढल रहे टकसाल में जैसे।।
११.
हमने जितना खोया उतना मिला नहीं
फिर भी किसी से हमको कोई गिला नहीं
अभी-अभी तूफ़ान यहाँ से गुज़रा है
लेकिन उससे पत्ता भी तो हिला नहीं
काँटे उग आए इंसानी पेड़ों पर
अपनेपन का फूल एक भी खिला नहीं
नक़्शे हैं तैयार सुनहरे दिन वाले
मगर अभी तक शुरू कोई सिलसिला नहीं
हम उन राहों पर चलने के आदी हैं
जिस पर अब तक चला कोई क़ाफ़िला नहीं
१२.
एक दुश्मन बहुत पुराना है।
जिसका अंदाज़ दोस्ताना है।।
कोई कश्ती नहीं किनारे पर।
हमें अब तैरकर ही जाना है।।
सारी दुनिया टटोल ली हमने।
अब खुदा को भी आज़माना है।।
कैद में जी रहा है जो पंछी।
उसे अब और क्या सताना है।।
हमने सूरज से दोस्ती कर ली।
किसी दिन साथ डूब जाना है।।
मौत के पास कौन जाता है।
एक दिन मौत को ही आना है।।
गीत ग़ज़लों की अलग है दुनिया।
इनका अपना अलग घराना है।।
बात दुनिया की सुनी है अब तक।
आज अपनी उसे सुनाना है।।
हमारा कौन बचा दुनिया में।
हमें अब किसकी कसम खाना है।।
हमें यायावर नहीं समझ लेना।
हमारे पास एक ठिकाना है।।
१३.
क्यों करते हो बात शहर की।
जहाँ मुसीबत दुनिया भर की।।
फुटपाथों पर कटी ज़िंदगी।
रही तमन्ना अपने घर की।।
सपनों में दिखती तसवीरें।
कल के बिगड़े हुये सफ़र की।।
घर तक पीछा नहीं छोड़तीं।
दिन भर की बातें दफ्तर की।।
बच्चों ने ये कब सोचा है।
हमने कैसे गुज़र बसर की।।
सब कुछ लुटा चुके तब जाना।
कद्र नहीं है किसी हुनर की।।
जब भी चला जमीं को देखा।
१४.
मुझे चिढ़ा रहे हैं जी भर के।
आइनें फेंक दो सारे घर के।।
दो घड़ी हँस नहीं पाया उपवन।
पाहुने आ गए हैं पतझर के।।
ग़लत छतों पर उतर आते हैं।
काट दो पंख इन कबूतर के।।
ब्याह के बाद अक्सर देखा है।
बंद हो जाते द्वारा पीहर के।।
कहानी खत में कौन पढ़ता है।
करो ई-मेल ढाई आखर के।।
जिनके दर पे रहा कभी मेला।
आज वे हो गए हैं दर दर के।।
१५.
यही सोचकर निकला घर से।
शायद कुछ मिल जाए शहर से।।
मुश्किल बहुत पार लग जाना।
जब पानी ऊपर हो सर से।।
कितने भी घुटने मोड़े पर।
बाहर पाँव रहे चादर से।।
छोटा बड़ा नहीं है कोई।
देखो तो तुम एक नज़र से।।
अब तक हमने क्या सीखा है।
मंदिर मस्ज़िद गिरजाघर से।।
जब तक चूल्हा नहीं जलेगा।
भूख नहीं जाएगी घर से।।
मैं सोया या जगा रात भर।
पूछूँगा अपने बिस्तर से।।
१६.
ईमानदारी से चला दुनियाँ पर भारी हो गया।
कुछ दिनों के बाद सड़कों पर भिखारी हो गया।।
सामने कुछ और कहते पीठ पीछे और कुछ।
इस कला का नाम अब तो दुनियादारी हो गया।।
दुनियाँभर के जुर्म जो ता उम्र भर करता रहा।
आज कल वो किसी मंदिर का पुजारी हो गया।।
लोग अब एहसान भी करते किसी पर इस तरह।
ज़िंदगी भर के लिये कर्ज़ा उधारी हो गया।।
ताल की इन मछलियों को क्यों नहीं विश्वास है।
आज का बगुला भगत भी शाकाहारी हो गया।।
काम कोई भी करा लो दाम देकर के यहाँ।
नाम रिश्वत का यहाँ अब समझारी हो गया।।
१७.
सुनता कोई नहीं सभी का अपना गाना है ।
हमको अपनी सभी गुत्थियाँ खुद सुलझाना हैं ।।
सारी राहें जाम सभी दरवाजों पर ताले ।
समय किसी के पास नहीं है एक बहाना है ।।
राशन की दुकान बिना सामान चला करती ।
इन बीते वर्षों में हमने इतना जाना है ।।
सबके दिल में दर्द कोई हमदर्द नहीं मिलता ।
ऐसे में किसको अपना अब घाव दिखाना है ।।
लोग जिसे कहते हैं मस्जिद बहुत पुरानी है ।
और उसी को कुछ कहते अपना बुतखाना है ।।
१८.
एक भी खिड़की नहीं चारों तरफ दीवार है।
घुट रहा है दम यहाँ , वातावरण बीमार है।।
एक लंगड़ा आदमी जैसे घिसटकर चल रहा।
वैसी ही हमारे, वक्तज की रफ़्तार है।।
अपना चेहरा आईनें में देखकर कहने लगे।
हम तो ऐसे हैं नहीं यह आईना बेकार है।।
ज़िंदगी के बाद रिश्ते शुरू होते हैं यहाँ।
शव को कंधा लगा देना एक शिष्टाचार है।।
उस सड़क पर भीड़ ज्यादा बढ़ गई है आजकल।
चल रहा है जिस जगह पर मौत का व्यापार है।।
हमने जो भी कुएँ खुदवाये सभी सूखे रहे।
लोग कहते हैं कोई चट्टान पानी दार है।।
१९.
हम सोचते ही रह गये और दिन गुज़र गए ।
जो भी हमारे साथ थे जाने किधर गए ।।
बेटी की बिदा हो गई शहनाई भी बजी ।
फिर ऐसा क्या हुआ सभी सपनें बिखर गए ।।
घर से गए जो एक बार आज के बच्चे ।
वापिस वे ज़िंदगी में दुबारा न घर गए ।।
महफ़िल में तेरी लोग सभी झूम रहे थे ।
पहुँचे जो हम तो सभी के चेहरे उतर गए ।।
समझा के थक गए तो स्वयं मौन हो गए ।
कहने लगे बच्चे अब पापा सुधर गए ।।
आज़ाद मुल्क हो गया ऐसा हुआ है क्यों ।
कुछ लोग इस तरफ रहे कुछ क्यों उधर गए ।।
फ़ुर्सत नहीं मरने की बहुत काम है बाकी ।
फ़ुर्सत मिली ऐसी कि वे फ़ुरसत में मर गए ।।
२०.
जब कभी मैं अपने अंदर देखता हूँ।
क्या बताऊँ कैसे मंजर देखता हूँ।।
अर्श मुट्ठी में सिमट कर आ गया।
एक क़तरे में समंदर देखता हूँ।।
बाढ़ में डूबी हुई है पूरी बस्ती।
वहीं अपना डूबता घर देखता हूँ।।
मुल्क के लोगों में क्यों दहशत भरी है।
क्या हुआ घर से निकलकर देखता हूँ।।
अपने वादे रोज़ ही वो भूल जाता।
एक दिन में भी मुकर कर देखता हूँ।।
ख़्वाबगाहों से कभी निकले नहीं वो।
आज मैं उनको सड़क पर देखता हूँ।।
खो गया है इस ज़माने में कहीं पर।
कहाँ है अपना मुकद्दर देखता हूँ।।
आज संसद मुख्य मुद्दे भूल बैठी।
बेतुकी बातें ही अक्सर देखता हूँ।।
लाठियों से बात करती है हुकूमत।
हर जगह मैं अपना ही सर देखता हूँ।।
२१.
दूर बस्ती से जितना घर होगा।
हमारे लिये वो बेहतर होगा।।
ये दुनियां साथ उसी का देगी।
कि जिसके पास में हुनर होगा।।
सच को फाँसी की सजा होगी तो।
सबसे पहले हमारा सर होगा।।
भरोसा जिस पे किया था हमने।
वक्त पर वो इधर-उधर होगा।।
ज़िंदगी की सजा तो पूरी कर।
बाद मरने के तू अमर होगा।।
तूने एहसान किया था जिस पर।
उसी के हाथ में पत्थर होगा।।
२२.
नये पत्ते डाल पर आने लगे।
फिर परिंदे लौटकर गाने लगे।।
जो अंधेरे की तरह डसते रहे।
अब उजाले की कसम खाने लगे।।
चंद मुर्दे बैठकर श्मशान में।
ज़िंदगी का अर्थ समझाने लगे।।
उनकी ऐनक टूटकर नीचे गिरी।
दूर तक के लोग पहिचाने लगे।।
जब सियासत का नया नक्शा बना।
थे जो अंधे लोग चिल्लाने लगे।।
आईनों की साफ गोई देखकर।
सामने जाने से कतराने लगे।।
जब सच्चाई निर्वसन होने लगी।
लोग उसको वस्त्र पहनाने लगे।।
२३.
रोशनी देने इस ज़माने को ।
फूँक डाला है आशियाने को ।।
भूख क्या चीज है पूछो उससे ।
जो तरसता है दाने दाने को ।।
हम हैं फौलाद गलाओ हमको ।
हम हैं तैयार पिघल जाने को ।।
आज जो चाँद-तारे रोशन हैं ।
आये थे हमसे हुनर पाने को ।।
जिंदा रहते नहीं आया कोई ।
आये मरने पर मुँह दिखाने को ।।
तू है बैचेन ग़ज़ल बनने को ।
मैं हूँ बेताब गुनगुनाने को ।।
२४.
शब्द को कुछ इस तरह तुमने चुना है।
स्तुति भी बन गयी आलोचना है।।
आजकल के आदमी को क्या हुआ है।
देखकर जिसको परेशां आईना है।।
दोस्तों इन रास्तों को छोड़ भी दो।
आम लोगों को यहाँ चलना मना है।।
जिसके भाषण आज सडकों पर बहुत हैं।
लोग कहते हैं कि वो थोथा चना है।।
जिस कुएँ में आज डूबे जा रहे हम।
वो हमारे ही पसीने से बना है।।
ठोकरों से सरक सकता है हिमालय।
जो अपाहिज हैं यह उनकी कल्पना है।।
खोल दो पिंजर मगर उड़ ना सकेगा।
कई वर्षों से ये पंछी अनमना है।।
२५.
हम ने जितना खोया उतना मिला नहीं।
फिर भी किसी से हमको कोई गिला नहीं।।
अभी अभी तूफान यहाँ से गुज़रा है।
लेकिन उससे पत्ता भी तो हिला नहीं।।
काँटे उग आये इंसानी पेड़ों पर।
अपनेपन का फूल एक भी खिला नहीं।।
नक्शे हैं तैयार सुनहरे दिन वाले।
मगर अभी तक शुरू कोई सिलसिला नहीं।।
हम उन राहों पर चलने के आदी हैं।
जिस पर अब तक चला कोई काफ़िला नहीं।।