जन्म: प्राण शर्मा का जन्म वजीराबाद (पाकिस्तान) में 13 जून 1937 को हुआ। 1965 से यू.के. में प्रवास कर रहे हैं।
प्रमुख कृतियाँ: उनकी दो पुस्तकें ‘ग़ज़ल कहता हूँ’ व ‘सुराही’ (मुक्तक-संग्रह) प्रकाशित हो चुकी हैं।
सम्पर्क: sharmapran4@gmail.com
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१
फ़र्क़ नहीं पड़ता मन्दिर या मधुशाला हो
चरणामृत हो या
अंगूरों की हाला हो
अपने लिए ए मीत बराबर दोनों ही हैं
ईश्वर की प्रतिमा हो
अथवा मधुबाला हो
२
सबको बराबर मदिरा का प्याला आयेगा
इक
जैसा ही मदिरा को बाँटा जायेगा
इसको ज्यादा उसको कम मदिरा ए साक़ी
मधुशाला में
ऐसा कभी न हो पाएगा
३
रुष्ट न हो जाये कोई भी मधुबाला
से
वंचित कोई भी ना रह जाये हाला से
द्वार खुला रहता है इसका इसीलिए
नित
प्यासा कोई लौट न जाये मधुशाला से
४
जिसका मन
मधुशाला जाने से रंजित है
जिसके मन में मदिरा की मस्ती संचित है
मदिरा पीने
का अधिकार उसे है केवल
जिसका सारा जीवन साक़ी को अर्पित
है
५
मधुशाला में नकली हाला भी चलती है
मधु तो क्या नकली
मधुबाला भी चलती है
मधुशाला में सोच समझकर जाना प्यारे
अब जग में नकली
मधुशाला भी चलती है
६
पूरी बोतल पीने का आगाज़ न कर
तू
दोस्त, अभी मदिरा पर इतना नाज़ न कर तू
अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है मेरे
प्यारे
छोटे पंखों से ऊँची परवाज़ न कर तू
७
तेरे लिए
मदिरा ए जाहिद होगी गाली
मेरे लिए है मदिरा सबसे चीज़ निराली
तेरे लिए मदिरा ए
जाहिद होगा विष पर
मेरे लिए मदिरा है जीवन देने
वाली
८
सावन की मदमस्त घटा है मदिरा प्यारे
चन्दन वन की
मस्त हवा है मदिरा प्यारे
जीवन की चिंताओं से क्यों घबराता है
चिंताओं की एक
दवा है मदिरा प्यारे
९
यह न समझना मुझमें सद्व्यवहार नहीं
है
यह न समझना मुझमें लोकाचार नहीं है
जाहिद, माना मेरा है सम्बंध सुरा
से
यह न समझना मुझको जग से प्यार नहीं है
१०
बीवी –
बच्चों पर जो घात क्या करता है
पल – पल गुस्से की बरसात किया करता है
दोस्त,
समझना उसे कभी मत मधु का प्रेमी
११
शांत, अचंचल, संयमी, धीर हुआ करता है
फक्कड़ मन का
औ’ दिलगीर हुआ करता है
मस्ती का धन जितना चाहे ले जा उससे
हर मतवाला मस्त
फ़कीर हुआ करता है
१२
किस युग ने ठहराया है मधु को
प्रतिबंधित
मधु पीने के कारण कौन हुआ है दंडित
ज्ञानी, ध्यानी, पंडित मुझको
दिखलायें तो
किस पुस्तक में लिक्खा है मदिरा को
वर्जित
१३
व्यर्थ न अपने नैन तरेरो उपदेशक जी
नफ़रत के मत
शूल बिखेरो उपदेशक जी
मदिरा जीवन का हिस्सा है अब दुनिया में
सच्चाई से मुख
ना फेरो उपदेशक जी
१४
फूलों सा हँसता है, मेघों सा रोता
है
बीज सभी की राहों में मद के बोता है
पत्थर जैसा उसका दिल हो नामुमकिन
है
मोम सरीखा मतवाले का दिल होता है
१५
अपना नाता जोड़
अभागे मधुशाला से
पीने का आनंद उठा ले मधुबाला से
प्रतिदिन पीकर एक सुरा का
प्याला प्यारे
अपना पिंड छुड़ा ले दुक्खों की ज्वाला
से
१६
दीवारों पर धब्बए काले तकते-तकते
कोनों में मकड़ी
के जाले तकते-तकते
इक निर्धन मद्यप ने दिल पर पत्थर रखकर
रात गुज़ारी खाली
प्याले तकते-तकते
१७
पण्डित जी, तुम चाहे मधु को विष
बतलाओ
जितना जी चाहे मधु पर प्रतिबंध लगाओ
इसकी मान – प्रतिष्ठा और बढ़ेगी जग
में
लोगों की नज़रों से चाहे इसे गिराओ
१८
कभी-कभी साक़ी
हमसे कुछ कतराता है
कभी-कभी साक़ी गुस्सा कुछ दिखलाता है
यूँ तो बड़ा है
दिलवाला यह माना हमने
कभी-कभी साक़ी कंजूसी कर जाता
है
१९
कभी-कभी खुद ही मन-ज्वाला हर लेता हूँ
मधु से अपना
प्याला खुद ही भर लेता हूँ
मैं अधिकार समझकर मदिरा के नाते ही
शिकवा और गिला
साक़ी से कर लेता हूँ
२०
निशि का तम हो अथवा हो दिन का
उजियाला
मेरा ठोर ठिकाना हो या हो मधुशाला
जब भी दौर शुरू होता है मधु पीने
का
आनन-फानन पी जाता हूँ पहला प्याला
२१
क्यों न लगाऊँ
अपने अधरों से प्याला को
क्यों न पियूँ मस्ती देनेवाली हाला को
मेरे जीवन का
सर्वस्व बनी है वह तो
क्यों न बिठाऊँ अपने सिर पर मधुबाला
को
२२
दुनिया में ऐसे भी युग आते हैं भाई
अच्छे–अच्छे
नाम बदल जाते हैं भाई
पात्र सुरा के बन जाते हैं मधु के प्याले
और सुरालय
मधु-घर कहलाते हैं भाई
२३
रूखी-सूखी औ’ कंगाली शाम न
बीते
और अमावस जैसी काली शाम न बीते
मदिरा का सम्मान बढ़ाना है गर
साक़ी
मतवालों की कोई खाली शाम न बीते
२४
बिन दर्शन के
लौट गया तू मधुबाला के
आँगन से ही लौट गया तू मधुशाला के
तुझसे बढ़कर कौन
अभागा है दुनिया में
घूँट पिये ही लौट गया तू बिन हाला
के
२५
कभी-कभी मस्ती के लमहों को जीने को
जीवन के गहरे
से घावों को सीने को
सच्ची-सच्ची बात बता उपदेशक हमको
तेरा चित्त नहीं करता
है मधु पीने को
२६
सूरत को ही तक ले पगले मधुबाला
की
मिट्टी को ही छू ले पगले मधुशाला की
चित्त नहीं करता गर तेआ मधु पीने
को
खुशबू ही कुछ ले ले पगले तू हाला की
२७
दोस्त, तुझे
मस्ती पाना है यदि हाला में
सेवा भाव निरखना है यदि मधुशाला में
थोड़ी सी
तकलीफ़ उठानी होगी तुझको
चलकर तुझको जाना होगा मधुशाला
में
२८
क्या रक्खा है उपदेशों को अपनाने में
इन मकड़ी के
जालों में मन उलझाने में
छोड़ सभी ये माथा पच्ची मेरे प्यारे
आ तुझको मैं ले
चलता हूँ मयखाने में
२९
गूँज छलक जाते प्यालों की मतवाली
है
मयखाने में खुशहाली ही खुशहाली है
साक़ी, तेरा मयखाना है या है जन्नत
हर
पीने वाले के चेहरे पर लाली है
३०
जी करता है सदा रहूँ टेरे
साक़ी को
यारो, मैं हर वक़्त रहूँ घेरे साक़ी को
इसीलिए आ जाता हूँ मैं मयखाने
से
ताकि मिले आराम ज़रा मेरे साक़ी को
३१
चाक जिगर के अपने सब सीने आया है
मदिरा को फिर मस्ताना पीने आया
है
मधुशाला के बिन कैसे रह सकता है वो
लो, साक़ी फिर मस्ताना जीने आया
है
३२
बात बड़ी ही हैरानी वाली लगती है
मधु के प्यासों की क़िस्मत काली लगती
है
नीरस लोग यहाँ पर वो भी मयखाने में
दोस्त, सुराही इसीलिए खाली लगती
है
३३
साक़ी, मय और पैमाने की बात करेंगे
मयख़ाने में मस्ती की बरसात
करेंगे
रोक सके तो रोके कोई मतवालों को
पीते और पिलाते सारी रात
करेंगे
३४
तब भी प्यालों में होती थी मधु की छलकन
तब भी मचला करता था
मदिरा को हर मन
रामायण का युग हो या हो महाभारत का
लोग किया करते थे नित
मदिरा का सेवन
३५
घुट-घुट कर पीड़ा को सहना ठीक नहीं है
यारों से दिल की ना
कहना ठीक नहीं है
मदिरा के दो प्याले पीकर भी ए साथी
दुखी तुम्हारा बन कर
रहना ठीक नहीं है
३६
मधुशाला में जाने की कोई भूल न कर तू
मधु का गीत
सुनाने की कोई भूल न कर तू
दोस्त, अगर तुझमें मधु के प्रति मान नहीं है
पीने
और पिलाने की कोई भूल न कर तू
३७
निर्णय ले बैठेगा तुझको ठुकराने का
अवसर
खो बैठेगा तू मदिरा पाने का
बैठ सलीके से ए प्यारे वरना तुझको
रस्ता दिखला
देगा साक़ी घर जाने का
३८
जीवन में तुम आज अलौकिक रस बरसा दो
मदमस्ती का एक
अनोखा लोक रचा दो
पीने का आनंद बड़ा आएगा साक़ी
अपने शुभ हाथों से मुँह को जाम
लगा दो
३९
तन-मन को बहलाने का इक साज़ यही है
अपने मधुमय जीवन का अन्दाज़
यही है
दिन को साग़र शाम को साग़र मेरे प्यारे
सच पूछो तो अपना इक हमराज़ यही
है
४०
मद में पत्ता-पत्ता, कन-कन झूम उठा है
बिन ऋतु के उपवन का उपवन झूम
उठा है
चेतन तो चेतन जड़ में भी उसका असर है
जब साक़ी डोला तो दर्पन झूम उठा
है
४१
पल दो पल आजा तुझको भी मैं बहला दूँ
मदिरा के छींटे तुझ पर भी मैं
बरसा दूँ
ए साक़ी, तू रोज पिलाता है मय मुझको
आजा, तुझको भी थोड़ी मैं आज पिला
दूँ
४२
व्यर्थ सुरा और मधुशाला को बतलाता है
पीने वालों में अवगुण भी
दिखलाता है
साक़ी से क्या ख़ाक निभेगा उसका रिश्ता
जाहिद जब उसकी छाया से
घबराता है
४३
मन ही मन में गीत सुरा का मैं गा बैठा
पीने की आशा में खुद
को महका बैठा
जब साक़ी ने मदिरा का न्यौता भिजवाया
मैं मयखाने में सबसे पहले
जा बैठा
४४
बात है जो मस्ती में जीवन को जीने की
बात है जो मदिरा से महके
सीने की
बात कहाँ होगी वो चाँदी के प्याले में
बात है जो मिट्टी के प्याले
में पीने की
४५
मदिरा का प्यासा मेरा मन चिल्लायेगा
खुद भी तड़पेगा तुझको
भी तड़पायेगा
छीन नहीं मेरे हाथों से प्याला साक़ी
मेरा कोमल सा मन द्रोही हो
जायेगा
४६
मैं मस्ती में पीऊँगा प्याले पर प्याला
चाहे रोज़ पुकारे लोग
मुझे मतवाला
मेरे मन जल्दी ले चल मधुशाला मुझको
वहाँ तरसती है मेरे स्वागत को
हाला
४६
लोग अगर विश्वास करेंगे मधुबाला में
लोग अगर सुख-चैन टटोलेंगे
हाला में
जीवन के सारे मसले हल हो जाएँगे
लोग अगर आए-जाएँगे मधुशाला
में
४७
रोम रोम में सुख पहुँचाती है मदमस्ती
कैसे-कैसे रंग जमाती है
मदमस्ती
उसकी महिमा क्या बतलाऊँ मेरे यारो
पत्थर दिल में फूल खिलाती है
मदमस्ती
४८
मदिरा की मस्ती में हर पल अपना जीवन महकयेगा
सबको अपने गले
लगाकर झूमेगा और लहरायेगा
सुबह-सुबह चल पड़ने का उसका मक़सद जाने हैं हम
मदिरा
का मतवाला घर से सीधा मयख़ाने जायेगा
४९
फागुन के मौसम में कोयल गीत नहीं तो
क्या गायेगी
सावन के मौसम में बदली बरखा नहीं तो क्या लायेगी
नाहक ही तुम पाल
रहे हो दुश्चिंताएँ अपने मन में
मदिरा पीने से तन-मन में मस्ती नहीं तो क्या
आयेगी
५०
मधुशाला में यारो कोई फ़र्क़ नहीं गोरे-काले का
मधुशाला में ज़ोर
नहीं कुछ चलता है जीजे-साले का
नाद यहाँ गूँजा करता है सर्वे भवन्तु सुखिनः हर
पल
एक नज़र से सबको देखे धर्म सुरा पीने वाले का
५१
देख के कितना दुख
पहुँचा है मदिरालय के टूटे प्याले
टूटी खिड़की और दरवाज़े, दरवज़ों के टूटे
ताले
ए साक़ी प्रतिबंध लगा दे मदिरालय में उपद्रवियों पर
केवल वे ही आयें
इसमें जो हों मदिरा के मतवाले
५२
हम मधु के मतवाले इतना रम जाते हैं पैमाने
में
इतना खो जात हैं मधु से अपने तन-मन बहलाने में
पीते और पिलाते मदिरा और
मस्ती की रौ में बहते
आधी-आधी रात कभी हम कर देते हैं मयख़ाने में
५३
सपनों
की दुनिया में सबकी पावन मदिरा धाम बसा है
मदिरा में सुख से जीने क इक सुन्दर
पैगाम बसा है
उपदेशक जी, सिर्फ़ तुम्हीं तो नाम नहीं लेते ईश्वर का
हर पीने
वाले के मन में राम बसा है, श्याम बसा है
५४
हम भी मग्न रहें मस्ती में तुम
भी मग्न रहो पूजन में
हम भी जी लें अपनी धुन में तुम भी जी लो अपनी लगन
में
उपदेशक जी, कैसा झगड़ा हम में और तुम में बतलाओ
हम भी रहें तल्लीन सुरा
में तुम भी रहो तल्लीन भजन में
५५
अच्छा होता, पहले से ही साक़ी का मतवाला
होता
मयख़ाने जाने का चस्का पहले से ही डाला होता
काश, सभी मस्ती के मंज़र पहले
से ही देखे होते
शौक़ सुरा का पहले से ही या रब मैंने पाला होता
५६
लोगों
को मुसकाते हरदम मधुशाला में जाकर देखो
मधु में घुलता हर इक का ग़म मधुशाला में
जाकर देखो
उपदेशक जी, बात पे मेरी तुमको यदि विश्वास नहीं है
मस्ती और खुशी
का संगम मधुशाला में जाकर देखो
५७
पीने वालों की महफ़िल में ख़ुद को उजियाले
कहते हैं
नीरस दिखने वाले ख़ुद को मस्ती के पाले कहते हैं
हमने देखे और सुने
हैं स्वांग रचाते कितने जन ही
मदिरा का इक प्याला पीकर ख़ुद को मतवाले कहते
हैं
५८
धीरे-धीरे आ जायेगा गीत सुरा का गाना तुमको
धीरे-धीरे आ जायेगा
जीवन को महकाना तुमको
अभी नये हो मधुशाला में मधु की चाहत रखने
वालो
धीरे-धीरे आ जायेगा पीना और पिलाना तुमको
५९
खुशियों के बादल उड़ते
हैं साक़ी बाला के आँचल में
गंध यहाँ बसती है वैसे बसती है जैसे संदल
में
पण्डित जी, इक बार कभी तो मधुशाला में आकर देखो
मस्ती सी छायी रहती है
मधुशाला के कोलाहल में
६०
जब मतवालों के प्याओं से प्याला टकराता है
भाई
जब मदिरा का पान हृद्य में रंग अजब लाता है भाई
वक़्त गुज़र जाता है कितनी
जल्दी-जल्दी मयख़ाने में
जब मस्ती का आलम पूरे जीवन पर आता है भाई
६१
और जगह पर जाना ख़ुद को सच पूछो तो भटकाना है
मदिरा से वंचित जीवन को सच
पूछो तो तरसाना है
प्यार भरा माहौल यहाँ का और कहाँ होगा ए यारो
इनसानों का
सच्चा डेर सच पूछो तो मयख़ाना है
६२
जबकि सदा ही लहराता है दृश्य मनोहर
मधुशाला का
जबकि सदा ही भरमाता है रूप सलोना मधुबाला का
मुझको क्या लेना-देना
है बाग-बगीचे की ख़ुशबू से
जबकि सदा ही महकाता है मन को हर क़तरा हाला
का
६३
सोंधि हवाओं की मस्ती में जीने का कुछ और मज़ा है
भीगे मौसम में
घावों को सीने का कुछ और मज़ा है
मदिरा का रस दुगना-तिगना बढ़ जाता है मेरे
प्यारे
बारिश की बूँदाबाँदी में पीने का कुछ और मज़ा है
६४
सन्यासी सारी
दुनिया को झूठ बराबर बतलाता है
लेकिन पीनेवाला जग को सच्चा कहकर लहराता
है
अन्तर हाँ अन्तर दोनों में धरती और अम्बर जितना है
सन्यासी जग ठुकराता है
पीने वाला अपनाता है
६५
यह न समझना साक़ी तुझसे इक प्याले पर रोष
करेंगे
तेरी कंजूसी का साक़ी सारे जग में घोष करेंगे
तुझको है मालूम सभी कुछ
हम कितने धीरज वाले हैं
थोद्ई हो या ज्यादा मदिरा हम उससे सन्तोष
करेंगे
६६
बीवी-बच्चों को बहलाकर मयख़ाने को जाता हूँ मैं
घर वालों की
’हाँ’ को पाकर मयख़ाने को जाता हूँ मैं
ऐसी बात नहींहै, मुझको घर की कोई फ़िक्र
नहीं है
घर के काम सभी निबटा कर मयख़ाने को जाता हूँ मैं
६७
उपदेशक का बोल
कसीला रिंदों को खलता जाएगा
रिंदों के मदिरा पीने से उपदेशक जलता जाएगा
आज
अगर है भीड़ यहाँ पर कल को भीड़ वहाँ पर होगी
मधुशाला चलती जाएगी मन्दिर भी चलता
जाएगा
६८
साक़ी, तेरे मयख़ाने में उज्ज्वल ही उज्ज्वल है सब कुछ
साक़ी, तेरे
मयख़ाने में निर्मल ही निर्मल है सब कुछ
तेरे मयख़ाने में छ्ल हो सोच नहीं सकता
मतवाला
साक़ी तेरे मयख़ाने में निश्छल ही निश्छल है सब कुछ
६९
इक दिन साक़ी
बोला मुझसे तू कैसा मस्ताना है
बरसों से ही मयख़ाने में तेरा आना-जाना है
ए
साक़ी, ऐसा लगता है मय की खातिर जमा हूँ
मयख़ाना ही मेरा घर है मेरा ठौर-ठिकाना
है
७०
वक़्त सुहना बीत रहा है पीने और पिलाने में
आता है आनंद बड़ा ही मय के
नग़में गाने में
शिकवा और शिकायत तुझसे हमको क्यों ए साक़ी
सुबह सुरा है शाम
सुरा है तेरे इस मयख़ाने में
७१
महजब के हर व्यापारी के घर लगवा दूँ ताला
मैं
नफ़रत फैलाने वाले का मुख करवा दूँ काला मैं
किस्मत से यदि मैं बन जाऊँ
अपनी नगरी का मुखिया
हर चौराहे पर खुलवा दूँ प्रेम भरी मधुशाला मैं
७२
हीन
भावना जड़ से तेरे मन की दूर भगायेगा
सतरंगी मदमस्ती तेरे मन- मन में
लहरायेगा
मन्दिर से ठुकराया है तू चिंता की कोई बात नहीं
साक़ी इतना दयाशील है
तुझको खुद अपनायेगा
७३
मदिरा की मस्ती में खोया मुझ जैसा जीने वाला
चाक
जिगर के मदमस्ती में मुझ जैसा सीने वाला
दोस्त, भले ही न्यौता दे दे पीने का जग
को लेकिन
कठिनाई से तुझे मिलेग मुझ जैसा पीने वाला
७४
मयख़ाने में आते-जाते
सब पर धाक बिठाता हूँ
मदिरा सब पीने वालों से लोहा निज मनवाता हूँ
मुझको मान
बहुत है प्यारे अपने मदिरा पीने पर
पल ही पल में अनगिन प्याले अंधा-धुंध उड़ाता
हूँ
७५
मधुशाला में लाकर मुझको प्यासा ही क्या रक्खोगे
अपने पास बिठाकर
मुझको प्यासा ही क्या रक्खोगे
कितनी और प्रतीक्षा मुझको करनी होगी ए
साक़ी
मेरी प्यास बढ़ाकर मुझको प्यासा ही क्या रक्खोगे
७६
रात दिवस सोचा
करता था कैसा होगा मयख़ाना
कैसा होगा साक़ी, कैसा होगा मय और पैमाना
दुनिया के
अनमोल रतन हैं साक़ी, मय और मयख़ाना
मैंने ये सब जाना प्यारे बनकर इन का
मस्ताना
७७
साथ सदा तू देना उसका पीने में जो पक्का है
मस्ती की बातें
करता है मधु के प्रति जो सच्चा है
साथ कभी मत देना उसका कहना है यह साक़ी
का
मान नहीं जिसको मदिरा पर पीने में जो कच्चा है
७८
तुझे कहीं न बहलाये
वह चुपड़ी-चुपड़ी बातों से
या तुझको घायल ना कर दे उपदेशों के घातों से
पीकर
मदिरा उसके आगे दोस्त न निकलाकर प्रतिदिन
छीन कहीं न ले उपदेशक बोतल तेरे हाथों
से
७९
दुनिया का अद्भुत हर जन है मन में कुछ और मुख में कुछ
लोगों का बस
एक चलन है मन में कुछ और मुख में कुछ
ए साक़ी, एतबार करें अब इस युग में किस
प्राणी पर
सबका दो रंगी जीवन है मन में कुछ और मुख में कुछ
८०
यहीं मिलेगा
तुझको अल्लाह यहीं मिलेग गुरु का दर
यहीं मिलेगा तुझको ईसा यहीं मिलेगा
पैगम्बर
आँखें खोल ज़रा तू अपनी कहाँ भटकता है प्यारे
मयख़ाने से बढ़कर कोई और
नहीं है रब का घर
८१
साक़ी को
पीने की ख़्वाहिश फिर अपनी बतला बैठा
मदिरा की
सोंधी ख़ुशबू से फिर मन को बहला बैठा
मस्ती के
आगे कुछ अपनी पेश गयी ना ए यारो
घर जाने
के बदले मैं फिर मयख़ाने में जा बैठा
८२
कष्ट
नहीं है मयख़ाने में जिनको आने-जाने के
जिनको
अवसर नित मिलते हैं मय के रंग जमाने के
लोग बड़े
ही किस्मत वाले होते हैं दुनिया में वे
जिनके घर
आगे-पिछवाड़े पड़ते हैं मयख़ाने के
८३
लोग समझ
पाये हैं अब ये कितनी सच्ची है हाला
नफ़रत से
सबको करती है दूर हमेशा मधुबाला
धर्म के
ठेकेदारों से अब तंग आये हैं लोग सभी
खाली
मन्दिर-मस्जिद हैं भरी हुयी है मधुशाला
८४
संगत कर
लो पहले मय के गीत सुनाने वाले से
रोशन कर
लो पहले मन को मस्ती के उजियाले से
साक़ी और
मयख़ाना क्या है ज्ञान सभी मिल जाएगा
सीखो पहले मदिरा पीना दोस्त किसी मतवाले
से
८५
आकर देखो
कितनी खुशियाँ मिलती हैं मृदु हाला में
और देखो
कितना अपनापन मिलता है मधुबाला में
उपदेशक
तो मधु के अवगुण लाख गिनायेगा लेकिन
आकर देखो
मदिरा के गुण दोस्त स्वयं मधुशाला में
८६
पण्डित
जी बोले – मतवालो, मदिर पर क्यों मरते हो
इस
सुन्दर जीवन के धन का अपव्यय तुम क्यों करते हो
मतवाले
बोले – इस धन को हम बरबाद करें न करें
पहले यह
बतलाओ, हमसे नफ़रत तुम क्यों करते हो
८७
हम भी
इनसान खुदा के हम भी जीवन जीते हैं
हम भी
तुम जैसे हँसते हैं, चाक जिगर के सीते हैं
पण्डित
जी, तुम में और हममें सिर्फ़ इसीका रोना है
तुम पीते
हो दूध-मलाई और हम मदिरा पीते हैं
८८
भक्त बने
फिरते हैं अब तो लोग सभी मधुबालाअ के
दीवाने
बनकर फिरते हैं लोग सभी अब हाला के
जिसको
देखो बात है करता पीने और पिलाने की
लोगों के
मेले लगते हैं आँगन में मधुशाला के
८९
मेरे
अन्तर की तृष्णा को तेरा काम बुझाना है
इस
प्यासे जीवन पर तेरा काम सुरा बरसाना है
सदियों
से सम्बंध निकट का तेरा – मेरा है साक़ी
मेरा काम
सुरा पीना है तेरा काम पिलाना है
९०
पीने की
अभिलाषा में वे बादल से मँडराते हैं
मान –
प्रतिष्ठा मधुशाला की आकर रोज़ बढ़ाते हैं
देख कहीं
प्यासा ही कोई लौट ना जाए ए साक़ी
कोसों
दूर से पीने वाले मधुशाला में आते हैं
९१
हम सबको
भीतर आने को बोलोगे तो जानेंगे
मदिरालय
के सब दरवाज़े खोलोगे तो जानेंगे
पीने की
अभिलाषा लेकर हम आये हैं साक़ी
हम सबको
तुम एक बराबर तोलोगे तो जानेंगे
९२
कैसे फूल
खिला करता है और कैसे मुरझाता है
जुगनू
सारी रात चमक कर क्यों दिन में खो जाता है
साक़ी,
मेरे मन में अक़सर प्रश्न उठा करता है यह
आता है
इनसान कहाँ से और कहाँ को जाता है
९३
मदिरा
मुझमें जीती है या मैं मदिरा में जीता हूँ
मदिरा
मुझ बिन रीती है या मैं मदिरा बिन रीता हूँ
मदिरा
जाने या मैं जानूँ तुम क्यों चिंतित हो जाहिद
मदिरा
मुझको पीती है या मैं मदिरा को पीता हूँ
९४
तुझको
तेरा मन्दिर प्यारा मुझको मेरी मधुशाला
तुझको
तेरा अमृत प्यारा मुझको मेरी मृदु हाला
उपदेशक,
तेरा-मेरा वाद-विवाद नहीं अच्छा
तुझको
तेरा रब हो प्यारा मुझको मेरी मधुबाला
९५
मदिरा
तन-मन को कुछ ज्यादा सरसाती है सन्ध्या में
मधुबाला
प्याले कुछ ज्यादा छलकाती है सन्ध्या में
यूँ तो
दौर चला करता है मधु का दिन में भी लेकिन
पीने की
इच्छा कुछ ज्यादा बढ़ जाती है सन्ध्या में
९६
सावन-भादों सी मस्तानी
अमृत सी
जीवन-कल्याणी
मन में
क्या-क्या मस्ती घोले
छैल-छबीली मदिरा रानी
९७
मधुवन की
यह कुंज गली है
शाश्वत
खिलती मन की कली है
मधुशाला
को कुछ भी कहो तुम
अपने लिए
यह पुण्यस्थली है
९८
अपनी सब
कुछ है मधुबाला
खूब
लुटाती है जो हाला
और नहीं
कोई लक्ष्य हमारा
लक्ष्य
हमारा है मधुशाला
९९
इतनी
जल्दी क्या है प्यारे
अभी नहीं
निकले हैं तारे
दोस्त,
नहीं घर प्यासे जाते
ले-ले
मदिरा के चटकारे
१००
हर चिंता
से दूर रहोगे
सुख सागर
में नित्य बहोगे
थोड़ी-थोड़ी पीते रहना
दोस्त
सदैव निरोग रहोगे
१०१
कोई पिये प्याले पर प्याला
कोई पिये केवल इक प्याला
जिसकी जितनी प्यास है होती
उतनी पिये यारो वह हाला
१०२
मस्ती में क्या ख़ाक जिएँगे
चाक जिगर के ख़ाक सिएँगे
उपदेशों से ग्रस्त हुए हैं
उपदेशक क्या ख़ाक पिएँगे
१०३
जीवन नाम है मधु पाने का
मस्ती के नग़मे गाने का
जाहिद का जीवन है कोई
जीवन तो है मस्ताने का
१०४
सुखदायक हर पल है प्यारे
सरिता सी कल-कल है प्यारे
अपने मस्त भरे जीवन में
मंगल ही मंगल है प्यारे
१०५
मस्ती का आलम रहने दे
मस्त हवाओं को बहने दे
यह मयखाना है प्यारे तू
दूर सियासत को रहने दे
१०६
साक़ी तेरा दोष नहीं है
मुझमें जो सन्तोष नहीं है
पीता हूँ हर रोज़ सुरा पर
भरता मन का कोष नहीं है
१०७
मदिरा इक लोरी जैसी है
मन पर जादू सा करती है
जब तक मैं मदिरा ना पी लूँ
मुझको नींद नहीं आती है
१०८
महफ़िल में दुक्खों के मारे
जीवन की हर डग पर सारे
केवय मय की बोतल पीकर
झूम उठे सारे के सारे
१०९
मस्ती के घेरों के घेरे
फैलाते हैं शाम-सवेरे
तन – मन को सुरभित करते हैं
मधु के भीगे मुक्तक मेरे
११०
खुद पीये और सबको पिलाये
यारों के संग रंग जमाये
ऐसा कैसे हो सकता है
’प्राण’ अकेला मधु पी जाये
१११
इक स्वर में बोले मस्ताने
हम हैं साक़ी के दीवाने
लाख बुरा कह ले उपदेशक
हमको प्यारे हैं मयखाने
११२
मधुशाला के दर जब खोले
एक बराबर पीने सबको तोले
कौन करे ’ना’ मदिरा को अब
मधुबाला पीने को बोले
११३
मधुमय जीवन जीते-जीते
घाव हृदय के सीते-सीते
प्यास बढ़ा बैठे हैं मन की
थोड़ी – थोड़ी पीते-पीते
११४
गीत सुरा का गाता होगा
मधु से मन बहलाता होगा
’प्राण’ किसीके घर में बैठा
पीता और पिलाता होगा
११५
जीवन-नैया खेते-खेते
वक़्त तुम्हीं को देते-देते
अब तक ज़िंदा हूँ मैं साक़ी
नाम तुम्हारा लेते-लेते
११६
सावन ने जब ली अंगड़ाई
मस्त घटा जब मन में छाई
मत पूछो रिंदों ने क्या
मयखाने में धूम मचाई
११७
मस्ती की बारिश लाती है
सोंधी ख़ुशबू बिखराती है
जेठ महीने में ए प्यारे
मदिरा ठंडक पहुँचाती है
११८
पगले, सौन क्या साक़ी बोले
भेद गहन मदिरा के घोले
वह पाय जाये जीते जी सुख
जो मन को मधुरस से घोले
११९
चाक जिगर का सी लेता है
मदमस्ती में जी लेता है
मदिरा से परहेज़ नहीं है
जब जी चाहे पी लेता है
१२०
सबसे प्यारा जाम सुरा का
सबसे न्यारा नाम सुरा का
दुनिया भरक सब धामों से
सबसे प्यारा धाम सुरा का
१२१
मधु से अपना मन बहला ले
मदमस्ती का जश्न मना ले
मेरी फ़िक्र न कर तू प्यारे
पहले अपनी प्यास बुझाले
१२२
सबसे प्यार अथाह करे वह
सबकी ही परवाह करे वह
सबका शुभचिन्तक है साक़ी
सबके सुख की चाह करे वह
१२३
साथ सुराबाले के से ले
पाप-कलुष सारे धो ले
मस्त फुहारों में मदिरा की
प्यारे तन-मन खूब भिगो ले
१२४
तू चुपचाप चले घर जाना
कोई क्लेश न घर में लाना
मदहोशी में मेरे प्यारे
बच्चे की मानिंद सो जाना
१२५
रात-दिवस मदिरा पीता है
मस्त हवाओं में जीता है
यह कमबख़्त हृदय ए प्यारे
फिर भी रीता का रीता है
१२६
ए मतवालो शाद रहो तुम
जीवन में आबाद रहो तुम
थोड़ी-थोड़ी पीते रहो तुम
हर ग़म से आज़ाद रहो तुम
१२७
मधुपान कराता है सबको
मदमस्त बनाता है सबको
एहसान सदा उसके मानो
साक़ी बहलाताहै सबको
१२८
कभी मस्ती कभी ख़ुमार प्रिये
कभी निर्झर कभी फुहार प्रिये
कबी रिमझिम-रिमझिम मेघों की
मदिरा के रंग हज़ार प्रिये
१२९
सबकी मस्ती की चाल रहे
मस्ताना सबका हाल रहे
साक़ी की दया से हर कोई
मदिरा से मालामाल रहे
१३०
जिसने मधुमय संसार किया
जिसने जीवन-उद्धार किया
हम उसके शुक्रगुज़ार बड़े
जिसने मधु-अविष्कार किया
१३१
हम मदमस्ती के पाले हैं
मधुशाला के उजियाले हैं
हम से सम्मान सुरा का है
हमसे ही शोभित प्याले हैं
१३२
आता – जाता हूँ मधुशाला
पीता जाता हूँ जी भर कर हाला
सब कहने से क्या घबराना
मतवाला हूँ मैं मतवाला
१३३
प्याले पर प्याला पी डाले
घट – घट की हाला पी डाले
पीने वाला मदमस्ती में
सारी मधुशाला पी डाले
१३४
हँसता, गाता, मुस्काता है
अपने मन को महकाता है
जो आता है मधुशाला में
आनंदित होकर जाता है
१३५
प्याले पर प्याला चलने दे
मस्ती को मन में पलने दे
जब बैठे ही हैं पीने को
तो रात सुरा में ढलने दे
१३६
मेरा और अपना प्याला भर
मदिरा से महफ़िल करदे तर
मस्ती की घड़ियों में प्यारे
मन की बेचैनई से ना डर
१३७
माना, सुख के दीन बीते हैं
मान सुविधा में हम रीते हैं
लेकिन मदिरा के बलबूते
हम बेफ़िक्री में जीते हैं
१३८
आये हैं हम पीने वाले
मदिरा के प्यासे मतवाले
साक़ी हम यह क्या सुनते हैं
खाली बोतल खाली प्याले
१३९
मन में सद्भाव जगाती है
औ’ दर्द – दया उपजाती है
मदिरा हर प्राणी को अक्सर
संवेदनशील बनाती है।
कोई पिये प्याले पर प्याला
कोई पिये केवल इक प्याला
जिसकी जितनी प्यास है होती
उतनी पिये यारो वह हाला
१०२
मस्ती में क्या ख़ाक जिएँगे
चाक जिगर के ख़ाक सिएँगे
उपदेशों से ग्रस्त हुए हैं
उपदेशक क्या ख़ाक पिएँगे
१०३
जीवन नाम है मधु पाने का
मस्ती के नग़मे गाने का
जाहिद का जीवन है कोई
जीवन तो है मस्ताने का
१०४
सुखदायक हर पल है प्यारे
सरिता सी कल-कल है प्यारे
अपने मस्त भरे जीवन में
मंगल ही मंगल है प्यारे
१०५
मस्ती का आलम रहने दे
मस्त हवाओं को बहने दे
यह मयखाना है प्यारे तू
दूर सियासत को रहने दे
१०६
साक़ी तेरा दोष नहीं है
मुझमें जो सन्तोष नहीं है
पीता हूँ हर रोज़ सुरा पर
भरता मन का कोष नहीं है
१०७
मदिरा इक लोरी जैसी है
मन पर जादू सा करती है
जब तक मैं मदिरा ना पी लूँ
मुझको नींद नहीं आती है
१०८
महफ़िल में दुक्खों के मारे
जीवन की हर डग पर सारे
केवय मय की बोतल पीकर
झूम उठे सारे के सारे
१०९
मस्ती के घेरों के घेरे
फैलाते हैं शाम-सवेरे
तन – मन को सुरभित करते हैं
मधु के भीगे मुक्तक मेरे
११०
खुद पीये और सबको पिलाये
यारों के संग रंग जमाये
ऐसा कैसे हो सकता है
’प्राण’ अकेला मधु पी जाये
१११
इक स्वर में बोले मस्ताने
हम हैं साक़ी के दीवाने
लाख बुरा कह ले उपदेशक
हमको प्यारे हैं मयखाने
११२
मधुशाला के दर जब खोले
एक बराबर पीने सबको तोले
कौन करे ’ना’ मदिरा को अब
मधुबाला पीने को बोले
११३
मधुमय जीवन जीते-जीते
घाव हृदय के सीते-सीते
प्यास बढ़ा बैठे हैं मन की
थोड़ी – थोड़ी पीते-पीते
११४
गीत सुरा का गाता होगा
मधु से मन बहलाता होगा
’प्राण’ किसीके घर में बैठा
पीता और पिलाता होगा
११५
जीवन-नैया खेते-खेते
वक़्त तुम्हीं को देते-देते
अब तक ज़िंदा हूँ मैं साक़ी
नाम तुम्हारा लेते-लेते
११६
सावन ने जब ली अंगड़ाई
मस्त घटा जब मन में छाई
मत पूछो रिंदों ने क्या
मयखाने में धूम मचाई
११७
मस्ती की बारिश लाती है
सोंधी ख़ुशबू बिखराती है
जेठ महीने में ए प्यारे
मदिरा ठंडक पहुँचाती है
११८
पगले, सौन क्या साक़ी बोले
भेद गहन मदिरा के घोले
वह पाय जाये जीते जी सुख
जो मन को मधुरस से घोले
११९
चाक जिगर का सी लेता है
मदमस्ती में जी लेता है
मदिरा से परहेज़ नहीं है
जब जी चाहे पी लेता है
१२०
सबसे प्यारा जाम सुरा का
सबसे न्यारा नाम सुरा का
दुनिया भरक सब धामों से
सबसे प्यारा धाम सुरा का
१२१
मधु से अपना मन बहला ले
मदमस्ती का जश्न मना ले
मेरी फ़िक्र न कर तू प्यारे
पहले अपनी प्यास बुझाले
१२२
सबसे प्यार अथाह करे वह
सबकी ही परवाह करे वह
सबका शुभचिन्तक है साक़ी
सबके सुख की चाह करे वह
१२३
साथ सुराबाले के से ले
पाप-कलुष सारे धो ले
मस्त फुहारों में मदिरा की
प्यारे तन-मन खूब भिगो ले
१२४
तू चुपचाप चले घर जाना
कोई क्लेश न घर में लाना
मदहोशी में मेरे प्यारे
बच्चे की मानिंद सो जाना
१२५
रात-दिवस मदिरा पीता है
मस्त हवाओं में जीता है
यह कमबख़्त हृदय ए प्यारे
फिर भी रीता का रीता है
१२६
ए मतवालो शाद रहो तुम
जीवन में आबाद रहो तुम
थोड़ी-थोड़ी पीते रहो तुम
हर ग़म से आज़ाद रहो तुम
१२७
मधुपान कराता है सबको
मदमस्त बनाता है सबको
एहसान सदा उसके मानो
साक़ी बहलाताहै सबको
१२८
कभी मस्ती कभी ख़ुमार प्रिये
कभी निर्झर कभी फुहार प्रिये
कबी रिमझिम-रिमझिम मेघों की
मदिरा के रंग हज़ार प्रिये
१२९
सबकी मस्ती की चाल रहे
मस्ताना सबका हाल रहे
साक़ी की दया से हर कोई
मदिरा से मालामाल रहे
१३०
जिसने मधुमय संसार किया
जिसने जीवन-उद्धार किया
हम उसके शुक्रगुज़ार बड़े
जिसने मधु-अविष्कार किया
१३१
हम मदमस्ती के पाले हैं
मधुशाला के उजियाले हैं
हम से सम्मान सुरा का है
हमसे ही शोभित प्याले हैं
१३२
आता – जाता हूँ मधुशाला
पीता जाता हूँ जी भर कर हाला
सब कहने से क्या घबराना
मतवाला हूँ मैं मतवाला
१३३
प्याले पर प्याला पी डाले
घट – घट की हाला पी डाले
पीने वाला मदमस्ती में
सारी मधुशाला पी डाले
१३४
हँसता, गाता, मुस्काता है
अपने मन को महकाता है
जो आता है मधुशाला में
आनंदित होकर जाता है
१३५
प्याले पर प्याला चलने दे
मस्ती को मन में पलने दे
जब बैठे ही हैं पीने को
तो रात सुरा में ढलने दे
१३६
मेरा और अपना प्याला भर
मदिरा से महफ़िल करदे तर
मस्ती की घड़ियों में प्यारे
मन की बेचैनई से ना डर
१३७
माना, सुख के दीन बीते हैं
मान सुविधा में हम रीते हैं
लेकिन मदिरा के बलबूते
हम बेफ़िक्री में जीते हैं
१३८
आये हैं हम पीने वाले
मदिरा के प्यासे मतवाले
साक़ी हम यह क्या सुनते हैं
खाली बोतल खाली प्याले
१३९
मन में सद्भाव जगाती है
औ’ दर्द – दया उपजाती है
मदिरा हर प्राणी को अक्सर
संवेदनशील बनाती है।
१४०
ये भोली-भाली है हाला
कैसी मतवाली है हाला
चखने में कड़वी है लेकिन
पर चीज़ निराली है हाला
१४१
मदिरा को पेश करे न करे
मानस की प्यास हरे न हरे
हर मद्यप इस में भी खुश है
मधुबाला पात्र भरे न भरे
१४२
मस्ती के घन बरसाती जा
हर प्यासा मन सरसाती जा
पीने वालों का जमघट है
मधुबाले, मदिरा लाती जा
१४३
ऐ दोस्त, तुम्हे बहला दूँगा
मदमस्ती से सहला दूँगा
मेरे घर में आ जाओ कभी
तुमको मधु से नहला दूँगा
१४४
लाता जा प्याले पर प्याला
ऐ साक़ी, कर न अगर-मगर
अब बात न कर मदिरा के सिवा
मस्ती है तारी तन-मन पर
१४५
सब को पीने को बोलेगा
जीवन में मधुरस घोलेगा
अपना विशवास अटल है यह
साक़ी मयखाना खोलेगा
१४६
सब के आगे लहराता है
और हर इक को बहलाता है
कितना ही सुंदर लगता है
साक़ी जब मय बरसाता है
१४७
कब मदिरा पीने देता है
कब घाव को सीने देता है
साक़ी, कब द्वेषों का मारा
उपदेशक जीने देता है
१४८
इस से हर चिंता छूटी है
दुःख की हर बेडी टूटी है
मत कोस अरे जाहिद मदिरा
यह तो जीवन की बूटी है
१४८
उपदेशक बन कर मतवाला
आया है पीने को हाला
ऐ साक़ी उसकी आमद पर
बरसा दे सारी मधुशाला
१४९
वैभव और धन अर्पण कर दें
अपने तन-मन अर्पण कर दें
मदिरा की खातिर साक़ी को
आओ, जीवन अर्पण कर दें
१५०
मुस्कराते हैं, लड़खड़ाते हैं
एक-दूजे को सब ही भाते हैं
मयकदे में हैं रौनक़ें इतनी
चार जाते हैं आठ आते हैं
१५१
जब चला घर से तो अँधेरा था
एक खामोशी का बसेरा था
पी के मदिरा मुड़ा मैं जब घर को
हर तरफ़ सुरमई सवेरा था
१५२
एक मस्ती बनाए रखती है
हर ह्रदय को लुभाए रखती है
यह सुरा रात-दिन लहू बन कर
सबकी नस-नस जगाये रखती है
१५३
चाक सीता हूँ ज़िंदगी के लिए
मैं तो जीता हूँ ज़िंदगी के लिए
भेद की बात आज बतला दूँ
मैं तो पीता हूँ ज़िंदगी के लिए
१५४
मन ही मन में क़रार आया है
इक अजबसा ख़ुमार आया है
जब से आयी है रास मय मुझको
ज़िंदगी में निख़ार आया है
१५५
दोस्त, मयखाने को चले जाना
पीने वालों के साथ लहराना
ज़िंदगी जब उदास हो तेरी
घूँट दो घूँट मय के पी आना
१५६
रात-दिन मयकदा में आओगे
गुन सुरा के कई बताओगे
जाहिदों, जब पीओगे तुम मदिरा
सारे उपदेश भूल भूल जाओगे
१५७
साक़ी के बनते तुम चहेते कभी
पल दो पल मयकदा को देते कभी
उसका उपहास करने से पहले
काश, मय पी के देख लेते कभी
१५८
जाहिदों, पहले अपने डर देखो
तब कहीं, दूसरों के घर देखो
मियाँ ढूँढ़ते हो रिन्दों में
ख़ामियाँ ख़ुद में ढूँढ कर देखो
१५९
मयकदा में जुटे हुए हैं रिंद
मस्तियों में खिले हुए हैं रिंद
क्या तमाशा किसी का देखेंगे
ख़ुद तमाशा बने हुए हैं रिंद
कैसी मतवाली है हाला
चखने में कड़वी है लेकिन
पर चीज़ निराली है हाला
१४१
मदिरा को पेश करे न करे
मानस की प्यास हरे न हरे
हर मद्यप इस में भी खुश है
मधुबाला पात्र भरे न भरे
१४२
मस्ती के घन बरसाती जा
हर प्यासा मन सरसाती जा
पीने वालों का जमघट है
मधुबाले, मदिरा लाती जा
१४३
ऐ दोस्त, तुम्हे बहला दूँगा
मदमस्ती से सहला दूँगा
मेरे घर में आ जाओ कभी
तुमको मधु से नहला दूँगा
१४४
लाता जा प्याले पर प्याला
ऐ साक़ी, कर न अगर-मगर
अब बात न कर मदिरा के सिवा
मस्ती है तारी तन-मन पर
१४५
सब को पीने को बोलेगा
जीवन में मधुरस घोलेगा
अपना विशवास अटल है यह
साक़ी मयखाना खोलेगा
१४६
सब के आगे लहराता है
और हर इक को बहलाता है
कितना ही सुंदर लगता है
साक़ी जब मय बरसाता है
१४७
कब मदिरा पीने देता है
कब घाव को सीने देता है
साक़ी, कब द्वेषों का मारा
उपदेशक जीने देता है
१४८
इस से हर चिंता छूटी है
दुःख की हर बेडी टूटी है
मत कोस अरे जाहिद मदिरा
यह तो जीवन की बूटी है
१४८
उपदेशक बन कर मतवाला
आया है पीने को हाला
ऐ साक़ी उसकी आमद पर
बरसा दे सारी मधुशाला
१४९
वैभव और धन अर्पण कर दें
अपने तन-मन अर्पण कर दें
मदिरा की खातिर साक़ी को
आओ, जीवन अर्पण कर दें
१५०
मुस्कराते हैं, लड़खड़ाते हैं
एक-दूजे को सब ही भाते हैं
मयकदे में हैं रौनक़ें इतनी
चार जाते हैं आठ आते हैं
१५१
जब चला घर से तो अँधेरा था
एक खामोशी का बसेरा था
पी के मदिरा मुड़ा मैं जब घर को
हर तरफ़ सुरमई सवेरा था
१५२
एक मस्ती बनाए रखती है
हर ह्रदय को लुभाए रखती है
यह सुरा रात-दिन लहू बन कर
सबकी नस-नस जगाये रखती है
१५३
चाक सीता हूँ ज़िंदगी के लिए
मैं तो जीता हूँ ज़िंदगी के लिए
भेद की बात आज बतला दूँ
मैं तो पीता हूँ ज़िंदगी के लिए
१५४
मन ही मन में क़रार आया है
इक अजबसा ख़ुमार आया है
जब से आयी है रास मय मुझको
ज़िंदगी में निख़ार आया है
१५५
दोस्त, मयखाने को चले जाना
पीने वालों के साथ लहराना
ज़िंदगी जब उदास हो तेरी
घूँट दो घूँट मय के पी आना
१५६
रात-दिन मयकदा में आओगे
गुन सुरा के कई बताओगे
जाहिदों, जब पीओगे तुम मदिरा
सारे उपदेश भूल भूल जाओगे
१५७
साक़ी के बनते तुम चहेते कभी
पल दो पल मयकदा को देते कभी
उसका उपहास करने से पहले
काश, मय पी के देख लेते कभी
१५८
जाहिदों, पहले अपने डर देखो
तब कहीं, दूसरों के घर देखो
मियाँ ढूँढ़ते हो रिन्दों में
ख़ामियाँ ख़ुद में ढूँढ कर देखो
१५९
मयकदा में जुटे हुए हैं रिंद
मस्तियों में खिले हुए हैं रिंद
क्या तमाशा किसी का देखेंगे
ख़ुद तमाशा बने हुए हैं रिंद
१६०
अनभुझी सी प्यास में
मस्तियों की आस में
दौर मदिरा का चला
हास और परिहास में
१६१
एक दिन साधु जी मुझको मिल गए बाज़ार में
मैंने पूछा पीजियेगा क़तरे कुछ शराब के
साधु जी बोले नहीं, तू तो बड़ा नादान है
झोली में मेरी नशा का सब पड़ा सामान है
१६२
एक दिन बीवी ने ने पूछा क्या हुआ आपको
छोड़ डाला है भला क्या इस सुरा के शाप को
मैंने बीवी से कहा मेरी सुरा सर्वस्व है
छोड़ सकता है कोई अपनी ही माई-बाप को
१६३
होश न हो ये हुई कब रात कब आयी सहर
सूर्य भी किस ओर से निकला तथा डूबा किधर
मदिरा पीने का मज़ा तब है कदम के साथ ही
ये ज़मीं और आसमा सब झूमते आयें नज़र
१६४
जिंदगी है आत्मा है ज्ञान है
मदभरा संगीत है और गान है
सारी दुनिया के लिए ये सोमरस
साक़िया, तेरा अनूठा दान है
१६५
ज़िंदगी की साज-सरगम हो न हो
पायलों की छम छमा छम हो न हो
आज जी भर कर पिला दे साक़िया
कौन जाने कल मेरा दम हो न हो
१६६
क्या नज़ारें हैं छलकते प्याला के
क्या गिनाऊँ गुन तुम्हारी हाला के
जागते- सोते मुझे ऐ साक़िया
सपने भी आते हैं तो मधुशाला के
१६७
कौन कहता है की पीना पाप है
कौन कहता है कि ये अभिशाप है
गुन सुरा के शुष्क जन जाने कहाँ
ईश पाने को यही इक जाप है
१६८
मस्तियाँ भरपूर लाती है सुरा
वेदना पल में मिटाती है सुरा
मैं भुला सकता नहीं इसका असर
रंग कुछ ऐसा चढ़ाती है सुरा
१६९
नाव गुस्से की कभी खेते नहीं
हर किसी की बद दुआ लेते नहीं
क्रोध सारा मस्तियों में घोल दो
पी के मदिरा गालियाँ देते नहीं
१७०
चलते-चलते गीत गाते हैं कदम
नूपुरों से झनझनाते हैं कदम
झूमता है मन मगर उससे अधिक
मस्तियों में झूम जाते हैं कदम
१७१
बेझिझक होकर यहाँ पर आईये
पीजिये मदिरा हृदय बहलाइए
नेमतों से है भरा मधु का भवन
चैन जितना चाहिए ले जाइए
१७२
फिर न रह जाए अधूरी कामना
फिर न करना कोई भी शिकवा-गिला
वक़्त है अब भी सुरा पी ले ज़रा
फिर न कहना बेसुरा जीवन रहा
१७३
जब भी जीवन हो दुःख से सामना
हाथ साक़ी का सदा तू थामना
खिल उठेगी दोस्त तेरी ज़िंदगी
पूरी हो जायेगी तेरी कामना
१७४
मैं नहीं कहता पियो तुम बेहिसाब
अपने हिस्से की पियो लेकिन जनाब
ये अनादर है सलीके मयकदा
बीच में ही छोड़ना आधी शराब
१७५
ऐसा मस्ताना बना दे गी शराब
दिन में ही तारे दिखा देगी शराब
बंद बोतल में न नाचे ख़ुद भले
पर तुम्हे पल में नचा देगी शराब
१७६
पड़ गए हो तंग क्यों इससे जनाब
ये नहीं रखते हैं प्यालों का हिसाब
ख़त्म कर देते हैं पल में बोतलें
पीने वाले पीते हैं खुल कर शराब
१७७
कौन तू मधु में छुपी मस्ती लिए
मुख पे घूँघट लाल झीना सा लिए
आ निकल सूरत दिखा वरना अभी
तुझ को पीकर झूम जायेंगे प्रिये
१७८
आज मधु में नाचती देखी परी
ज्यों सुगन्धित बाग़ की इक हो कली
लाल अवगुंठन सुनहरा मखमली
रूप दिखलाती कि इठलाती हुई
१७९
साक़िया तुझ को सदा भाता रहूँ
तेरे हाथों से सुरा पाता रहूँ
इच्छा पीने की सदा ज़िंदा रहे
और मय खाने में मैं आता रहूँ
अनभुझी सी प्यास में
मस्तियों की आस में
दौर मदिरा का चला
हास और परिहास में
१६१
एक दिन साधु जी मुझको मिल गए बाज़ार में
मैंने पूछा पीजियेगा क़तरे कुछ शराब के
साधु जी बोले नहीं, तू तो बड़ा नादान है
झोली में मेरी नशा का सब पड़ा सामान है
१६२
एक दिन बीवी ने ने पूछा क्या हुआ आपको
छोड़ डाला है भला क्या इस सुरा के शाप को
मैंने बीवी से कहा मेरी सुरा सर्वस्व है
छोड़ सकता है कोई अपनी ही माई-बाप को
१६३
होश न हो ये हुई कब रात कब आयी सहर
सूर्य भी किस ओर से निकला तथा डूबा किधर
मदिरा पीने का मज़ा तब है कदम के साथ ही
ये ज़मीं और आसमा सब झूमते आयें नज़र
१६४
जिंदगी है आत्मा है ज्ञान है
मदभरा संगीत है और गान है
सारी दुनिया के लिए ये सोमरस
साक़िया, तेरा अनूठा दान है
१६५
ज़िंदगी की साज-सरगम हो न हो
पायलों की छम छमा छम हो न हो
आज जी भर कर पिला दे साक़िया
कौन जाने कल मेरा दम हो न हो
१६६
क्या नज़ारें हैं छलकते प्याला के
क्या गिनाऊँ गुन तुम्हारी हाला के
जागते- सोते मुझे ऐ साक़िया
सपने भी आते हैं तो मधुशाला के
१६७
कौन कहता है की पीना पाप है
कौन कहता है कि ये अभिशाप है
गुन सुरा के शुष्क जन जाने कहाँ
ईश पाने को यही इक जाप है
१६८
मस्तियाँ भरपूर लाती है सुरा
वेदना पल में मिटाती है सुरा
मैं भुला सकता नहीं इसका असर
रंग कुछ ऐसा चढ़ाती है सुरा
१६९
नाव गुस्से की कभी खेते नहीं
हर किसी की बद दुआ लेते नहीं
क्रोध सारा मस्तियों में घोल दो
पी के मदिरा गालियाँ देते नहीं
१७०
चलते-चलते गीत गाते हैं कदम
नूपुरों से झनझनाते हैं कदम
झूमता है मन मगर उससे अधिक
मस्तियों में झूम जाते हैं कदम
१७१
बेझिझक होकर यहाँ पर आईये
पीजिये मदिरा हृदय बहलाइए
नेमतों से है भरा मधु का भवन
चैन जितना चाहिए ले जाइए
१७२
फिर न रह जाए अधूरी कामना
फिर न करना कोई भी शिकवा-गिला
वक़्त है अब भी सुरा पी ले ज़रा
फिर न कहना बेसुरा जीवन रहा
१७३
जब भी जीवन हो दुःख से सामना
हाथ साक़ी का सदा तू थामना
खिल उठेगी दोस्त तेरी ज़िंदगी
पूरी हो जायेगी तेरी कामना
१७४
मैं नहीं कहता पियो तुम बेहिसाब
अपने हिस्से की पियो लेकिन जनाब
ये अनादर है सलीके मयकदा
बीच में ही छोड़ना आधी शराब
१७५
ऐसा मस्ताना बना दे गी शराब
दिन में ही तारे दिखा देगी शराब
बंद बोतल में न नाचे ख़ुद भले
पर तुम्हे पल में नचा देगी शराब
१७६
पड़ गए हो तंग क्यों इससे जनाब
ये नहीं रखते हैं प्यालों का हिसाब
ख़त्म कर देते हैं पल में बोतलें
पीने वाले पीते हैं खुल कर शराब
१७७
कौन तू मधु में छुपी मस्ती लिए
मुख पे घूँघट लाल झीना सा लिए
आ निकल सूरत दिखा वरना अभी
तुझ को पीकर झूम जायेंगे प्रिये
१७८
आज मधु में नाचती देखी परी
ज्यों सुगन्धित बाग़ की इक हो कली
लाल अवगुंठन सुनहरा मखमली
रूप दिखलाती कि इठलाती हुई
१७९
साक़िया तुझ को सदा भाता रहूँ
तेरे हाथों से सुरा पाता रहूँ
इच्छा पीने की सदा ज़िंदा रहे
और मय खाने में मैं आता रहूँ
१८०
मैं रहूँ चल कर जहाँ मधु धाम हो
पास उनके जिनको मधु से काम हो
ज़िंदगी में एक इच्छा है यही
हर समय मुँह पर लगा बस जाम हो
१८
मधु बुरी उपदेश में गाते हैं सब
मैं कहूँ छुप-छुप के पी आते हैं सब
पी के देखी मधु कभी पहले न हो
खामियाँ कैसे बता पाते हैं सब
१८२
देवता था वो कोई मेरे जनाब
या वो कोई आदमी था लाजवाब
इक अनोखी चीज़ थी उसने रची
नाम जिसको लोग देते हैं शराब
१८३
जब चखोगे दोस्त तुम थोड़ी शराब
झूम जाओगे घटाओं से से जनाब
तुम पुकार उट्ठोगे मय की मस्ती में
साकिया, लाता--पिलाता जा शराब
१८४
पीजिये मुख बाधकों से मोड़ कर
और उपदेशक से नाता तोड़ कर
ज़िंदगी वरदान सी बन जाएगी
पीजिये साक़ी से नाता जोड़ कर
१८५
खोल कर आँखें चलो मेरे जनाब
आज कल लोगों ने पहने है नकाब
होश में रहना बड़ा है लाजमी
दोस्तों, थोड़ी पियो या बेहिसाब
१८६
बेतुका हर गीत गाना छोड़ दो
शोर लोगों में मचाना छोड़ दो
गालियाँ देने से अच्छा है यही
सोम रस पीना- पिलाना छोड़ दो
१८७
मन में हल्की- हल्की मस्ती छा गयी
और मदिरा पीने को तरसा गयी
तू सुराही पर सुराही दे लुटा
आज कुछ ऐसी ही जी में आ गयी
१८८
मधु बिना कैसी अरस है ज़िंदगी
मधु बिना इसमें नहीं कुछ दिलकशी
छोड़ दूँ मधु, मैं नहीं बिल्कुल नहीं
बात उपदेशक से मैंने यह कही
१८९
जाने क्या जादू भरा है हाला में
कैसा आकर्षण सा है मधुबाला
अपने मानस की व्यथाएँ भूल कर
मैं जो बैठा रहता हूँ मधुशाला में
१९०
ओस भीगी सुबह सी धोई हुई
सौम्य बच्चे की तरह सोयी हुई
लग रही है कितनी सुंदर आज मधु
मद्यपों की याद में खोयी हुई
१९१
साकिया, मुझ को पिला दे तू सुरा
मधु कलश मेरी नज़र से मत चुरा
बिन पिए दर से नहीं मैं
तू ढिठाई को मेरी कह ले बुरा
१९२
तू पिलादे आज इस मस्ताने को
ला, थमा दे जाम इस दीवाने को
जिस घड़ी तूने पिलानी छोड़ दी
आग लग जायेगी इस मयखाने को
१९३
ठण्ड लगने का न कोई डर रहे
तन- बदन में शक्ति सी अक्सर रहे
सोने से पहले मैं पीता हूँ शराब
ताकि ठंडी में गरम बिस्तर रहे
१९४
साकिया, मुझसे बता क्या रोष है
जो पिलाता तू नहीं क्या दोष है
एक-दो बूँदों की खातिर साकिया
देख मिटता जा रहा संतोष है
१९५
आज मदिरा को मचलता जोश है
जोश में बिल्कुल नहीं अब होश है
इस सुरा के भक्त से ऐ साकिया
क्यों छुपा रखा सुरा का कोष है
१९६
नज़रों से अपनी गिराते हैं नहीं
एक पल में भूल जाते हैं नहीं
रोज़ पीने वाले से ऐ साकिया
जाम मदिरा का छुपाते हैं नहीं
१९७
झूठ बोलेगा नहीं उसका सरूर
सत्य बोलेगा सदा उसका गरूर
सत्यवादी और कोई हो न हो
सत्यवादी हर मधुप होगा ज़रूर
१९८
देखते ही देखते रह जाओगे
भूल पर अपनी बहुत पछताओगे
चीर कर मेरे ह्रदय को देख लो
खून से ज्यादा सुरा को पाओगे
१९९
फूलों का हर घर दिखाई देता है
रूप का हर मंज़र दिखाई देता है
मस्ती के आलम में मुझ को साकिया
हर बशर सुंदर दिखाई देता है
मैं रहूँ चल कर जहाँ मधु धाम हो
पास उनके जिनको मधु से काम हो
ज़िंदगी में एक इच्छा है यही
हर समय मुँह पर लगा बस जाम हो
१८
मधु बुरी उपदेश में गाते हैं सब
मैं कहूँ छुप-छुप के पी आते हैं सब
पी के देखी मधु कभी पहले न हो
खामियाँ कैसे बता पाते हैं सब
१८२
देवता था वो कोई मेरे जनाब
या वो कोई आदमी था लाजवाब
इक अनोखी चीज़ थी उसने रची
नाम जिसको लोग देते हैं शराब
१८३
जब चखोगे दोस्त तुम थोड़ी शराब
झूम जाओगे घटाओं से से जनाब
तुम पुकार उट्ठोगे मय की मस्ती में
साकिया, लाता--पिलाता जा शराब
१८४
पीजिये मुख बाधकों से मोड़ कर
और उपदेशक से नाता तोड़ कर
ज़िंदगी वरदान सी बन जाएगी
पीजिये साक़ी से नाता जोड़ कर
१८५
खोल कर आँखें चलो मेरे जनाब
आज कल लोगों ने पहने है नकाब
होश में रहना बड़ा है लाजमी
दोस्तों, थोड़ी पियो या बेहिसाब
१८६
बेतुका हर गीत गाना छोड़ दो
शोर लोगों में मचाना छोड़ दो
गालियाँ देने से अच्छा है यही
सोम रस पीना- पिलाना छोड़ दो
१८७
मन में हल्की- हल्की मस्ती छा गयी
और मदिरा पीने को तरसा गयी
तू सुराही पर सुराही दे लुटा
आज कुछ ऐसी ही जी में आ गयी
१८८
मधु बिना कैसी अरस है ज़िंदगी
मधु बिना इसमें नहीं कुछ दिलकशी
छोड़ दूँ मधु, मैं नहीं बिल्कुल नहीं
बात उपदेशक से मैंने यह कही
१८९
जाने क्या जादू भरा है हाला में
कैसा आकर्षण सा है मधुबाला
अपने मानस की व्यथाएँ भूल कर
मैं जो बैठा रहता हूँ मधुशाला में
१९०
ओस भीगी सुबह सी धोई हुई
सौम्य बच्चे की तरह सोयी हुई
लग रही है कितनी सुंदर आज मधु
मद्यपों की याद में खोयी हुई
१९१
साकिया, मुझ को पिला दे तू सुरा
मधु कलश मेरी नज़र से मत चुरा
बिन पिए दर से नहीं मैं
तू ढिठाई को मेरी कह ले बुरा
१९२
तू पिलादे आज इस मस्ताने को
ला, थमा दे जाम इस दीवाने को
जिस घड़ी तूने पिलानी छोड़ दी
आग लग जायेगी इस मयखाने को
१९३
ठण्ड लगने का न कोई डर रहे
तन- बदन में शक्ति सी अक्सर रहे
सोने से पहले मैं पीता हूँ शराब
ताकि ठंडी में गरम बिस्तर रहे
१९४
साकिया, मुझसे बता क्या रोष है
जो पिलाता तू नहीं क्या दोष है
एक-दो बूँदों की खातिर साकिया
देख मिटता जा रहा संतोष है
१९५
आज मदिरा को मचलता जोश है
जोश में बिल्कुल नहीं अब होश है
इस सुरा के भक्त से ऐ साकिया
क्यों छुपा रखा सुरा का कोष है
१९६
नज़रों से अपनी गिराते हैं नहीं
एक पल में भूल जाते हैं नहीं
रोज़ पीने वाले से ऐ साकिया
जाम मदिरा का छुपाते हैं नहीं
१९७
झूठ बोलेगा नहीं उसका सरूर
सत्य बोलेगा सदा उसका गरूर
सत्यवादी और कोई हो न हो
सत्यवादी हर मधुप होगा ज़रूर
१९८
देखते ही देखते रह जाओगे
भूल पर अपनी बहुत पछताओगे
चीर कर मेरे ह्रदय को देख लो
खून से ज्यादा सुरा को पाओगे
१९९
फूलों का हर घर दिखाई देता है
रूप का हर मंज़र दिखाई देता है
मस्ती के आलम में मुझ को साकिया
हर बशर सुंदर दिखाई देता है
२००
झूमने से तुम मेरे जलने लगे
और पीने से मेरे खलने लगे
पास जितना आया मैं उपदेशको
दूर हो कर उतना तुम चलने लगे
२०१
जाहिदों की इतनी भी संगत न कर
ना-नहीं की इतनी भी हुज्जत न कर
एक दिन शायद तुझे पीनी पड़े
दोस्त,मय से इतनी भी नफ़रत न कर
२०२
तन-बदन सारा नशे में चूर है
झूम जाने को ह्रदय मजबूर है
आज इतनी पी गया हूँ साथियो
होश में आना बहुत ही दूर है
२०३
याद करते रहे दिन रहे बीते हुए
लड़खड़ाते थे कभी रीते हुए
क्या ज़माने में हुआ किसको ख़बर
रात सारी कट गयी पीते हुए
२०४
मेरा नाता है सुरा से, जाम से
मेरा नाता है सुरा के धाम से
हर दिवस साक़ी पिलाया कर सुरा
ताकि ये जीवन कटे आराम से
२०५
प्रीत तन-मन में जगाती है सुरा
द्वेष का पर्दा हटाती है सुरा
जाहिदों, नफ़रत से मत परखो इसे
आदमी के काम आती है सुरा
२०६
सूखे कूएँ की तरह है रीते नहीं
शोषकों की ज़िंदगी जीते नहीं
जिनको पीने को मिले हर दिन सुरा
दूसरों का खून वे पीते नहीं
२०७
मदभरा वातावरण सारा हुआ
सुरमयी बहने लगी बनकर हवा
मस्ती का साम्राज्य सब पर छा गया
दौर पीने वालों में ज्यों ही चला
२०८
बिन पिए ही साथियो मधुपान तुम
चल पड़े हो कितने हो अनजान तुम
बैठ कर आराम से पीते शराब
और कुछ साक़ी का करते मान तुम
२०९
दिन में ही तारे दिखा दें रिंद को
और कठपुतली बना दें रिंद को
जाहिदों का बस चले तो पल में ही
उँगलियों पर वे नाचा दें रिंद को
२१०
मस्तियाँ दिल में जगाने को चले
ज़िंदगी अपनी बनाने को चले
शैख़ जी, तुम हाथ मलते ही रहो
रिंद सब पीने- पिलाने को चले
२११
मस्त हर इक पीने वाला ही रहे
जाहिदों के मुँह पे ताला ही रहे
ध्यान रखना दोस्तो इस बात का
नित सुरा का बोलबाला ही रहे
२१२
फ़र्ज़ कोई त्यागना सीखा नहीं
घर को अपने दागना सीखा नहीं
माना, मैं प्रेमी हूँ मदिरा का मगर
ज़िंदगी से भागना सीखा नहीं
२१३
ऐ सुरा तुझको अभी मैं शाद कर दूँ
बंद बोतल से तुझे आज़ाद कर दूँ
तेरे रहने की जगह है दिल में मेरे
आ, तुझे इस घर में मैं आबाद कर दूँ
२१४
जेब खाली है मगर चिंतित नहीं हूँ
अपनी निर्धनता से मैं खंडित नहीं हूँ
यह तो साक़ी की दया है मीत मेरे
मैं सुरा से आज तक वंचित नहीं हूँ
झूमने से तुम मेरे जलने लगे
और पीने से मेरे खलने लगे
पास जितना आया मैं उपदेशको
दूर हो कर उतना तुम चलने लगे
२०१
जाहिदों की इतनी भी संगत न कर
ना-नहीं की इतनी भी हुज्जत न कर
एक दिन शायद तुझे पीनी पड़े
दोस्त,मय से इतनी भी नफ़रत न कर
२०२
तन-बदन सारा नशे में चूर है
झूम जाने को ह्रदय मजबूर है
आज इतनी पी गया हूँ साथियो
होश में आना बहुत ही दूर है
२०३
याद करते रहे दिन रहे बीते हुए
लड़खड़ाते थे कभी रीते हुए
क्या ज़माने में हुआ किसको ख़बर
रात सारी कट गयी पीते हुए
२०४
मेरा नाता है सुरा से, जाम से
मेरा नाता है सुरा के धाम से
हर दिवस साक़ी पिलाया कर सुरा
ताकि ये जीवन कटे आराम से
२०५
प्रीत तन-मन में जगाती है सुरा
द्वेष का पर्दा हटाती है सुरा
जाहिदों, नफ़रत से मत परखो इसे
आदमी के काम आती है सुरा
२०६
सूखे कूएँ की तरह है रीते नहीं
शोषकों की ज़िंदगी जीते नहीं
जिनको पीने को मिले हर दिन सुरा
दूसरों का खून वे पीते नहीं
२०७
मदभरा वातावरण सारा हुआ
सुरमयी बहने लगी बनकर हवा
मस्ती का साम्राज्य सब पर छा गया
दौर पीने वालों में ज्यों ही चला
२०८
बिन पिए ही साथियो मधुपान तुम
चल पड़े हो कितने हो अनजान तुम
बैठ कर आराम से पीते शराब
और कुछ साक़ी का करते मान तुम
२०९
दिन में ही तारे दिखा दें रिंद को
और कठपुतली बना दें रिंद को
जाहिदों का बस चले तो पल में ही
उँगलियों पर वे नाचा दें रिंद को
२१०
मस्तियाँ दिल में जगाने को चले
ज़िंदगी अपनी बनाने को चले
शैख़ जी, तुम हाथ मलते ही रहो
रिंद सब पीने- पिलाने को चले
२११
मस्त हर इक पीने वाला ही रहे
जाहिदों के मुँह पे ताला ही रहे
ध्यान रखना दोस्तो इस बात का
नित सुरा का बोलबाला ही रहे
२१२
फ़र्ज़ कोई त्यागना सीखा नहीं
घर को अपने दागना सीखा नहीं
माना, मैं प्रेमी हूँ मदिरा का मगर
ज़िंदगी से भागना सीखा नहीं
२१३
ऐ सुरा तुझको अभी मैं शाद कर दूँ
बंद बोतल से तुझे आज़ाद कर दूँ
तेरे रहने की जगह है दिल में मेरे
आ, तुझे इस घर में मैं आबाद कर दूँ
२१४
जेब खाली है मगर चिंतित नहीं हूँ
अपनी निर्धनता से मैं खंडित नहीं हूँ
यह तो साक़ी की दया है मीत मेरे
मैं सुरा से आज तक वंचित नहीं हूँ