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सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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बुधवार, 28 अगस्त 2013

राजेश रेड्डी

परिचय: 
जन्म: २२ जुलाई, १९५२, जयपूर राजस्थान 
कुछ प्रमुख कृतियाँ: उड़ान, आसमां से आगे (दोनो गजल संग्रह)

1.
बूँद को बादल में जाकर फिर  नदी में लौटना है
जिस जहाँ से जाएँगे इक दिन उसी में लौटना है

जुस्तजू में उसकी खो जाना है पा लेना खुदी को
जाना उन गलियों में अपनी ही गली में लौटना है

और उभर आती हैं भरते वक़्त रिश्तों में दरारें
दोस्ती को ता८ाा करना दुश्मनी में लौटना है

फिक्र  दुनिया की करेंगे भी तो कितने दिन करेंगे
सबको आखिर अपनी-अपनी जिंदगी में लौटना है

ये जो मिट्टी के खिलौने हैं इन्हें कल टूट कर फिर 
उसके हाथों की उसी कारीगरी में लौटना है

खाक छानी दैर की चक्कर हरम के भी लगाए
अब ये सोचा है कि हमको बंदगी में लौटना है

मीरो-ग़ालिब, जौको-मोमिन, हाली-ओ-पफैजो-पिफराक
इन सभी के फन को मेरी शाइरी में लौटना है

२.
बाहर-बाहर बहता रहा मैं अन्दर-अन्दर भस्म हुआ
कतरा-कतरा आग लगी और सारा समंदर भस्म हुआ

मिट्टी से मिट्टी के सपफर की अपनी-अपनी मीआदें
राख हुआ है कोई जल्दी कोई ठहरकर भस्म हुआ

खून तो यूँ भी खौलता ही रहता था, जाने क्यूँ उस दिन
इक चिंगारी जेहन  में भड़की और मेरा सर भस्म हुआ

तेरे माया-जाल से बाहर आ भी चुका मैं, ऐ दुनिया
तेरा जादू धुआँ हुआ सब तेरा मंतर भस्म हुआ

दैरो-हरम की लेके मशअल पिफर निकले थे दीवाने
दैरो-हरम की आग में जलकर पिफर मेरा द्घर भस्म हुआ

कभी किया होगा शंकर ने कामदेव को भस्म, मगर
कामदेव के काम-बाण से अब हर शंकर भस्म हुआ

पढ़ने की कोशिश में लगे थे लेकिन जब तक पढ़ पाते
हाथ की जलती रेखाओं में अपना मुकददर भस्म हुआ

३.
किसी दिन जिंदगानी में करिश्मा क्यूँ नहीं होता
मैं हर दिन जाग तो जाता हूँ जिंदा क्यूँ नहीं होता

मेरी इक जिंदगी के कितने हिस्सेदार हैं, लेकिन
किसी की जिंदगी में मेरा हिस्सा क्यूँ नहीं होता

जहाँ में यूँ तो होने को बहुत कुछ होता रहता है
मैं जैसा सोचता हूँ कुछ भी वैसा क्यूँ नहीं होता

हमेशा तं८ा करते हैं तबीअत पूछने वाले
तुम अच्छा क्यूँ नहीं करते, मैं अच्छा क्यूँ नहीं होता

जमाने  भर के लोगों को किया है मुब्तला तूने
जो तेरा हो गया तू भी उसी का क्यूँ नहीं होता

खरेपन को लिए बैठा रहूँगा द्घर में मैं कब तक
जो बा८ाारों में चल जाए वो सिक्का क्यूँ नहीं होता

जहाँ भी जाऊँ इक दुनिया हमेशा साथ चलती है
मैं तनहाई में भी बिलकुल अकेला क्यूँ नहीं होता


गीता हूँ कुरआन हूँ मैं
मुझको पढ़ इंसान हूँ मैं

ज़िन्दा हूँ सच बोल के भी
देख के ख़ुद हैरान हूँ मैं

इतनी मुश्किल दुनिया में
क्यूँ इतना आसान हूँ मैं

चेहरों के इस जंगल में
खोई हुई पहचान हूँ मैं

खूब हूँ वाकिफ़ दुनिया से
बस खुद से अनजान हूँ मैं


५. 
ख़ज़ाना कौन सा उस पार होगा
वहाँ भी रेत का अंबार होगा

ये सारे शहर मे दहशत सी क्यों हैं
यकीनन कल कोई त्योहार होगा

बदल जाएगी इस बच्चे की दुनिया
जब इसके सामने अख़बार होगा

उसे नाकामियां खु़द ढूंढ लेंगी
यहाँ जो साहिबे-किरदार होगा

समझ जाते हैं दरिया के मुसाफ़िर
जहां में हूँ वहां मंझदार होगा

वो निकला है फिर इक उम्मीद लेकर
वो फिर इक दर्द से दो-चार होगा

ज़माने को बदलने का इरादा
तू अब भी मान ले बेकार होगा

कोई इक तिशनगी कोई समुन्दर लेके आया है
जहाँ मे हर कोई अपना मुकद्दर लेके आया है

तबस्सुम उसके होठों पर है उसके हाथ मे गुल है
मगर मालूम है मुझको वो खंज़र लेके आया है

तेरी महफ़िल से दिल कुछ और तनहा होके लौटा है
ये लेने क्या गया था और क्या घर लेके आया है

बसा था शहर में बसने का इक सपना जिन आँखों में
वो उन आँखों मे घर जलने का मंज़र लेके आया है

न मंज़िल है न मंज़िल की है कोई दूर तक उम्मीद
ये किस रस्ते पे मुझको मेरा रहबर लेके आया है

७. 

निगाहों में वो हैरानी नहीं है
नए बच्चों में नादानी नहीं है

ये कैसा दौर है कातिल के दिल में
ज़रा सी भी पशेमानी नहीं है

नज़र के सामने है ऐसी दुनिया
जो दिल की जानी पहचानी नहीं है

जो दिखता है वो मिट जाता है इक दिन
नहीं दिखता वो, जो फ़ानी नहीं है

खु़दा अब ले ले मुझसे मेरी दुनिया
मेरे बस की ये वीरानी नहीं है

कोई तो बात है मेरे सुख़न मे
ये दुनिया यूँ ही दीवानी नहीं है

८. 
मेरी ज़िंदगी के मआनी बदल दे
खु़दा इस समुन्दर का पानी बदल दे

कई बाक़ये यूँ लगे, जैसे कोई
सुनाते-सुनाते कहानी बदल दे

न आया तमाम उम्र आखि़र न आया
वो पल जो मेरी ज़िंदगानी बदल दे

उढ़ा दे मेरी रूह को इक नया तन
ये चादर है मैली- पुरानी, बदल दे

है सदियों से दुनिया में दुख़ की हकूमत
खु़दा! अब तो ये हुक्मरानी बदल दे

९. 
डाल से बिछुड़े परिंदे आसमाँ मे खो गए
इक हकी़क़त थे जो कल तक दास्तां मे खो गए

जुस्तजू में जिसकी हम आए थे वो कुछ और था
ये जहाँ कुछ और है हम जिस जहाँ मे खो गए

हसरतें जितनी भी थीं सब आह बनके उड़ गईं
ख़्वाब जितने भी थे सब अश्के-रवाँ मे खो गए

लेके अपनी-अपनी किस्मत आए थे गुलशन मे गुल
कुछ बहारों मे खिले और कुछ ख़िज़ाँ में खो गए

ज़िंदगी हमने सुना था चार दिन का खेल है
चार दिन अपने तो लेकिन इम्तिहाँ मे खो गए

१०. 
गिरते-गिरते एक दिन आखिर सँभलना आ गया
ज़िंदगी को वक़्त की रस्सी पे चलना आ गया

हो गये हैं हम भी दुनियादार यानी हमको भी
बात को बातों ही बातों में बदलना आ गया

बुझके रह जाते हैं तूफ़ाँ उस दिये के सामने
जिस दिये को तेज़ तूफ़ानों में जलना आ गया

जमअ अब होती नहीं हैं दिल में ग़म की बदलियाँ
क़तरा-क़तरा अब उन्हें अश्कों में ढलना आ गया

दिल खिलौनों से बहलता ही नहीं जब से उसे
चाँद-तारों के लिए रोना मचलना आ गया

११. 
सोचा न कभी खाने कमाने से निकलकर
हम जी न सके अपने ज़माने से निकलकर

जाना है किसी और फ़साने में किसी दिन
आये थे किसी और फ़साने से निकलकर

ढलता है लगातार पुराने में नया दिन
आता है नया दिन भी पुराने से निकलकर

दुनिया से बहुत ऊब कर बैठे थे अकेले
अब जाएँ कहाँ दिल के ठिकाने से निकलकर

किस काम की यारब तेरी अफ़सानानिग़ारी
किरदार भटकते हैं फ़साने से निकलकर

चहरों की बड़ी भीड़ में दम घुट सा गया था
साँस आई मेरी आइनाख़ाने से निकलकर

कोशिश से कहाँ हमने कोई शे’र कहा है
आये हैं गुहर ख़ुद ही ख़ज़ाने से निकलकर


१२. 
ज़िन्दगी तूने लहू ले के दिया कुछ भी नहीं|
तेरे दामन में मेरे वास्ते क्या कुछ भी नहीं|

मेरे इन हाथों की चाहो तो तलाशि ले लो,
मेरे हाथों में लकीरों के सिवा कुछ भी नहीं|

हमने देखा है कई ऐसे ख़ुदाओं को यहाँ,
सामने जिन के वो सच मुच का ख़ुदा कुछ भी नहीं|

या ख़ुदा अब के ये किस रंग से आई है बहार,
ज़र्द ही ज़र्द है पेड़ों पे हरा कुछ भी नहीं|

दिल भी इक ज़िद पे अड़ा है किसी बच्चे की तरह,
या तो सब कुछ ही इसे चाहिये या कुछ भी नहीं|


१३. 
यहाँ हर शख़्स हर पल हादिसा होने से डरता है
खिलौना है जो मिट्टी का फ़ना होने से डरता है

मेरे दिल के किसी कोने में इक मासूम-सा बच्चा
बड़ों की देख कर दुनिया बड़ा होने से डरता है

न बस में ज़िन्दगी इसके न क़ाबू मौत पर इसका
मगर इन्सान फिर भी कब ख़ुदा होने से डरता है

अज़ब ये ज़िन्दगी की क़ैद है, दुनिया का हर इन्सां
रिहाई मांगता है और रिहा होने से डरता है


१४. 
डाल से बिछुड़े परिंदे आसमाँ मे खो गए
इक हकी़क़त थे जो कल तक दास्ताँ मे खो गए

जुस्तजू में जिसकी हम आए थे वो कुछ और था
ये जहाँ कुछ और है हम जिस जहाँ मे खो गए

हसरतें जितनी भी थीं सब आह बनके उड़ गईं
ख़्वाब जितने भी थे सब अश्के-रवाँ मे खो गए

लेके अपनी-अपनी किस्मत आए थे गुलशन में गुल
कुछ बहारों मे खिले और कुछ ख़िज़ाँ में खो गए

ज़िंदगी हमने सुना था चार दिन का खेल है
चार दिन अपने तो लेकिन इम्तिहाँ मे खो गए


१५. 
मिट्टी का जिस्म लेके मैं पानी के घर में हूँ
मंज़िल है मेरी मौत, मैं हर पल सफ़र में हूँ

होना है मेरा क़त्ल ये मालूम है मुझे
लेकिन ख़बर नहीं कि मैं किसकी नज़र में हूँ

पीकर भी ज़हरे-ज़िन्दगी ज़िन्दा हूँ किस तरह
जादू ये कौन-सा है, मैं किसके असर में हूँ

अब मेरा अपने दोस्त से रिश्ता अजीब है
हर पल वो मेरे डर में है, मैं उसके डर में हूँ

मुझसे न पूछिए मेरे साहिल की दूरियाँ
मैं तो न जाने कब से भँवर-दर-भँवर में हूँ


१६. 
जाने कितनी उड़ान बाक़ी है
इस परिन्दे में जान बाक़ी है

जितनी बँटनी थी बँट चुकी ये ज़मीं
अब तो बस आसमान बाक़ी है

अब वो दुनिया अजीब लगती है
जिसमें अम्नो-अमान बाक़ी है

इम्तिहाँ से गुज़र के क्या देखा
इक नया इम्तिहान बाक़ी है

सर कलम होंगे कल यहाँ उनके
जिनके मुँह में ज़ुबान बाकी है