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सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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रविवार, 10 मार्च 2013

इफ़्तेख़ार नसीम




१.

अपना सारा बोझ ज़मीं पर फ़ेंक दिया
तुझको ख़त लिक्खा और लिख कर फेंक दिया
ख़ुद को साकिन देखा ठहरे पानी में
हरकत की ख्वाहिश थी, पत्थर फेंक दिया
दीवारें क्यों खाली-खाली लगती हैं
किसने सब कुछ घर से बाहर फेंक दिया
मैं तो अपना जिस्म सुखाने निकला था
बारिश ने क्यों मुझ पे समंदर फेंक दिया
वो कैसा था, उसको कहाँ पर देखा था
अपनी आंखों ने हर मंज़र फेंक दिया

२.

इस तरह सोई हैं आँखें, जागते सपनों के साथ।
ख्वाहिशें लिपटी हों जैसे बंद दरवाजों के साथ।
रात भर होता रहा है उसके आने का गुमाँ,
ऐसे टकराती रही ठंडी हवा परदों के साथ।
मैं उसे आवाज़ देकर भी बुला सकता न था,
इस तरह टूटे ज़बां के राब्ते लफ़्जों के साथ।
एक सन्नाटा है, फिर भी हर तरफ़ इक शोर है,
कितने चेहरे आँख में फैले है, आवाज़ों के साथ।
जानी पहचानी हैं बातें, जाने-बूझे नक्श हैं,
फिर भी वो मिलता है सबसे, मुख्तलिफ चेहरों के साथ।
दिल धड़कता ही नहीं है उसको पाकर भी नसीम,
किस क़दर मानूस है ये नित नए सदमों के साथ।