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सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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शुक्रवार, 22 मार्च 2013

आरिफ़ शफ़ीक़




१.

सारे शह्र में सिर्फ़ यही तो सच्चे लगते हैं।
छोटे-छोटे बच्चे मुझको अच्छे लगते हैं।
मेरे चाहने वाले मुझको भूल गए तो क्या,
मौसम हो तब्दील तो पत्ते झाड़ने लगते हैं।
मैं तो रोता देख के सबको रोने लगता हूँ,
देख के मुझको लोग मगर क्यों हंसने लगते हैं।
बंद किया है जबसे उसने दिल का दरवाज़ा,
मेरी आँख की खिड़की में भी परदे लगते हैं।
वो भी दिन थे रात को जब आवारा फिरते थे,
अब तो शाम से आकर घर में सोने लगते हैं।
अपनी अना के गुम्बद से जब देखता हूँ 'आरिफ़,'
ऊंचे क़द के लोग भी मुझको बौने लगते हैं।