१.
तेरा बीमार न सँभला जो सँभाला लेकर
चुपके ही बैठे रहे दम को मसीहा[1] लेकर
शर्ते-हिम्मत नहीं मुज़रिम हो गिरफ्तारे-अज़ाब[2]
तूने क्या छोड़ा अगर छोड़ेगा बदला लेकर
मुझसा मुश्ताक़े-जमाल[3] एक न पाओगे कहीं
गर्चे ढूँढ़ोगे चिराग़े-रुखे-ज़ेबा[4] लेकर
तेरे क़दमों में ही रह जायेंगे, जायेंगे कहाँ
दश्त[5] में मेरे क़दम आबलाए-पा लेकर
वाँ से याँ आये थे ऐ ‘ज़ौक़’ तो क्या लाये थे
याँ से तो जायेंगे हम लाख तमन्ना लेकर
शब्दार्थ:
- ↑ ईसा
- ↑ कष्टों में फँसा
- ↑ सौंदर्य प्रेमी
- ↑ ख़ूबसूरत रोशनी वाला दीप
- ↑ जंगल
२.
अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जायेंगे
मर गये पर न लगा जी तो किधर जायेंगे
सामने-चश्मे-गुहरबार[1] के, कह दो, दरिया
चढ़ के अगर आये तो नज़रों से उतर जायेंगे
ख़ाली ऐ चारागरों[2] होंगे बहुत मरहमदान
पर मेरे ज़ख्म नहीं ऐसे कि भर जायेंगे
पहुँचेंगे रहगुज़र-ए-यार तलक हम क्योंकर
पहले जब तक न दो-आलम[3] से गुज़र जायेंगे
आग दोजख़ की भी हो आयेगी पानी-पानी
जब ये आसी[4] अरक़-ए-शर्म[5] से तर जायेंगे
हम नहीं वह जो करें ख़ून का दावा तुझपर
बल्कि पूछेगा ख़ुदा भी तो मुकर जायेंगे
रुख़े-रौशन से नक़ाब अपने उलट देखो तुम
मेहरो-मह[6] नज़रों से यारों के उतर जायेंगे
‘ज़ौक़’ जो मदरसे के बिगड़े हुए हैं मुल्ला
उनको मैख़ाने में ले लाओ, सँवर जायेंगे
शब्दार्थ:
- ↑ मोती के समान आँसू बहाने वाली आँखें
- ↑ चिकित्सकों
- ↑ लोक-परलोक
- ↑ पाप करने वाला
- ↑ शर्म का पसीना
- ↑ सूरज और चन्द्रमा
३.
लायी हयात[1], आये, क़ज़ा[2] ले चली, चले
अपनी ख़ुशी न आये न अपनी ख़ुशी चले
बेहतर तो है यही कि न दुनिया से दिल लगे
पर क्या करें जो काम न बे-दिल्लगी चले
कम होंगे इस बिसात[3] पे हम जैसे बद-क़िमार[4]
जो चाल हम चले सो निहायत बुरी चले
हो उम्रे-ख़िज़्र[5] भी तो भी कहेंगे ब-वक़्ते-मर्ग[6]
हम क्या रहे यहाँ अभी आये अभी चले
दुनिया ने किसका राहे-फ़ना में दिया है साथ
तुम भी चले चलो युँ ही जब तक चली चले
नाज़ाँ[7] न हो ख़िरद[8] पे जो होना है वो ही हो
दानिश[9] तेरी न कुछ मेरी दानिशवरी चले
जा कि हवा-ए-शौक़[10] में हैं इस चमन से ‘ज़ौक़’
अपनी बला से बादे-सबा[11] अब कहीं चले
शब्दार्थ:
- ↑ ज़िन्दगी
- ↑ मौत
- ↑ जुए के खेल में
- ↑ कच्चे जुआरी
- ↑ अमरता
- ↑ मृत्यु के समय
- ↑ घमंडी
- ↑ बुद्धि
- ↑ समझदार
- ↑ प्रेम की हवा
- ↑ सुबह की शीतल वायु
४.
यह अक़ामत हमें पैग़ामे-सफ़र देती है
ज़िंदगी मौत के आने की ख़बर देती है
ज़ाल दुनिया है अजब तरह की अल्लामा-ए-दहर
मर्दे-दींदार को भी दहर यह कर देती है
तैरा-बख़्ती मेरी करती है परेशां मुझको
तोमहत उस ज़ुल्फ़े-सियहफ़ाम पे धर देती है
रात भारी थी सरे-शमा पे सो हो, गुज़री
क्या तबाशीर सफ़ेदी-ए-सहर देती है
नाज़ो-अन्दाज़ तो कर चुके सब मश्क़े-सितम
मुहब्बत मेरी इस्लाह देती है
देरी शरबत है किसे ज़हर भरी आंख तेरी
ऐन एहसान है मुझसे ज़हर ज़हर भी गर देती है
क्या करें हसरते-दीदार कि दम लेने की
दिल को फ़ुरक़त नहीं वह तेग़े-नज़र देती है
शमा घबरा न तपे-ग़म से कि इक दम में अभी
आए काफ़ूर सफ़ेदी ये सहर देती है
फ़ायदा दे तेरे बीमार को क्या ख़ाक दवा
अब तो अक्सीर भी दीजे तो ज़रर देती है
ग़ुंचा हंसता तेरे आगे है जो गुस्ताख़ी से
चटखना मुंह पे वहीं बाद-सहर देती है
५.
निगाह का वार था दिल पर फड़कने जान लगी
चली थी बरछी किसी पर किसी के आन लगी
किसी के दिल का सुनो हाल दिल लगाकर तुम
जो होवे दिल को तुम्हारे भी मेहरबान लगी
तू वह हलाले जबीं है की तारे बन बनकर
रहे हैं तेरी तरफ चश्म इक जहान लगी
उदारी हिर्स ने आकर जहान में सबकी ख़ाक
नहीं है किसको हवा ज़ेरे-आसमान लगी
किसी की काविशे-मिज़गां से आज सारी रात
नहीं पलक से पलक मेरी एक आन लगी
तबाह बहरे-जहां में थी अपनी कश्ती-ए-उम्र
सो टूट-फूट के बारे किनारे आन लगी |
६.
तेरे कूचे को वोह बीमारे-ग़म दारुलशफा[1] समझे
अज़ल[2] को जो तबीब [3] और मर्ग [4] को अपनी दवा समझे
सितम को हम करम समझे जफ़ा को हम वफ़ा समझे
और इस पर भी न समझे वोह तो उस बुत से ख़ुदा समझे
समझ ही में नहीं आती है कोई बात ‘ज़ौक़’ उसकी
कोई जाने तो क्या जाने,कोई समझे तो क्या समझे
७.
जान के जी में सदा जीने का ही अरमाँ रहा
दिल को भी देखा किये यह भी परेशाँ ही रहा
कब लिबासे-दुनयवी[1] में छूपते हैं रौशन-ज़मीर
ख़ानाए-फ़ानूस[2] में भी शोला उरियाँ ही रहा
आदमीयत और शै है, इल्म है कुछ और शै
कितना तोते को पढ़ाया पर वो हैवाँ ही रहा
मुद्दतों दिल और पैकाँ[3] दोनों सीने में रहे
आख़िरश[4] दिल बह गया ख़ूँ होके, पैकाँ ही रहा
दीनो-ईमाँ ढूँढ़ता है ‘ज़ौक़’ क्या इस वक़्त में
अब न कुछ दीं ही रहा बाक़ी न ईमाँ ही रहा
शब्दार्थ:
- ↑ सांसारिक आवरण
- ↑ फ़ानूस का घर
- ↑ तीर
- ↑ अंत में
८.
आज उनसे मुद्दई कुछ मुद्दआ कहने को है
यह नहीं मालूम क्या कहवेंगे क्या कहने को है
देखे आईने बहुत, बिन ख़ाक़ हैं नासाफ़ सब
हैं कहाँ अहले-सफ़ा, अहले-सफ़ा कहने को हैं
दम-बदम रूक-रुक के है मुँह से निकल पड़ती ज़बाँ
वस्फ़ उसका कह चुके फ़व्वारे या कहने को है
देख ले तू पहुँचे किस आलम से किस आलम में है
नालाहाए-दिल[1] हमारे नारसा[2] कहने को है
बेसबब सूफ़ार[3] उनके मुँह नहीं खोंलें है ‘ज़ौक़’
आये पैके-मर्ग[4] पैग़ामे-क़ज़ा कहने को है
शब्दार्थ:
- ↑ दिल का रोना
- ↑ लक्ष्य तक न पहुँचने वाले
- ↑ तीर का मुँह
- ↑ मृत्यु का दूत
९.
क्या ग़रज़ लाख ख़ुदाई में हों दौलत वाले
उनका बन्दा हूँ जो बन्दे हैं मुहब्बत वाले
गए जन्नत में अगर सोज़े महब्बत वाले
तो ये जानो रहे दोज़ख़ ही में जन्नत वाले
न सितम का कभी शिकवा न करम की ख़्वाहिश
देख तो हम भी हैं क्या सब्र-ओ-क़नाअ़त वाले
नाज़ है गुल को नज़ाक़त पै चमन में ऐ ‘ज़ौक़’
इसने देखे ही नहीं नाज़-ओ-नज़ाक़त वाले
१०.
उसे हमने बहुत ढूँढा न पाया
अगर पाया तो खोज अपना न पाया
जिस इन्साँ को सगे-दुनिया[1] न पाया
फ़रिश्ता उसका हमपाया[2] न पाया
मुक़द्दर[3] से ही गर सूदो-ज़ियाँ[4] है
तो हमने याँ न कुछ खोया न पाया
अहाते से फ़लक़[5] के हम तो कब के
निकल जाते मगर रस्ता न पाया
जहाँ देखा किसी के साथ देखा
कहीं हमने तुझे तन्हा न पाया
किया हमने सलामे- इश्क़ तुझको!
कि अपना हौसला इतना न पाया
न मारा तूने पूरा हाथ क़ातिल!
सितम में भी तुझे पूरा न पाया
लहद[6]में भी तेरे मुज़तर[7] ने आराम
ख़ुदा जाने कि पाया या न पाया
कहे क्या हाय ज़ख़्मे-दिल हमारा
ज़ेहन पाया लबे-गोया [8] न पाया
शब्दार्थ:
- ↑ सांसारिक कुत्ता,व्यसन-लिप्त
- ↑ बराबर का
- ↑ भाग्य
- ↑ लाभ-हानि
- ↑ क्षितिज
- ↑ कब्र
- ↑ प्रेम-रोगी
- ↑ वाक-शक्ति
११.
इस तपिश[1] का है मज़ा दिल ही को हासिल होता
काश, मैं इश्क़ में सर-ता-ब-क़दम[2] दिल होता
करता बीमारे-मुहब्बत का मसीहा जो इलाज
इतना दिक़[3] होता कि जीना उसे मुश्किल होता
आप आईना-ए-हस्ती[4] में है तू अपना हरीफ़[5]
वर्ना यहाँ कौन था जो तेरे मुक़ाबिल[6] होता
होती अगर उक़्दा-कुशाई न यद-अल्लाह[7] के साथ
‘ज़ौक़’ हाल क्योंकि मेरा उक़्दए-मुश्किल[8] होता
शब्दार्थ:
- ↑ जलन
- ↑ सर से लेकर पैरों तक
- ↑ कठिन
- ↑ आस्तिव-रूपी दर्पण
- ↑ शत्रु
- ↑ शत्रु जो ललकार दे
- ↑ हज़रत अली
- ↑ कठिन काम
अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जायेंगे
मर गये पर न लगा जी तो किधर जायेंगे
सामने-चश्मे-गुहरबार[1] के, कह दो, दरिया
चढ़ के अगर आये तो नज़रों से उतर जायेंगे
ख़ाली ऐ चारागरों[2] होंगे बहुत मरहमदान
पर मेरे ज़ख्म नहीं ऐसे कि भर जायेंगे
पहुँचेंगे रहगुज़र-ए-यार तलक हम क्योंकर
पहले जब तक न दो-आलम[3] से गुज़र जायेंगे
आग दोजख़ की भी हो आयेगी पानी-पानी
जब ये आसी[4] अरक़-ए-शर्म[5] से तर जायेंगे
हम नहीं वह जो करें ख़ून का दावा तुझपर
बल्कि पूछेगा ख़ुदा भी तो मुकर जायेंगे
रुख़े-रौशन से नक़ाब अपने उलट देखो तुम
मेहरो-मह[6] नज़रों से यारों के उतर जायेंगे
‘ज़ौक़’ जो मदरसे के बिगड़े हुए हैं मुल्ला
उनको मैख़ाने में ले लाओ, सँवर जायेंगे
शब्दार्थ:
- ↑ मोती के समान आँसू बहाने वाली आँखें
- ↑ चिकित्सकों
- ↑ लोक-परलोक
- ↑ पाप करने वाला
- ↑ शर्म का पसीना
- ↑ सूरज और चन्द्रमा
३.
लायी हयात[1], आये, क़ज़ा[2] ले चली, चले
अपनी ख़ुशी न आये न अपनी ख़ुशी चले
बेहतर तो है यही कि न दुनिया से दिल लगे
पर क्या करें जो काम न बे-दिल्लगी चले
कम होंगे इस बिसात[3] पे हम जैसे बद-क़िमार[4]
जो चाल हम चले सो निहायत बुरी चले
हो उम्रे-ख़िज़्र[5] भी तो भी कहेंगे ब-वक़्ते-मर्ग[6]
हम क्या रहे यहाँ अभी आये अभी चले
दुनिया ने किसका राहे-फ़ना में दिया है साथ
तुम भी चले चलो युँ ही जब तक चली चले
नाज़ाँ[7] न हो ख़िरद[8] पे जो होना है वो ही हो
दानिश[9] तेरी न कुछ मेरी दानिशवरी चले
जा कि हवा-ए-शौक़[10] में हैं इस चमन से ‘ज़ौक़’
अपनी बला से बादे-सबा[11] अब कहीं चले
शब्दार्थ:
- ↑ ज़िन्दगी
- ↑ मौत
- ↑ जुए के खेल में
- ↑ कच्चे जुआरी
- ↑ अमरता
- ↑ मृत्यु के समय
- ↑ घमंडी
- ↑ बुद्धि
- ↑ समझदार
- ↑ प्रेम की हवा
- ↑ सुबह की शीतल वायु
४.
यह अक़ामत हमें पैग़ामे-सफ़र देती है
ज़िंदगी मौत के आने की ख़बर देती है
ज़ाल दुनिया है अजब तरह की अल्लामा-ए-दहर
मर्दे-दींदार को भी दहर यह कर देती है
तैरा-बख़्ती मेरी करती है परेशां मुझको
तोमहत उस ज़ुल्फ़े-सियहफ़ाम पे धर देती है
रात भारी थी सरे-शमा पे सो हो, गुज़री
क्या तबाशीर सफ़ेदी-ए-सहर देती है
नाज़ो-अन्दाज़ तो कर चुके सब मश्क़े-सितम
मुहब्बत मेरी इस्लाह देती है
देरी शरबत है किसे ज़हर भरी आंख तेरी
ऐन एहसान है मुझसे ज़हर ज़हर भी गर देती है
क्या करें हसरते-दीदार कि दम लेने की
दिल को फ़ुरक़त नहीं वह तेग़े-नज़र देती है
शमा घबरा न तपे-ग़म से कि इक दम में अभी
आए काफ़ूर सफ़ेदी ये सहर देती है
फ़ायदा दे तेरे बीमार को क्या ख़ाक दवा
अब तो अक्सीर भी दीजे तो ज़रर देती है
ग़ुंचा हंसता तेरे आगे है जो गुस्ताख़ी से
चटखना मुंह पे वहीं बाद-सहर देती है
५.
निगाह का वार था दिल पर फड़कने जान लगी
चली थी बरछी किसी पर किसी के आन लगी
किसी के दिल का सुनो हाल दिल लगाकर तुम
जो होवे दिल को तुम्हारे भी मेहरबान लगी
तू वह हलाले जबीं है की तारे बन बनकर
रहे हैं तेरी तरफ चश्म इक जहान लगी
उदारी हिर्स ने आकर जहान में सबकी ख़ाक
नहीं है किसको हवा ज़ेरे-आसमान लगी
किसी की काविशे-मिज़गां से आज सारी रात
नहीं पलक से पलक मेरी एक आन लगी
तबाह बहरे-जहां में थी अपनी कश्ती-ए-उम्र
सो टूट-फूट के बारे किनारे आन लगी |
६.
तेरे कूचे को वोह बीमारे-ग़म दारुलशफा[1] समझे
अज़ल[2] को जो तबीब [3] और मर्ग [4] को अपनी दवा समझे
सितम को हम करम समझे जफ़ा को हम वफ़ा समझे
और इस पर भी न समझे वोह तो उस बुत से ख़ुदा समझे
समझ ही में नहीं आती है कोई बात ‘ज़ौक़’ उसकी
कोई जाने तो क्या जाने,कोई समझे तो क्या समझे
७.
जान के जी में सदा जीने का ही अरमाँ रहा
दिल को भी देखा किये यह भी परेशाँ ही रहा
कब लिबासे-दुनयवी[1] में छूपते हैं रौशन-ज़मीर
ख़ानाए-फ़ानूस[2] में भी शोला उरियाँ ही रहा
आदमीयत और शै है, इल्म है कुछ और शै
कितना तोते को पढ़ाया पर वो हैवाँ ही रहा
मुद्दतों दिल और पैकाँ[3] दोनों सीने में रहे
आख़िरश[4] दिल बह गया ख़ूँ होके, पैकाँ ही रहा
दीनो-ईमाँ ढूँढ़ता है ‘ज़ौक़’ क्या इस वक़्त में
अब न कुछ दीं ही रहा बाक़ी न ईमाँ ही रहा
शब्दार्थ:
- ↑ सांसारिक आवरण
- ↑ फ़ानूस का घर
- ↑ तीर
- ↑ अंत में
८.
आज उनसे मुद्दई कुछ मुद्दआ कहने को है
यह नहीं मालूम क्या कहवेंगे क्या कहने को है
देखे आईने बहुत, बिन ख़ाक़ हैं नासाफ़ सब
हैं कहाँ अहले-सफ़ा, अहले-सफ़ा कहने को हैं
दम-बदम रूक-रुक के है मुँह से निकल पड़ती ज़बाँ
वस्फ़ उसका कह चुके फ़व्वारे या कहने को है
देख ले तू पहुँचे किस आलम से किस आलम में है
नालाहाए-दिल[1] हमारे नारसा[2] कहने को है
बेसबब सूफ़ार[3] उनके मुँह नहीं खोंलें है ‘ज़ौक़’
आये पैके-मर्ग[4] पैग़ामे-क़ज़ा कहने को है
शब्दार्थ:
- ↑ दिल का रोना
- ↑ लक्ष्य तक न पहुँचने वाले
- ↑ तीर का मुँह
- ↑ मृत्यु का दूत
९.
क्या ग़रज़ लाख ख़ुदाई में हों दौलत वाले
उनका बन्दा हूँ जो बन्दे हैं मुहब्बत वाले
गए जन्नत में अगर सोज़े महब्बत वाले
तो ये जानो रहे दोज़ख़ ही में जन्नत वाले
न सितम का कभी शिकवा न करम की ख़्वाहिश
देख तो हम भी हैं क्या सब्र-ओ-क़नाअ़त वाले
नाज़ है गुल को नज़ाक़त पै चमन में ऐ ‘ज़ौक़’
इसने देखे ही नहीं नाज़-ओ-नज़ाक़त वाले
१०.
उसे हमने बहुत ढूँढा न पाया
अगर पाया तो खोज अपना न पाया
जिस इन्साँ को सगे-दुनिया[1] न पाया
फ़रिश्ता उसका हमपाया[2] न पाया
मुक़द्दर[3] से ही गर सूदो-ज़ियाँ[4] है
तो हमने याँ न कुछ खोया न पाया
अहाते से फ़लक़[5] के हम तो कब के
निकल जाते मगर रस्ता न पाया
जहाँ देखा किसी के साथ देखा
कहीं हमने तुझे तन्हा न पाया
किया हमने सलामे- इश्क़ तुझको!
कि अपना हौसला इतना न पाया
न मारा तूने पूरा हाथ क़ातिल!
सितम में भी तुझे पूरा न पाया
लहद[6]में भी तेरे मुज़तर[7] ने आराम
ख़ुदा जाने कि पाया या न पाया
कहे क्या हाय ज़ख़्मे-दिल हमारा
ज़ेहन पाया लबे-गोया [8] न पाया
शब्दार्थ:
- ↑ सांसारिक कुत्ता,व्यसन-लिप्त
- ↑ बराबर का
- ↑ भाग्य
- ↑ लाभ-हानि
- ↑ क्षितिज
- ↑ कब्र
- ↑ प्रेम-रोगी
- ↑ वाक-शक्ति
११.
इस तपिश[1] का है मज़ा दिल ही को हासिल होता
काश, मैं इश्क़ में सर-ता-ब-क़दम[2] दिल होता
करता बीमारे-मुहब्बत का मसीहा जो इलाज
इतना दिक़[3] होता कि जीना उसे मुश्किल होता
आप आईना-ए-हस्ती[4] में है तू अपना हरीफ़[5]
वर्ना यहाँ कौन था जो तेरे मुक़ाबिल[6] होता
होती अगर उक़्दा-कुशाई न यद-अल्लाह[7] के साथ
‘ज़ौक़’ हाल क्योंकि मेरा उक़्दए-मुश्किल[8] होता
शब्दार्थ:
- ↑ जलन
- ↑ सर से लेकर पैरों तक
- ↑ कठिन
- ↑ आस्तिव-रूपी दर्पण
- ↑ शत्रु
- ↑ शत्रु जो ललकार दे
- ↑ हज़रत अली
- ↑ कठिन काम
लायी हयात[1], आये, क़ज़ा[2] ले चली, चले
अपनी ख़ुशी न आये न अपनी ख़ुशी चले
बेहतर तो है यही कि न दुनिया से दिल लगे
पर क्या करें जो काम न बे-दिल्लगी चले
कम होंगे इस बिसात[3] पे हम जैसे बद-क़िमार[4]
जो चाल हम चले सो निहायत बुरी चले
हो उम्रे-ख़िज़्र[5] भी तो भी कहेंगे ब-वक़्ते-मर्ग[6]
हम क्या रहे यहाँ अभी आये अभी चले
दुनिया ने किसका राहे-फ़ना में दिया है साथ
तुम भी चले चलो युँ ही जब तक चली चले
नाज़ाँ[7] न हो ख़िरद[8] पे जो होना है वो ही हो
दानिश[9] तेरी न कुछ मेरी दानिशवरी चले
जा कि हवा-ए-शौक़[10] में हैं इस चमन से ‘ज़ौक़’
अपनी बला से बादे-सबा[11] अब कहीं चले
शब्दार्थ:
- ↑ ज़िन्दगी
- ↑ मौत
- ↑ जुए के खेल में
- ↑ कच्चे जुआरी
- ↑ अमरता
- ↑ मृत्यु के समय
- ↑ घमंडी
- ↑ बुद्धि
- ↑ समझदार
- ↑ प्रेम की हवा
- ↑ सुबह की शीतल वायु
४.
यह अक़ामत हमें पैग़ामे-सफ़र देती है
ज़िंदगी मौत के आने की ख़बर देती है
ज़ाल दुनिया है अजब तरह की अल्लामा-ए-दहर
मर्दे-दींदार को भी दहर यह कर देती है
तैरा-बख़्ती मेरी करती है परेशां मुझको
तोमहत उस ज़ुल्फ़े-सियहफ़ाम पे धर देती है
रात भारी थी सरे-शमा पे सो हो, गुज़री
क्या तबाशीर सफ़ेदी-ए-सहर देती है
नाज़ो-अन्दाज़ तो कर चुके सब मश्क़े-सितम
मुहब्बत मेरी इस्लाह देती है
देरी शरबत है किसे ज़हर भरी आंख तेरी
ऐन एहसान है मुझसे ज़हर ज़हर भी गर देती है
क्या करें हसरते-दीदार कि दम लेने की
दिल को फ़ुरक़त नहीं वह तेग़े-नज़र देती है
शमा घबरा न तपे-ग़म से कि इक दम में अभी
आए काफ़ूर सफ़ेदी ये सहर देती है
फ़ायदा दे तेरे बीमार को क्या ख़ाक दवा
अब तो अक्सीर भी दीजे तो ज़रर देती है
ग़ुंचा हंसता तेरे आगे है जो गुस्ताख़ी से
चटखना मुंह पे वहीं बाद-सहर देती है
५.
निगाह का वार था दिल पर फड़कने जान लगी
चली थी बरछी किसी पर किसी के आन लगी
किसी के दिल का सुनो हाल दिल लगाकर तुम
जो होवे दिल को तुम्हारे भी मेहरबान लगी
तू वह हलाले जबीं है की तारे बन बनकर
रहे हैं तेरी तरफ चश्म इक जहान लगी
उदारी हिर्स ने आकर जहान में सबकी ख़ाक
नहीं है किसको हवा ज़ेरे-आसमान लगी
किसी की काविशे-मिज़गां से आज सारी रात
नहीं पलक से पलक मेरी एक आन लगी
तबाह बहरे-जहां में थी अपनी कश्ती-ए-उम्र
सो टूट-फूट के बारे किनारे आन लगी |
६.
तेरे कूचे को वोह बीमारे-ग़म दारुलशफा[1] समझे
अज़ल[2] को जो तबीब [3] और मर्ग [4] को अपनी दवा समझे
सितम को हम करम समझे जफ़ा को हम वफ़ा समझे
और इस पर भी न समझे वोह तो उस बुत से ख़ुदा समझे
समझ ही में नहीं आती है कोई बात ‘ज़ौक़’ उसकी
कोई जाने तो क्या जाने,कोई समझे तो क्या समझे
७.
जान के जी में सदा जीने का ही अरमाँ रहा
दिल को भी देखा किये यह भी परेशाँ ही रहा
कब लिबासे-दुनयवी[1] में छूपते हैं रौशन-ज़मीर
ख़ानाए-फ़ानूस[2] में भी शोला उरियाँ ही रहा
आदमीयत और शै है, इल्म है कुछ और शै
कितना तोते को पढ़ाया पर वो हैवाँ ही रहा
मुद्दतों दिल और पैकाँ[3] दोनों सीने में रहे
आख़िरश[4] दिल बह गया ख़ूँ होके, पैकाँ ही रहा
दीनो-ईमाँ ढूँढ़ता है ‘ज़ौक़’ क्या इस वक़्त में
अब न कुछ दीं ही रहा बाक़ी न ईमाँ ही रहा
शब्दार्थ:
- ↑ सांसारिक आवरण
- ↑ फ़ानूस का घर
- ↑ तीर
- ↑ अंत में
८.
आज उनसे मुद्दई कुछ मुद्दआ कहने को है
यह नहीं मालूम क्या कहवेंगे क्या कहने को है
देखे आईने बहुत, बिन ख़ाक़ हैं नासाफ़ सब
हैं कहाँ अहले-सफ़ा, अहले-सफ़ा कहने को हैं
दम-बदम रूक-रुक के है मुँह से निकल पड़ती ज़बाँ
वस्फ़ उसका कह चुके फ़व्वारे या कहने को है
देख ले तू पहुँचे किस आलम से किस आलम में है
नालाहाए-दिल[1] हमारे नारसा[2] कहने को है
बेसबब सूफ़ार[3] उनके मुँह नहीं खोंलें है ‘ज़ौक़’
आये पैके-मर्ग[4] पैग़ामे-क़ज़ा कहने को है
शब्दार्थ:
- ↑ दिल का रोना
- ↑ लक्ष्य तक न पहुँचने वाले
- ↑ तीर का मुँह
- ↑ मृत्यु का दूत
९.
क्या ग़रज़ लाख ख़ुदाई में हों दौलत वाले
उनका बन्दा हूँ जो बन्दे हैं मुहब्बत वाले
गए जन्नत में अगर सोज़े महब्बत वाले
तो ये जानो रहे दोज़ख़ ही में जन्नत वाले
न सितम का कभी शिकवा न करम की ख़्वाहिश
देख तो हम भी हैं क्या सब्र-ओ-क़नाअ़त वाले
नाज़ है गुल को नज़ाक़त पै चमन में ऐ ‘ज़ौक़’
इसने देखे ही नहीं नाज़-ओ-नज़ाक़त वाले
१०.
उसे हमने बहुत ढूँढा न पाया
अगर पाया तो खोज अपना न पाया
जिस इन्साँ को सगे-दुनिया[1] न पाया
फ़रिश्ता उसका हमपाया[2] न पाया
मुक़द्दर[3] से ही गर सूदो-ज़ियाँ[4] है
तो हमने याँ न कुछ खोया न पाया
अहाते से फ़लक़[5] के हम तो कब के
निकल जाते मगर रस्ता न पाया
जहाँ देखा किसी के साथ देखा
कहीं हमने तुझे तन्हा न पाया
किया हमने सलामे- इश्क़ तुझको!
कि अपना हौसला इतना न पाया
न मारा तूने पूरा हाथ क़ातिल!
सितम में भी तुझे पूरा न पाया
लहद[6]में भी तेरे मुज़तर[7] ने आराम
ख़ुदा जाने कि पाया या न पाया
कहे क्या हाय ज़ख़्मे-दिल हमारा
ज़ेहन पाया लबे-गोया [8] न पाया
शब्दार्थ:
- ↑ सांसारिक कुत्ता,व्यसन-लिप्त
- ↑ बराबर का
- ↑ भाग्य
- ↑ लाभ-हानि
- ↑ क्षितिज
- ↑ कब्र
- ↑ प्रेम-रोगी
- ↑ वाक-शक्ति
११.
इस तपिश[1] का है मज़ा दिल ही को हासिल होता
काश, मैं इश्क़ में सर-ता-ब-क़दम[2] दिल होता
करता बीमारे-मुहब्बत का मसीहा जो इलाज
इतना दिक़[3] होता कि जीना उसे मुश्किल होता
आप आईना-ए-हस्ती[4] में है तू अपना हरीफ़[5]
वर्ना यहाँ कौन था जो तेरे मुक़ाबिल[6] होता
होती अगर उक़्दा-कुशाई न यद-अल्लाह[7] के साथ
‘ज़ौक़’ हाल क्योंकि मेरा उक़्दए-मुश्किल[8] होता
शब्दार्थ:
- ↑ जलन
- ↑ सर से लेकर पैरों तक
- ↑ कठिन
- ↑ आस्तिव-रूपी दर्पण
- ↑ शत्रु
- ↑ शत्रु जो ललकार दे
- ↑ हज़रत अली
- ↑ कठिन काम
यह अक़ामत हमें पैग़ामे-सफ़र देती है
ज़िंदगी मौत के आने की ख़बर देती है
ज़ाल दुनिया है अजब तरह की अल्लामा-ए-दहर
मर्दे-दींदार को भी दहर यह कर देती है
तैरा-बख़्ती मेरी करती है परेशां मुझको
तोमहत उस ज़ुल्फ़े-सियहफ़ाम पे धर देती है
रात भारी थी सरे-शमा पे सो हो, गुज़री
क्या तबाशीर सफ़ेदी-ए-सहर देती है
नाज़ो-अन्दाज़ तो कर चुके सब मश्क़े-सितम
मुहब्बत मेरी इस्लाह देती है
देरी शरबत है किसे ज़हर भरी आंख तेरी
ऐन एहसान है मुझसे ज़हर ज़हर भी गर देती है
क्या करें हसरते-दीदार कि दम लेने की
दिल को फ़ुरक़त नहीं वह तेग़े-नज़र देती है
शमा घबरा न तपे-ग़म से कि इक दम में अभी
आए काफ़ूर सफ़ेदी ये सहर देती है
फ़ायदा दे तेरे बीमार को क्या ख़ाक दवा
अब तो अक्सीर भी दीजे तो ज़रर देती है
ग़ुंचा हंसता तेरे आगे है जो गुस्ताख़ी से
चटखना मुंह पे वहीं बाद-सहर देती है
५.
निगाह का वार था दिल पर फड़कने जान लगी
चली थी बरछी किसी पर किसी के आन लगी
किसी के दिल का सुनो हाल दिल लगाकर तुम
जो होवे दिल को तुम्हारे भी मेहरबान लगी
तू वह हलाले जबीं है की तारे बन बनकर
रहे हैं तेरी तरफ चश्म इक जहान लगी
उदारी हिर्स ने आकर जहान में सबकी ख़ाक
नहीं है किसको हवा ज़ेरे-आसमान लगी
किसी की काविशे-मिज़गां से आज सारी रात
नहीं पलक से पलक मेरी एक आन लगी
तबाह बहरे-जहां में थी अपनी कश्ती-ए-उम्र
सो टूट-फूट के बारे किनारे आन लगी |
६.
तेरे कूचे को वोह बीमारे-ग़म दारुलशफा[1] समझे
अज़ल[2] को जो तबीब [3] और मर्ग [4] को अपनी दवा समझे
सितम को हम करम समझे जफ़ा को हम वफ़ा समझे
और इस पर भी न समझे वोह तो उस बुत से ख़ुदा समझे
समझ ही में नहीं आती है कोई बात ‘ज़ौक़’ उसकी
कोई जाने तो क्या जाने,कोई समझे तो क्या समझे
७.
जान के जी में सदा जीने का ही अरमाँ रहा
दिल को भी देखा किये यह भी परेशाँ ही रहा
कब लिबासे-दुनयवी[1] में छूपते हैं रौशन-ज़मीर
ख़ानाए-फ़ानूस[2] में भी शोला उरियाँ ही रहा
आदमीयत और शै है, इल्म है कुछ और शै
कितना तोते को पढ़ाया पर वो हैवाँ ही रहा
मुद्दतों दिल और पैकाँ[3] दोनों सीने में रहे
आख़िरश[4] दिल बह गया ख़ूँ होके, पैकाँ ही रहा
दीनो-ईमाँ ढूँढ़ता है ‘ज़ौक़’ क्या इस वक़्त में
अब न कुछ दीं ही रहा बाक़ी न ईमाँ ही रहा
शब्दार्थ:
- ↑ सांसारिक आवरण
- ↑ फ़ानूस का घर
- ↑ तीर
- ↑ अंत में
८.
आज उनसे मुद्दई कुछ मुद्दआ कहने को है
यह नहीं मालूम क्या कहवेंगे क्या कहने को है
देखे आईने बहुत, बिन ख़ाक़ हैं नासाफ़ सब
हैं कहाँ अहले-सफ़ा, अहले-सफ़ा कहने को हैं
दम-बदम रूक-रुक के है मुँह से निकल पड़ती ज़बाँ
वस्फ़ उसका कह चुके फ़व्वारे या कहने को है
देख ले तू पहुँचे किस आलम से किस आलम में है
नालाहाए-दिल[1] हमारे नारसा[2] कहने को है
बेसबब सूफ़ार[3] उनके मुँह नहीं खोंलें है ‘ज़ौक़’
आये पैके-मर्ग[4] पैग़ामे-क़ज़ा कहने को है
शब्दार्थ:
- ↑ दिल का रोना
- ↑ लक्ष्य तक न पहुँचने वाले
- ↑ तीर का मुँह
- ↑ मृत्यु का दूत
९.
क्या ग़रज़ लाख ख़ुदाई में हों दौलत वाले
उनका बन्दा हूँ जो बन्दे हैं मुहब्बत वाले
गए जन्नत में अगर सोज़े महब्बत वाले
तो ये जानो रहे दोज़ख़ ही में जन्नत वाले
न सितम का कभी शिकवा न करम की ख़्वाहिश
देख तो हम भी हैं क्या सब्र-ओ-क़नाअ़त वाले
नाज़ है गुल को नज़ाक़त पै चमन में ऐ ‘ज़ौक़’
इसने देखे ही नहीं नाज़-ओ-नज़ाक़त वाले
१०.
उसे हमने बहुत ढूँढा न पाया
अगर पाया तो खोज अपना न पाया
जिस इन्साँ को सगे-दुनिया[1] न पाया
फ़रिश्ता उसका हमपाया[2] न पाया
मुक़द्दर[3] से ही गर सूदो-ज़ियाँ[4] है
तो हमने याँ न कुछ खोया न पाया
अहाते से फ़लक़[5] के हम तो कब के
निकल जाते मगर रस्ता न पाया
जहाँ देखा किसी के साथ देखा
कहीं हमने तुझे तन्हा न पाया
किया हमने सलामे- इश्क़ तुझको!
कि अपना हौसला इतना न पाया
न मारा तूने पूरा हाथ क़ातिल!
सितम में भी तुझे पूरा न पाया
लहद[6]में भी तेरे मुज़तर[7] ने आराम
ख़ुदा जाने कि पाया या न पाया
कहे क्या हाय ज़ख़्मे-दिल हमारा
ज़ेहन पाया लबे-गोया [8] न पाया
शब्दार्थ:
- ↑ सांसारिक कुत्ता,व्यसन-लिप्त
- ↑ बराबर का
- ↑ भाग्य
- ↑ लाभ-हानि
- ↑ क्षितिज
- ↑ कब्र
- ↑ प्रेम-रोगी
- ↑ वाक-शक्ति
११.
इस तपिश[1] का है मज़ा दिल ही को हासिल होता
काश, मैं इश्क़ में सर-ता-ब-क़दम[2] दिल होता
करता बीमारे-मुहब्बत का मसीहा जो इलाज
इतना दिक़[3] होता कि जीना उसे मुश्किल होता
आप आईना-ए-हस्ती[4] में है तू अपना हरीफ़[5]
वर्ना यहाँ कौन था जो तेरे मुक़ाबिल[6] होता
होती अगर उक़्दा-कुशाई न यद-अल्लाह[7] के साथ
‘ज़ौक़’ हाल क्योंकि मेरा उक़्दए-मुश्किल[8] होता
शब्दार्थ:
- ↑ जलन
- ↑ सर से लेकर पैरों तक
- ↑ कठिन
- ↑ आस्तिव-रूपी दर्पण
- ↑ शत्रु
- ↑ शत्रु जो ललकार दे
- ↑ हज़रत अली
- ↑ कठिन काम
आज उनसे मुद्दई कुछ मुद्दआ कहने को है
यह नहीं मालूम क्या कहवेंगे क्या कहने को है
देखे आईने बहुत, बिन ख़ाक़ हैं नासाफ़ सब
हैं कहाँ अहले-सफ़ा, अहले-सफ़ा कहने को हैं
दम-बदम रूक-रुक के है मुँह से निकल पड़ती ज़बाँ
वस्फ़ उसका कह चुके फ़व्वारे या कहने को है
देख ले तू पहुँचे किस आलम से किस आलम में है
नालाहाए-दिल[1] हमारे नारसा[2] कहने को है
बेसबब सूफ़ार[3] उनके मुँह नहीं खोंलें है ‘ज़ौक़’
आये पैके-मर्ग[4] पैग़ामे-क़ज़ा कहने को है
शब्दार्थ:
- ↑ दिल का रोना
- ↑ लक्ष्य तक न पहुँचने वाले
- ↑ तीर का मुँह
- ↑ मृत्यु का दूत
९.
क्या ग़रज़ लाख ख़ुदाई में हों दौलत वाले
उनका बन्दा हूँ जो बन्दे हैं मुहब्बत वाले
गए जन्नत में अगर सोज़े महब्बत वाले
तो ये जानो रहे दोज़ख़ ही में जन्नत वाले
न सितम का कभी शिकवा न करम की ख़्वाहिश
देख तो हम भी हैं क्या सब्र-ओ-क़नाअ़त वाले
नाज़ है गुल को नज़ाक़त पै चमन में ऐ ‘ज़ौक़’
इसने देखे ही नहीं नाज़-ओ-नज़ाक़त वाले
१०.
उसे हमने बहुत ढूँढा न पाया
अगर पाया तो खोज अपना न पाया
जिस इन्साँ को सगे-दुनिया[1] न पाया
फ़रिश्ता उसका हमपाया[2] न पाया
मुक़द्दर[3] से ही गर सूदो-ज़ियाँ[4] है
तो हमने याँ न कुछ खोया न पाया
अहाते से फ़लक़[5] के हम तो कब के
निकल जाते मगर रस्ता न पाया
जहाँ देखा किसी के साथ देखा
कहीं हमने तुझे तन्हा न पाया
किया हमने सलामे- इश्क़ तुझको!
कि अपना हौसला इतना न पाया
न मारा तूने पूरा हाथ क़ातिल!
सितम में भी तुझे पूरा न पाया
लहद[6]में भी तेरे मुज़तर[7] ने आराम
ख़ुदा जाने कि पाया या न पाया
कहे क्या हाय ज़ख़्मे-दिल हमारा
ज़ेहन पाया लबे-गोया [8] न पाया
शब्दार्थ:
- ↑ सांसारिक कुत्ता,व्यसन-लिप्त
- ↑ बराबर का
- ↑ भाग्य
- ↑ लाभ-हानि
- ↑ क्षितिज
- ↑ कब्र
- ↑ प्रेम-रोगी
- ↑ वाक-शक्ति
११.
इस तपिश[1] का है मज़ा दिल ही को हासिल होता
काश, मैं इश्क़ में सर-ता-ब-क़दम[2] दिल होता
करता बीमारे-मुहब्बत का मसीहा जो इलाज
इतना दिक़[3] होता कि जीना उसे मुश्किल होता
आप आईना-ए-हस्ती[4] में है तू अपना हरीफ़[5]
वर्ना यहाँ कौन था जो तेरे मुक़ाबिल[6] होता
होती अगर उक़्दा-कुशाई न यद-अल्लाह[7] के साथ
‘ज़ौक़’ हाल क्योंकि मेरा उक़्दए-मुश्किल[8] होता
शब्दार्थ:
- ↑ जलन
- ↑ सर से लेकर पैरों तक
- ↑ कठिन
- ↑ आस्तिव-रूपी दर्पण
- ↑ शत्रु
- ↑ शत्रु जो ललकार दे
- ↑ हज़रत अली
- ↑ कठिन काम
क्या ग़रज़ लाख ख़ुदाई में हों दौलत वाले
उनका बन्दा हूँ जो बन्दे हैं मुहब्बत वाले
गए जन्नत में अगर सोज़े महब्बत वाले
तो ये जानो रहे दोज़ख़ ही में जन्नत वाले
न सितम का कभी शिकवा न करम की ख़्वाहिश
देख तो हम भी हैं क्या सब्र-ओ-क़नाअ़त वाले
नाज़ है गुल को नज़ाक़त पै चमन में ऐ ‘ज़ौक़’
इसने देखे ही नहीं नाज़-ओ-नज़ाक़त वाले
१०.
उसे हमने बहुत ढूँढा न पाया
अगर पाया तो खोज अपना न पाया
जिस इन्साँ को सगे-दुनिया[1] न पाया
फ़रिश्ता उसका हमपाया[2] न पाया
मुक़द्दर[3] से ही गर सूदो-ज़ियाँ[4] है
तो हमने याँ न कुछ खोया न पाया
अहाते से फ़लक़[5] के हम तो कब के
निकल जाते मगर रस्ता न पाया
जहाँ देखा किसी के साथ देखा
कहीं हमने तुझे तन्हा न पाया
किया हमने सलामे- इश्क़ तुझको!
कि अपना हौसला इतना न पाया
न मारा तूने पूरा हाथ क़ातिल!
सितम में भी तुझे पूरा न पाया
लहद[6]में भी तेरे मुज़तर[7] ने आराम
ख़ुदा जाने कि पाया या न पाया
कहे क्या हाय ज़ख़्मे-दिल हमारा
ज़ेहन पाया लबे-गोया [8] न पाया
शब्दार्थ:
- ↑ सांसारिक कुत्ता,व्यसन-लिप्त
- ↑ बराबर का
- ↑ भाग्य
- ↑ लाभ-हानि
- ↑ क्षितिज
- ↑ कब्र
- ↑ प्रेम-रोगी
- ↑ वाक-शक्ति
११.
इस तपिश[1] का है मज़ा दिल ही को हासिल होता
काश, मैं इश्क़ में सर-ता-ब-क़दम[2] दिल होता
करता बीमारे-मुहब्बत का मसीहा जो इलाज
इतना दिक़[3] होता कि जीना उसे मुश्किल होता
आप आईना-ए-हस्ती[4] में है तू अपना हरीफ़[5]
वर्ना यहाँ कौन था जो तेरे मुक़ाबिल[6] होता
होती अगर उक़्दा-कुशाई न यद-अल्लाह[7] के साथ
‘ज़ौक़’ हाल क्योंकि मेरा उक़्दए-मुश्किल[8] होता
शब्दार्थ:
- ↑ जलन
- ↑ सर से लेकर पैरों तक
- ↑ कठिन
- ↑ आस्तिव-रूपी दर्पण
- ↑ शत्रु
- ↑ शत्रु जो ललकार दे
- ↑ हज़रत अली
- ↑ कठिन काम
अगर पाया तो खोज अपना न पाया
जिस इन्साँ को सगे-दुनिया[1] न पाया
फ़रिश्ता उसका हमपाया[2] न पाया
मुक़द्दर[3] से ही गर सूदो-ज़ियाँ[4] है
तो हमने याँ न कुछ खोया न पाया
अहाते से फ़लक़[5] के हम तो कब के
निकल जाते मगर रस्ता न पाया
जहाँ देखा किसी के साथ देखा
कहीं हमने तुझे तन्हा न पाया
किया हमने सलामे- इश्क़ तुझको!
कि अपना हौसला इतना न पाया
न मारा तूने पूरा हाथ क़ातिल!
सितम में भी तुझे पूरा न पाया
लहद[6]में भी तेरे मुज़तर[7] ने आराम
ख़ुदा जाने कि पाया या न पाया
कहे क्या हाय ज़ख़्मे-दिल हमारा
ज़ेहन पाया लबे-गोया [8] न पाया