डॉ. सत्यवान वर्मा सौरभ ,३३३, कविता निकेतन , बडवा,( भिवानी) हरियाणा - 127045,ब्लॉग:http://kavitasaurabh.blogspot.ae/
१.
हिन्दी माँ का रूप है, समता की पहचान।
हिन्दी ने पैदा किए, तुलसी औ’ रसखान।।
हिन्दी हो हर बोल में, हिन्दी पे हो नाज़।
हिन्दी में होने लगे, शासन के सब काज।।
दिल से चाहो तुम अगर, भारत का उत्थान।
परभाषा को त्याग के, बाँटो हिन्दी ज्ञान।।
हिन्दी भाषा है रही, जन-जन की आवाज़।
फिर क्यों आँसू रो रही, राष्ट्रभाषा आज।।
हिन्दी जैसी है नहीं, भाषा रे आसान।
पराभाषा से चिपकता, फिर क्यूं रे नादान।।
बिन भाषा के देश का, होय नहीं उत्थान।
बात पते की ये रही, समझो तनिक सुजान।।
मिलके सारे आज सभी, मन से लो ये ठान।
हिन्दी भाषा का कभी, घट ना पाए मान।।
जिनकी भाषा है नहीं, उनका रूके विकास।
पराभाषा से होत है, यथाशीघ्र विनाश ।।
मन रहता व्याकुल सदा, पाने माँ का प्यार।
लिखी मात की पातियां, बांचू बार हज़ार।।
अंतर्मन गोकुल हुआ, जाना जिसने प्यार।
मोहन हृदय में बसे, रहते नहीं विकार।।
2.
बना दिखावा प्यार अब, लेती हवस उफान।
राधा के तन पे लगा, है मोहन का ध्यान।।
बस पैसों के दोस्त है, बस पैसों से प्यार।
बैठ सुदामा सोचता, मिले कहाँ अब यार।।
दुखी-ग़रीबों पे सदा, जो बांटे हैं प्यार।
सपने उसके सब सदा, होते हैं साकार।।
आपस में जब प्यार हो, फले खूब व्यवहार।
रिश्तों की दीवार में, पड़ती नहीं दरार।।
नवभोर में फले-फूले, मन में निश्छल प्यार।
आँगन आँगन फूल हो, महके बसंत बहार।।
रो हृदय में प्यार जो, बांटे हरदम प्यार।
उसके घर आंगन सदा, आए दिन त्यौहार।।
जहाँ महकता प्यार हो, धन न बने दीवार।
वहा कभी होती नहीं, आपस में तकरार।।
प्रेम वासनामय हुआ, टूट गए अनुबंध।
बिारे-बिखरे से लगे, अब मीरा के छंद।।
राखी प्रतीक प्रेम की, राखी है विश्वास।
जीवनभर है महकती, बनके फूल सुवास।।
राखी के धागे बसी, मीठी-मीठी प्रीत।
दुलार प्यारी बहन का, जैसे महका गीत।।
3.
आज़ादी के बाद भी, देश रहा कंगाल !
जेबें अपनी भर गए, नेता और दलाल !!
क़र्ज़ गरीबों का घटा, कहे भला सरकार!
विधना के खाते रही, बाकी वही उधार!!
हर क्षेत्र में हम बढे, साधन है भरपूर !
फिर क्यों फंदे झूलते, बेचारे मजदूर !!
लोकतंत्र अब रो रहा, देख बुरे हालात !
संसद में चलने लगे, थप्पड़-घूंसे लात !!
देश बाँटने में लगी, नेताओं की फौज !
खाकर पैसा देश का, करते सारे मौज !!
फूंकेगी क्या-क्या भला, ये आतंकी आग !
लाखों बेघर हो गए, लाखों मिटे सुहाग !!
जेबें अपनी भर गए, नेता और दलाल !!
क़र्ज़ गरीबों का घटा, कहे भला सरकार!
विधना के खाते रही, बाकी वही उधार!!
हर क्षेत्र में हम बढे, साधन है भरपूर !
फिर क्यों फंदे झूलते, बेचारे मजदूर !!
लोकतंत्र अब रो रहा, देख बुरे हालात !
संसद में चलने लगे, थप्पड़-घूंसे लात !!
देश बाँटने में लगी, नेताओं की फौज !
खाकर पैसा देश का, करते सारे मौज !!
फूंकेगी क्या-क्या भला, ये आतंकी आग !
लाखों बेघर हो गए, लाखों मिटे सुहाग !!